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हवा [कहानी]- नीतू सिंह ‘रेणुका’

रचनाकार परिचय:-


नाम: नीतू सिंह ‘रेणुका’
जन्मतिथि: 30 जून 1984
प्रकाशित रचनाएं: ‘मेरा गगन’ नामक काव्य संग्रह (प्रकाशन वर्ष -2013), ‘समुद्र की रेत’ कथा संग्रह (प्रकाशन वर्ष -2016)
ई-मेल: n30061984@gmail.com

इस पहाड़ी इलाके में दूर-दूर तक हवा सनसनाती हुई गुज़र रही थी। कहीं-कहीं एक-आध मकान उसकी दौड़ के बीच आ जाते थे जिनके बरामदों, छतों या आंगनों में गोलचक्कर लगाकर हवा फिर अपनी दौड़ में व्यस्त हो जाती थी। उसका उन्माद में यों बावली होकर ख़ाली हाथ यहाँ से वहाँ दौड़ना केवल चाँद देख रहा था क्योंकि सारे पहाड़ीलोग अपने-अपने घर में साँझ को ही दुबक जाया करते हैं। दिन का इतनी जल्दी ढलना उनकी रातों को लम्बा कर रहा था और चांद उनको देखकर पागलों की तरह हंस रहा था जैसे कभी लू के समय सबको दुबका हुआ देखकर सूरज हंसता था।

शशांक ने अभी घर में क़दम रखा ही था कि इंतज़ार में बेचैन माँ ने दरवाज़े पर ही रोक लिया। माँ का चेहरा देखकर ही शंशाक के कान रोज़ की घिसी-पिटी बातें सुनने के लिए अदब से खड़े हो गए।

रटे-रटाए विद्यार्थी कि तरह कान ने पहले ही सुन लिया कि – “कहाँ था अब तक? तुझे पता है न कि इस इलाक़े में बहुत सावधानी से चलना पड़ता है। कब, क्या हो जाए, कोई नहीं जानता। इन पहाड़ों में मौत साया बनके पीछे-पीछे चलती है और रात के अंधेरों में दबोच लेती है। इसलिए रोशनी रहने तक घर लौट आने में ही भलाई है।”

शशांक जानता है सबकुछ, मगर क्या करे? यहाँ सारे घर इतनी दूर-दूर हैं कि आने-जाने में ही घंटा भर लग जाता है| फिर दोस्त के साथ थोड़ा समय भी नहीं बिताएगा तो उसके घर जाकर भी क्या करेगा? ऐसे में देरी होना तो स्वाभाविक है और उतना ही स्वाभाविक है माँ से यह सब सुनना।

मगर शशांक को यहाँ होने वाली अप्रत्याशित घटनाओं का उतना भान नहीं है जितना माँ को है। इसीलिए वह यह नहीं जान पाया कि आज का दिन ही या यों कहें कि रात ही कुछ अलग है और कुछ भी प्रत्याशित घटने वाला नहीं है। यहाँ तक कि माँ के बोले बोल भी आज प्रत्याशित नहीं हैं।

“तुझे पता है तेरे पीछे कितनी बड़ी घटना हो गई है?”

शशांक के कान इस बार अदब से ज़्यादा चौंक के खड़े हो गए। “क्या हो गया माँ?”

“टून्नु चचा हैं न तेरे।”

“हूँ, क्या हुआ उनको।”

“उनको नहीं रे, उनकी अम्मा गुज़र गईं। तेरे चचा, बाबा और भैया, सब उनकी लाश तराई में बहाने गए हैं। क्रिया-करम करके लौटेंगे।”

“वो तो थीं भी आधी कब्र में। अच्छा है रोज़-रोज़ की ईमारी-बीमारी से छूटीं।”

“चुपकर नालायक। अच्छी-ख़ासी तो थीं। हुआ तो कुछ नहीं था उन्हें। कहीं किसी चुड़ैल-वुड़ैल का साया तो नहीं था।”

“चुप करो माँ। चुड़ैल-वुड़ैल कुछ नहीं होती। होती तो मुझे न मिलती। इस इलाके में जाने कब से सुन-देख रहा हूँ। कोई हाथ नहीं आई।”

“हाँ-हाँ ज़्यादा शेर मत बन। तूने देखा ही कहाँ है कुछ।”

“अच्छा! चल अम्मा। खाना दे-दे या बातों से ही मेरा पेट भरेगा।”

“खाना-वाना कुछ नहीं। चल जा सरपट टुन्नु चचा के घर को निकल ले।”

“क्यों बुढ़िया के क्रिया-कर्म के लिए?”

