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गाड़ी के मुसाफ़िर- पक्का चेला- खंड 2 [मारवाड़ी हास्य-नाटक]- दिनेश चन्द्र पुरोहित


रचनाकार परिचय:-


लिखारे दिनेश चन्द्र पुरोहित
dineshchandrapurohit2@gmail.com

अँधेरी-गळी, आसोप री पोळ रै साम्ही, वीर-मोहल्ला, जोधपुर.[राजस्थान]
मारवाड़ी हास्य-नाटक  [गाड़ी के मुसाफ़िर- पक्का चेला] खंड 2 लेखक और अनुवादक -: दिनेश चन्द्र पुरोहित



[१]

[मंच पर रोशनी फ़ैल जाती है एफ़.सी.आई. के गोदाम का मंज़र सामने दिखायी देता है ! दफ़्तर से कुछ क़दम दूर छप्परे के नीचे डस्ट ओपरेटर मानारामसा अफ़ीम की पिनक में लेटे हैं ! इधर ठंडी-ठंडी हवा चलने लगी ! अब धीरे-धीरे अफ़ीम असर करती जा रही है अब बाबू हज़ारी लालसा आते हैं और उनका कंधा झंझोड़ते हुए कहते हैं..]

हज़ारी लालसा – [माना रामसा का कन्धा झंझोड़ते हुए, कहते हैं] – माना रामजी भईसा ! अरे उठिए, जनाब ! [धीरे-धीरे कहते हैं] माना रामसा उठिए ना, बहाने बनाकर यहाँ लेटिये मत ! [ज़ोर से कहते है] एक बार इधर देखिये, जनाब !

[माना रामसा एक तरफ़ अंगड़ाई लेते हैं, और तन्द्रा में ही बोलते जा रहे हैं !]

माना रामसा – [अंगड़ाई लेते हुए, तंद्रा में कहते हैं] – अरे रशीद भाई, क्यों नींद ख़राब कर रहा है यार ? फिर आ गया कुत्तिया का ताऊ, अफ़ीम लेने ? अब मैं, क्या करूं यार ? सारी अफ़ीम ठोक गया, यार ! अब कुछ नहीं बची है, भाग जा माता के दीने ! क्यों सुबह-सुबह, मेरी नींद ख़राब कर रहा है ?

[इतना कहकर वे, वापस दूसरी तरफ़ करवट लेते हैं ! इधर बेचारे हज़ारी लालसा, प्रतीक्षा करते-करते हो जाते हैं परेशान ! ना तो यह अफ़ीमची उठता है, और न दे रहा है माकूल जवाब ! फिर क्या ? अब क्रोध आ जाता है, उन्हें ! और, बरबस कटु शब्द सुना बैठते हैं !]

हज़ारी लालसा – [गुस्से में कहते हैं] – आंखें खोलकर देखिये, बहाना रामसा ! मैं रशीद भाई नहीं, मैं हूं बाबू हज़ारी लाल !

[भले ही माना रामसा ऊंघ में पड़े दिखायी दे रहे हैं, मगर वे रखते हैं पूरी चेतना ! उनको सब मालुम रहता है, कौन उनके बारे में क्या बोल रहा है ? बस, हज़ारी लालसा की कही बात उनके कानों में गिरते ही जनाबे आली क्रोधित हो उठते हैं ! फिर भाई साहब ज़बरदस्त फाटे-फुवाड़े बकते हुए, न मालुम हज़ारी लालसा को क्या-क्या सुना बैठते हैं ?]

माना रामसा – [क्रोधित होकर कहते हैं] – क्या बोला रे, बाबू ? क्या..क्या..मैं बहाना राम हूं ? मैं बहाना बनाया करता हूं ? मां के..[अश्लील गालियों का गुलदस्ता थमाते हुए, कहते हैं] दलाल, गधे की औलाद..? इधर मर, कुत्तिया के ताऊ !

[हज़ारी लालसा की गरदन पकड़ने की निरर्थक कोशिश करते हैं, मगर वह उनके हाठ आती नहीं ! तब, वे आगे कहते हैं]

माना रामसा - आज़कल, तेरा आटा वादी कर रहा है ?

[माना रामसा का यह तांडव रूप देखकर, हज़ारी लालसा का बदन धूजने लगा ! तब, वे डरते-डरते कहते हैं..!]

हज़ारी लालसा – [डरते हुए कहते हैं] – हुज़ूर मैंने कब कहा, आप बहाने बनाया करते हैं ? मैं यह कह रहा था जनाब, के “मेरा बच्चा बड़ा हो गया है ! अब उसकी शादी..”

माना रामसा – [बात काटते हुए कहते हैं] – पहले तू यह बता बाबू, तूने कैसे कह दिया मुझे..मैं बहाना राम हूं..? तूझे मांजीसा की कसम, तू पहले उस व्यक्ति को मेरे सामने ला जिसने कहा तूझे के “मैं बहाना राम हूं !” साले की घांटकी न मरोड़ दी, तो मेरा नाम बहाना राम..अरे नहीं नहीं, माना राम नहीं !

[माना रामसा का यह रूप देखकर बेचारे हज़ारी लालसा पीपल के पान की तरह धूजने लगे !]

माना रामसा – बोल बाबू, क्या समझा ?

हज़ारी लालसा – [डर के मारे, धूज़ते हुए कहते हैं] – आप बहाना रामसा नहीं हैं, मगर महापुरुष ज़रूर हैं आप.. [धीरे-धीरे कहते हैं] आप तो महाराज, पुरुष ही नहीं हैं !

माना रामसा – [खुश होकर कहते हैं] – हाँ बाबू, बोल क्या कह रहा था ? बाद में बताना, तेरा कितना आटा वादी कर रहा है ?

हज़ारी लालसा – यह कह रहा था जनाब, परसों मेरे बच्चे की शादी है..

