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नारी [कविता] - डॉ महेन्द्र भटनागर

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 डा. महेंद्र भटनागर रचनाकार परिचय:-


डा. महेंद्रभटनागर
सर्जना-भवन, 110 बलवन्तनगर, गांधी रोड, ग्वालियर -- 474 002 [म. प्र.]

फ़ोन : 0751-4092908 / मो. 98 934 09793
E-Mail : drmahendra02@gmail.com
drmahendrabh@rediffmail.com




चिर-वंचित, दीन, दुखी बंदिनि! तुम कूद पड़ीं समरांगण में,
भर कर सौगन्ध जवानी की उतरीं जग-व्यापी क्रंदन में,
युग के तम में दृष्टि तुम्हारी चमकी जलते अंगारों-सी,
काँपा विश्व, जगा नवयुग, हृत-पीड़ित जन-जनके जीवन में।
अब तक केवल बाल बिखेरे कीचड़ और धुएँ की संगिनि
बन, आँखों में आँसू भरकर काटे घोर विपद के हैं दिन,
सदा उपेक्षित, ठोकर-स्पर्शित पशु-सा समझा तुमको जग ने,
आज भभक कर सविता-सी तुम निकली हो बनकर
अभिशापिन!
बलिदानों की आहुति से तुम भीषण हड़कंप मचा दोगी,
संघर्ष तुम्हारा न रुकेगा त्रिभुवन को आज हिला दोगी,
देना होगा मूल्य तुम्हारा पिछले जीवन का ऋण भारी,
वरना यह महल नये युग का मिट्टी में आज मिला दोगी।
समता का, आज़ादी का नव-इतिहास बनाने को आयीं,
शोषण की रखी चिता पर तुम तो आग लगाने को आयीं,
है साथी जग का नव-यौवन, बदलो सब प्राचीन व्यवस्था,
वर्ग-भेद के बंधन सारे तुम आज मिटाने को आयीं।





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