रचनाकार परिचय:-
डॉ. सूर्यकांत मिश्रा
जूनी हटरी, राजनांदगांव (छत्तीसगढ़)
मो. नंबर 94255-59291
email- sk201642@gmail.com
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5 सितंबर शिक्षक दिवस पर विशेष
सजीव व्यक्तित्व का साकार मूर्तिकार है शिक्षक
० स्वयं की सादगी के साथ भविष्य निर्माण की दोहरी भूमिका
हमनें एक मूर्तिकार को मूर्ति बनाते देखा है। वह मूर्ति मिट्टी की हो सकती है, लोहे और सीमेंट के संयोजन से बनायी जा सकती है, टेराकोटा का भी इस्तेमाल हो सकता है या फिर प्लास्टर ऑफ पेरिस का कमाल भी मूर्ति को गढऩे में देखा जा सकता है। इन सबसे अलग प्रकार की मूर्ति गढऩे वाला यदि कोई आर्टिस्ट है तो यह केवल शिक्षक के रूप में समाज के सामने आता है। एक पेशेवर मूर्तिकार द्वारा गढ़ी गई प्रतिमा निर्विकार ही होगी। उसमें जान फूंकना उसके बस की बात नहीं। एक शिक्षक जब उसी काम को करता है, तो उसकी मेहनत और ज्ञान के गारे से गढ़ी गई मूर्ति निर्विकार नहीं, साकार रूप में समाज के सम्मुख आती है। जीवन रूपी मूर्ति को गढऩे वाला व्यक्ति एक शिक्षक ही हो सकता है। उसके द्वारा तैयार की गई मूर्ति जीवन के कठिन डगर को पार लगाने वाली मूर्ति होती है। वह पूर्णत: गतिशील, भावना और समझ से लबालब, संभावनाओं का दरिया और कर्म के मार्ग पर बढऩे वाली सजीव मूर्ति होती है। हमें यह कहने में संकोच होना चाहिए कि ज्ञान को आनंद और स्नेह में बदलने वाला, कर्म को श्रम और संघर्ष के मार्ग में प्रशस्त करने वाला तथा उपलब्धि को सुख और संतोष के सागर में गोते लगाने वाला जीवन रूपी मूर्तिकार इस संसार में केवल शिक्षक ही हो सकता है।
वर्तमान समय में ऐसे ही गतिमान और सभ्य संसार की रचना करने वाला शिक्षक और सफल मूर्तिकार कहीं लुप्त हो गया है। सरकार की नीतियों ने एक शिक्षक के ज्ञान और ज्ञान रूपी बाज से पौधों की संकल्पना को अपने स्वार्थ की बंजार भूमि में रोपकर उसे पल्लवित होने से रोक दिया है। मुझे तो ऐसा लगता है कि 70 वर्ष पूर्व आजादी के बाद से हमारी ऐसी ही ज्ञान रूपी जाति को ताबूत में रखकर उस पर कील ठोंक दी गयी है। यही कारण है कि अब हमारे देश में रविन्द्रनाथ टैगोर, महर्षि दयानंद सरस्वती, गुरू द्रोण, विनोबा भावे, डॉक्टर राधाकृष्णन और डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम जैसी शिक्षकीय खान का अभाव दिखाई पड़ रहा है। इन सभी शिक्षा के शूरवीरों ने जो विचार हमारे समाज को दिये, जो बड़े-बड़े प्रयोग इनके द्वारा किये गये, उनके चलते ही इनकी एक छवि हमारे हृदय में बन गयी है। अब हम ऐसे ही चित्रकारों और मूर्तिकारों के लिए तरस रहे है। हमारा आज का शिक्षक चौक चौराहों पर लगी उपेक्षित मूर्तियों का जीवन जी रहा है। जिस तरह चौक चौराहों की मूर्तियां महज जयंती और पुण्यतिथि पर ही निखार पाती है, ठीक उस तरह हमारा आज का शिक्षक भी शासकीय आदेशों का पालनकर्ता बनकर अपने कौशल और ज्ञान का नहीं कर पा रहा है, उसे भी शिक्षक दिवस पर फूल, माला, शाल, श्रीफल तक समेट कर हमारे योजनाकार वर्तमान पीढ़ी का ही नुकसान कर रहे है।
