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बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ (भाग – 31 व 32)- [कहानियाँ]- राजीव रंजन प्रसाद

रचनाकाररचनाकार परिचय:-

राजीव रंजन प्रसाद

राजीव रंजन प्रसाद ने स्नात्कोत्तर (भूविज्ञान), एम.टेक (सुदूर संवेदन), पर्यावरण प्रबन्धन एवं सतत विकास में स्नात्कोत्तर डिप्लोमा की डिग्रियाँ हासिल की हैं। वर्तमान में वे एनएचडीसी की इन्दिरासागर परियोजना में प्रबन्धक (पर्यवरण) के पद पर कार्य कर रहे हैं व www.sahityashilpi.com के सम्पादक मंडली के सदस्य है।

राजीव, 1982 से लेखनरत हैं। इन्होंने कविता, कहानी, निबन्ध, रिपोर्ताज, यात्रावृतांत, समालोचना के अलावा नाटक लेखन भी किया है साथ ही अनेकों तकनीकी तथा साहित्यिक संग्रहों में रचना सहयोग प्रदान किया है। राजीव की रचनायें अनेकों पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं तथा आकाशवाणी जगदलपुर से प्रसारित हुई हैं। इन्होंने अव्यावसायिक लघु-पत्रिका "प्रतिध्वनि" का 1991 तक सम्पादन किया था। लेखक ने 1989-1992 तक ईप्टा से जुड कर बैलाडिला क्षेत्र में अनेकों नाटकों में अभिनय किया है। 1995 - 2001 के दौरान उनके निर्देशित चर्चित नाटकों में किसके हाँथ लगाम, खबरदार-एक दिन, और सुबह हो गयी, अश्वत्थामाओं के युग में आदि प्रमुख हैं।

राजीव की अब तक प्रकाशित पुस्तकें हैं - आमचो बस्तर (उपन्यास), ढोलकल (उपन्यास), बस्तर – 1857 (उपन्यास), बस्तर के जननायक (शोध आलेखों का संकलन), बस्तरनामा (शोध आलेखों का संकलन), मौन मगध में (यात्रा वृतांत), तू मछली को नहीं जानती (कविता संग्रह), प्रगतिशील कृषि के स्वर्णाक्षर (कृषि विषयक)। राजीव को महामहिम राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी द्वारा कृति “मौन मगध में” के लिये इन्दिरागाँधी राजभाषा पुरस्कार (वर्ष 2014) प्राप्त हुआ है। अन्य पुरस्कारों/सम्मानों में संगवारी सम्मान (2013), प्रवक्ता सम्मान (2014), साहित्य सेवी सम्मान (2015), द्वितीय मिनीमाता सम्मान (2016) प्रमुख हैं।

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राजा पर मुकदमा
बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ (भाग – 31)

डलहौजी ने वर्ष 1854 में नागपुर राज्य को दत्तक निषेध नीति के तहत हड़प लिया, इसके साथ ही बस्तर शासन अंग्रेजों के सीधे नियंत्रण में आ गया। ब्रिटिश सरकार के दिखाने के दाँत का उल्लेख राष्ट्रीय अभिलेखागार, नई दिल्ली के 1893 के रिकॉर्ड्स में मिलता है कि प्रत्येक चीफ को स्वतंत्र विदेशी शासक माना जाता था किंतु सत्यता थी कि सम्पूर्ण भारत में कोई भी चीफ (राज्यों के शासक/राजा) प्रभुता सम्पन्न नहीं रह गये थे। बस्तर रियासत उन दिनों मध्यप्रांत के पंद्रह फ्यूडेटरी चीफ क्षेत्रों (रियासतों) में सबसे बड़ी थी जिसके अंतर्गत 13072 वर्ग मील का क्षेत्रफल आता था। फ्यूडेटरी चीफ का स्तर पाये बस्तर के राजा को रेजीडेण्ट, दीवान, एडमिनिस्ट्रेटर, सुप्रिंटेंडेंट पॉलिटिकल एजेंट तथा वायसराय की सहायता से शासन चलाना होता था।