माना रामसा – [कान पर हाथ रखते हुए कहते हैं] – क्या कह रहा है, बाबू ? वापस बोल !

हज़ारी लालसा – [ज़ोर से कहते हुए] – मैं यह कह रहा था जनाब, के परसों मेरा छोरा फेरा खायेगा करीब रात के..

माना रामसा – [वापस लेटते हुए, कहते हैं] – तूझे दिखायी दे रहा है बाबू, देख अच्छी तरह से छप्पर पर टंगी हुई थैली को..उसमें डाल दे ये तेरे फेरे-पेरे ! वक़्त मिलने पर, खा लूँगा ! अब थैली में रखकर चला जा, मुझे आ रही है नींद ! आ गया कुत्तिया का ताऊ बीच में, मेरे आराम में ख़लल डालने ?

हज़ारी लालसा – [पछताते हुए, कहते हैं] – यह ठहरा, पक्का अफ़ीमची ! नशे में बकता जा रहा है, कुत्तिया का ताऊ ! यहां तो फेरा खायेगा मेरा छोरा, और यह गधेड़ा बकवास कर रहा है के फेरे इसकी थैली में रख दूं, वक़्त मिलने पर यह खा लेगा फेरा ? अरे, राम राम ! ये फेरे, इसके खाने की कोई चीज़ है ?

[फिर क्या ? हज़ारी लालसा ने तो बढ़ाए, अपने क़दम..कार्यालय की तरफ़ ! चलते-चलते, राह में बकते गए..]

हज़ारी लालसा – [बड़बड़ाते हुए] – फेरे कोई हलुआ-पुड़ी है, जिसे यह कमबख्त खाकर अपनी भूख मिटाता हो ? अब कैसे रख दूं ये फेरे, इसकी थैली में ? ये फेरे कोई खाने की चीज़ है, जिन्हें मैं लाकर इसकी थैली में रख दूं ? यह साला लगता है, पूरा कामचोर ! अब तो मेरे रामसा पीर, किसी समझदार आदमी को ये शादी के कार्ड देकर बंटवाने होंगे !
[धीरे-धीरे हज़ारी लालसा के क़दमों की आवाज़, सुनायी देनी बंद हो जाती है ! मंच पर, अंधेरा छा जाता है !]

[२]

[मंच पर वापस रोशनी फैलती है, अनाज के गोदाम में सावंतजी और रशीद भाई धान की बोरियों पर रासायनिक घोल का छिड़काव करते जा रहे हैं ! घोल की मात्रा कम होने की वजह से रशीद भाई पास पड़ी घोल की टंकी में झांकते हैं, फिर अन्दर देखते हुए वे सावंतजी से कहते हैं]

रशीद भाई – यार सावंतसा ! यह घोल तो हो गया, ख़त्म ! अब तो भाईसाहब, स्टोर से लाना पडेगा !

सावंतजी – [उनको हिदायत देते हुए कहते हैं] – आपको एक बार हिदायत दे देता हूँ, आप घोल का पाउडर तुलवाकर ही लाना ! बाद में इस लंगड़िया साहब का ओलबा, मैं सुनने वाला नहीं ! इस बात को, अपने दिमाग़ में बैठा लेना !

रशीद भाई – [चिढ़े हुए कहते हैं] – भाई सावंतजी यह कैसी बीमारी लगी है आपको, आखिर आपको करना क्या ? आपको तो पाउडर से काम है, वो आपको मिल जाएगा ! फिर ऐसे कड़वे शब्द बोलकर, क्यों अपना वक़्त बरबाद करते हैं..आप ?

सावंतजी – बीमारी ? आपकी शिकायतें सुन-सुनकर परेशान हो गया हूँ, मेरे कान पक गए हैं यह सुनकर के आप कभी पाउडर तुलवाकर नहीं लाते ! मुझे कई बार लंगड़िया साहब सुना चुके हैं के “स्टोक रजिस्टर में माल कम बोलता है, मगर स्टोर में माल ज्यादा है ! यह अनियमितता कैसे हुई, आपसे ?”

रशीद भाई – मुझे क्या मालुम ? माल का चार्ज लंगड़िया साहब के पास, वे जाने और उनका काम जाने मुझे क्या ?

सावंतजी – देख रशीद भाई, अब समझदारी की बात यही है के “तू यह सोच, पूरे दिन बैठा तू करता क्या है ?”

[सावंतजी पेसी से तैयार जर्दा निकालते हैं, फिर उसे अपने होंठ के नीचे दबाकर कहते हैं]

सावंतजी – पूरे दिन करते रहते हो, मटरगश्ती ! और क्या ? [जोर से कहते हैं] एज पर रुल आप इस टंकी में रासायनिक पाउडर डालते नहीं, और इधर घड़ी में बजती है ढाई..और साहबजादे झट बैग लेकर जोधपुर जाने के लिए स्टेशन की तरफ निकल पड़ते हैं ! भाई, इस तरह कब तक चलेगा..?

रशीद भाई – चलेगा भाई चलेगा, जब तक खुदा चलाएगा !

सावंतजी – मगर रशीद भाई, मैं सुनने का आदी नहीं हूँ ! कह दूं एक बार आपको, बस आप माल तुलवाकर ही लायें !

रशीद भाई – [दोनों हथेली सामने लाते हुए कहते हैं] – झगड़ा क्यों करते हो, यार ? ये मेरे हाथ ही तराजू है ! इन हाथों से लाया हुआ माल, एक छदाम कम नहीं होता ! अब जाने दो, यहाँ किसके पास पड़ा है वक़्त ? जो बेमतलब की झकाल सुनें, उनकी ? के तोलो मेरे सामने, तोलो मेरे सामने..?

[दोनों हाथ ऊपर करके, रशीद भाई खुदा से शिकवा कर बैठते हैं !]

