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गाड़ी के मुसाफ़िर - खंड १- [मारवाड़ी हास्य-नाटक]- दिनेश चन्द्र पुरोहित


रचनाकार परिचय:-


लिखारे दिनेश चन्द्र पुरोहित
dineshchandrapurohit2@gmail.com

अँधेरी-गळी, आसोप री पोळ रै साम्ही, वीर-मोहल्ला, जोधपुर.[राजस्थान]
मारवाड़ी हास्य-नाटक  [गाड़ी के मुसाफ़िर] खंड लेखक और अनुवादक -: दिनेश चन्द्र पुरोहित

[मंच रोशन होता है, भारतीय खाद्य निगम के दफ़्तर का दिखाई देता है ! दफ़्तर के बाहर गाड़ियां रखने के स्थान बना हुआ है, उसके पास ही एक सीमेंट का छप्परा लगा है, जिसके नीचे बारदान बिछे हुए हैं ! कोने में, रखी त्रिमची पर पानी से भरी मटकी दिखायी देती है ! ऊपर लोहे के पाइप पर, वेल्डिंग की हुई बैग वगैरा लटकाने की कई खूंटियां लगी है ! एक खूंटी पर, डस्ट ओपरेटर माना रामसा की थैली लटकी हुई है ! अभी इस वक़्त बारदान के ऊपर माना रामसा के पास उनके साथी लूणकरणजी, सावंतजी, रशीद भाई और ठोकसिंहजी विराजमान है ! सावंतजी पीकर के पद पर कार्यरत हैं, शेष सभी साथी डस्ट-ओपरेटर हैं ! इन साथियों के बीच ज़ोरों की गप-शप चल रही है, माना रामसा अपनी हथेली पर अमल [अफ़ीम] की किरचियां [छोटे-छोटे टुकड़े] रखकर उसे अपने साथियों के सामने लाते हैं ! और, उनकी मनुआर करते जा रहे हैं !]

माना रामसा – [ईश्वर को नमन करते हुए] – जय शिव शंकर, कांटा लगे न कंकर ! है महादेव, आपकी कृपा से सुबह का प्रसाद आपको चढ़ा रहा हूं ! [हथेली पर रखी अफ़ीम की किरचियों को, साथियों के समने लाकर उनकी मनुआर करते हैं] लीजिये महानुभवों, बाबा भोले शिव शंकर की प्रसादी ! लेकर हो जाओ, मस्त !

[रशीद भाई हाथ आगे बढ़ाकर, अफ़ीम की किरची उठाना चाहते हैं..मगर, बीच में ही उनका हाथ पकड़कर सावंतजी उन्हें फटकारते हुए कहते हैं !]

सावंतजी – [फटकारते हुए कहते हैं] – अरे खां साहब के बच्चे, इतना जल्दी मरना चाहता है क्या ? अभी तो खुश होकर ले रहा है, मुफ़्त में यह अफ़ीम की किरचियां ! धीरे-धीरे यह तेरा अफ़ीमची दोस्त, तूझे भी अपना जैसा बना लेगा अफ़ीमची ! उसके बाद तू जेब से पैसे निकालकर लायेगा अफ़ीम, तब तेरी नानी याद आयेगी !

माना रामसा – [हंसते हुए कहते हैं] – ले ले यार रशीद, माल असली है..तेरे घुटने का सारा दर्द, छू-मंतर हो जायेगा ! देख यार इस मंशिया ने प्रसादी ली, और फिर वह अरबी घोड़े की तरह दौड़ने लगा ! यार रशीद, यह बात तू भूल गया क्या ?

लूणकरणजी – [हाथ आगे बढ़ाते हुए कहते हैं] – ऐसी बात है, तो उस्ताद सबसे पहले मैं लूंगा प्रसादी ! फिर देखता हूं, इसका असर !

[मगर माना रामसा ठहरे, पक्के उस्ताद ! यों बेफिजूल किसी को, अफ़ीम देने वाले नहीं ! उनकी तो यही इच्छा रहती है, नये-नए चेले बनाने की ! बस, वे लोगों को थोड़ी-थोड़ी अफ़ीम खिलाकर, उनकी आदतें बिगाड़ दिया करते हैं..बार-बार अफ़ीम देकर, ये उन्हें अफ़ीम लेने के आदी बना देते हैं ! उनके पक्के अफ़ीमची बनने के बाद, माना रामसा ऐसे लोगों को मुफ़्त में अफ़ीम देना बंद कर देते हैं ! मज़बूर होकर इनको भी, अफ़ीम ख़रीदकर सेवन करनी पड़ती है ! फिर क्या ? माना रामसा के लिये काफ़ी सहूलियत..! कभी वह अफ़ीम की मनुआर करें, तो कभी और कोई ! इस तरह माना रामसा को रोज़ अफ़ीम ख़रीदने की कोई ज़रूरत नहीं ! वक़्त आराम से कट जाता है, और अफ़ीमचियों के बीच तगड़ी दोस्ती भी बकरार ! यही कारण है, कई दिनों से अफ़ीम ले रहे लूणकरणजी को पक्का अफ़ीमची बनने में ज्यादा वक़्त बाकी रहा नहीं ! इस कारण माना रामसा उन्हें रोकते हुए कह रहे हैं..]
माना रामसा – [उनका हाथ पकड़कर, कटु-शब्द सुना बैठते हैं] – अरे मेरे चेले, लूणकरण ! तूझे कितनी बार समझाऊं यार, मगर तू तो कुछ समझता ही नहीं ? डोफ़ा रह गया है तू, घास-मंडी का ! समझ, तेरा वक़्त बीत गया है..मुफ़्त की प्रसादी लेने का ! अब तू मेरा पक्का चेला, बन गया रे !

लूणकरणजी – [हाथ छुड़ाकर, कहते हैं] – हुज़ूर यह तो सरासर अन्याय है, अब मैं क्या करूं ?

माना रामसा – अब तू माल ख़रीदकर ला, और क्या ? बाद में ख़ुद लेना प्रसादी, और मुझे भी देना भोले बाबा की प्रसादी ! बचे तो भय्या, तेरे इन साथियों को भी देना यह महाप्रसादी ! अब समझ गया, या नहीं ?

लूणकरणजी – इससे क्या होगा, उस्ताद ?

माना रामसा – इस तरह अपुन लोगों के बीच, भाईचारा बढ़ता रहेगा ! फिर क्या ? तू रोज़ करता रहेगा, उस्ताद की ख़िदमत ! समझ गया, मेरे पक्के चेले ? तूझे तो अभी-तक, इस खिलक़त में मेरे ज्ञान का प्रकाश फैलाकर मेरा नाम रोशन करना है ! भूल गया तू, तूने मुझसे क्या वादा किया था ?

लूणकरणजी – [रोनी आवाज़ में कहते हैं] – हां उस्ताद, अब समझ गया के ‘मैं आपका पक्का चेला ज़रूर हूं, मगर आपकी चढ़ायी गयी भोले बाबा की प्रसादी चख नहीं सकता ! यह भी समझ गया उस्ताद, यह मंशिया मुफ़्त में आपकी चढ़ायी गयी प्रसादी चख सकता है, और चख सकते हैं ऐरे-गैरे आदमी !

माना रामसा – [हंसते हुए कहते हैं] – क्यों जलता है रे ? अरे गधे उस मंशिये की बात कुछ अलग है, उस वक़्त तेरा यह उस्ताद तरंग में आया हुआ था...और इस मियें की औलाद ने, ऊपर से तुकमा दे दिया मुझे बड़े हकीम का ! अब यार, तू एक बात बता ! हकीम बनने के बाद कोई इलाज़ नहीं करें क्या, इस रोगी मंशिये का ?

[इतने में फुठर मलसा लम्बी-लम्बी सांसें लेते हुए, आते दिखायी देते हैं !]

फुठर मलसा – [नज़दीक आकर कहते हैं] – आज़ तो ग़लती हो गयी, कढ़ी खायोड़ा ! अरे जनाब, किसी चमगूंगे ने कह दिया, ‘आज़ कलेक्टर साहब ने सभी अधिकारियों की मिटिंग रखी है !’ उसके कहे-कहे, मैं तो बन गया गैलसफ़ा !

सावंतजी – [मुस्कराकर कहते हैं] – इसमें नयी बात क्या है, जनाब ? आप तो पहले से तुकमा रखते हैं, [धीरे से कहते हैं] गैलसफ़े का !

फुठर मलसा – अरे नहीं रे, कढ़ी खायोड़ा ! मिटिंग तो ज़रूर रखी, मगर आज़ नहीं..परसों के दिन, रखी है ! आगे सुनो सावंतजी, जैसे ही मुझे मालुम पड़ा, के..

रशीद भाई – [बात काटते हुए] – जनाब, हो गया क्या ? आगे बोलिये, अगला जुमला भूल गये क्या ? यों कहिये ‘मेरे हाथ के तोते उड़ गये !

लूणकरणजी – [खुशी से उछलते हुए कहते हैं] – अरे वाह, साहब ने तोते बेचने का पार्ट-टाइम का नया धंधा खोल दिया है...यह धंधा तो जनाब, बहुत अच्छा चलता है ! अब तो साहब के, बरक़त ही बरक़त !

माना रामसा – [मुस्कराकर कहते हैं] – साहब ! यह काम आपने बहुत अच्छा किया है, तोते बेचने का धंधा खोलकर ! अब साहब धंधे को चमकाने के लिये, आपको पुण्य कमाना चाहिये ! बस, साहब आप इस पंडित को एक तोता दान कर दीजिये ! मैं उस तोते को खूब पढ़ाऊँगा..ज्योतिषविद्या सीखा दूंगा, और लोगों का...

फुठर मलसा – अब ज्योतिष सीखाना बंद कर, पहले ख़ुद का भविष्य पढ़ ले, अब क्या होने वाला है ? मेरा यहां रुकने का प्रोग्राम बन गया है, अब तू चलकर गोदाम का माल चैक करवा दे ! [होंठों में ही] अब हम बनायेंगे, टी.ए.डी.ए. ! [सभी से कहते हैं, तेज़ सुर में] अब उठिये सभी, चलिये गोदाम में !

