एम डी एच 2/33, सेक्टर एच,
जानकीपुरम, लखनऊ 226 021
मो 09956398603
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हाशिए की दुनिया : न दैन्यं, न पलायनं
(एक अनवरत संघर्ष की असमाप्त गाथा)
प्रताप दीक्षित
महेंद्र भीष्म एक संवेदनशील, परिवेश और समाज के सरोकारों के प्रति प्रतिबद्ध रचनाकार हैं. उनके लेखन में एक ओर क्षरित होती मानवीय संवेदनाओं की तलाश दूसरी ओर तथाकथित आधुनिकता की दौड़ में शामिल जिंदगी की विवशताओं में अपसंस्कृति की गर्त में धंसते जा रहे क्षरित जीवन मूल्यों के चित्र उभरते हैं. इस क्रम में निम्न-मध्य वर्ग जिंदगी के समूचे दायरे में प्रवेश कर चरित्रों को खंगालते हैं. लेखक ने शोषण-विषमता-अन्याय के प्रतिरोध में संवेदना को हथियार बनाया है. जिस प्रकार हिंसा के सामने अहिंसा को बनाया गया था. लेखक का व्यक्तित्व और कृतित्व विनम्रता का द्योतक है. यह उनकी संवेदनशीलता और दृढ़ता का प्रतिरूप है. इस क्रम में लेखक के पात्र पलायन नहीं करते. कथ्य और विचारों के विशाल फलक पर उनकी रचनाएं अदृश्य क्षितिजों के पार जाकर मानवीय संवेदना की तलाश करती और मानवीय सरोकारों से जुड़ती हैं.
उनके चर्चित उपन्यास ‘किन्नर कथा’ के बाद इसी परंपरा में उनका नया उपन्यास ‘मैं पायल - -‘ एक नए विषय, समाज में उपेक्षित, उपहास के पात्र माने जाते वर्ग हिजड़ाओं, जिन्हें परिमार्जित भाषा में किन्नर कहा जाने लगा है, की वेदना, दुश्वारियों, परिवार-समाज में उनके प्रति नज़रिये की अंतर्कथा है. समाज में शोषित-विस्थापित-दमित लोगों की पीड़ा और भेदभाव की अनेक परतें हैं. जाति, धर्म, वर्ग आदि की गैर-बराबरी के बावजूद इनमें मनुष्य होने की गरिमा मौजूद है. लेकिन किन्नर समुदाय की त्रासदी है कि इन्हें कभी मनुष्य नहीं समझा गया. विडंबना है कि जहाँ अन्य शारीरिक विकृतियां उपहास का कारण नहीं बनती, लैंगिक विकृति से ग्रस्त शिशु का अस्तित्व परिवार के लिए अवांछनीय बोझ ही नहीं त्याज्य हो जाता है. पायल के माध्यम से, उपन्यास, समाज में अरसे से चली आ रही प्रतिष्ठा के थोथे चलन का प्रतिरोध करता है, जिसके कारण मनुष्य का उपहास-उपेक्षा उसकी दैहिक विकृति के कारण किया जाता है. प्रश्न यह उठता है कि जब मूक, बधिर, दृष्टिबाधित या दूसरी विकलांगताएं समाज में सह्य है तब कमर से नीचे की विकृति क्यों अवांछित मान ली जाती है?
सभ्यता के जिस सोपान पर आज मनुष्य खड़ा है वह वास्तव में मानवीय मूल्य खो चुकी है. संवेदन हीनता, आत्म-केन्द्रीयता, स्वार्थ के चलते दूसरे मनुष्य ही नहीं अपनी संतान को ही हिकारत से देखता है. सभ्यता के विकास की विडंबना है कि इसके मूल में दोहरे मूल्यों के बीच जीने की अभिशप्त प्रवृतियाँ विद्यमान हैं. आदमी के रूप में मनुष्य को गरिमा से जीने का अधिकार जन्म से मिलता है, जिसे कोई व्यवस्था, नीति, क़ानून नहीं छीन सकता. लेकिन समाज की परम्पराएँ और समुदाय द्वारा रूढ़ियों के चलते उन्ही जैसा व्यक्ति अलग-थलग छोड़ दिया जाता है. रिश्ते-सम्बन्ध, जो जीवन को अर्थ, स्थिरता और मकसद प्रदान करते हैं, अवसर मिलते ही रूढ़ियों, लोकापवाद, असुरक्षा की आशंका से हाशिए पर ढकेल दिए जाते हैं. जिसके दंश और अपराधबोध में जलना दोनों ही पक्षों की नियति बन जाती है.