रशीद भाई – [दोनों हाथ ऊपर ले जाते हुए कहते हैं] – ए मेरे परवरदीगार ! यह कैसा नियम बना दिया, इन नामाकूल अफसरों ने ? माल का चार्ज उनका, और बैठकर तोलूँ मैं ? ख़ाक, फिर सरकार ने इनको काहे का गुणवत्ता अधिकारी बनाया ?

सावंतजी – बोल दे..और बोल दे के “हम तो ठहरे जाहिल, अनपढ़-गंवार ! हम क्या तोलना जाने ? माल तोलने की तनखा मिलाती है उनको, अगर मैं न तोलूँ तो इसमें मेरा क्या कसूर ?”

रशीद भाई – रहने दीजिये, आपकी बकवास ! मैं तो यह गया पाउडर लाने, यहाँ कौन सुने आपकी बेकार की बकवास ? [जोर से कहते हैं] जा रहा हूँ, पाउडर लाने !

[रशीद भाई बड़बड़ाते हुए, स्टोर की तरफ अपने क़दम बढाते हैं ! थोड़ी देर में, वे स्टोर में दाखिल होते दिखाई देते हैं ! इस वक़्त वे तेज़ धूप से गुज़रते हुए कम रोशनी वाले इस स्टोर के कमरे में आये हैं, इसलिए इनकी आँखें चौंधिया जाती है ! यही कारण है, इनको सामने बैठे लंगड़िया साहब नज़र नहीं आते ! फिर क्या ? उनको गैरहाज़र समझकर, वे अनर्गल बक-बक करते हुए बड़बड़ाते हैं !]

रशीद भाई – [बड़बड़ाते हैं] – ये हाथ हाथ नहीं है, मेरे दोस्त ! तराजू है ! मगर यह मर्दूद करता है बकवास, के “मैं पाउडर तोलकर ले जाऊं ? [गीत गाते हैं] येSS हाथ अपनी दौलत है, येSS हाथ अपनी किस्मत है..

[इतने में रशीद भाई के कानों में गरज़ती हुई आवाज़ सुनायी देती है, जिसे सुनकर रशीद भाई की गायकी पर लग जाता है ब्रेक ! बेचारे क्या देखते है, सामने ? सामने खड़े हैं यम राज के दूसरे रूप, लंगड़िया साहब ! बस, भाईजान के कट्टे की तरफ बढ़ते क़दम रुक जाते हैं !]

लंगड़िया साहब – क्या कर रहा है, रशीद ? चोरी करने आया, क्या ?

रशीद भाई – [भयभीत होकर, कहते हैं] – नहीं हुज़ूर, मैं आपका काम कैसे कर सकता हूँ ? आपका काम करना, मुझे शोभा नहीं देता !

लंगड़िया साहब – [जोर से कहते हैं] – क्या बोला ? क्या मैं..

रशीद भाई – [हाथ जोड़कर कहते हैं] – हुज़ूर, मैंने यही अर्ज़ किया है, के माल तोलने का काम आपका है..मालिक आपका काम, मैं बेचारा अदना सा इंसान कैसे कर पाउँगा ? आपका काम करना, मुझे शोभा नहीं देता !

लंगड़िया साहब – नहीं रे, अभी तू कोई और बात कह रहा था ! के..

रशीद भाई – [हाथ जोड़कर, वापस कहते है] – मगर मैंने ऐसा क्या कह दिया, हुज़ूर ? जनाब एक बार आप वापस कहकर, मुझे सुना दीजिये..आख़िर, मैंने क्या कहा ?

[मगर लंगड़िया साहब रशीद भाई की कही बात कैसे दोहराते, के “चोरी करने का काम, हुज़ूर का ही है !” अब यह आरोप अपनी जबान से बोलकर, कैसे सुनाते ? कहने से उनकी खुद की, इज़्ज़त की बखिया उधड़ जाती ! तब रशीद भाई, अपनी सफ़ाई पेश करते हुए कहने लगे !]

रशीद भाई – अरे, साहब ! हम लोगो में कहाँ है इतनी हिम्मत, अंगुली करने की ? आपसे क्या कहूं, जनाब ? काणे को काणा कहना, शरीफों का काम नहीं ! मालिक हम तो ठहरे, शरीफ़ ख़ानदानी आदमी ! हम ऐसा काम, कैसे कर सकते हैं ?

[रशीद भाई की हाज़िर-जवाबी को देखकर, लंगड़िया साहब झुंझला जाते हैं ! मगर अब स्थिति ऐसी बन गयी, बेचारे साहब को चुप रहना पड़ता है ! बस, बेचारे अपना दिल जलाते हुए होंठों में ही कह पाते हैं !]

लंगड़िया साहब – [होंठों में ही कहते हैं] – ए मेरे रामसा पीर ! यह तो आपने अच्छा किया, इस वक़्त आपने किसी और व्यक्ति को यहां हाज़िर नहीं रखा ! नहीं तो रामसा पीर, वह इस रशीद की कही बात कोई सुन लेता तो मेरी इज़्ज़त की बख़िया उधड़ जाती ?

[अब चुप भी, बेचारे कैसे बैठे रहते ? आखिर उनको समझाने का तरीका अपनाते हुए, वे उनसे कहते हैं]

लंगड़िया साहब – [समझाते हुए, कहते हैं] – देख रे, रशीद ! तू एक बात मेरी सुन ले, के इस तरह चुप-चाप बिना कहे माल उठाना अच्छा नहीं है ! आगे से पूछकर, माल ले जाया कर !

रशीद भाई – तो हो गया, क्या ? अभी इसी वक़्त तोलकर दे दीजिये, माल ! ऐसा कौनसा वक़्त गुज़र गया है, जनाब ? ना तो मियें मरे हैं, और ना रोज़े कम हुए हैं ! माल तोल दीजिएगा, मैं यहीं खड़ा हूं हुज़ूर !

लंगड़िया साहब – [परेशान होकर कहते हैं] – तुम लोग क्यों मरते हो, मियें ? जीते रहो, हज़ार साल की तुम्हारी उम्र हो मेरा भेजा खाने के लिए !