माना रामसा – [अंगड़ाई लेते हुए] – हुज़ूर, इतनी काहे की उतावली ? अभी-तक बहुत वक़्त पड़ा है, चलेंगे साहब..आराम से चलेंगे ! साहब आपकी गाड़ी तो जनाब, शाम को जायेगी ! फिर, काहे की उतावली ?

फुठर मलसा – बात तो पंडित तूने वाज़िब कही ! तब मैं पहले जाकर, इस मंशाराम ठेकेदार से रिपोर्ट ले लूं ! [सावंतजी से] यार सावंतसा, यह मंशिया कहीं नज़र नहीं आ रहा है..क्या बात है ? आया तो है यह माता का दीना, या गौत मार गया ?

सावंतजी – [मुस्कराते हुए कहते हैं] – उसके दीदार, कैसे होंगे जनाब ? बेचारे मुंह दिखाने लायक नहीं रहे !

फुठर मलसा – क्या हुआ रे ? कहां मर गया, काला मुंह कराने ? साला मां का...[भद्दी गाली की पर्ची निकालते हुए कहते हैं]

रशीद भाई – [हंसते हुए, आगे कहते हैं] – अरे जनाब, आपको क्या पता ? बेचारे के गालों पर, चांदमारी हो गयी जनाब ! ये आपके पास बैठे है ना, हकीम साहब एक हजार एक सौ आठ श्री..श्रीपंडित माना रामसा से इलाज़ लेकर बेचारे ने, नसीबे जान ज़ोखिम पाल ली हुज़ूर !

[इतना सुनते ही पंडित माना रामसा अपनी हंसी रोक नहीं पाते, फिर वे ठहाके लगाते हुए हंसते हैं ! बाद में किसी तरह, मुंह पर रुमाल ढांपकर वे कहने लगे..]

माना रामसा – [हंसी को दबाकर, किसी तरह कहते हैं] – हुज़ूर आप तो [हाथ जोड़कर] हमारे बड़े बोस हैं, आपकी ख़िदमत में हाज़िर होना हमारा पहला फ़र्ज़ है..जनाब ! आप हुक्म दीजिये, फिर आपका इलाज़ करता हूं ! [हाथों से इशारा करते हुए] मेरा इलाज़ लेते ही आप अरबी घोड़े के माफ़िक दौड़ेंगे, जनाब !

फुठर मलसा – [मुस्कराते हुए कहते हैं] – मुफ़्त में इलाज़, करता हो तो कह ! [जेब से मिराज़ ज़र्दे की थैली निकालते हुए कहते हैं] पहले यार पं
डित यह बता, के “इस मंशा राम को हुआ क्या ?”

[फुठर मलसा हथेली के ऊपर ज़र्दा रखकर, उसे अच्छी तरह अंगूठे से मसलते हैं ! फिर, तैयार की हुई सुर्ती को होंठों के नीचे दबाते हैं ! इसके बाद, वे आगे कहते हैं..]

फुठर मलसा – ले बोल, कैसे किया तूने इलाज़ ?

रशीद भाई – लीजिये जनाब, मैं बता देता हूं ! परसों की बात है, ये धान उठाने वाले ठेकेदार साहब मंशा रामसा छप्परे के पास से गुज़र रहे थे..कुम्हलाया हुआ मुंह लिये ! इनका मुख देखकर, माना रामसा को कुबद सूझी ! आप तो जानते ही हैं, ये पंडितजी एक नंबर के ओटाळ हैं !

फुठर मलसा – मुझसे बड़े ओटाळ नहीं हैं, मैं तो खुद हूं ओटालों का सरदार ! आप आगे कहिये, क्या हुआ ?

रशीद भाई – हुज़ूर अभी-तक आपका पाला इनसे पड़ा नहीं है, जो आप इतने खुलकर बोल रहे हैं ? जब कभी इनसे पाला पडेगा, तब मालुम होगा के ‘ये कैसे ओटाळ हैं ?’ अरे जनाब, क्या कह रहा था मैं ? हां याद आया, ये पण्डितजी उनको देखते ही मुझसे कहने लगे...

फुठर मलसा – क्या कहा ?

रशीद भाई – उन्होंने कहा, मुझे “ए रे रशीद भाई, देख रे उस मंशिया का मुंह ! कैसा, कुम्हलाया हुआ है ? तू उसको बुलाकर ला इधर, अभी मैं उसका इलाज़ करता हूं !

फुठर मलसा – वाह रे, रशीद भाई ! इसने कह दिया, और तू इस अफ़ीमची के कहे-कहे चला गया उसे बुलाने ?

रशीद भाई – बुलाना पड़ता है, साहब ! आख़िर आप जानते नहीं, मुझे लोग क्यों कहते हैं सेवाभावी ? इसलिए गया ठेकेदार साहब के पास, और जाकर कहा “ठेकेदार साहब, क्यों तेज़ धूप में अपना पसीना बहा रहे हैं ? चलिये जनाब, आपको हमारे हकीम साहब बुला रहे हैं !

फुठर मलसा – फिर, उसने क्या कहा ?

रशीद भाई – ठेकेदार साहब ने पूछा, के “कहां विराज़ रहे हैं, आपके हकीम साहब ?” मैंने जवाब दिया “छप्परे के नीचे ! आप वहां चलिये, वहां बैठकर चाय-वाय पीजिये..फिर अपुन करेंगे सुख-दुःख की बातें ! धान की बोरियों का काम तो चलता रहेगा जनाब, आप तो चलने की बात कीजिये !”

फुठर मलसा – आगे कहो, रशीद भाई..क्या हुआ ?

रशीद भाई – फिर, क्या जनाब ? ठेकेदार साहब को साथ लेकर आया यहां, पण्डित साहब ने चाय-वाय मंगवाई साहब..फिर इन्होंने खोली, अफ़ीम की थैली !

फुठर मलसा – फिर बाद में क्या हुआ, मेरे बाप ? यह स्वागत-सत्कार, बहुत महँगा पड़ा होगा ?

सावंतजी – जनाब, यह स्वागत-सत्कार के लिये उन्होंने नहीं किया ! हकीम साहब ने इलाज़ के लिये, उनको थोड़ी सी अफ़ीम चखा दी हुज़ूर ! अरे जनाब, आपको क्या कहें ? पास में बैठे हम लोगों को भी, थोड़ी बहुत लेनी पड़ी !

फुठर मलसा – इतने समझदार होकर सावंतजी यार, आपने नशा कैसे कर लिया ?

सावंतजी – साहब, पंडितजी हमारे मित्र हैं ! उनका साथ तो, हम सबको देना ही पड़ता है ! यह तो हम सबका फ़र्ज़ है, जनाब !

रशीद भाई – लीजिये आगे सुनिये, अब जैसे ही ठेकेदार साहब ने अफ़ीम की किरची अपने पेट में डाली...और इधर उनकी, कली-कली खिल गयी जनाब ! इनके मुखारविंद से शब्दों के पुष्प झरने लगे “पंडितजी यार, क्या चीज़ दी आपने ? मेरे बदन में ताकत आ गयी, जनाब !” यह सुनकर पंडितजी मुस्कराने लगे, और...

फुठर मलसा – और कोई कुबद तो न कर डाली, इस पंडित ने ?

सावंतजी – बीच में बोलकर, आप किस्से में आ रहे मज़े को ख़त्म मत कीजिये ! आगे कहिये, रशीद भाई !

रशीद भाई – अब पंडितजी ने जेब से निकाली एक गोली, और ठेकेदार साहब को गोली देते हुए मुस्करा कर कहने लगे “यह दवा तो इस गोली के आगे कुछ नहीं है, बस आप सोते वक़्त दूध के साथ इस गोली को ले लेना..फिर देखना, आप इस गोली का चमत्कार !

फुठर मलसा – [दिल में बढ़ती जिज्ञासा को, शांत करते हुए कहते हैं] – ऐसा कौनसा चमत्कार, दिखला रहे थे ?

रशीद भाई – उन्होंने आगे कहा “इस गोली को लेते ही आप, अरबी घोड़े की तरह कूद पड़ोगे !

फुठर मलसा – फिर, क्या हुआ ?

सावंतजी – सुनने में, ऐसी काहे की उतावली ? साहब, क्या आपको यह गोली लेनी है क्या ? बोलिये जनाब, बोलिये...शर्म मत कीजिये !

फुठर मलसा – लेने में, क्या उज्र है ? मगर मुफ़्त में मिलती हो तो, कढ़ी खायोड़ा ज़रूर गोली ले लेंगे !

[फुठर मलसा भा’सा लोगों के पास गाड़ी में बैठकर सीख गये ज़र्दा खाना..मगर, ज़र्दे को होंठों के नीचे दबाये रखना उनको आता नहीं ! इस कारण बेचारे जब भी बोलने के लिये मुंह फाड़ते हैं, तब सामने बैठने वाले के मुख पर ज़र्दा और थूक का मेक-अप ज़रूर कर देते हैं ! अब जैसे ही फुठर मलसा ने बोलने के लिये अपना मुख खोला, और सावंतजी उस्ताद को मालुम थी उनकी यह बुरी आदत ! फिर क्या ? इस ज़र्दे और थूक की बरसात से बचने के लिये, वे पास बैठे रशीद भाई की ओर एका-एक खिसकते हैं ! और खिसकते ही उनके सर पर आती है, मुसीबत ! उनका सर बेचारे रशीद भाई के सर से टकरा जाता है, दर्द के मारे बेचारे रशीद भाई चीख उठते हैं ! फिर बेचारे सर पकड़कर, बोल उठते हैं..]

रशीद भाई – [सर पकड़कर, ज़ोर से कहते हैं] – इनको क्या कहना आता है, जनाब ? केवल लोगों के सर फुड़वाने के अलावा, आता क्या इन्हें ? मुझसे सुनिये, जनाब ! दूसरे दिन ठेकेदार साहब आये दफ़्तर में, उनके मुंह का नक्शा बदला हुआ था ! ठौड़-ठौड़ काटने के निशान, जहां से खून के रिसाव व चमड़ी नीली पड़ जाने के निशान साफ़-साफ़ नज़र आ रहे थे !

