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बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ (भाग – 35 व 36)- [कहानियाँ]- राजीव रंजन प्रसाद

रचनाकाररचनाकार परिचय:-

राजीव रंजन प्रसाद

राजीव रंजन प्रसाद ने स्नात्कोत्तर (भूविज्ञान), एम.टेक (सुदूर संवेदन), पर्यावरण प्रबन्धन एवं सतत विकास में स्नात्कोत्तर डिप्लोमा की डिग्रियाँ हासिल की हैं। वर्तमान में वे एनएचडीसी की इन्दिरासागर परियोजना में प्रबन्धक (पर्यवरण) के पद पर कार्य कर रहे हैं व www.sahityashilpi.com के सम्पादक मंडली के सदस्य है।

राजीव, 1982 से लेखनरत हैं। इन्होंने कविता, कहानी, निबन्ध, रिपोर्ताज, यात्रावृतांत, समालोचना के अलावा नाटक लेखन भी किया है साथ ही अनेकों तकनीकी तथा साहित्यिक संग्रहों में रचना सहयोग प्रदान किया है। राजीव की रचनायें अनेकों पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं तथा आकाशवाणी जगदलपुर से प्रसारित हुई हैं। इन्होंने अव्यावसायिक लघु-पत्रिका "प्रतिध्वनि" का 1991 तक सम्पादन किया था। लेखक ने 1989-1992 तक ईप्टा से जुड कर बैलाडिला क्षेत्र में अनेकों नाटकों में अभिनय किया है। 1995 - 2001 के दौरान उनके निर्देशित चर्चित नाटकों में किसके हाँथ लगाम, खबरदार-एक दिन, और सुबह हो गयी, अश्वत्थामाओं के युग में आदि प्रमुख हैं।

राजीव की अब तक प्रकाशित पुस्तकें हैं - आमचो बस्तर (उपन्यास), ढोलकल (उपन्यास), बस्तर – 1857 (उपन्यास), बस्तर के जननायक (शोध आलेखों का संकलन), बस्तरनामा (शोध आलेखों का संकलन), मौन मगध में (यात्रा वृतांत), तू मछली को नहीं जानती (कविता संग्रह), प्रगतिशील कृषि के स्वर्णाक्षर (कृषि विषयक)। राजीव को महामहिम राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी द्वारा कृति “मौन मगध में” के लिये इन्दिरागाँधी राजभाषा पुरस्कार (वर्ष 2014) प्राप्त हुआ है। अन्य पुरस्कारों/सम्मानों में संगवारी सम्मान (2013), प्रवक्ता सम्मान (2014), साहित्य सेवी सम्मान (2015), द्वितीय मिनीमाता सम्मान (2016) प्रमुख हैं।

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भोंगापाल, बोधघाट और पुराने रास्ते
बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ (भाग – 35)

उत्तरापथ और दक्षिणापथ को जोडते वे कौन से प्राचीन मार्ग थे? क्या ये रास्ते बस्तर हो कर भी गुजरते थे? क्या बौद्ध और जैन धर्म के प्रचार प्रसार को आने, जाने और ठहरने वालों के लिये बस्तर में कहीं ठौर था। नारायण के निकट स्थित है भोंगापाल जहाँ केवल बस्तर अथवा छत्तीसगढ राज्य ही नहीं अपितु मध्य-भरत का एकमात्र ईंटों से बना विशाल चैत्य प्राप्त हुआ है। अध्येताओं का अनुमान है कि यहाँ ध्वंस ईंट निर्मित स्थल मौर्य युगीन है। यहाँ प्राप्त हुई सप्तमातृका की प्रतिमा मध्य कुषाण कालीन तथा गौतम बुद्ध की प्रतिमा गुप्तकालीन है। दुर्भाग्यपूर्ण कि इस स्थान की महत्ता पर अधिक कार्य नहीं हुआ है। अनेक संदर्भ इशारा करते हैं कि मौर्य सम्राट अशोक सर्वास्तिवादी शाखा के आचार्य उपगुप्त के उपदेशों से प्रभावित थे। यह सम्प्रदाय महासंधिकों की एक उपशाखा के रूप में प्रसिद्ध हुआ। भोंगापाल का बौद्धचैत्य भी इन्हीं चैत्य शिलावादी आचार्यों के धर्म प्रचार प्रसार एवं निवास का प्रमुख केंद्र रहा है। भोंगापाल के निकट स्थित जैतगिरि निश्चित ही चैत्यगिरि का बदला हुआ नाम है। इसी मार्ग के आगे की कडी जोडी जाये तो बारसूर के निकट बोधघाट है जो बौद्ध घाट से बिगड कर बना जान पडता है।