“नहीं रे। उसके लिए तो सब गए ही हैं। तू होता तो तेरे बाउजी तुझे साथ ही लिवा गए होते। मगर तुझे तो कितनी बार कहा किरन डूबने से पहले घर चले आया कर। मगर कहाँ।”

“हाँ-हाँ। मगर काम क्या है?”

“अरे नवल की नई बहू वहाँ अकेली होगी घर पर। किसी मर्द को होना चाहिए। तू छोटा है, तू चला जा।”

“कौन? वो भाभी?”

“हाँ-हाँ। बेचारी अकेली औरत। जाने कुछ खाया भी होगा या नहीं। तू चला जाएगा तो कुछ मन लग जाएगा और डरेगी-वरेगी भी नहीं। फिर सब मर्द लोग तो भोर से पहले क्या लौटेंगे तराई से।”

“अच्छा हाथ-मुँह धो लूँ।”

“कुछ नहीं। बस निकल जा। ये शाल लेता जा। पहाड़ों में अकेले नहीं घूमा करते। नवल की बहू की चिंता न होती तो तुझे इस समय अकेले मैं जाने भी नहीं देती। चल निकल। नहीं तो ज़्यादा रात घिर आएगी।”

घर से लगभग भगाया हुआ शशांक चांदनी में नहाई पगडंडियों और कच्चे रास्तों पर निकल गया। उसकी शाल हवा से लड़ रही थी जैसे कोई बार-बार उसे कंधे से उतार देने को उद्यत था। चारों ओर चांदनी छिटकी हुई थी और इस चांदनी में यह पहाड़ी नहाई हुई थी। पहाड़ी की दूधिया रोशनी में दूर तक देखने पर बिल्ली के आकार सा खड़िया जैसा घर दीख पड़ रहा था। टुन्नु चाचा का घर।

उस घर के पीछे भी दूर-दूर पर घर थे; लगभग मटर के बराबर। किसी अजनबी को तो देखने पर पता भी नहीं चलेगा कि वहाँ घर भी हो सकते हैं। शशांक जान पा रहा था क्योंकि बचपन से देखता आया था।

बहुत देर तक चलने पर भी टुन्नु चाचा का घर पास आने की बजाय दूर जाता ही दिख रहा था। शशांक ने अपने क़दम और तेज़ बढ़ाए, और तेज़ बढ़ाए, मगर घर दूर; और दूर होता चला गया। शशांक ने सोचा कब तक चलना पड़ेगा उसने लगभग दौड़ना शुरु किया कि पीछे से किसी ने कंधा थपथपाया।

शशांक भय से पीछे मुड़ा तो उसकी शाल तेज़ हवा में उड़ गई। पीछे कोई नहीं था। सनसनाती हवा में पागल की तरह हंसने का शोर गूँज रहा था। जैसे कोई दोनों पहाड़ों की चोटियों पर बैठा हंस रहा हो और हंसी तराई तक गूँजती चली जाती है।

शशांक भय से कांप गया। ऐसा पहले कभी कुछ नहीं हुआ था उसके साथ। किसी को न पाकर वह वापस अपनी राह पर मुड़ा तो देखा टुन्नु चाचा का घर जो थोड़ी देर पहले आधे किलोमीटर दूर दिखाई दे रहा था अब बिल्कुल सामने, दस क़दम की दूरी पर था। शशांक फट से आगे बढ़ गया और लोहे के फाटक की कुंडी बजाई तो फाटक के दोनों दरवाज़े हिल गए और दोनों पल्लों में दूरी आ गई, तो शशांक चौंका –“अरे गेट खुला छोड़ गए सब। भाभी ने भी बंद नहीं किया, लगता है।”