रशीद भाई – [भोला चेहरा बनाकर, कहते हैं] – हुज़ूर, खाने के लिए आले दर्ज़े का माल होना चाहिए ! ऐसा माल खाकर, मैं क्या करूंगा ? अभी तो जनाब, एक किलो पाउडर तोलकर दे दीजिएगा..तो समझूंगा, आप हम पर मेहरबान हैं !

लंगड़िया साहब – [क्रोधित होकर कहते हैं] – क्या कहा, मैं तोलूं..?

रशीद भाई – [मुस्कराकर कहते हैं] – नहीं तोलना चाहते हैं आप, तो रहने दीजिएगा ! बस जनाब, आप अपने हाथ से कट्टे से पाउडर निकालकर मुझे दे दीजिएगा ! और, करना क्या ? आप जितना पाउडर दोगे, उतना ही पाउडर मैं ले जाऊंगा ! यह तो ठहरा, आपके प्रभार का माल ! जितना चाहो, उतना दीजिएगा माल ! लिखिए आपकी मर्ज़ी अनुसार, कम या ज़्यादा..मुझे क्या करना ?

लंगड़िया साहब – तू क्या बोल रहा है, दिमाग़ ठिकाने तो है ? मैं क्यों करूंगा, फर्जीवाड़ा ? यह कैसे कह दिया तूने, के माल मैं तोलूं ? काबुल के गधे भूल गया तू, के हम अफ़सर हैं ? वाह रे मियें, तू तो, मेरे हाथ ख़राब कराने को तुला है ?

[हाथ के इशारे से बताते हैं, कहाँ रखें है तोले और तराजू ! फिर वे रशीद भाई से कहते हैं..]

लंगड़िया साहब – उधर रखें हैं, तोला और तराजू ! जाकर तोल ले, एक किलो पाउडर !

रशीद भाई – जो हुक्म, ले लूंगा आख़िर..[अपनी दोनों हथेलियां आगे लाते हुए] इन हाथों से निकालकर ले जाऊंगा पाउडर, आख़िर मेरे हाथ तराजू ही हैं ! फिर काहे का वक़्त खराब करना, तोलने के लिए ? हुज़ूर, [तीन अंगुलियां आगे करके दिखाते हैं] तीस साल का तुज़ुर्बा है इन हाथों को, एक छदाम कम नहीं तुलेगा माल !

लंगड़िया साहब – [अन्दर ही अन्दर धमीड़ा लेते हुए] – अरे, मेरे रामसा पीर ! यह क्या कर डाला, आपने ? अब तो यह कुत्तिया का ताऊ..मेरे हाथ खराब कराने को तुला है ! ए मेरी मां आकर बचा मुझे, इस कुबदी रशीद के हाथों से ! पिछले सप्ताह पाउडर के हाथ लगाया, तब इन हाथों में पैदा हुई खुजली...अभी तक, इन हाथों में चल रही है ! यह खुजली तो, ख़त्म होने का नाम नहीं लेती !

[अचानक उनकी नज़र कमरे के बाहर गिरती है, वहां दरवाज़े के पास से नज़र चुराते हुए लूण करणजी गुज़रते दिखाई देते हैं ! फिर क्या ? बड़ी मुश्किल से काम करने वाला कोई भला आदमी, लंगड़िया साहब को नज़र आता है ! झट, उनको आवाज़ देकर अपने पास बुला लेते हैं !]

लंगड़िया साहब – [आवाज़ देते हुए] – अरे यार, लूणकरण ! चुप-चाप नज़र चुराकर, कहाँ जा रहा है भय्या ? इधर आ, यार..!

[लूणकरणजी तशरीफ़ लाते हैं, उन्हें देखकर लंगड़िया साहब का दिल ख़ुश हो जाता है ! फिर क्या ? जनाब झट, हुक्म का पत्ता चला देते हैं !]

लंगड़िया साहब – देख भाई तू यों कर, के...

[इतने में रशीद भाई, झट वहा से बचकर निकलने का प्रयास करते हैं ! मगर वे लंगड़िया साहब की निगाहों से, कैसे बच पाते ? वे उन्हें रोककर, कहते हैं..]

लंगड़िया साहब – रशीद, कहाँ जा रहा है कुत्तिया का ताऊ ? अभी तेरा झूठ पकड़ में आता है, जा लेकर आ अपने हाथ से एक किलो पाउडर ! [लूणकरणजी से कहते हैं] देख रे लूणकरण, इसका लाया हुआ पाउडर तोलकर बता उसका कितना वज़न है ?

[यहां तो बेचारे लूणकरणजी काम से बचकर निकलने की फ़िराक में थे, अब इनको पाउडर तोलना कैसे अच्छा लगे ? अब बेमन से पाउडर तराजू पर रखकर उसे तोलते हैं, फिर लंगड़िया साहब से कहते हैं..]

लूणकरणजी – साहब, इसका वज़न बराबर एक किलो है ! [अख़बार पर पाउडर रखकर, वे उसे रशीद भाई को देते हैं] हुज़ूर, अब मैं जाऊं ? घर जाना ज़रूरी है, घर वाली बीमार है जनाब !

लंगड़िया साहब – चले जाना, यार ! कोई काम है, पहले दफ़्तर चल !

रशीद भाई – [तपाक से कहते हैं] – साहब, इन्हें आप कहीं मत भेजिए ! अनाज की बोरियों पर छिड़काव करना बाकी है, इधर करणी दानसा छुट्टी पर चल रहे हैं ! मैं बेचारा अकेला आदमी कैसे थामूंगा, इस पम्प को ? और इस कमबख्त अस्थमा के कारण बार-बार दम उठता है, हुज़ूर !

लंगड़िया साहब – [झुंझलाए हुए कहते हैं] – तू दम मत उठा, यार ! इससे अच्छा है, तू मुझे इस खिलकत से उठा दे !

