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जल रहें हैं गीत देखो [गीत]- मिथिलेश वामनकर

मिथिलेश वामनकररचनाकार परिचय:-

नाम- मिथिलेश वामनकर

जन्मतिथि- 15 जुलाई 1981

शिक्षा- विज्ञान स्नातक (गणित)

सम्प्रति- राज्य कर उपायुक्त, वाणिज्यिक कर विभाग, मध्यप्रदेश

पता-308, श्रीरामेश्वरम डीलक्स, बागमुगलिया, भोपाल (म.प्र.)

वेबसाइट- www.mwonline.in

ब्लॉग- vimisahitya.wordpress.com

विधाएँ- गीत, ग़ज़ल, अतुकांत, भारतीय छंद और लघुकथा

प्रकाशन- अँधेरों की सुबह (ग़ज़ल संग्रह), शब्दशिल्पी (संपादन), “दोहा-प्रसंग” (संपादन, प्रकाशनाधीन), समवेत स्वर, साज़ सा रंग और त्रिसुगंधी साझा संकलनों तथा विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित.
E mail- mitwa1981@gmail.com
गीत-1

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वेदना अभिशप्त होकर,

जल रहें हैं गीत देखो।



विश्व का परिदृश्य बदला और मानवता पराजित,

इस धरा पर खींच रेखा, मनु स्वयं होता विभाजित ।

इस विषय पर मौन रहना, क्या न अनुचित आचरण यह ?

छोड़ना होगा समय से अब सुरक्षित आवरण यह।

कुछ कहो, कुछ तो कहो,

मत चुप रहो यूँ मीत देखो।



मन अगर पाषाण है, सम्वेदना के स्वर जगा दो।

उठ रही मष्तिष्क में दुर्भावनायें, सब भगा दो।

कुछ करो निश्चित, अनिश्चित से जगत की क्षति सुनिश्चित।

शक्ति बिखरी है, समेटो, पुंज उर्जा का हो अर्जित।

सुख मिलेगा उस घड़ी,

जब हार में भी जीत देखो।



आज मानवता न जाने किस दिशा में बढ़ रही है?

आधुनिकता से प्रपंचित पाठ कुंठित पढ़ रही है ।

नवग्रहों का श्राप लेकर, क्यों अहम् में सूर्य काला।

ज्ञात हो क्योंकर चतुर्दिक झूठ का है बोलबाला?

सत्य को आँसू मिले हैं,

इस जगत की रीत देखो।



युग बदलतें हैं प्रयासों से, तनिक यह भान रखना।

एक मानव दूसरे का सीख जाए मान रखना।

एक होंगे इस क्रिया से, दूर हों सारे झमेले।

कब सहज एकांत जीवन? मत रहो ऐसे अकेले।

साथ देखो, हाथ देखो,

प्रेम देखो, प्रीत देखो।



अनगिनत हैं वेदनाएँ, अनगिनत है धारणाएँ,

लक्ष्य तब ही मित्र होगा, जब नियंत्रित कामनाएँ।

जब मनुजता के लिए ही त्याग या सद्कर्म होगा,

जब मनुजता शर्त होगी और मानव धर्म होगा।

क्षुब्ध मन को प्राप्य तब,

आनंद आशातीत देखो।

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