‘मैं पायल’ यातना, संघर्ष और जिजीविषा की अनवरत यात्रा है. एक और मनुष्य के अंदरूनी संसार की कशमकश और आत्मबल, दूसरी और निर्मम दुनिया में जीने - अस्तित्व की रक्षा, पहचान की स्वीकृति के लिए निरंतर संघर्ष. उपन्यास पाठकों को यथार्थ के उस रूप से परिचय करता है जो उसके अनुभव के दायरे से, रोज देखते सुनते हुए भी, छूट जाता हैं. लेखक के साथ हम ऎसी दुनिया में प्रवेश करते हैं, जहाँ होकर भी हम नहीं होते.
उपन्यास का कथ्य एक महानगर के पड़ोस स्थिति कस्बे के निम्न-मध्य वर्गीय परिवार में चौथी लड़की के जन्म से प्रारम्भ होता है. पुत्र की उम्मीद में अवांछित. –एक अप्रिय आवाज, ‘राम बहादुर के एक और लड़की हुई.’ कन्या के जन्म के लिए, रूढ़ियों के अनुसार, इसका ‘सारा दोष माँ’ पर मढ़ दिया जाता है. शराबी-गुस्सैल-निर्दय ड्राइवर पिता, माँ, पांच बहन-भाई, दाऊ, बाबा, बचपन की स्मृतियों के, जुगनी द्वारा वर्णन (उपन्यास आत्मकथात्मक शैली में लिखा गया है) के साथ कहानी का विकास होता है जुगनी की दैहिक सच्चाई की जानकारी के साथ, जब पिता दारू के नशे में कोसते –‘ये जुगनी! हम क्षत्रिय वंश में वंश में कलंक पैदा हुई है, साली हिजड़ा.’ सच्चाई पर आवरण डालने, अपने को ही धोखा देने अथवा सामजिक अपवाद से बचने के लिए पिता जुगनी को जुगनू सिंह के रूप में पालने, स्कूल भेजने का आदेश देते हैं. बेटी की लैंगिक विकृति के जाहिर होने से सामाजिक अवमानना, अपनी आन-बान पर धब्बा समझने की मनोवृत्ति, बड़े बेटे की आवारगी की कुंठाओं से ग्रस्त पिता एक दिन जुगनी को पानी में नहला गीले बदन पर चप्पलों से पीट-पीट कर अधमरी कर देते हैं. इसके पहले अक्सर पिटाई तो होती ही थे. इस बार पीटने के बाद पिता जुगनी को समाप्त करने के लिए गले में फंदा डाल कर टांग देते हैं. माँ द्वारा उसे बचा लिया जाता है. यातनाओं से त्रस्त जुगनी आत्हत्या करने के लिए निकलती है. मृत्यु भय, पैर में काँटा लगने की असह्य पीड़ा या नियति द्वारा तय भविष्य, वह वह ट्रेन के एक डिब्बे में बैठ अनजानी यात्रा में चल देती है. इसके बाद प्रारम्भ होता है यंत्रणाओं और संघर्ष का दूसरा दौर. यौनिक उत्पीड़न, भूख, जीने के लिए संघर्ष, मिलाने वाली शरण स्थलियों में प्रवंचना और आत्मीयता उसकी अटूट जिजीविषा का अनवरत सफ़र जिसमें यौन बुभीक्षित सफेदपोश प्रौढ़ - पुलिस कांस्टेबिल, दयालु भिखारी, शरणार्थी परिवार का अनवर अनेक चेहरे सामने आते हैं. यह चेहरे आकस्मिक रूप से आए लोगों के नहीं पूरे समाज और स्थितियों के प्रतिबिम्ब हैं. उम्र बढ़ने के साथ जुगनी अपनी शारीरिक सच्चाइयों से वाकिफ हो चुकी है. सुरक्षा की दृष्टि से उसे पहचान बदल कर रहना पड़ता है. कानपुर में सिनेमा टाकीज के रेस्तराँ में बैरे, पूनम टाकीज में गेट कीपर, प्रोजेक्टर चलाने के क्रम में जुगनी अपना प्राकृतिक रूप नहीं भुला पाती – ‘मेरे किन्नर शरीर में आत्मा तो पूरी तरह एक स्त्री की वास करती है, जिसे पुरुष ही पसंद आता है, स्त्री नहीं.’ यही लालसा उसे स्त्री वेशभूषा में लखनऊ ले आती है. यहाँ एक कीर्तन मंडली के जागरण में थिरकते-नाचते सुबह तक थक के चूर हो जाती है. लौटने के पहले बीच सड़क से एक किन्नर मंडली द्वारा उसको अपहृत कर लिया जाता है. उसे भूखा-प्यासा रख बधाई के लिए घर घर जाने के लिए विवश किया जाता है. परवर्ती कथाक्रम में पप्पू, अशोक सोनकर हैं. संघर्ष के दौरान पायल की आत्मीयता पाने की तलाश में किसी के द्वारा जरा भी सहानुभूति प्रकट करना उसके कोमल मन को संवेदित कर देता है. परंतु यही कोमल मन दूसरी और दृढ़ता का परिचायक है. किसी का अधिपत्य. एकाधिकार अथवा प्रतिबन्ध उसकी अस्मिता को स्वीकार नहीं. वह पूरी शिद्दत से, पप्पू हो या ओझा नाम का सिपाही, प्रतिरोध ही नहीं करती अवसर मिलने पर भरपूर प्रतिशोध भी लेती है. यह प्रतिशोध वर्षों से उसके अवचेतन में व्यवस्था और शोषण के विरोध में दबा आक्रोश है – न केवल प्रमोद व पप्पू बल्कि शायद ट्रेन में मिले प्रौढ़, कांस्टेबिल, अनवर की मौत के लिए जिम्मेदार सिपाही जिसके डंडे की चोट से गिरने पर उसका शरीर रेल से कट कर दो टुकड़ों में बाँट गया था या पूरी व्यवस्था के विरोध में क्षोभ. उपन्यास उस ‘उस दुनिया’ से पलायन नहीं, दुश्वारियों के बावजूद, सार्थक मार्ग प्रशस्त करता है. पूरी कथा उस प्रवहमान नदी है में बदल जाती है जिसमें सब अवांछित बह जाने के बाद भी नदी हमेशा पवित्र-पावन बनी रहती है.
उपन्यास के केन्द्र में जरूर पायल और किन्नर समुदाय की व्यथा-यातना-संघर्ष है, लेकिन उसके चतुर्दिक परिक्रमा वृत्त में पूरा समाज, व्यवस्था और व्यक्ति के अन्दर छिपी कलुषित प्रवृत्तियां, स्त्री की नियति, कच्चे बाल मन की यौनिक जिज्ञासाएं, प्रेम के गहरे अर्थ, देह की जरूरत, नैतिक मूल्यों की निरर्थकता, अमानवीय सामाजिक विषमता, गरीबी-अभाव, भूख की त्रासदी, भृष्टाचार, बच्चों-किशोरों के अपराध में लिप्तता के कारण, निस्वार्थ प्रेम, सदाशयता, माँ की ममतामयी छावं की अपरिहार्यता और उसे महत्व देने की जरूरत जैसे अनेक सवाल उठाए गए हैं. उपन्यास पायल के माध्यम से पूरे समाज की सोच बदलने की आकांक्षा की महागाथा है. अनेक अनुत्तरित प्रश्न उपन्यास उठाता है – किशोर अनवर जैसे अनेक लोगों की अपराध लिप्तता के लिए कौन उत्तरदायी है? अनवर की मृत्यु क्यों किसी इतिहास का हिस्सा नहीं बनेगी? कौन व्यवस्था जिम्मेदार है इस सबका? पायल का अभीष्ठ केवल अपनी मुक्ति नहीं बल्कि उस पूरे समुदाय-वर्ग के सम्मान के साथ जीने के अधिकार का प्रश्न है, जिसके साथ नियति ने उसे जोड़ दिया है. उपन्यास केवल पायल या किन्नर समुदाय की नहीं बल्कि मनुष्य की अस्मिता की प्रमाणिकता और पहचान की लड़ाई की शुरुआत है. उपन्यास का प्राप्य यह है कि पाठक को अपने व्यक्तित्व की सीमाओं से बाहर निकल कर अनुभूति के वृहत्तर संसार से जोड़ते हुए अनेक आयामों तक उपन्यास का विस्तार हुआ है.
किसी रचना का सृजन आकस्मिक नहीं होता. उसका सीधा और गंभीर नाता अतीत और वर्तमान से होता है. कोई भी लेखक अपने परिवेश से विच्छिन्न नहीं हो सकता. इसी लिए साहित्य सदैव जीवंत रहता है. समाज से उसका जीवंत संबंध होता है. जिंदगी, समाज, सत्ता और मनुष्य के अंतर्विरोधों के गहरे तल में उतर कर कहानी का जन्म होता है. जितना वह इसमें सफल होता है उतना ही रचना पाठकों की संवेदना का अंग बनती है. लेखक ने समय, समाज और मनुष्य के अंतर्विरोधों को गहराई से समझा है. उपन्यास में समाज की निस्संगता, अमानवीयता पर प्रश्न के साथ विचार किया गया है कि मनुष्य की चिंताएं इतनी आत्मकेंद्रित क्यों हो गई हैं?