रशीद भाई – [भोला मुंह बनाकर, कहते हैं] – जैसे, आपकी मर्ज़ी ! ऐसे तो मरहूम के मुताल्लिक मशहूर है, के “दुनिया ज़हान से रूख्सत करने का काम, ख़ुदा है !” फिर भी अगर आपके दिल की तमन्ना ऐसी है, तो मैं ख़ुदा से अर्ज़ करूँगा के वह आपके दिल की तमन्ना झट पूरी करे !

लंगड़िया साहब – [चिढ़े हुए कहते हैं] – कहां से आ गया, खोजबलिये..मोमीन की औलाद !

रशीद भाई – [शांति धारण करके कहते हैं] – नहीं..नहीं हुज़ूर ! ऐसा आप क्यों कह रहे हैं, जनाब ? मैं तो जनाब, अब्दुल अज़ीज़ साहब की औलाद हूं ! हुज़ूर, क्या आप अब्बाजान से मिलना चाहते हैं ? आपकी दिल-ए-तमन्ना ऐसी ही है, तब आपको जन्नत-ए-दर जाना होगा !

लंगड़िया साहब – [ज़ोर से कहते हैं] – अरे गधे, मैं ज़िंदा हूं ! क्या तू एक जिन्दे आदमी को, कब्र में डालेगा ? कुतिया के ताऊ, तूझे तो...

रशीद भाई – [मासूमियत से कहते हैं] – शुक्रिया ! इस नाचीज़ को आपने, गधा और कुतिया के ताऊ नाम के ओहदों से नवाज़ा है ! अब हुज़ूर से दरख्वास्त है, के यह गधा और कुतिया का ताऊ ठहरा ख़ानदानी !

लंगड़िया साहब – [चिढ़ते हुए, कहते हैं] – तब, मैं क्या करूं रे ?

रशीद भाई - आप तो जानते ही हैं, ख़ानदानी गधे और कुत्ते क्या बढ़िया लातें मारते हैं और तेज़ काटते हैं ! तब हुज़ूर, आप इस बन्दे को एक बार आपकी ख़िदमत करने का मौक़ा दीजिएगा..तब आप ताजिंदगी, इस नाचीज़ को याद रखेंगे !

[अब लंगड़िया साहब के गुस्से का कोई पार नहीं, उनको तो आंखों के आगे कसी हुई वो वीणा दिखाई देने लगी.. जिसके तारों को, ज़रूरत से ज्यादा कस दिए गए..! जिसकी स्थिति अब ऐसी बन गयी, के उसके तार कभी भी टूट सकते हैं ! ऐसी स्थिति में, बेचारे लंगड़िया साहब क्या कर पाते ? बोले तो, वे रशीद भाई की हाज़िर जवाबी के आगे उनके पास बोलने का कोई तुक नहीं ! इस तरह, वे निरुत्तर ही रहते ! ख़ाली, उनकी इज्ज़त की बख़िया उधेड़ दी जाती..तब बेचारे लंगड़िया साहब चुप रहने में, अपनी समझदारी मान लेते हैं ! थोड़ी देर बाद, सभी जाते हैं ! उनकी पदचाप की आवाज़, आनी बंद हो जाती है ! मंच पर, अंधेरा फ़ैल जाता है !]

[३]

[मंच रोशन होता है, बाबू हज़ारी लालसा दफ़्तर की तरफ़ जाते दिखाई देते हैं ! थोड़ी देर बाद वे, दफ़्तर में अपनी कुर्सी पर बैठे दिखाई देते हैं ! खिड़की के बाहर खड़े हैं, लंगड़िया साहब और लूणकरणजी ! उनकी वार्तालाप की आवाजें, उनको सुनायी देती है !]

लूणकरणजी – [लंगड़िया साहब से कहते हुए] – हुज़ूर, हाज़री रजिस्टर में हस्ताक्षर तो करने दीजिये ! इसके बाद, आप आप जहां कहेंगे..वहां चला जाऊंगा ! प्लीज़ हस्ताक्षर तो करने दीजिये, मालिक ! ना तो पीछे कोई अज़मेर से अफ़सर आ गए, तो दस्तख़त के कोलम में लाल लाइन खीच देंगे..?

[इतना कहकर, लूणकरणजी दफ़्तर में चले आते हैं ! आते ही बाबू हज़ारी लालसा की टेबल से रजिस्टर उठाना चाहते हैं, मगर उससे पहले चतुर हज़ारी लालसा उठा लेते हैं हाज़री रजिस्टर ! रजिस्टर उठाकर, वे लूणकरणजी से कहते हैं..]

[हज़ारी लालसा – [रजिस्टर उठाते हुए कहते हैं] – लूणकरण यार ! तू जा कहाँ रहा है ? क्या यार सारे दिन, साहब लोगों को थामे हुए रखता है ! कभी यार, इस ग़रीब को भी देख लिया कर !

लूणकरणजी – [रोनी आवाज़ में कहते हैं] – हुज़ूर, आप मुझ ग़रीब को ताने क्यों दे रहे हैं ? यदि आपका हुक्म हो तो, मैं आपको भी थाम लूंगा ! मैं ठहरा ग़रीब खिदमतगार, चाहे उनकी ख़िदमत करूं या आपकी..क्या फ़र्क पड़ता है ज़नाब ? मगर पहले, यह हाज़री रजिस्टर तो थाम लेने दीजिये !

हज़ारी लासा – रजिस्टर कहां जाता है, डोफ़ा ? यही पड़ा है, मेरे पास ! ऐसे कर, पहले तू कलेक्टर साहब के ऑफिस चला जा ! वहा मेरे मिलने वाले बाबू लोगों को, छोरे की शादी के निमन्त्रण-पत्र देकर तू वापस चला आ ! [थैली देते हुए, कहते हैं] इस थैली में रखें हैं निमन्त्रण-पत्र, जिन्हें उन बाबू लोगों को बड़े प्रेम से देना है !

