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बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ (भाग – 33 व 34)- [कहानियाँ]- राजीव रंजन प्रसाद

रचनाकाररचनाकार परिचय:-

राजीव रंजन प्रसाद

राजीव रंजन प्रसाद ने स्नात्कोत्तर (भूविज्ञान), एम.टेक (सुदूर संवेदन), पर्यावरण प्रबन्धन एवं सतत विकास में स्नात्कोत्तर डिप्लोमा की डिग्रियाँ हासिल की हैं। वर्तमान में वे एनएचडीसी की इन्दिरासागर परियोजना में प्रबन्धक (पर्यवरण) के पद पर कार्य कर रहे हैं व www.sahityashilpi.com के सम्पादक मंडली के सदस्य है।

राजीव, 1982 से लेखनरत हैं। इन्होंने कविता, कहानी, निबन्ध, रिपोर्ताज, यात्रावृतांत, समालोचना के अलावा नाटक लेखन भी किया है साथ ही अनेकों तकनीकी तथा साहित्यिक संग्रहों में रचना सहयोग प्रदान किया है। राजीव की रचनायें अनेकों पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं तथा आकाशवाणी जगदलपुर से प्रसारित हुई हैं। इन्होंने अव्यावसायिक लघु-पत्रिका "प्रतिध्वनि" का 1991 तक सम्पादन किया था। लेखक ने 1989-1992 तक ईप्टा से जुड कर बैलाडिला क्षेत्र में अनेकों नाटकों में अभिनय किया है। 1995 - 2001 के दौरान उनके निर्देशित चर्चित नाटकों में किसके हाँथ लगाम, खबरदार-एक दिन, और सुबह हो गयी, अश्वत्थामाओं के युग में आदि प्रमुख हैं।

राजीव की अब तक प्रकाशित पुस्तकें हैं - आमचो बस्तर (उपन्यास), ढोलकल (उपन्यास), बस्तर – 1857 (उपन्यास), बस्तर के जननायक (शोध आलेखों का संकलन), बस्तरनामा (शोध आलेखों का संकलन), मौन मगध में (यात्रा वृतांत), तू मछली को नहीं जानती (कविता संग्रह), प्रगतिशील कृषि के स्वर्णाक्षर (कृषि विषयक)। राजीव को महामहिम राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी द्वारा कृति “मौन मगध में” के लिये इन्दिरागाँधी राजभाषा पुरस्कार (वर्ष 2014) प्राप्त हुआ है। अन्य पुरस्कारों/सम्मानों में संगवारी सम्मान (2013), प्रवक्ता सम्मान (2014), साहित्य सेवी सम्मान (2015), द्वितीय मिनीमाता सम्मान (2016) प्रमुख हैं।

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स्त्री प्रशासक नाग राजकुमारी मासकदेवी
बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ (भाग – 33)

बस्तर को समझने के विमर्श में आम तौर पर लोग मासकदेवी को लांघ कर निकल जाते हैं; संभवत: इसी लिये इस महत्वपूर्ण स्त्रीविमर्श के अर्थ से अबूझ रहते हैं। दंतेवाड़ा में छिंदक नाग वंशीय शासकों से सम्बंधित एक शिलालेख मिलता है जो कि तत्कालीन राजा की बहन मासक देवी के नाम से जारी किया गया है। शिलालेख का समय अज्ञात है किंतु उसमें सर्व-साधारण को यह सूचित किया गया है कि – “राज्य अधिकारी कर उगाहने में कृषक जनता को कष्ट पहुँचाते हैं। अनीयमित रूप से कर वसूलते हैं। अतएव प्रजा के हितचिंतन की दृष्टि से पाँच महासभाओं और किसानों के प्रतिनिधियों ने मिल कर यह नियम बना दिया है कि राज्याभिषेक के अवसर पर जिन गाँवों से कर वसूल किया जाता है, उनमें ही एसे नागरिकों से वसूली की जाये, जो गाँव में अधिक समय से रहते आये हों”। इस अभिलेख के कुछ शब्दों पर ठहरना होगा वे हैं – महासभा, किसानों के प्रतिनिधि तथा कर। संभवत: यह महासभा पंचायतों का समूह रही होंगी जिनके बीच बैठ कर मासकदेवी ने समस्याओं को सुना, किसानों ने गाँव गाँव से वहाँ पहुँच कर अपना दुखदर्द बाँटा होगा। इस सभा को शासन द्वारा नितिगत निर्णय लेने की स्वतंत्रता दी गयी होगी जिस आधार पर मासकदेवी ने अपनी अध्यक्षता में ग्रामीणों और किसानों की बातों को सुन कर न केवल समुचित निर्णय लिया अपितु शिलालेख बद्ध भी कर दिया। शिलालेख का अंतिम वाक्य मासकदेवीको मिले अधिकारों की व्याख्या करता है जिसमे लिखा है - ‘जो इस नियम का पालन नहीं करेंगे वे चक्रकोट के शासक और मासकदेवी के विद्रोही समझे जायेंगे’।