बस्तर के प्रशासन पर अंग्रेजों के शिकंजे का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि राजा को अपने राज्य की सीमा के भीतर खनन की अनुमति देने, दो वर्ष से अधिक की सजा देने अथवा पचास रुपयों से अधिक का जुर्माना लगाने के लिये भी ब्रिटिश अधिकारियों से अनुमति लेनी होती थी। इतना ही नहीं राजा को उसकी प्रजा के समक्ष अधिकार विहीन दिखाने अथवा अशक्त सिद्ध करने का कोई अवसर अंग्रेज नीतिकारों ने नहीं छोड़ा था। न्याय व्यवस्था में सुधारवाद अथवा लचीलापन लाने की आड़ में यह व्यवस्था भी बनाई गयी कि अब प्रजा भी राजा पर मुकदमें करने लगी, और इसके लिये किसी तरह की अनुमति प्राप्त करने का प्रावधान नहीं रखा गया था। यद्यपि यही कानून और तरीका अंग्रेज प्रशासकों के लिये लागू नहीं होता था। ब्रिटिश न्यायालय में आये ऐसे ही एक रोचक मुकदमें का उल्लेख मिलता है जब शेख रसूल नाम के एक व्यापारी ने बस्तर के राजा भैरम देव पर उसके दो हजार रुपये और चौदह आने का भुग्तान न करने का आरोप लगाया। यह मुकदमा राजा के पक्ष में निर्णित हुआ था।


- राजीव रंजन प्रसाद

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गुरु घासीदास, दंतेश्वरी मंदिर और नरबलि
बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ (भाग – 32)



छत्तीसगढ रज्य गुरु घासीदास का कृतज्ञ है जिन्होंने यहाँ की मिट्टी को अपनी उपस्थिति तथा ज्ञान से पवित्र किया था। गुरू घासीदास का जन्म 18 दिसम्बर 1756 को रायपुर जिले के गिरौदपुरी ग्राम में एक साधारण परिवार में हुआ था। संत गुरु घासीदास ने समाज में व्याप्त असमानताओं, पशुबलि जैसी कुप्रथाओं का विरोध किया। हर व्यक्ति एक समान है की भावना को विस्तारित करने के लिये उन्होंने 'मनखे-मनखे एक समान' का संदेश दिया। सतनाम पंथ के ये सप्त सिद्धांत प्रतिष्ठित हैं - सतनाम पर विश्वास, मूर्ति पूजा का निषेध, वर्ण भेद की अमान्यता, हिंसा का विरोध, व्यसन से मुक्ति, परस्त्रीगमन की वर्जना और दोपहर में खेत न जोतना।

यह मेरी सहज जिज्ञासा थी कि गुरु घासीदास का बस्तर पर क्या और कितना प्रभाव था। डॉ. सुभाष दत्त झा का एक आलेख पुस्तक - बस्तर: एक अध्ययन में प्रकाशित हुआ है। संदर्भ दिया गया है कि – छत्तीसगढ के प्रसिद्ध संत गुरुघासीदास के बारे में एक विवरण प्राप्त होता है जिसमें उन्हें बलि हेतु पकड़ लिया गया था परंतु रास्ते में उनकी उंगली कट गयी थी अत: अंग भंग वाली बलि न चढाने के रिवाज के कारण उन्हें छोड दिया गया (पृ 77)। जानकार मानते हैं कि गुरु घासीदास ने रियासतकाल में परम्परा की तरह दंतेश्वरी मंदिर में होने वाली नर-बलि को रोकने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी। दंतेश्वरी मंदिर तथा यहाँ होने वाली कथित नरबलि की सैंकडों कहानियाँ जनश्रुतियों में तथा तत्समय के सरकारी दस्तावेजों में दर्ज हैं। यद्यपि अंग्रेज जांच कमीटियों के कई दौर के बाद भी यह सिद्ध नहीं कर सके थे कि दंतेश्वरी मंदिर में नरबलि दी जाती है। गुरु घासीदास के सम्बन्ध में यह संदर्भ इसलिये रुचिकर तथा प्रमाणपूर्ण लगता है क्योंकि अपनी शिक्षाओं में भी वे बलि प्रथा और अन्य नृशंसताओं के विरोध में खडे दिखते हैं।




- राजीव रंजन प्रसाद


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1 टिप्पणियाँ

  1. नर बलि प्रथा गलत थी । मंदिर पवित्र स्थान ।कुप्रथाओं का बिरोध आवश्यक । ब्रृहद जानकारी के लिए धन्यवाद।

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