[जैसे ही लूणकरणजी थैली थामते हैं, उसी वक़्त पहलू में बैठे कार्यालय सहायक नरेशजी पुरोहित अपने लबों पर मुस्कान बिखेरते हुए लूणकरणजी को थमा देते हैं एक दस का कड़का-कड़क नोट ! फिर, उनसे कहते हैं...]

नरेशजी – [दस का नोट थमाते हुए कहते हैं] - अरे लूणकरण, यार ! आज तो मैं घर से टिफिन लाना भूल गया यार, अब तू यों कर..बस स्टेण्ड के पास आयी हुई बोरी दासजी की दुकान से, चार शाही समोसा ले आ प्यारे ! रामापीर भला करेगा, तेरा !

[लूणकरणजी नरेशजी से नोट लेकर, अपनी जेब में रखते हैं ! तभी उन्हें बड़े साहब की घंटी सुनायी देती है, वे झट बड़े साहब के कमरे की तरफ़ क़दम बढाते हैं ! और उनके पीछे-पीछे नरेशजी ठेकेदारों को हुए भुगतान की फ़ाइल, अपने बगल में दबाकर बड़े साहब के कमरे की तरफ़ क़दम बढाते हैं ! बड़े साहब के कमरे के बाहर स्टूल पर चपरासी अंगूरी लाल बैठा है, वह लूणकरणजी को रोककर उनसे कहता है..]

अंगूरी लाल – [लूणकरणजी से कहता है] – लूणकरणजी ! आपको बड़े साहब ने बुलाया है, आप झट उनसे मिल लीजिये !

[अब और कोई उन्हें काम सुपर्द न कर दे ? बेचारे लूणकरणजी मन मसोसकर रह गए, मगर बड़े साहब का हुक्म कैसे टाल पाते ? आख़िर वे कमरे के अन्दर तशरीफ़ लाते हैं, उनके पांवो की आवाज़ सुनकर बड़े साहब ‘काजू साहब’ उनकी तरफ़ बिना देखे कहते हैं....]

काजू साहब – मुंह से बोल, क्यों घूंगी फिल्म की तरह खड़ा है ? क्या बात है, क्यों इधर-उधर घूम रहा है फिटोल की तरह ?

[मगर, लूणकरणजी कुछ नहीं बोलते हैं ! बस, घूंगी फिल्म की तरह खड़े हैं ! आख़िर जवाब नहीं मिलने पर, काजू साहब उन्हें सौ नंबर की डांट पिला देते हैं !]

काजू साहब – [मुंह ऊंचा करके, उन्हें फटकारते हुए कहते हैं] – बरखुदार, तुमसे बात कर रहा हूं..दीवारों से नहीं !

[अब वे लूणकरणजी को ऊपर से लेकर नीचे तक, कड़ी नज़रों से देखते हैं ! मगर फिर भी लूणकरणजी रहते हैं चुप..ऐसा लगता है, मानो उनके होंठो पर ताला जड़ा हुआ हो ? बस, फिर क्या ? लबों पर मुस्कान फैलाकर, वे दरवाज़े पर लगे परदे की ओर इशारा करते हैं ! जहां श्रीमान नरेशजी भुगतान फ़ाइल थामे खड़े हैं ! अब नरेशजी सामने आकर, काजू साहब से कहते हैं..]

नरेशजी – [सामने आकर, कहते हैं] – साहब, यह लूणकरण मेरे काम से बाहर जा रहा है ! हुज़ूर, आज़ मैं घर से टिफिन लाना भूल गया ! बस, लूणकरण के साथ थोड़ा नमकीन मंगवाया है !

काजू साहब – लंच का टाइम हो गया, क्या ? ओ.ए. साहब, ज़रा घड़ी देखना..

[मगर नरेशजी कोई जवाब नहीं देते, बस भुगतान फ़ाइल काजू साहब की टेबल पर रख देते हैं ! काजू साहब फ़ाइल खोलकर ऐसी.रोल देखते हैं, फिर लबों पर मुस्कान बिखेरते हुए फ़ाइल वापस उन्हें लौटा देते हैं ! बाद में, वे लूणकरणजी से कहते हैं..]

काजू साहब – [लूणकरणजी से कहते हैं] – जा रे, लूणकरण जा ! ओ.ए.साहब का काम, सबसे पहले किया कर !

[हुक्म पाते ही, लूणकरणजी रूख्सत होते हैं ! उनके जाते ही, पीछे से हंसी के ठहाके गूंज़ते हैं ! धीरे-धीरे यह आवाज़ मंद पड़ती जाती है ! मंच पर, अंधेरा फ़ैल जाता है !]

[४]

[मंच रोशन होता है, गोदाम का मंज़र सामने दिखायी है ! सावंतजी और रशीद भाई मिलकर, अनाज की बोरियां पर छिड़काव करते नज़र आ रहे हैं ! थोड़ी देर बाद, कमला बाई नाम की केजुअल लेबर सर पर पानी का घड़ा रखे आती है ! वह नज़दीक आकर, इनसे कहती है..]

कमला बाई – [नज़दीक आकर कहती है] – साहब, टंकी में पाउडर डाल दीजिये ! मैं पांच घड़े पानी, इसमें डाल देती हूं !

रशीद भाई – [घबराते हुए, कहते हैं] – अरे यह क्या कर रही हो, कमला बाई ? पांच घड़े पानी डाल दोगी, तो घोल बढ़ जाएगा...और उसे ख़त्म करना, मुश्किल हो जाएगा !

कमला बाई – आख़िर, मैं क्या करूं साहब ? उधर लंगड़िया साहब कहते हैं, पांच घड़े पानी डालो और इधर आप करते हैं आनाकानी ! मैं तो आप दोनों के बीच मर गयी, अब किसका कहना मानू ?