उपन्यास में पायल की अप्रतिम सदाशयता के साथ विसंगतियों से लड़ने- संघर्ष की अपूर्व क्षमता है. माँ के पावों की आकृति ही उसके मन में बस गई है. पिता जो हमेशा उसके प्रति कटु रहे, चप्पलों से पीटा, जान से मारने की कोशिश की उनके प्रति भी उसके मन में रोष नहीं है. वह उनकी स्थित, मजबूरियों को समझती है. उनकी बीमारी की चिंता उसे सालती है. माँ के रूप में अप्रतिम छवि उभरती है. बेटी के प्रति असीम स्नेह-लगाव, जो पूरे जीवन पति और सामजिक दबाव, आशंका, सामजिक भय के बावजूद, कभी मिटता नहीं. एक अखंड आत्मा के अलग हुए दो टुकड़े. माँ को ईश्वर का प्रतिरूप कहा गया है. प्रकारांतर से स्त्री की महत्ता - औरत ने होती तो न जीवन होता, न मानव सभ्यता.
विस्मृति, ‘स्मृतियों’ के स्थगन की अल्पकालिक प्रक्रिया मात्र है. स्मृतियाँ कभी मिटती नहीं. भूलते क्यों नहीं कीलों से चुभते प्रसंग. रचनाकार का उद्देश्य समाधान देना नही होता. लेकिन उपन्यास के कथा-वितान में उसके चरित्र-पात्र मानवीय सन्दर्भों में जिस निष्कर्ष पर पंहुचते हैं उससे पाठकों का विवेक निश्चित तौर पर सहमत होगा.
कहानी-उपन्यास के स्वरुप, बनावट में चाहे जितना बदलाव आ गया हो लेकिन उसकी कथनीयता-किस्सागोई कभी नहीं खतम होगी. लेखक की क्षमता और सामर्थ्य का आधार यही होते हैं. इस दृष्टि से लेखक ने कथ्य और शिल्प में नया प्रयोग किया है. यथार्थ को खंगालते हुए आत्मकथा में उपन्यास, किन्नर गुरु पायल की स्मृतियों को शब्द देकर, और उपन्यास में आत्मकथा का प्रतिस्थापन किया है. यथार्थ के धरातल पर उपन्यास का विन्यास लेखक की सृजनात्मक कल्पना से जीवनी या आत्मकथा से ऊपर उठ कर एक नई विधा की स्वतंत्र सत्ता के रूप में निरूपित किया गया है. कहानी को कहानी रहने देने की प्रतिबद्धता के साथ भाषा-शिल्प के स्तर पर यह उपन्यास सहज संवेदनात्मक, गहरी विचार दृष्टि के साथ अन्याय और विसंगति का प्रतिवाद करता है. काव्य की तरह एक सफल कथाकृति में भी रचना के मार्मिक अंशों के पाठक के साथ साधारणीकरण के बिंदु होते हैं. लेखक के प्रकट वर्णन के बिना भी. पाठक उन बिन्दुओं से साक्षात्कार करता है. यह रचना और पाठक के एकात्म का क्षण होता है. समीक्ष्य कृति में ऐसे अनेक स्थल हैं. भूख के कारण ‘जूठे दोने से चाट का चाटना’, ‘प्लेटफ़ॉर्म पर फेंके गए सड़े भोजन को खाना’, ‘अनवर के शरीर का दो हिस्सों में कट जाने’ ऐसे अनेक प्रसंग रोंगटे खड़े कर देते हैं. केवल करुणा ही नहीं जगाते उस व्यवस्था पर सोचने के लिए विवश करने के साथ आक्रोश जगाते हैं, जो इसके लिए उत्तरदायी है. भाषा और शिल्प की सहजता उपन्यास की संवेदना को घनीभूत करने के साथ पठनीयता बढ़ाते हैं.
एम डी एच 2/33, सेक्टर एच,
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समीक्ष्य कृति :
मैं पायल (उपन्यास)
लेखक : महेंद्र भीष्म
प्रकाशक : सामयिक पेपरबैक्स
अमन प्रकाशन,
104 A /80 C, राम बाग़, कानपुर
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