शशांक ने हौले से भीतर क़दम रखा। पूरे आंगन में नज़र दौड़ाई तो एकदम ख़ाली-ख़ाली, सुनसान और मनहूस सा लगा। उसने दोनों मंज़िलों की खिड़कियों, दरवाज़ों, बरामदोंऔर सीढ़ियों की, नज़रों से छान-बीन की। कहीं कोई रोशनी नहीं। एक दीया तक नहीं जल रहा है। बस घर और आंगन चांदनी में धुला हुआ है। क्या भाभी सो गई?

उसने सहम कर धीरे से आवाज़ दी “भाभी”।

उसके ठीक पीछे से फटी हुई गंभीर आवाज़ आई “तुम आ गए। तुम्हारा ही इंतज़ार कर रही थी।”

शशांक थर्राकर पीछे मुड़ा और दो क़दम पीछे हट गया। ठीक फाटक से लगकर भाभी खड़ी थी। हमेशा की तरह ठुड्डी तक आँचल काढ़े। भाभी की फटी हुई संजीदा आवाज़ उसके सीने में अभी तक गूँज रही थी और उसका दिल नगाड़े की तरह धड़क रहा था। भाभी तो बहुत हंसमुख हैं और इनकी आवाज़ की खनक पर तो सारे देवर वारे-न्यारे हो जाते हैं। आज भाभी को क्या हो गया है? कहीं शोक में रो-रोकर आवाज़ तो नहीं बैठ गई है इनकी? हो सकता है। मातम मनाने में घर की स्त्रियां कोई क़सर नहीं छोड़तीं।

यह सब सोचते हुए शशांक की धड़कनें कुछ सामान्य हुईं।

“हाँ भाभी। मुझे तो बाउजी साथ ही ला रहे थे मगर मैं तो घर पर था ही नहीं। ही..ही..ही।”

शशांक ने देखा खीसें निपोरने पर भी भाभी बुत की तरह खड़ी हैं और उसे ख़ुद से ग्लानि हुई कि वह इस संजीदा समय में हंसी-ठठोली पर कैसे उतर आया। फिर उसे माँ की बातें याद आईं तो पूछ बैठा – “आपने कुछ खाया-वाया है या...?”

“तुम आ गए हो न। अब खाऊँगी।”

“अच्छा। क्या बना रही हो। मुझे भी ज़ोरों से भूख लगी है। माँ ने भी कुछ नहीं खिलाया, बस भगा दिया। दौड़ा-दौड़ा आपके पास आया हूँ।”

“मांस”

शशांक चौंका “क्या?”

“मांस पकाऊँगी”

“अरे नहीं नहीं.....कुछ मामूली सा बना लो भाभी। आपकी तबीयत भी ठीक नहीं लग रही।”

“तुम नहीं जानते क्या?”

“क्या?”

“इन पहाड़ों में ख़ातिरदारी मांसाहार से होती है।”

“बेकार की तकलीफ़ मत लो.....”

शशांक ने सोचा कि कैसी भोली भाभी हैं। इनको पता ही नहीं कि मातम वाले घर में मांस नहीं पकाते।

“तकलीफ़, कैसी तकलीफ़? स्वादिष्ट मांस के लिए कोई तकलीफ़, तकलीफ़ नहीं होती।”

शशांक ने सोचा शायद भाभी का बहुत मन है मांसाहार खाने का।

“ठीक है। जैसी आपकी मर्ज़ी”

भाभी भी उनींदी सी बोली “मर्ज़ी...मेरी मर्ज़ी....हाँ मेरी मर्ज़ी” और रसोईघर की ओर चली गईं। अंगने के बीचों-बीच पड़ी सुतली की खटिया देख शशांक उसी पर लेट गया। दोनों बाहें सर के नीचे डाल वह आसमान के टिमटिमाते तारों में बुढ़िया दादी को ढूँढ़ने लगा।