रशीद भाई – ज्यादा पम्प लगाने से बाईजी, दम उठ जाएगा ! यह बात तो आपको ध्यान ही है, के मैं अस्थमा का मरीज़ हूं ? फिर बाईजी, आप..

सावंतजी – [बात काटते हुए कहते हैं] – काम चोरी करते हो, फिर वेतन किस बात का लेते हो ? हराम की खाकर, फिर ख़ुदा के पास जाकर कैसे अपना मुंह दिखलाओगे ?

रशीद भाई – [भोला मुंह बनाकर कहते हैं] – मेरे बड़े भाई, मैं आपका भला चाहता हूं ! देखिये अभी-अभी आप, ख़ुदा के मेहर से लम्बी बीमारी से उठे हैं ! क्या आप डॉक्टर साहब का इलाज़ वापस लेना चाहते हैं ? या इलाज़ के लिए बहुत सारे रुपये इकट्ठे कर चुके हैं, आप ? कहीं अकेले आपको सरकार ने, मेडिकल का अधिक बज़ट दे दिया है ?

[हथेली पर ज़र्दा और चूना रखकर सुर्ती तैयार करते हैं, फिर तैयार सुर्ती सावंतजी के पास लाते हैं ! उनको सुर्ती थमाते हुए, उनसे कहते हैं..]

रशीद भाई – [सुर्ती थमाते हुए, कहते हैं] – आप एक बार सोचिये, भाईसाहब ! के, यह सरकार आपको हर माह कितने रुपये का मेडिकल बज़ट देती है ? केवल दो सौ रुपए मात्र, और आप खर्च करते हैं हर माह दो हज़ार रुपये अपनी बीमारी पर !

सावंतजी – यह तो ठीक है, रशीद भाई !

रशीद भाई - अब कहिये, मैं आपके भले के बारे में ही सोचता हूं या नहीं ? सुनिए, आज़ जोधपुर जाने वाली एक्सप्रेस गाड़ी तीन बजाकर बीस मिनट पर आ रही है ! क्या आप वक़्त पर घर पहुंचना चाहते हैं, या नहीं ?

[इतना कहकर रशीद भाई अपने होंठों के नीचे सुर्ती दबाते हैं, फिर वे सावंतजी के चेहरे पर आ रहे भाव को पढ़ने की कोशिश करते हैं ! इधर गाड़ी के आने की ख़बर सुनकर, सावंतजी के लबों पर मुस्कान फ़ैल जाती है ! फिर क्या ? वे झट अपनी मंजूरी देते हुए, कमला बाई से कहते हैं..]

सावंतजी – [कमला बाई से कहते हैं] – कमला बाई, रशीद भाई जितना कहे उतना पानी डाल दीजिये टंकी में !

[रशीद भाई झट दो अंगुली दिखालाते हुए, दो घड़े पानी डालने का हुक्म देते हैं ! हुक्म पाकर कमला बाई पानी लाने के लिए रवाना होने के लिए क़दम बढ़ाती है, मगर सावंतजी उसे रोककर कहते हैं..]

सावंतजी – [कमला बाई से कहते हैं] – कमला बाई हम दोनों बाहर चबूतरे पर बैठकर थोड़ा आराम कर लेते हैं, तब तक आप दो घड़ा पानी लाकर इस टंकी में डाल दीजिये ! [रशीद भाई से कहते हैं] चल रे, रशीद ! बाहर चबूतरे पर बैठकर, थोड़ा आराम कर लेते हैं !

[कमला बाई जाती है ! अब वे दोनों बाहर आकर, चबूतरे पर बैठ जाते हैं ! यहां से डिपो का मेन गेट साफ़-साफ़ नज़र आता है ! बैठे-बैठे वे दोनों मेन गेट की तरफ़ नज़र गढ़ाए रखते हैं, और ध्यान रखते हैं के ‘गेट में कौन दाख़िल हो रहा है, और कौन जा रहा है बाहर !’ अब इन दोनों के बीच बातों की फुलवारी चलती है !]

रशीद भाई - सावंतजी यार, तीन दिन हो गए पूरे..मगर, लंगड़िया साहब की कड़वी जबान पर लगाम लगती हुई दिखाई देती नहीं ! अब क्या करें, यार ? कितनी बार समझा दिया उनको, मगर यह काठ का उल्लू कुछ समझता ही नहीं ! ऐसा लगता है, ये आली जनाब दफ़्तर आते वक़्त करेला का जूस पीकर आते होंगे ? या फिर...

सावंतजी – [उनकी बात काटते हुए कहते हैं] – तू कौनसा बिदामों का जूस पीकर आता है, रोज़ ? बेचारे गौ जैसे सीधे साहब से, जबान लड़ाता है ! मुझे तो अब लगता है, तू नीम की पत्तियां चबाकर आता होगा ?

रशीद भाई – देखो भाईसाहब, आप ऐसे कड़वे शब्द बोला न करें, मैं बेचारा आपकी बहुत इज़्ज़त करता हूं ! आप ख़ुद देख लीजिये, अनाज की बोरियों पर पहले रसायन का छिड़काव होता है..फिर बोरियों के नीचे गोलियां रखी जाती है ! मगर ये बिना दिमाग़ वाले अफ़सर बाईजी को बार-बार भेजकर सवाल करते हैं, के “बोरियों को, केनवास से ढका या नहीं ?”
सावंतजी – इसमें, उनका क्या दोष ?

रशीद भाई – ओ बड़े भाई साहब, आपको कैसे समझाऊं ? इतना तो मूर्ख भी जानता है, के “दवाई का छिड़काव हो जाय, उसके बाद ही बोरियों को केनवास से ढका जाता है !” देखिये जनाब, आज़ दवाई छिड़कने का काम पूरा होगा ! फिर आप कहिये, छिड़काव के पहले केनवास कैसे ढकने के लिए काम लें ?