फुठर मलसा – फिर..?

रशीद भाई – मेरे पास आकर पूछने लगे, के ‘कहां है, आपके पण्डितजी ?’ अरे साहब, मैं क्या जवाब दे पाता ? उसके पहले बबूल की छांव में लेटे माना रामसा बोल उठे ‘क्यों रे ठेकेदार, तेरे गालों पर कुत्ती काट गयी क्या ? सुनते ही, ठेकेदार साहब भन्नाये...

फुठर मलसा – उसका भन्नाना, वाज़िब है ! आगे क्या हुआ, कढ़ी खायोड़ा..जल्द कहिये !

रशीद भाई – ठेकेदार साहब कह उठे ‘यार माना रामसा, मेरी घर वाली ने उस गोली को ब्लड-प्रेशर की गोली समझकर रात को ले ली ! फिर, होना क्या ? आपके कारण ही, मेरी यह गत बनी है !’ इतना कहकर, ठेकेदार साहब रो उठे ! समझा-बुझाकर पण्डितजी ने उनको खुश किया, और फिर पंडितजी कहने लगे..

फुठर मलसा – क्या कहे, अब ? अब, कहना क्या बाकी रह गया ?

रशीद भाई – उन्होंने कहा ‘अब ग़लती करना मत, अब मैं तुम-दोनों को अलग-अलग गोली दूंगा..[रशीद भाई हंसने लगे, आगे उनसे बोला नहीं जा रहा..]

सावंतजी – फिर, क्या जनाब ? इतना सुनते ही बेचारे ठेकेदार साहब ऐसे भगे, मानो किसी शरारती बच्चे ने किसी कुत्ते की पिछली दुकान में ग्रीस चढ़ा दिया हो ? फिर जनाब, वो कुत्ता ग्रीस चढ़ने के बाद बेचारा बिना कूके कैसे दौड़ता है..

रशीद भाई – [हंसी दबाते हुए कहते हैं] - बेचारे कुत्ते का बोलना भी, बंद हो जाता है ! बस इसी तरह हमारे ठेकेदार साहब भी, बिना एक शब्द बोले तेज़ गति से सरपट दौड़े !

सावंतजी – [हंसी दबाकर कहते हैं] – बस जनाब, तब से हमारे ठेकेदार साहब गायब है ! सुना है वे किसी अस्पताल में जाकर, अपने रुख़सारों के ज़ख्मों का इलाज़ करवा रहे हैं !

[तभी सामने से, करणी दानसा आते दिखायी देते हैं ! फुठर मलसा के नज़दीक आकर वे बड़े साहब काजू साहब का हुक्म सुनाते हैं !]

करणीदानसा – [नज़दीक आकर कहते हैं] – जनाब, आपको बड़े साहब ने बुलाया है..कोई ज़रूरी काम है !

[सभी जाते हैं ! उनके क़दमों की आवाज़, सुनायी देती है ! धीरे-धीरे, यह आवाज़ आनी बंद हो जाती है ! मंच के ऊपर, अंधेरा फ़ैल जाता है !]

[२]
[मंच वापस रोशन होता है, गुणवत्ता-अधिकारी दयाल साहब के कमरे का मंज़र सामने आता है ! इस वक़्त वे इस कमरे में नहीं है, क्योंकि वे इस वक़्त काजू साहब से प्रभार लेन-देन के मुद्दे पर, सलाह-मशवरा कर रहे हैं ! कमरे के बाहर फुठर मलसा जैसे ही काजू साहब के कमरे के पास आते हैं, तभी उन्हें काजू साहब से बात कर रहे दयाल साहब की आवाज़ सुनायी दे जाती है ! बस, फिर क्या ? फुठर मलसा अब काजू साहब के कमरे में दाख़िल न होकर अपने क़दमों को, सीधे दयाल साहब के कमरे की तरफ़ बढ़ा देते हैं ! कमरे में दाख़िल होकर फुठर मलसा, सीधे आ कर दयाल साहब की ख़ाली कुर्सी पर बैठ जाते हैं ! फिर अफ़सर-शाही जतलाते हुए, मेज़ पर रखी घंटी को ज़ोर-ज़ोर से बजाते हैं ! घंटी की आवाज़ सुनकर, चम्पालाल वाचमेन हाज़िर होता है ! उसे देखते ही, वे रौब में आकर उसे हुक्म सुना बैठते हैं !]

फुठर मलसा - [रौब में आकर कहते हैं] – देख रे, चम्पला कढ़ी खायोड़ा ! आज़ मेरी ड्यूटी, इसी दफ़्तर में लगी हुई है ! अब तू अपने कानों की खिड़कियों को खोलकर सुन, मैं आज़ यहां माल चैक करने आया हूं ! अब तू बता मुझे, गोदाम में कितनी गेहूं की बोरियां रखी हुई है..और, कितना मुर्गी-दाना रखा है अन्दर ?

चम्पला – साहब, आपको पूरी रिपोर्ट दे दूंगा ! मगर पहले आप, फटा-फट दयाल साहब की कुर्सी छोड़कर उठ जाइये ! आपको ध्यान नहीं, यह ठौड़ दयाल साहब के बैठने की है ! वे..वे..

फुठर मलसा – बे..बे..क्या बकता है रे, चम्पला कढ़ी खायोड़ा ? बकरी है..? [गुस्से में कहते हैं] ‘यह दयाल साहब की कुर्सी है’ ऐसा कहकर तू मुझे रोक मत, इस कुर्सी के ऊपर कोई टोकन लगा है क्या..के, यह कुर्सी दयाल साहब की है ? अब तू अच्छी तरह से समझ ले..यह कुर्सी लकड़ी की है, इस पर बैठने का मुझे पूरा-पूरा हक़ है !

चम्पला – कैसे, जनाब ? आप कैसे बैठ सकते हैं ?

फुठर मलसा – [ग़रज़ते हुए] – कान खोलकर सुन, मैं और तेरे दयालसाहब एक ही रेंक के अधिकारी हैं ! समझ गया, खोड़ीला-खाम्पा ? आगे से ध्यान रखना, मुझे इस कुर्सी पर बैठने का पूरा हक़ अख्तियार है !

चम्पला – [हाथ जोड़कर कहता हैं] – मेरी बात मान जाइये, जनाब ! [धीरे से, कहता हुआ] बाद में कुछ हो गया, तब आप पीपली के पान जैसा मुंह लिये भ्रमण करते बुरे दिखायी देंगे..पूरे दफ़्तर में !

फुठर मलसा – काहे बड़-बड़ करता जा रहा है ? अब तू पान..पान काहे बक रहा है, कमबख्त कभी तूने पान की गिलोरी लाकर खिलायी नहीं..और, बकता जा रहा है पान..पान ?
[अब यह सीख इस चम्पले को देवे कौन ? के, आली-जनाब फुठर मलसा ठहरे दानिश इंसान..इनसे तर्क करने का क्या मफ़हूम है ? इस तरह मामले को अनसुलझा देखकर, अफ़ीमचियों के उस्ताद पंडित माना रामसा कमरे में दाख़िल होते हैं ! फिर अन्दर आकर, आंखें फाड़े हुए चारों ओर निगाहें डालते हैं ! ज्योंही वे फुठर मलसा के नज़दीक आते हैं..दोनों हाथों की अंगुलियों से आंखें चौड़ी करके, उनके मुंह के बिलकुल समीप आ जाते हैं ! फिर, भगवान एक्टर के अंदाज़ में कहते हैं..]

माना रामसा – [भगवान एक्टर के अंदाज़ से कहते हैं] – आप कौन है, साहब ? मुझे तो जनाब, आप फुठर मलसा कढ़ी खायोड़ा जैसे ही लग रहे हैं..?

फुठर मलसा – [गुस्से में कहते हैं] – फुठर मलसा जैसा नहीं, मैं ख़ुद असली फुठर मलसा ही हूं ! कढ़ी खायोड़ा, ये तेरी आंखें है या आलू ? आंखें फाड़कर, मुझे डरा देगा क्या ?

माना रामसा – [कुछ और नज़दीक आकर] – अब तो मालिक, मुझे पूरा भरोसा हो गया है..के, “आप, खारची वाले कढ़ी खायोड़ा फुठर मलसा ही हैं !”

फुठर मलसा – क्या कहा रे, कढ़ी खायोड़ा ?

माना रामसा - [हाथ जोड़कर कहते हैं] – हमारा सौभाग्य है, आप जैसे महानुभव हमारे यहां पधारे हैं ! बोलिए मालिक, आपकी क्या सेवा करूं ? आप जैसे बड़े अफ़सरों की मनुआर ज़रूर होनी चाहिये, मालिक !

[जेब से पोलीथिन थैली में रखी अफ़ीम निकालकर, उसे हथेली पर रखते हैं..फिर फुठर मलसा के सामने लाते हैं ! फिर, कहते हैं..]

माना रामसा – [अफ़ीम की मनुआर करते हुए कहते हैं] – यह लीजिये जनाब, भोले शम्भू का प्रसाद ! [हथेली और नज़दीक लाते हैं]

फुठर मलसा – यह क्या है रे, कढ़ी खायोड़ा ? यह काला-काला, आख़िर है क्या ? मुझे लगता है, यह बंदरों के खाने की कोई चीज़ है ? अब तू इसे यहां क्यों लेकर आया, कढ़ी खायोड़ा ?

माना रामसा – [लबों पर मुस्कान छोड़ते हुए कहते हैं] – बन्दर क्या जानता है, अदरक का स्वाद ? पारखी लोग ही समझ सकते हैं, यह क्या चीज़ है और इसकी क्या क़ीमत है ? मालिक, आप बहुत पढ़े-लिखे दानिश इंसान हैं..आपसे क्या छुपा है ?

फुठर मलसा – आगे बोल, कढ़ी खायोड़ा !

माना रामसा - यह माल हज़ार रुपये तोले से ज़्यादा महंगा बिकता है ! आप अरोगिये, जनाब !