उसे सर के पीछे से भाभी की खनकती पायल की झंकार सुनाई दे रही थी जो भाभी की स्थिति का अंदाज़ा दे रही थी। वे अभी रसोईघर से निकलकर, आंगन पार करते हुए फाटक के पास लगे चापाकल पर पहुँची हैं और उन्होंने लोहे की बाल्टी ज़मीन पर रखी है। चापाकल चलाने की आवाज़ चूड़ियों के खनक के साथ हिल-मिल गई है।

शशांक ने दाईं करवट ली और भाभी को कुछ पूछने के इरादे से चापाकल की तरफ देखा तो लगा भाभी चुपचाप खड़ी हैं मगर चापाकल अपने आप चल रहा है और पानी बालटी में गिर रहा है। शशांक के सीने में धक सा हुआ। उसने एक हाथ से अपनी दोनों आँखें ठीक से मली और दुबारा देखा तो भाभी नल चला रही थी। उसे ही भ्रम हुआ।

वह भूल गया कि क्या पूछना था और उसका मन भी नहीं रहा कुछ बात करने का। उसने बाईं करवट ली। भाभी की पायल अब हिचकोले खाती बालटी के साथ सिरहाने से गुज़रते हुए बाईं ओर बनी रसोईघर की ओर जा रही थी। शशांक का मुँह तो रसोई घर की ओर ही था। उसने भाभी को रसोई में जाते देखा। मगर भाभी ने तो बालटी पकड़ी ही नहीं। बालटी निराधार सी हवा में ही उनके साथ चलती हुई रसोईघर में चली गई।

अब शशांक को यक़ीन हो गया कि कोई भ्रम नहीं है। वह सीधा होकर लेट गया। मगर उसकी सिट्टी-पिट्टी गुम थी। उसे यक़ीन हो गया था कि वह इस समय किसी चुड़ैल के कब्ज़े में है। वह उठकर बाहर भाग जाना चाहता था। मगर उसके पाँव थरथरा रहे थे। उसने बहुत हिम्मत जुटाई तो इतने में भाभी...चुड़ैल...भाभी रसोई से बाहर आ गई और रसोई की बाहरी दीवार से लगे सिल-बट्टे पर मसाला पीसने लगी।

शशांक को यक़ीन था कि सिल-बट्टा अपने आप चल रहा होगा। अब उसे देखकर यक़ीन करने की ज़रूरत नहीं है। वह चारपाई पकड़े दम-साधे पड़ा रहा। थोड़ी देर में एकदम सन्नाटा था। हवा की भी कोई आवाज़ नहीं आ रही थी।

शंशाक का रोयां-रोयां साँस तक लेने से डर रहा था और वह लगातार आसमान को देखे जा रहा था। मगर धीरे-धीरे चांद का आकार बढ़ने लगा। शशांक को लगा यह क्या हो रहा है? उसने दाएं-बाएं देखा तो उसकी चारपाई हवा में पचास फीट ऊपर थी। दो मंजिल का घर नीचे था। वह ज़ोर से चीखा तो चारपाई धम्म से ज़मीन पर आ गिरी और वह उछल के चारपाई से दूर खड़ा हो गया।

चीख सुनकर भाभी किचन से बाहर आ गई और घूँघट उठाकर उसे देखने लगी। मगर शशांक को भाभी का चेहरा नहीं दिख रहा था। वो तो बरामदे में खड़ी थी। वहाँ अंधेरा ही अंधेरा था।
अपने चीखने की लगभग दलील सी देता हुआ शशांक बोला –“कुछ नहीं। कुछ नहीं। एक मेंढक मुंह पर उछलकर आ गया था तो मैं डर गया।”और किसी आज्ञाकारी बच्चे की तरह वापस खटिया पर जाकर लेट गया।

चुड़ैल संतुष्ट होकर भीतर चली गई। शशांक सोचने लगा कि वह खटिया पर क्यों लेटा? उसे लगा शायद इसलिए क्योंकि खटिया ने ही उसे खींच लिया। वह उठकर भाग क्यों नहीं जाता? उसने हिम्मत की मगर खटिया उसे छोड़ नहीं रही थी। शशांक ने कोशिश छोड़ दी और चुपचाप पड़ा रहा। कोई और उपाय सोचने लगा।

अभी वह सोच ही रहा था कि खटिया पर चरचराहट हुई। वह तो दम साधे लेटा है। हिलना-डुलना तो दूर साँस तक ठीक से नहीं ले रहा है। भला खटिया चरमरा क्यूँ रही है?