उत्तरापथ से दक्षिणापथ को जोडने के प्राचीन मार्ग में निश्चित ही भोंगापाल की अपनी जगह और महत्ता लम्बे समय तक रही होगी। एक ओर दक्षिण कोसल तथा दूसरी ओर दक्षिण के अनेक राज्य होने के कारण की कतिपय खोजी कडियाँ जोडते हुए मानते हैं कि प्रसिद्ध बौद्ध आचार्य महादेव आंध्र व ओडिशा से जुडे बस्तर अंचल के भोंगापाल केंद्र से जुडे हो सकते हैं। भोंगापाल प्रतिमा के गुप्त कालीन होने से यह संभावना भी प्रबल होती है कि यहाँ से वही मार्ग गुजरता हो जहाँ से हो कर चौथी सदी में गुप्त सम्राट समुद्रगुप्त ने अपने विजय अभियान का रुख दक्षिणापथ राज्यों की ओर किया था।


- राजीव रंजन प्रसाद

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राजा की रिजर्व सेना
बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ (भाग – 36)



मराठा राज्यों के लिये राजस्व के प्रमुख स्त्रोत आकस्मिक हमले हुआ करते थे; 1809 ई. में रावघाट की पहाड़ियों से हो कर नारायणपुर के भीतर प्रवेश करने वाली मराठा सेना रामचंद्र वाघ के नेतृत्व में पहुँची थी (केदारनाथ ठाकुर, 1908)। बस्तर और कांकेर राज्य इन दिनों मराठों के खिलाफ संधि की अवस्था में थे; यह रणनीतिक भूल थी कि दोनों रियासतों ने सहयोग की सहमति होते हुए भी हमले का जवाब देने की तैयारी नहीं की। कांकेर के परास्त होने की जानकारी मिलते ही महिपाल देव (1800-1842 ई.) ने रणनीति के तहत आक्रांता सेना का मुकाबला करने के लिये हलबा योद्धाओं की एक टुकड़ी को आगे कर दिया। राजमहल रिक्त कर दिया गया। मामूली प्रतिरोध को कुचलते हुए जगदलपुर में बाघ की सेना प्रविष्ठ हो गयी। राजमहल खाली, शहर के प्रतिष्ठित नागरिक, व्यापारी और अधिकारी नगर से पलायन कर गये थे। बिना बड़े युद्ध के मिली इस विजय से रामचन्द्र बाघ ने भी निश्चिंत हो जाने की वही राजनीतिक भूल की, जो नीलू पंड़ित से हुई थी। अगली सुबह हालात बदल गये। लम्बी लम्बी बंदूखें धरी रह गयीं, तोप निश्शब्द खड़े रह गये। बस्तर की सेना ने पीछे से आक्रमण कर मराठा अभियान कुचल दिया था। इससे पहले कि रामचंद्र बाघ पकड़ लिया जाता, वह जंगलों की ओर भाग गया। जगदलपुर से भागते हुए उसने देखा था, पहाड़ों से हजारों की संख्या में आदिवासी तीर धनुष लिये इस तरह चले आ रहे थे, जैसे चींटियों की अंतहीन कतार। वस्तुत: बस्तर के राजाओं के लिये उनकी प्रजा ही सशस्त्र रिजर्व सेना थी। प्राय: राज्य की इस छिपी हुई ताकत का आंकलन करने में विरोधी सेनाओं से चूक हो जाया करती थी, जो उनकी पराजय निश्चित कर देती थी।





- राजीव रंजन प्रसाद


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