[माना रामसा की हथेली से अफ़ीम की किरची उठाकर, अपने मुंह में रखते हैं ! इसके बाद फुठर मलसा आगे कहते है..]

फुठर मलसा – [किरची मुंह में डालकर, कहते हैं] – कढ़ी खायोड़ा, सुन एक बार ! मुझे यह चीज़, शिलाज़ीत लगती है ! तू सच कह रहा है, वास्तव में ऐसी चीजों को कोई पारखी ही परख़ सकता है !

माना रामसा – आपसे बड़ा पारखी, कौन हो सकता है ? मालिक आपको यह बता दूं, के ‘इसमें सारे विटामिन भरे पड़े हैं ! इसको खाते ही, आदमी हो जाता है मस्त !’ मालिक इसको खाने के बाद, आप काठियावाड़ी घोड़े की तरह दौड़ने लग जायेंगे !

फुठर मलसा – [खुश होकर, कहते हैं] – आगे बोल रे, कढ़ी खायोड़ा ! इसमें बहुत सारे गुण भरे पड़े हैं, अब आगे बोल..[माना रामसा की हथेली से एक किरची और उठाकर, अपने मुंह में रख लेते हैं]

माना रामसा – मालिक इसे लेने के बाद, आपकी घर वाली बहुत खुश होगी ! घर की अशांति मिट जायेगी ! इसके साथ एक बात और बताऊंगा, जनाब..

फुठर मलसा – आगे बोल, कढ़ी खायोड़ा !

माना रामसा – आप मानसिक-तनाव मिटाने की जो गोलियां लेते हैं, वे अपने-आप छूट जायेगी ! [हाथ जोड़कर कहते हैं] बस मालिक, आपके नयन-घुटने सलामत रहें ! हज़ारों साल की उम्र हो आपकी, आपने मेरी बात का मान रखा ! [चौंकते हुए] अरे जनाब, एक बात कहना भूल गया..

फुठर मलसा – अब और क्या कहेगा रे, कढ़ी खायोड़ा ? इतना बक गया, अब बाकी क्या रह गया ?

माना रामसा – हुज़ूर आपसे बात करता-करता भूल गया, यह कहना के..’बड़े साहब ने, आपको जल्द बुलाया है..!’

फुठर मलसा – डोफ़ा ऐसी बात तो तूझे, सबसे पहले कहनी चाहिये...तू भूल कैसे गया, कढ़ी खायोड़ा ? अब मैं जा रहा हूं, बड़े साहब के पास ! और तू जा गोदाम में, जाकर माल तैयार कर..मैं आ रहा हूं, माल जांच करने !

[फुठर मलसा रुख्सत होते हैं, उनके बाहर आते ही दयाल साहब झट कमरे में दाख़िल होते हैं ! फिर सीधे आकर, अपनी सीट पर बैठ जाते है ! अब माना रामसा उनके नज़दीक आकर कहते हैं..]

माना रामसा – [नज़दीक आकर कहते हैं] – बस मालिक, यह किया आपका काम ! फुठर मलसा को आख़िर, फुटास की गोली मिल गयी जनाब ! आगे से लोहे की लकीर की तरह दिमाग़ में बैठा लीजिये यह बात, आगे से आप अपनी कुर्सी ख़ाली नहीं छोड़ेंगे ! आख़िर, यह सारी माया कुर्सी की ही है !

[अब दयाल साहब आराम से बैठकर अंगड़ाई लेते हैं, फिर बाद में जेब से रुमाल निकालकर ज़ब्हा पर छाये पसीने के एक-एक कतरे को साफ़ करते हैं ! अब बरबस वे अपने मुख से, कह बैठते हैं..]

दयाल साहब – लालसांई झूलेलाल, आज़ तो बचा दी आपने मेरी कुर्सी ! हाय सांई झूलेलाल, अब करें क्या ? आख़िर, इस मर्दूद फुठरमल को बस चाहिये ख़ाली मेरी यही कुर्सी ! इतनी सारी ख़ाली कुर्सियां पड़ी है दफ़्तर में, मगर यह मर्दूद आकर बैठेगा मेरी ही कुर्सी के ऊपर.

[दोनों हाथों से अपना सर थामकर बैठ जाते हैं, फिर गंभीर होकर कहते हैं]

दयाल साहब – [सर पकड़कर, कहते हैं] – दिमाग़ ख़राब कर दिया इस माता के दीने फुठरमल ने, ऊपर से इधर यह डी.एम. मांग रहा है..

माना रामसा – [बात काटते हुए कहते हैं] – क्या मांग रहे हैं, मालिक ?

दयाल साहब – [सर से हाथ हटाते हुए] – चावल की रिपोर्ट ! [मेज़ के ऊपर मुक्का मारते हुए आगे कहते हैं] और क्या, मांगना बाकी रह गया ? मगर तैयार करूं, कैसे ? स्टोर में जाऊं या गोदाम में, जहां भी जाऊं वहां यह फुठरमल आंखें फाड़े बैठा तैयार मिलता है..इधर इस, सावंत सिंह को कहता हूं ...

माना रामसा – हुज़ूर, सावंतजी को क्या कह दिया आपने..?

दयाल साहब – थोड़ा सा पोलिस का पाउडर मिला दे, चावलों में..मगर सुने कौन, मेरी बात ? आख़िर, करूं क्या ?

[इतने में रशीद भाई कमरे में दाख़िल होते हैं, अभी इनके चेहरे के ऊपर नकाब पहनी हुई है..इनको देखते ही माना रामसा और चम्पला ऐसे दबे पांव वहां से खिसक जाते हैं, उनको अंदेशा है “कहीं रशीद भाई उन्हें बोरियों के ऊपर, दवाई का छिड़काव करने काम सुपर्द न कर दे ?” उनके जाते ही, रशीद भाई दयाल साहब के कान में कुछ फुसफुसाते हुए नज़र आते हैं]

दयाल साहब – तेरे बाप का क्या गया ? करने दे, उसे चैक ! मेरा भेजा तो नहीं खायेगा, यहां बैठकर ! [होंठों में ही] मेरा, क्या गया ? स्टोर का चार्ज लगभग दे चुका हूं, इस लंगङिये की औलाद को ! अब सर-दर्द होगा तो उसका होगा, मेरा क्या ? हम तो ठहरे, जाने वाले ! [प्रगट में] देख रशीद, जाते वक़्त यह फुठरमल काजू साहब से मांगेगा, उपस्थिति प्रमाण-पत्र ! कुछ समझा, या नहीं..?

रशीद भाई – जनाब, मुझे क्या पत्ता ? मैं ठहरा, भोला जीव !

दयाल साहब – तू भोला नहीं, गज़ब का गोला है ! मैं चाहता हूं, तू काजू साहब को सही-सही रिपोर्ट दे देना..इसने दिन-भर क्या किया ? और, क्या नहीं किया ? [रुख्सत देने का इशारा करते हुए] अब जा, रशीद ! अपना काम कर, यहां खड़ा रहकर मेरा भेजा मत चाट !

[रशीद भाई अपने क़दम, गोदाम की तरफ़ बढ़ा देते हैं ! उनके जाते ही, चम्पला चुगे हुए चावलों की प्लेट लिए तशरीफ़ लाता है ! इस बढ़ते-काम को देखकर, दयाल साहब उसे खारी-खारी नज़रों से देखते हैं ! मंच पर अंधेरा छा जाता है, थोड़ी देर बाद मंच पर रौशनी फ़ैल जाती है ! अब सामने धान के डिपो का मंज़र दिखायी देता है ! गोदाम के पहलू में स्टोर-रुम है, जिसके बाहर दो कुर्सियां और एक छोटी टेबल रखी है ! इस टेबल पर स्टोक-रजिस्टर, चार्ज-लिस्टें व पेन रखा है ! पास ही स्टोर-रूम के दरवाज़े के पास, एक सफ़ेद पाउडर का खुला कट्टा रखा है ! यह पाउडर सफ़ेद और उज़ला है, के “इसे देखते ही, टेलकम पाउडर होने का संदेह हो जाता है !” सावंतजी और रशीद भाई के मुंह पर मास्क लगी हुई है, और वे इस वक़्त धान की बोरियों पर दवाई का छिड़काव कर रहे हैं ! इस गोदाम से कुछ क़दम दूर छ: फुट की शिलाओं से घिरा हुआ एक अस्थायी युरीनल बना हुआ है ! उसके पास ही एक बबूल का पेड़ है, जिसकी छायां में पंडित माना रामसा आराम से लेटे हैं ! इस वक़्त वे, अफ़ीम की ख़ुराक लेकर उसकी पिनक में पड़े हैं !]

सावंतजी – रशीद भाई तू पूरे दफ़्तर में, फिटोल की तरह भ्रमण करता है ! फिर यहां काम करने के लिये आता है, लेट ! ले पकड़ अब, इस पाइप को..और लगा पम्प, मैं इधर करता हूं धान की बोरियों पर छिड़काव !

[रशीद भाई हाथ में पम्प लेते हैं, फिर पूरी ताकत से पम्प लगाना चालू करते हैं ! अब सावंतजी पम्प चलने से, टंकी के सोलुशन का छिड़काव बोरियों के ऊपर करते हैं ! इस तरह पम्प के फव्वारे से, सोलुशन के छींटे धान की बोरियों के ऊपर गिरते जा रहे हैं ! इस दवाई के सोलुशन के छिड़काव से ठंडी-ठंडी लहरे बहने लगती है, इन लहरों से उत्पन्न मीठी-मीठी महक रशीद भाई को सम्मोहित कर बैठती है ! अब उनके दिल में गीत गाने की उमंग बढ़ती जा रही है ! वे गीत गाना शुरू करते हैं..]