जैसे-जैसे चरमराहट की आवाज़ तेज़ हो रही थी वैसे-वैसे शशांक की धड़कनें भी। तभी उसने महसूस किया कि उसके पाँव के पास चारपाई की एक रस्सी टूटकर उसके दाएं पैर को बांध रही है और इससे पहले की वह और अच्छे से समझ पाता कि क्या हो रहा है, एक और रस्सी ने टूटकर उसका बायां पैर बांधना चाहा कि वह उठ बैठा। बैठते ही दोनों रस्सियां छूट गईं और अपनी जगह वापस जुड़ गईं।

शशांक अब अपने दोनों घुटने मोड़कर, अपने से चिपकाकर, बैठा था। उसकी रुलाई छूट रही थी। दोनों बाहों से घुटने पकड़कर वह रोने ही वाला था कि चुड़ैल बाहर आई।

शशांक अपने आप में दुबका हुआ चुड़ैल के डर के मारे रो भी नहीं पा रहा था, बस सारी चीज़ें महसूस कर रहा था। उसके ठीक सामने पत्थर का चौकोर सा एक फीट का चबूतरा सा था। भाभी ने उसे एक लोटे पानी से अच्छे से धोया। सारी गतिविधियां शशांक की आँखों के ठीक सामने हो रही थीं। उसे आँख की पुतलियां तक हिलाने की आवश्यकता नहीं थी।

फिर भाभी ने दाएं हाथ से नीचे रखा गँड़ासा उठाया और अपना लाल चूड़ियों से खनकता-झनकता बायां हाथ धुले हुए चबूतरे पर फैला दिया। और फिर....और फिर......फिर उन्होंने गँड़ासा अपने बाएं हाथ पर मारा कि वह अलग होकर छिटककर नीचे जा गिरा और छटपटाने लगा।

शशांक की चीख निकल पड़ी और वह चारपाई छोड़कर फाटक की ओर भागा। फाटक बंद था। वह जहाँ-तहाँ फाटक पर पाँव रखकर उस पर जा चढ़ा।

मगर इतने में चुड़ैल ने अपने दाएं हाथ से शशांक का दायां पैर पकड़ लिया। शशांक फंस गया था। वह दूसरी ओर नहीं कूद पा रहा था। चुड़ैल ने कसकर उसका दायां पांव पकड़ रखा था। शशांक ने फाटक को जहाँ-जहाँ पकड़ा था वहाँ-वहाँ से छोड़कर अपना दायां पांव पकड़कर खींचने लगा जिससे पहले वह फाटक की दूसरी ओर उल्टा लटक गया और फिर पांव छूट जाने पर मुंह के बल गिर पड़ा।

उसके दाएं पैर पर चुड़ैल के नाख़ूनों के गहरे निशान थे। मगर उसके पास कुछ सोचने-समझने का समय नहीं था। चुड़ैल फाटक की उस ओर से चिंघाड़ रही थी। वह कभी भी बाहर आ सकती थी।

शशांक ने अपना पूरा दम लगाया और घर की ओर भागा। पगडंडियों या कच्चे रास्ते की परवा किए बग़ैर वह जान लगाकर भाग रहा था। उसके पीछे दूर-दूर तक पागलों की तरह चीखने की आवाज़ें गूँज रही थी जैसे दो पहाड़ों की चोटियों पर बैठी किन्हीं दो पगलियों के बीच हंसने की प्रतियोगिता लगी हो।

शशांक के पैर यहाँ के वहाँ पड़ रहे थे। कई बार वह लुढ़क गया, मगर लुढ़कते हुए भी उसने अपनी गति बनाई रखी और गोल लुढ़क कर फिर पैरों पर खड़ा होकर दौड़ने लगा। और दौड़ता गया जब तक अपने घर की देहरी पर आकर न खड़ा हो गया।

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