भारत वर्ष में स्वतंत्रता के कुछ वर्षों बाद तक शिक्षक समाज का अति महत्वपूर्ण अंग माना जाता था। अब वह बातें न जाने कहां खो गई। शिक्षकों का सम्मान अब केवल आयोजनों में ही दिखाई पड़ रहा है, अन्यथा शिक्षक की स्थिति और चतुर्थ वर्ग कर्मचारी जैसी होकर रह गयी है। क्या हमारा मानवीय समाज इस बात का इंकार कर सकता है कि एक कुशल शिक्षक ही अच्छे विद्यार्थियों का जन्मदाता होता है। बच्चों को शिक्षित करने अथवा शिक्षा देने के लिए मूलभुत सुविधा के रूप में स्कूल भवन, बैठने के लिए कुर्सियां, ब्लैक बोर्ड आदि न हो तो भी काम चल सकता है, किंतु कल्पना कीजिए इन सारी व्यवस्था के सुचारू होने के बावजूद यदि एक अच्छा शिक्षक नहीं है, तो व्यवस्था किस काम की। शिक्षक के बिना हम किसी भी प्रकार की शिक्षा की कल्पना शायद नहीं कर सकते है। बिना वशिष्ट या विश्वामित्र के राम, या बिना द्रोणाचार्य के भीष्म एवं कृष्ण के अर्जुन या बिना परशुराम के भीष्म स्वयं अथवा बिना अरस्तु के सिकंदर का जन्म केवल सपना ही न रह जाता? एक अच्छा शिक्षक बिना बोले अपना चरित्र-व्यक्तित्व से पढ़ाता है, उसकी बात नहीं जीवनशैली अधिक प्रभावशाली होती है। हमनें वह समय भी देखा है जब डॉक्टर, जज, कलेक्टर, मंत्री सभी उठकर अपने शिक्षक का स्वागत किया करते थे। सभा एवं सार्वजनिक स्थलों पर उन्हें ऊंचा आसन मिला करता था। यदि राजा को पांच बार प्रणाम किया जाता तो एक गुरू अथवा शिक्षक को उससे भी अधिक बार सम्मान देने का रिवाज था। अब ऐसी बात नहीं रही। आखिर क्यों? इस पर भी चिंतन जरूरी है।
यह सर्व विदित है कि शिक्षक बनते ही व्यक्ति पर नैतिकता का एक मुलंम्मा अपने आप चढ़ जाता है। एक शिक्षक द्वारा किया जाने वाला कार्य आदर्शों की कसौटी पर तौला जाने लगता है। एक शिक्षक को सदैव मानसिक दबाव में जीवन यापन करना पड़ता है। पूरा मानवीय समाज ईमानदारी और सच्चाई की प्रतिमूर्ति के रूप में एक शिक्षक को ही देखना चाहता है। दूसरी ओर मान सम्मान तथा सेवाभाव का जो दृष्टिकोण पहले शिक्षकों के प्रति हुआ करता था, वह अब पूरी तरह बदल गया है। 'बिन गुरू ज्ञान नहीें' इसे भी अब गलत कहा जाने लगा है। जटिल होते जीवन संघर्ष में यदि एक शिक्षक श्रम-साध्य सहारे का आसरा न ले तो वह हर मोर्चे पर असफल ही रहेगा। इसीलिए उसे विवशता में ट्युशन का सहारा लेना पड़ता है, जिसे समाज बुरी दृष्टि से देखता है। मानवीय समाज में नौकरी पेशा से लेकर व्यापारियों तक भ्रष्टाचार में लिप्त होना और सरकार के राजस्व का नुकसान करना बड़ा अपराध नहीं माना जा रहा है, किंतु शिक्षक का ट्युशन पढ़ाना सिद्धांत के खिलाफ माना जा रहा है।
नि:संदेह आज के हालात में शिक्षकों के सिर पर दोहरी जिम्मेदारी है। एक तो स्वयं के स्वरूप को इस भौतिकता की अंधी दौड़ में बचाये रखना है, साथ ही छात्रों अथवा अपने सानिध्य में शिक्षा ग्रहण कर रहे लोगों को नई रोशनी में संस्कारशील होने का न केवल पाठ पढ़ाना है, वरन उसे दिशा में प्रशस्त करने कठिन दौर से भी गुजरना होता है। आज देश में भाषा, क्षेत्र तथा जाति के नाम पर टकराव की प्रवृत्तियां जन्म ले रही है। ऐसे में यदि शिक्षक भावी नागरिकों को दिशा ज्ञाान तथा सामान्य कर्तव्य बोध के साथ राष्ट्रीयता का पाठ न पढ़ाये तो भारतवर्ष का भविष्य अंधेरी कोठी में गुम हो जायेगा।
प्रस्तुतकर्ता
(डॉ. सूर्यकांत मिश्रा)
1 टिप्पणियाँ
मैं देश के शीर्षस्थ विश्वविद्यालयों में से एक में शिक्षक रह चुका हूं। स्वयं मेरा शिक्षकों के प्रति अच्छी धारणा नहीं रही है। वे नौकरी-पेशे में लगे अन्य जनों की तरह व्यवसायी होते हैं जो अपना ज्ञान बेचते हैं और बदले में वेतन बटोरते है। शास्त्रों में ऐसे जनों को उपाध्याय कहा गया है न कि गुरु। आधुनिक शिक्षक का काम है कक्षा में जाओ, अपने हिस्से का लेक्चर दो और वापस लौट आओ। व्यक्तित्व के विकास में वह कैसे निभाता है भूमिका?
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