रशीद भाई – [गीत गाते हुए पम्प लगाते हैं] – तनक तनक तनक तनक ता तनक ता आऽऽ आऽऽ आऽऽऽऽऽ दवाई की मीठी लहरे चली, दिल को भरमाये होऽऽ होऽऽ होऽऽऽ दिल को भरमाये ! क्या करें रे भय्या, मेरा दम बढ़ता जाये ! जीवन की यह डोर भय्या, कच्ची पड़ती जाये रे...होऽऽ होऽऽ आऽऽऽ आऽऽऽऽऽ आऽऽऽऽऽऽ जाने वाली गाड़ी मुझे बुलाये रे ! हम हैं गाड़ी के मुसाफ़िर, हम है गाड़ी के मुसाफ़िर ! दिल को समझाते चलें, भय्या सुनो तो सही, साथी सुनो तो सही ! हम है गाड़ी के मुसाफ़िर, हम है गाड़ी के मुसाफ़िर !

सावंतजी – अरे ए, तानसेन की औलाद ! अब भैंस की तरह रिड़कना बंद कर, ये चार पल तू जीता है वे तेरे हैं ! हम सब जानते हैं, जब तक इस नौकरी में रहना है तब-तक खेलते रहेंगे इस जहरीले पाउडर की होली ! अपुन-सबको इसमें मरना है ! मगर, तू किसी दूसरे आदमी को यहां नज़दीक फटकने मत देना !

रशीद भाई – भाई साहब मैं तो इतना जबरा हूं, मैं किसी को यहां आने नहीं दूंगा ! मगर ओटालों के उस्ताद फुठर मलसा इधर आ गये तो मैं उनको रोक नहीं पाऊंगा !

[सामने से फुठर मलसा आते दिखायी देते हैं, आते वक़्त उन्हें रशीद भाई का बोला गया जुमला सुनायी दे जाता है ! फिर, क्या ? वे आते ही अपने बोलने का भोंपू शुरू कर देते हैं !]
फुठर मलसा – [नज़दीक आकर कहते हैं] – वे आ जाय नहीं, वे तेरे बाप आ गये हैं हम ! तुम लोगों की छात्ती पर, मूंग दलने के लिये ? अब हरामखोरों, बताओ तुम्हारी आज़ की रिपोर्ट ! सारा दिन बैठकर, आप लोगों ने क्या किया ? सब जानता हूं, मैं ! [बबूल की छायां में लेटे माना रामसा की तरफ़ इशारा करते हुए] उस अफ़ीमची के पास बैठकर, अफ़ीम खाकर हफ्वात [गपें] हांकी होगी ?

[टेबल के नज़दीक जाकर, चार्ज-लिस्टों के काग़ज़ उलट-पुलट करते हैं ! साथ में बोलते जा रहे हैं..]

फुठर मलसा – काम करना पड़ता है, जनाब ! काम करने से पसीना निकलता है कढ़ी खायोड़ा ! अबे, ओ माता के दीनों ! थोड़ा-बहुत हाथ-पांव चलाया करो ! [खुले हुए कट्टे की तरफ़ बढ़ते हैं, और उस सफ़ेद पाउडर को देखकर कहते हैं...] यह कट्टा किसका है, इसमें क्या भरा हुआ है ?

रशीद भाई – अरे हुज़ूर, इसे आप हात मत लगाना ! यह चीज़ आअके काम की नहीं है !

फुठर मलसा – चुप बे ! मैं सब जानता हूं, इसमें क्या भरा है ? इस कट्टे में टेलकम पाउडर भरा है, इसे लेकर मैं अपने चेहरे पर मल दूं तो मैं और सुन्दर बन जाऊंगा ! क्योंकि, सुन्दर तो मैं पहले से हूं ! यही कारण है, मेरे माता-पिता ने नाम रखा है मेरा, फुठर मल मतलब सुन्दर !

[बबूल के नीचे लेटे माना रामसा इनकी हरक़तें देखते जा रहे हैं, वे अपने होंठों में ही हंसते हुए कहते हैं..]

माना रामसा – [होंठों में ही हंसते हुए कहते हैं] – बबूल के नीचे पड़ा हूं मैं, अफ़ीम की पिनक में ! मगर बावला दिखायी देता है, यह फुठरिया लंगूर ! मैं जानता हूं, मेरी दी हुई अफ़ीम अब इसको असर करने लगी है ! साला है नाम का फुठरिया मतलब सुन्दर, अब यह और सुन्दर बनने जा रहा है ! [अफ़ीम की पिनक में ज़ोर से बड़बड़ाते हैं] लगा रे लगा, पाउडर अपने मुंह पर...मझे, क्या ? अभी तू कुतिया का ताऊ नाचेगा साला, लाल-लाल मुंह किया हुआ लखू वानरी की तरह !

रशीद भाई – [फुठर मलसा के नज़दीक आकर कहते हैं] – अरे साहब, एक बार और कह देता हूं “आप इस पाउडर के, हाथ मत लगाओ ! आपकी तबीयत मोळी [ख़राब] हो जायेगी !”

फुठर मलसा – [धक्का देते हुए, उन्हें दूर धकेलते हैं] – दूर हट, खोजबलिया ! यह क्या बकता है रे, मोरी मोरी ? मेरे पतलून की मोहरी बिल्कुल ठीक है ! मुझे मना करने वाला तू है, कौन ? कढ़ी खायोड़ा, मेरी ड्यूटी है माल चैक करने की ! अगर बीच में तू आया तो, कमबख्त तूझे सस्पेंड करवा दूंगा !

[फिर क्या ? रशीद भाई के बहुत मना करने के बाद भी, फुठर मलसा को कहां मंजूर ? वे तो झट जाकर उस कट्टे में हाथ डालकर, पाउडर उठा लेते हैं ! फिर उससे अपना मुंह मलना शुरू कर देते हैं ! फुठर मलसा के लिए यह पाउडर ठहरा मुफ्त का माल ! बस, फिर क्या ? “फ़ोकट का चन्दन, लगा मेरे नंदन !” जैसे मुहावरे हिंदी साहित्य में रहेंगे, तब तक हमारे फुठर मलसा जैसे आदमी मुफ़्त का माल उठाने में क्यों पीछे रहेंगे ? चेहरे पर खूब मलने के बाद, यह पाउडर अब दिखाने लगा चमत्कार ! फुठर मलसा के रुख़सार हो जाते हैं, लाल-लाल ! और इन रुख़सारों पर होने लगती है खुजली, और जान-लेवा जलन ! अब यह जान-लेवा जलन फुठर मलसा कैसे सहन करते ? बेचारे फुठर मलसा मचाने लगे, हाय-तौबा ! “जलूं रे, मर रहा हूं कढ़ी खायोड़ा आकर कोई बचाओ रे..!” इस तरह चिल्लाते हुए, लखू वानरी की तरह फद-फद कूदने लगे ! उनके इस तरह उछल-कूद मचाने से पंडित माना रामसा का नशा हवा बनकर उड़न-छू हो गया ! अब पंडित साहब को याद आया, के “सुबह उन्होंने अफ़ीम की पुड़िया रशीद भाई को संभलाकर इस हिदायत के साथ दी थी, के ‘काम पड़ने पर वे इस पुड़िया को वे वापस ले लेंगे !’’ याद आते ही, माना रामसा झट उठते हैं...और, रशीद भाई के पास पहुंचने का अथक प्रयास करते हैं ! मगर उनके पास पहुंच जाना इतना आसान नहीं, क्योंकि उनके रास्ते के बीच फुठर मलसा का कूद-फांद मचाना उनके लिए बाधक बन जाता है ! अब, वे रशीद भाई को बराबर कहते जा रहे हैं..]

माना रामसा – [फुठर मलसा को धकेलते हुए, कहते हैं] – अरे यार रशीद, सुबह अफ़ीम की पुड़िया दी थी तूझे, अब झट लाकर दे दे मुझे ! तलब बढ़ती जा रही है !

रशीद भाई – दिन-भर आपको अफ़ीम के सिवाय, कुछ दिखायी देता नहीं ! पहले आकर इन बोरियों पर दवाई का छिड़काव करो, या फिर आकर फुठर मलसा को संभालो..देखो यार, इनको क्या हो गया है ? इनको कौनसी देनी है, दवाई ? आप देख लीजियेगा !

[अचानक कूद-फांद मचा रहे फुठर मलसा, अपने शरीर का संतुलन बना नहीं पाते हैं ! कहीं नीचे नहीं गिर जाये, बस गिरने से बचने के लिये वे नज़दीक आ रहे माना रामसा की हथेली थाम लेते हैं ! मगर इधर अफ़ीम की तलब से परेशान माना रामसा, फुठर मलसा का हाथ छुड़ाकर झट रशीद भाई की कमीज़ का कोलर पकड़ने की कोशिश कर बैठते हैं ! मगर बदकिस्मत के मारे माना रामसा से वो कोलर पकड़ा नहीं जाता, और उनका हाथ फुठर मलसा के चेहरे पर धड़ाम से आकर गिरता है ! बचने के प्रयास में, फुठर मलसा का कान उनके हाथ में आ जाता है ! अब माना रामसा का पूरा वज़न, फुठर मलसा के कान पर..? बेचारे फुठर मलसा, इस वज़न को कैसे संभाल पाते ? कहीं, वे नीचे गिर नहीं जाय ? बस बचने के लिये, वे पास खड़े रशीद भाई का हाथ पकड़ने का प्रयास करते हैं ! मगर रशीद भाई ठहरे, चतुर ! झट पीछे खिसक जाते हैं, और फुठर मलसा के साथ-साथ माना रामसा भी धडाम से ज़मीन पर गिर पड़ते हैं ! वह क्या बोलते, उससे पहले अब माना रामसा कई तरह की गालियों के पुष्प रशीद भाई को चढ़ाते हुए रशीद भाई का मान बढ़ाते जा रहे हैं !]

माना रामसा – [गुस्से में गालियां बकते हुए, कहते हैं] – ए दोज़ख के कीड़े ! तू मुझे अफ़ीम की पुड़िया नहीं दे रहा है ? साले कब्र में पड़े, सड़ते रहना ! देख अब भी दे दे अफ़ीम की पुड़िया, नशा उड़न-छू हो गया है, अब तलब बढ़ती जा रही है ! देख लेना मोमीन की औलाद, नहीं दी अफ़ीम की पुड़िया तो मैं तेरा क्या हाल करता हूं ?