मासकदेवी एक उदाहरण है जिनको केन्द्र में रख कर प्राचीन बस्तर के स्त्री-विमर्श और शासकों व शासितों के अंतर्सम्बन्धों पर विवेचना संभव है। यह जानकारी तो मिलती ही है कि लगान वसूल करने में बहुत सी अनीयमिततायें थी। साथ ही सुखद अहसास होता है कि तत्कालीन प्रजा के पास एसी ग्रामीण संस्थायें थी जो शासन द्वारा निर्मित समीतियों से भी सीधे जुड़ी थी। प्रतिपादन की निरंकुशता पर लगाम लगाने का कार्य महासभाओं में होता था तथा नाग युग यह उदाहरण भी प्रस्तुत करता है कि अवसर दिये जाने पर स्त्री हर युग में एक बेहतर प्रशासक सिद्ध हुई है।


- राजीव रंजन प्रसाद

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नवरंगपुर विजय और धनुकाण्डैया
बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ (भाग – 34)



बहुत ही कहानियाँ अनकही रह गयीं और बहुत सी परम्परायें मिटने के कगार पर पहुँच गयी हैं। नवरंगपुर विजय रियासतकालीन बस्तर की बहुत बड़ी घटना थी। बस्तर के राजा वीरसिंह देव (1654-1680 ई.) की अपनी कोई संतान न होने के कारण उनकी मृत्यु के उपरांत छोटे भाई रणधीर सिंह के बेटे दिक्पालदेव (1680-1709) को बस्तर राज्य की कमान दी गयी थी। इन समयों में मुगल शासक शक्तिशाली हो गये थे। बस्तर इस कठिन समय में भी अपना स्वतंत्र अस्तित्व रखने में सफल रहा। दिक्पालदेव ने महत्वाकांक्षा तथा कुशल रणनीति से राज्य को उस उँचाई तक पहुँचाया जिसमें उसके पूर्ववर्ती शासक असफल रहे थे। गजपतियों की गिरती हुई ताकत से उत्साहित हो कर उन्होंने ओड़िशा का नवरंगपुर दुर्ग जीत लिया। दंतेवाड़ा शिलालेख में इस विजय का स्पष्ट उल्लेख मिलता है – हेलया गृहीतनवरंगपुर दुर्गम।

नवरंगपुर विजय असाधारण थी अत: उसका विजयोत्सव भी लम्बा चला। नवरंगपुर विजय को यादगार बनाने के लिये राजा नेदशहरा पर्व में धनुकाण्डैया को सम्मिलित किया था। रथयात्रा के समय में भतरा जाति के नौजवान धनुकाण्डैया बना करते थे। लाला जगदलपुरी ने अपनी पुस्तक ‘बस्तर – इतिहास एवं संस्कृति’ में धनुकाण्डैया की वेश-भूषा का स-विस्तार वर्णन किया है। धनुकाण्डैया का जूड़ा फूलों से सजा हुआ तथा बाँहें और कलाईयों पर भी फूल सजे होते थे। धनुकाण्डैया बनने वाला युवक कंधे पर धनुष धारण करता था। उसका धनुष भी फूलों से सजा हुआ होता था। धनुकाण्डैया बनने की यह प्रथा वर्ष 1947 तक चलती रही। अब यह प्रथा पूरी तरह बंद हो गयी है। अब नवरंगपुर भी बस्तर का हिस्सा नहीं है लेकिन उसका इतिहास तो है। धनुकाण्डैया का अब दशहरा के अवसर पर रथ के पीछे न चलना व्यावहारिक रूप से उत्सव मनाये जाने के स्वरूप में कोई बड़ा बदलाव दृष्टिगोचर नहीं होता लेकिन ठहर कर सोचें तो इस पर्व से एक अप्रतिम हिस्सा अलग हो गया है।





- राजीव रंजन प्रसाद


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