रशीद भाई – [परेशान होकर कहते हैं] – अफ़ीम गया, तेल लेने ! पड़े रहो बबूल के नीचे ! अगर, अफ़ीम चाहिये आपको..तब पहले आकर कीजिये, धान पर छिडकाव ! फिर लेते रहना, अफ़ीम !

माना रामसा – [गुस्से में कहते हैं] – ऐसी उतावली किस बात की ? छिड़क देंगे यार, तू कहे तो पहले तूझे ही छिडक दूं !

[उन दोनों की आ रही तेज़ आवाजों को सुनकर, सावंतजी नज़दीक आते हैं ! फिर, माना रामसा को फटकारते हुए कहते हैं]

सावंतजी – [फटकार पिलाते हुए, कहते हैं] – माना रामसा अब बहुत हो गयी मज़ाक, साफ़-साफ़ कह देता हूं..या तो आप आकर, बोरियों के ऊपर छिड़काव कीजिएगा..ना तो फिर कीजिये फुठर मलसा का इलाज़ ! बेचारे कब से कूदते जा रहे हैं ? हम दोनों पहले से ही, इस जहरीले पाउडर से होली खेल चुके हैं !

रशीद भाई – सच्च कह रहे हैं, सावंतजी ! कहीं हमारे हाथ इधर-उधर लग गये, तो आपको देण हो जायेगी !

माना रामसा – [हाथ जोड़कर कहते हैं] – सावंतजी यार, आप तो चुप हो जाओ ! मैं तो पहले से ही परेशान हूं, इस अफ़ीम की तलब से ! [रशीद भाई से कहते हैं] दे दे यार रशीद, तेरा भला करे भोला शम्भू ! दे दे यार, अफीम की पुड़िया !

फुठर मलसा – [खीजे हुए, चिल्लाकर कहते हैं] – जले रे, जले रे ! [उछलते-उछलते चिल्लाते हैं] बदमाशों, मेरे गाल जला डाले कढ़ी खायोड़ो !

[रसगुल्ले के रस की गंध पाकर बबूल से बारुड़ी [लाल] चींटियां, कतार बनाकर स्टोर के पास चली आती है ! आज तो फुठर मलसा के सालाजी मिल गए थे, लूणी स्टेशन पर ! उन्होंने फुठर मलसा को खिला दिए, लूणी के प्रसिद्ध रसगुल्ले ! मुफ़्त का माल समझकर फुठर मलसा ने खूब ठोक लिए, लूणी के रसगुल्ले ! और जनाब ने ध्यान रखा नहीं, उन रसगुल्लों का रस गिर गया उनकी सफ़ारी कमीज़ के ऊपर ! इसीलिए इस रस की सुगंध पाकर, अब ये चींटियां जनाब के बदन पर चढ़ने लगी ! धीमे-धीमे यह चींटी-दल जनाब के पिछवाड़े पर चढ़ने लगा, मगर कमर पर बेल्ट लगे रहने से यह चींटी-दल आगे कैसे बढ़ पाता ? तब वे पिछवाड़े की चमड़ी पर, ये चींटियां लगातार काटने लगी ! एक तो गालों पर असहनीय जलन, और दूसरी अब इन लाल चीटियों का काटा जाना..स्थिति नाक़ाबिले बर्दाश्त हो जाती है ! इस तरह फुठर मलसा की हालत बहुत बुरी हो जाती है, कभी बेचारे गालों को खुजाते हैं तो कभी वे अपना पिछवाड़ा खुजाने लगते हैं ! अब करें क्या, बेचारे फुठर मलसा ? एक गालों की जलन तो मिटी नहीं, ऊपर से यह पिछवाड़े की जलन अलग से फुठर मलसा के लिए परेशानी का सबब बन जाती है ! खुजाते-खुजाते, उनकी बुरी स्थिति हो गयी है ! इनकी यह हालत देखकर, माना रामसा कहते हैं]

माना रामसा – [छोटी अंगुली दिखाते हुए कहते हैं] – चुप-चाप बैठ जाओ, फुठर मलसा ! लघु-शंका हुई है, बस युरीनल जाकर निपटकर आता हूं ! वापस आकर, आपका इलाज़ करूंगा ! आपको ऐसी गोली दूंगा, लेते ही आपकी सारी जलन ख़त्म हो जायेगी !

[अब माना रामसा, शिलाओं से घिरे युरीनल की तरफ जाते दिखायी देते हैं ! इस युरीनल में गए हुए केवल एक मिनट ही व्यतीत नहीं हुआ, और माना रामसा के चिल्लाने की आवाज़ सुनायी देती है ! फिर, क्या ? पतलून की चैन पकड़े, माना रामसा युरीनल से बाहर आते हैं ! माना रामसा भूल गए थे, अफीम लेने जब वे रशीद भाई के निकट पहुंचना चाहते थे..तब उनके हाथ, फुठर मलसा के पाउडर लगे कान, गाल और हाथों छू गए थे ! जब ये आली जनाब युरीनल में दाख़िल हुए, तब ख़ुदा जाने इन्होंने उन पाउडर लगे हाथों को कहां-कहां लगाए हो ? जहां भी उनके हाथ लगे हैं, वहां नाक़ाबिले बर्दाश्त खुजली और जलन शुरू हो गयी है ! अब बेचारे माना रामसा पेंट के अन्दर हाथ डाले, आ जाते हैं वहां..जहां फुठर मलसा खुजाते-खुजाते, हो चुके हैं परेशान ! एक तो उनके गालों की जलन तो मिटी नहीं, और दूसरी खुजली उनके पिछवाड़े में चींटियां चढ़ जाने से पैदा हो गयी..वह अब उनके लिए नाक़ाबिले बर्दाश्त है ! अब बेचारे फुठर मलसा, कहां-कहां खुजाये ? कभी गालों को, कभी पिछवाड़े को और कभी रानों को..बेचारे खुजाते-खुजाते परेशान हो जाते हैं ! अब यही हालत माना रामसा की हो गयी, ठौड़-ठौड़ दोनों अब खुजाते-खुजाते एक नयी स्टाइल का भांगड़ा डांस पेश करने लगे ! इस डांस को देख रहे सावंतजी और रशीद भाई अपनी हंसी रोक नहीं पाते ! फिर क्या ? वे दोनों ठहाके लगाकर, जोर-जोर से हंसने लगे ! उनकी हंसी के ठहाके सुनकर माना रामसा को गुस्सा आता है, जिसको वे रशीद भाई पर उतारने की कोशिश करते हैं ! अब वे गुस्से में, रशीद भाई से कहते हैं..]

माना रामसा – [चिढ़ते हुए, गुस्से में कहते हैं] – जला डाला, जला डाला रे..इस खां साहब के बच्चे ने ! यह कमबख्त, मेरा अफीम खाकर अब मज़ा लूट रहा है ?

[पेंट में हाथ डालकर, माना रामसा अब और जोर-जोर से खुजाते जा रहे हैं]

फुठर मलसा – [माना रामसा से कहते हैं] – पंडित, अब तू क्यों नाच रहा है..लखू वानरी की तरह ? अब तो दोनों के पिछवाड़े हो गए हैं, खुजाते-खुजाते लाल ! [रशीद भाई से कहते हैं] अबे ए मियां, तू क्यों दांत निपोर रहा है ?

[बेचारे फुठर मलसा की दयावनी स्थिति बन जाती है, अब वे अपने दोनों हाथ ऊपर लेकर रामसा पीर से अर्ज़ करते हैं]

फुठर मलसा – [रामसा पीर को पुकारते हुए] – ओ मेरे रामसा पीर आप आकर जान-लेवा खुजली से मेरी जान छुड़ावो !

[अब तो इन दोनों महापुरुषों के बदन पर चल रही जान-लेवा खुजली से छुटकारा, इन दोनों को मिलता दिखाई नहीं दे रहा ! अब सहन करने की सीमा ख़त्म हो जाती है, फिर क्या ? इससे परेशान होकर फुठर मलसा तो अभिनेता सलमान खां की तरह अपना कमीज़ उतारकर फेंक देते हैं, नीचे ! उधर माना रामसा, फिर क्यों उनसे पीछे रहेंगे ? वे भी झट हनुमानजी की तरह, पेंट उतारकर फेंक देते हैं...और झट, कच्छे में अवतरित हो जाते हैं ! वैसे भी माना रामसा ठहरे पंडित-साधु सरीखे, उनको कहां मोह इन भौतिक वस्त्रों से ? वे महाशय ठहरे, भोले बाबा शिव शम्भु के परम भक्त ! अब तो इन दोनों की उछल-कूद, तांडव डांस दूसरे नृत्यों को मात देती जा रही है ! अचानक सावंतजी की निगाहें फुठर मलसा की पेंट पर गिरती है, और जहां उन्हें उनकी पेंट की चेन खुली पाकर वे अपने-आपको रोक नहीं पाते, बेचारे इतने जोर से हंसते हैं, के उनके पेट में दर्द में पैदा हो जाता है..अब वे पेट पकड़कर, हंसते हैं ! किसी तरह अपनी हंसी दबाकर, सावंतजी फुठर मलसा के पेंट की खुली चेन दिखालाते हुए रशीद भाई से केवल इतना ही कह पाते हैं..]

सावंतजी – [पेंट की खुली चेन दिखलाते हुए, ज़ोर से कहते हैं] – डब्बा खुला पड़ा है रे, रशीद भाई ! डाल देಽಽ, डाल देಽಽ..!

[“डाल देಽಽ, डाल देಽಽ” शब्दों की गूंज़ होती है, यह गूंज़ फुठर मलसा के कानों में पहुंचती है, और उनको ख्यालों के सागर से निकालकर वर्तमान में ला देती है ! आंखें मसलते हुए फुठर मलसा आंखें खोलते हैं, वे अपने-आपको गोदाम के स्थान पर काजू साहब के कमरे में पाते हैं ! मंच पर, अंधेरा छा जाता है !]



मंच के ऊपर वापस रौशनी फैलती है ! काजू साहब के कमरे का मंज़र, सामने दिखायी देता है ! काजू साहब, फुठर मलसा, दयाल साहब और लंगड़ीया साहब बैठे हैं ! अब लूणकरणजी आकर सभी के लिए मेज़ पर नमकीन की प्लेटें रखते हैं ! हर प्लेट में एक-एक मिर्ची बड़ा और एक-एक मोगर की कचोरी है ! इतने नमकीन रखने के बाद थैली में एक मिर्ची बड़ा बच जाता है ! इधर इन मिर्ची बड़ों और कचोरियों की सुगंध, फैलती जा रही है ! मगर बैठे-बैठे नींद ले रहे आली जनाब फुठर मलसा की नींद, उड़ती दिखायी नहीं देती ! तब लूणकरणजी हाथ में मिर्ची बड़ा लिए, काजू साहब से कहते हैं]

लूणकरणजी – साहब एक मिर्ची बड़ा बच गया है, आपका आदेश हो तो मैं यह मिर्ची बड़ा फुठर मलसा की प्लेट में रख दूं, क्या ?

काजू साहब – [हंसते हुए, ज़ोर से कहते हैं] – डाल देಽಽ, डाल देಽಽ !

[अब फुठर मलसा के कानों में “डाल देಽಽ, डाल देಽಽ” शब्दों की गूंज होती है ! आवाज़ सुनते ही, वे चमकते हैं ! और उनकी नींद खुल जाती है, वे आंखें मसलते हुए अपनी आंखें खोलते हैं ! सामने काजू साहब दिखाई देते है, जिनकी हंसी के साथ उनका बोला गया जुमला “डाल देಽಽ, डाल देಽಽ” फुठर मलसा के कानों में गूंज़ता है ! उधर लूणकरणजी आदेश की पालना करते हुए, झट फुठर मलसा की प्लेट में मिर्ची बड़ा डाल देते हैं ! फुठर मलसा मिर्ची बड़ा रखने की आवाज़ से और चमक जाते हैं ! अब वे डरकर, रामसा पीर को पुकारते हुए कहते हैं]

फुठर मलसा – [डरकर चौंकते हुए, ज़ोर से कहते हैं] – रामसा पीर बचा रे !

[डरे हुए फुठर मलसा का हाथ पहुंच जाता है, उनकी छाती पर ! तब लूणकरणजी हंसते हुए कहते हैं]

लूणकरणजी – फुठर मलसा आपको भूख नहीं लगी है, तो चलिए मैं और रशीद भाई इस मिर्ची बड़े को ठोक जाते हैं !

दयाल साहब – क्यों रे, फुठरमल ! भूख लगी नहीं है, क्या ? कमबख्त कब से यहां बैठा-बैठा नींद ले रहा है ? किसका स्वप्न देख रहा है, सांई ?

[अब तो फुठर मलसा की नींद पूरी उड़ जाती है, पूरे चेतन होकर अपनी छाती पर हाथ रखते हुए कहते हैं]

फुठर मलसा – [बेचारे छाती पर हाथ रखे हुए, कहते हैं] – जी हां, दयाल साहब ! अच्छा रहा, यह स्वप्न ही था ! [होंठों में ही] बस, इज्ज़त बच गयी, अब स्वप्न याद दिलाकर..ये दयाल साहब, ‘क्यों इस कमबख्त रशीद भाई का चेहरा मेरी आंखों के सामने ला रहे हैं ?’

लूणकरणजी – जनाब खाने की इच्छा नहीं हो, तो यह प्लेट हटा दूं..?

फुठर मलसा – कहां ले जाता हैं, प्लेट ? मैं तो खाऊंगा, भर-पेट खाऊंगा कालिया भूत की तरह ! [दोनों हाथ प्लेट पर रखते हुए] कढ़ी खायोड़ा, प्लेट वापस ले जा मत, तू तो और नमकीन रखता जा..रखता जा ! अब तो मैं, भर-पेट खाऊंगा बामज़ नमकीन ! ठोकिरा, अब यह कोई स्वप्न नहीं है..यह तो असली मंज़र है !

[इनकी बात सुनकर, सभी ठहाके लगाकर जोर से हंसते हैं ! अब सभी अफ़सर बामज़ नमकीन खाना शुरू करते हैं ! नमकीन खाते-खाते वार्ता करते हुए, वे सभी हंसी के ठहाके भी लगाते जा रहे हैं !]

दयाल साहब – काजू साहब, यह रशीद तो दो नंबर का ओटाळ है !

काजू साहब – ऐसा हो नहीं सकता, वह बेचारा सीधा-साधा अल्लाह मियां की गाय है ! आप काहे उस पर झूठी तोहमत लगा रहे हैं, बेचारे पर ?

दयाल साहब – अजी साहब, कल की बात है ! मैंने ठोक सिंह से इतना ही कहा “यार ठोक सिंह तू बोलता कभी नहीं, हमेशा चुप बैठा रहता है ! आख़िर, बात क्या है ?” तब रशीद बीच में बोला “साहब, ये जनाबे आली नहीं बोले उतना ही अच्छा है !”

काजू साहब – क्या कहा, जनाब ?

दयाल साहब – काजू साहब आगे ऐसे बोला “हुज़ूर, ये आली जनाब जब भी बोलेंगे तब पत्थर बरसाते हुए बोलेंगे..या फिर बरसाएंगे, सम्पलोटिये !”

काजू साहब – अजी दयाल साहब, ये संपलोटिया क्या बाला है ? शायद, मेरे ख्याल में..

दयाल साहब – हुज़ूर, मैंने यही सवाल किया था इस रशीद से ! मैंने पूछा था “क्या रे रशीद, संपलोटिया क्या बला है ? कहीं तू “सांप का बच्चा” तो कहना नहीं चाहता ?” तब रशीद अपने हाथ के पंजे का इशारा करता हुआ बोला [पंजे को थोड़ा मोड़कर सांप की शक्ल बनाते हैं] “हां हुज़ूर, सांप का बच्चा..उसमें जहर इतना है, इंसान क्या हाथी को मार दे !”
इतना कहकर, दयाल साहब लम्बी-लम्बी सांसे लेने लगे ! और बाद में, दिल ठिकाने आने पर गंभीरता से कहने लगे..]

दयाल साहब – [गंभीरता से कहते हैं] – हुज़ूर वह कमबख्त ऐसे बोला..अरे लाल सांई झूले लाल, उसने मुझे बीता खौफ़नाक वाकया याद दिला दिया !

काजू साहब – कौनसा वाकया, दयाल साहब ? कुछ तो बयान कीजिये, जनाब..

दयाल साहब – अजी साहब, क्या बयान करूं ? एक शाम की बात है, मुझे घर के पिछवाड़े वाले टांके से पानी निकालकर बगीचे में पानी देना था..जैसे ही मैंने, टांके का ढक्कन खोला हुज़ूर..

काजू साहब – क्या देख डाला, कहीं..

दयाल साहब – हुज़ूर टांके की पहले स्टेप पर वहಽಽ, वहಽಽ.. सांप या सांप का बच्चा यानी संपलोटिया, फ़न उठाये बैठा था ! अब मैं पानी लेने के लिए, बाल्टी को कैसे अन्दर डालूं ? हुज़ूर वह तो तेज़ी से तैरता हुआ, लटकती बाल्टी के पास आने लगा..

काजू साहब – क्या, यह सच्च है ?

दयाल साहब – वह तो तेज़ी से लगा, तैरने..हुज़ूर उस नासपीटे का फ़न देखकर, मेरा दिल बैठ गया ! डर के मारे, मुख से चीख़ निकल गयी..!

काजू साहब – यह वाकया पूरा सुना होगा, उस रशीद ने..फिर ?

दयाल साहब – सुना क्या, हुज़ूर..? मेरा एहबाब होना तो दूर, यह मर्दूद रशीद पूछने लगा “उसे देखकर, कहीं आपका हार्ट-अटेक तो नहीं हो गया ?” अब बोलिए, यह कमबख्त अल्लाह मियां की गाय है या शैतान की खाला ?

[दयाल साहब लम्बी सांस लेने के बाद, आगे का किस्सा बयान करने लगे]

दयाल साहब – अरे हुज़ूर, मेरी चीख सुनकर सारे मोहल्ले वाले वहां एकत्रित हो गए ! जनाब क्या कहूं, आपको ? वे लोग, मुझे तरह-तरह के मशवरे देने लगे ! कोई कहता के “टांके को खाली कर दो, तो कोई कहता के सपेरे को बुला दीजिये !”

काजू साहब – किस्सा सुनाने के बाद, यह रशीद क्या बोला होगा ?

दयाल साहब – वह क्या बोले, हुज़ूर ? उसके पहले यह ठोक सिंह बोल उठा, उसकी तरफ़ से ! कहने लगा, इस रशीद से कोई मशवरा लेना मत ! यह तो अभी यही बोलेगा, के “टांके में बाल्टी डाल दीजिये..संपलोटिया उसमें बैठ जाएगा, और तब आप बाल्टी खींच लीजिएगा !”

[इतना सुनते ही, काजू साहब ज़ोर-ज़ोर से हंसने लगे ! इस तरह उनको हंसते देखकर, दयाल साहब को बुरा लगता है ! अब वे उन्हें, खारी-खारी निगाहों से देखने लगते हैं ! इतनी देर से चुपचाप बैठे लंगड़ीया साहब से अब चुप बैठा नहीं गया, झट एक तिलमिलाने वाला कथन बोल देते हैं..]

लंगड़ीया साहब – वाह भाई, वाह ! यहां तो संपलोटिया देखते ही दयाल साहब के बदन से पसीना छूटता है, और यह माता का दीना ठोकिरा ठोक सिंह दयाल साहब को बना रहा है भिश्ती ? क्या ये जनाब दयाल साहब अफ़सर नहीं होकर, बेचारे होंगे पानी डालने वाले भिश्ती ? मती मारी गयी, इस ठोकिरे ठोक सिंह की !

[इतना कहने के बाद, लंगड़ीया साहब, खिल-खिलाकर हंस पड़ते हैं ! दयाल साहब नाराज़ हो जाते हैं, मगर गुस्से पर काबू रखते हुए वे कहते हैं..]

दयाल साहब – [गुस्से को काबू में रखते हुए, कहते हैं] – लंगड़ीया साहब ! अब यह रशीद क्या बोला होगा ? अब यह भी सबको बता दीजिएगा ! ये साले सभी पीकर और डस्ट-ओपेरटर एक ही थैली के चिट्टे-बिट्टे हैं ! इन सालों को थोड़ी सी छूट क्या दे दी जाय, कमबख्त हम लोगों की लंगोटी उतारकर ले जा सकते हैं !

लंगड़ीया साहब – लंगोटी को छोडिये, मालिक ! ये कमबख्त आपके सारे कपडे उतारकर ले जा सकते हैं ! बस, इधर-उधर जाने के लिए एक लूंगी ज़रूर छोड़ देंगे..व भी, इनकी मेहरबानी हुई तो ?

फुठर मलसा – [हंसते हुए कहते हैं] – फिर तो जनाब, मज़ा आ जाएगा ! दयाल साहब लूंगी पहने हुए, मुछुआरे ही लगेंगे ! वैसे इस रशीद ने भी, यही कहा है “मरा हुआ चूहा लटका दीजिये टांके के अन्दर, जैसे ही वह इस चूहे को पकड़ेगा..उसी वक़्त दयाल साहब उस सांप को, मछली की तरह खींच लेंगे बाहर !

लंगड़ीया साहब – जैसे मानो वह सांप नहीं होकर, मछली ही हो ! आख़िर मछली को पकड़ने वाले को, मछुआरा ही कहेंगे..फिर लुंगी पहने हुए दयाल साहब, वाकयी मछुआरा अच्छे लगेंगे !

[वार्ता करते-करते इन अफ़सरों को मालुम ही नहीं पड़ा, बामज़ नमकीन ख़त्म हो गया है ! लंगड़ीया साहब का कथन सुनकर, दयाल साहब को छोड़कर सभी जोर-जोर से हंसने लगे ! अब तक ये अफ़सर लोग, बामज़ नमकीन पर अपना हाथ साफ़ कर चुके हैं ! लूणकरणजी इन सारी जूठी प्लेटों को उठाकर, उन्हें धोने ले गए हैं ! इधर रशीद भाई, कमरे के अन्दर दाखिल होते हैं...बेचारे ठहरे भोले इंसान, वे नहीं जानते किस वक़्त कौनसी बात कहनी चाहिए और कौनसी बात नहीं कहनी चाहिए ! वे आते ही, दयाल साहब से कहते हैं..]
रशीद भाई – [दयाल साहब से कहते हैं] – साहब, आप स्टोर के बाहर अपनी चार्ज लिस्टें भूलकर आ गए हैं ! जनाब, इन लिस्टों को अन्दर रखनी है या नहीं ?

[दयाल साहब के जोधपुर तबादला होने की कन्फर्म न्यूज़ फुठर मलसा को मालुम नहीं थी ! अब यह न्यूज़ हाथ लगते ही, उनका दिल जलने लगा ! फिर क्या ? ईर्ष्यालु फुठर मलसा जल-भुन जाते हैं, और अब वे दयाल साहब को ताने देने में पीछे नहीं रहते ! झट कड़वी जुबां काम में लेते हुए, कह बैठते हैं..]

फुठर मलसा – [बीच में में बोलते हुए] – वाह दयाल साहब, कढ़ी खायोड़ा ! गज़ब कर डाला, आपने ? चुपचाप तबादला करवा लिया, जोधपुर ? और मेरे जैसे डोफ़े को, मालुम भी नहीं पड़ा ? अब इन कानों से कैसे भरोसा करूं, के ‘आपका तबादला, इतना जल्दी कैसे हो गया ?’

दयाल साहब – [गुस्से में कहते हैं] – क्यों रे, फुठरमल तेरे कहे चलूं क्या ? मेरा तबादला जोधपुर हो गया है, ढिंढोरा पीटता हुआ यह ख़बर फैलाता जाऊं ? गाडी में बैठे एक-एक आदमी को कहता चलूं, के “भय्या, मेरा तबादला जोधपुर हो गया है ? और, फुठरमल का..”

[दयाल साहब फुठर मलसा के तबादले की बात का जिक्र करना चाहते नहीं थे, मगर जबान फिसल जाने से उनके तबादले की आधी बात जबान पर आ गयी ! इससे फुठर मलसा ने समझ लिया, उनके तबादले की खबर अब कन्फर्म न्यूज़ नहीं हो सकती ? अब वे समझने लगे, के “गाड़ी में उन्होंने अपनी बदली की ख़बर सुनी थी, वो अफवाह भी हो सकती है ? इस कारण अब वे ईर्ष्यालु की तरह बकने लगे..]

फुठर मलसा – अरे, राम राम ! दयाल साहब यह क्या हो गया, मेरे तबादले के आदेश क्यों नहीं आये ? ये साले सभी हेड ऑफिस के अफ़सर बिक गए, कमबख्त !
दयाल साहब – क्या कहते हो, फुठर मल ?

फुठर मलसा – सच्च कह रहा हूं, इन अफ़सरों ने सभी बदमाशों की बदलियाँ हज़ारों रुपये खाकर कर डाली ! मैं बेचारा ग़रीब ईमानदार आदमी, कैसे खिला पाता इनको इतने रुपये ? [दोनों हाथ ऊपर करके कहते हैं] अरे, मेरे रामा पीर मेरी बदली जोधपुर क्यों नहीं हुई ?

दयाल साहब – [गुस्से में कहते हैं] – फुठर मल अपनी जबान पर लगाम दे ! क्या बक रहा है ? [फिर मुस्कराकर कहते हैं] अरे बड़बोले ! तेरे तबादले की ख़बर भी कन्फर्म है ! तेरा भी तबादला हो गया है, जोधपुर !

फुठर मलसा – [ख़ुश होकर कहते हैं] – क्या सच्च कह रहे हैं, आप ?

दयाल साहब - हेड ऑफिस वालों ने, सेवानिवृत होने वाले सभी कर्मचारियों का स्वैच्छिक तबादला किया है ! अक़सर डाक देरी से मिलती है, तूझे नहीं मिली है तो मुझसे प्रति ले लेना ! [काजू साहब से कहते हैं] साहब चार्ज लिस्टें तैयार हैं, कल आपके सामने पेश कर दूंगा ! अब चलना है, गाड़ी का वक़्त हो गया है !

काजू साहब – हम सभी गाड़ी से बंधे हैं, आखिर दयाल साहब हम सभी हैं “गाड़ी के मुसाफ़िर !” परसों आपके तबादले की ख़बर आयी थी, और आज आ गयी है मेरे परमोशन की ख़बर ! चलो भाई, चलो चलो ! गाड़ी आने का वक़्त, हो गया है !

[अब सभी गाड़ी के मुसाफ़िर, बैग उठाये में गेट की तरफ़ क़दम बढाते दिखाई देते हैं ! पीछे से रशीद भाई की आवाज़ में, गीत सुनायी देता है..]

पीछे से, गीत गाने की आवाज़ सुनायी देती है – “तनक तनक तनक तनक ता तनक ता आऽऽ आऽऽ आऽऽऽऽऽ दवाई की मीठी लहरे चली, दिल को भरमाये होऽऽ होऽऽ होऽऽऽ दिल को भरमाये ! क्या करें रे भय्या, मेरा दम बढ़ता जाये ! जीवन की यह डोर भय्या, कच्ची पड़ती जाये रे...होऽऽ होऽऽ आऽऽऽ आऽऽऽऽऽ आऽऽऽऽऽऽ जाने वाली गाड़ी मुझे बुलाये रे ! हम हैं गाड़ी के मुसाफ़िर, हम है गाड़ी के मुसाफ़िर ! दिल को समझाते चलें, भय्या सुनो तो सही, साथी सुनो तो सही ! हम है गाड़ी के मुसाफ़िर, हम है गाड़ी के मुसाफ़िर !”

[अब सभी मुलाजिम स्टेशन के तरफ़ जाते हुए दिखाई देते हैं, मंच पर अंधेरा छा जाता है !]






लेखक का परिचय
लेखक का नाम दिनेश चन्द्र पुरोहित
जन्म की तारीख ११ अक्टूम्बर १९५४
जन्म स्थान पाली मारवाड़ +
Educational qualification of writer -: B.Sc, L.L.B, Diploma course in Criminology, & P.G. Diploma course in Journalism.
राजस्थांनी भाषा में लिखी किताबें – [१] कठै जावै रै, कडी खायोड़ा [२] गाडी रा मुसाफ़िर [ये दोनों किताबें, रेल गाडी से “जोधपुर-मारवाड़ जंक्शन” के बीच रोज़ आना-जाना करने वाले एम्.एस.टी. होल्डर्स की हास्य-गतिविधियों पर लिखी गयी है!] [३] याद तुम्हारी हो.. [मानवीय सम्वेदना पर लिखी गयी कहानियां].
हिंदी भाषा में लिखी किताब – डोलर हिंडौ [व्यंगात्मक नयी शैली “संसमरण स्टाइल” लिखे गए वाकये! राजस्थान में प्रारंभिक शिक्षा विभाग का उदय, और उत्पन्न हुई हास्य-व्यंग की हलचलों का वर्णन]
उर्दु भाषा में लिखी किताबें – [१] हास्य-नाटक “दबिस्तान-ए-सियासत” – मज़दूर बस्ती में आयी हुई लड़कियों की सैकेंडरी स्कूल में, संस्था प्रधान के परिवर्तनों से उत्पन्न हुई हास्य-गतिविधियां इस पुस्तक में दर्शायी गयी है! [२] कहानियां “बिल्ली के गले में घंटी.
शौक – व्यंग-चित्र बनाना!
निवास – अंधेरी-गली, आसोप की पोल के सामने, वीर-मोहल्ला, जोधपुर [राजस्थान].
ई मेल - dineshchandrapurohit2@gmail.com


 










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