सावंतजी – केनवास केनवास बार-बार कहकर तू मेरा सर मत खा, मगर यह तेरे दिमाग़ में बैठा दे के ‘बोरियों के नीचे, तुझको गोलियें भी रखनी है !’ क्या कहूं तूझे, अब ? तू तो हर वक़्त, सुवा की खेजड़ी पर चढ़ना चाहता है !

रशीद भाई – [अंगड़ाई लेते हुए कहते हैं] – आಽಽहಽಽ.. गोलियों की काहे फ़िक्र करते हो ? रख देंगे, जनाब रख देंगे ! आप धैर्य रखिये, बड़े भाई !

सावंतजी – [ज़ोर से कहते हैं] – धैर्य..? वाह, तेरे ऊपर भरोसा कर लूं ? गत समय तूझे क्या कहा था. मियें ? गोलियां रखनी है, मगर तू तो...

रशीद भाई – भाईसाहब, मैंने आपसे वादा ज़रूर किया था, मगर इसमें मेरी ग़लती कहाँ ? इस अफ़ीमची ने जबरदस्ती बैठा दिया मुझे, अपने पहलू में ! अब, आपसे क्या कहूं ? दोस्ती का हवाला देते हुए, उसने यह कह डाला मुझे ‘तू मुझसे कतराता क्यों है, मेरे निकट बैठने से क्या तूझे चूनिया काटते हैं क्या ?’ अब आप ही कहिये, ‘उनको, मैं क्या जवाब देता ?’
सावंतजी – तू ऐसे बोल, के ‘अफ़ीम की किरची लेकर, आप भाईसाहब करने लगे जन्नत की सैर ! और भूल गए, गोलियां रखनी !’

रशीद भाई – [हड़बड़ाते हुए कहते हैं] – नहीं भाईसाहब, आप बिल्कुल ग़लत कह रहे हैं ! मुझे, अपनी जिम्मेदारी का पूरा अहसास है ! जैसे ही मुझे करणी दानसा के दीदार हुए, मैंने झट यह काम उनको सौंप दिया और ख़ुद इस काम से मुक्त हो गया ! भाईसाहब कहिये, क्या उन्होंने गोलियां रखी या नहीं ?

सावंतजी – तू ठहरा उल्लू की दुम ! कभी सुना तूने, भरोसे की भैंस क्या लाती है ? लाती है, पाडा..इसके सिवाय, क्या लाएगी ? जैसा तू है, वैसा ही ही तेरा भाई करणी दान ! तू पड़ा रहता है, अफ़ीमची के पास, और यह तेरा भाई करणी दान घूमता रहता है इन अफसरों के आस-पास ! साला मस्का मारता, थकता ही नहीं !

[फिर क्या ? सावंतजी तो दुखी होकर बैठ जाते हैं, सर पर हाथ रखकर ! इसके बाद क्रोधित होकर कहते हैं..]

सावंतजी – [गुस्से में बकते हुए, कहते हैं] – तूझे शर्म आती नहीं, तेरे भरोसे मैंने लंगड़िया साहब को जबान दे दी थी, के ‘काम अप टू डेट हो जाएगा..’ मगर तू तो भरोसा करने के लायक ही नहीं, तुम तो मियें वही हो..जो कहता है के ‘अल्लाह देगा, बन्दा लेगा ! मगर काम नहीं करना, आखिर ठहरे मोमीन की औलाद !’

रशीद भाई – [नाराज़ होकर कहते हैं] – देखो भाईसाहब, ऐसा कहना आपको शोभा नहीं देता ! आख़िर, मैं भी एक इंसान हूं ! जनाब, इंसान की इज़्ज़त होती है ! मुझमें जितना दम है, उतना तो काम करता ही हूं ! नहीं होता है, तो लोगों को कहकर वह काम करवा देता हूं ! फिर आपको क्या तकलीफ़ ?

सावंतजी – चल, तू मेरे सामने किसी को कहकर गोलियां रखने का काम पूरा करवा दे तो मैं जानू, के ‘तू लोगों से काम करवाने की क़ाबिलियत रखता है !’

रशीद भाई – चलिए, आपको काम पूरा ही चाहिए ना ? फिर देखिये, मैं कैसे काम पूरा करवाता हूं ?

[अब रशीद भाई मेन गेट की और देखते हैं, वहां गेट के पास चौकीदारी करते साबीर मियां दिखाई देते हैं ! उनको देखकर, वे उन्हें आवाज़ देकर पास बुलाते हैं !]

रशीद भाई – [आवाज़ देते हुए] – अरे ओ साबीर मियां, ज़रा इधर तशरीफ़ रखियो !

[साबीर मियां उनके निकट आकर, उन्हें सलाम करके उनसे कहते हैं !]

साबीर मियां – [सलाम करते हैं] – असलाम वालेकम, चच्चाजान खैरियत है ?

रशीद भाई – वालेकम सलाम, मियां ! ज़रा ढाई बजे काम से फारिग़ होकर आ जाना यहां, फिर दो-दो चार-चार गोलियां हर अनाज की बोरी के नीचे रखते जाना ! इसके बाद, इन बोरियों पर केनवास ढककर उसे एयर टाईट कर देना ! ध्यान रखना, कोई कुत्ता या बिल्ली अन्दर छुपा न रह जाय ! समझग्या, बरखुदार ?

साबीर मियां – समझ गया, चच्चा !

सावंतजी – [हंसते-हंसते, कहते हैं] – क्या साझे, यार ? यह भी देख लेना, अच्छी तरह से..कहीं कोई हाथी अन्दर छुपा न रह जाय ? [रशीद भाई से कहते हैं] बोल रे रशीद, बात ठीक है ?

रशीद भाई - [नाराज़ होकर कहते हैं] - भाईसाहब आप चुप रहिये, आप अपने काम से मतलब रखिये ..बस, आपको वक़्त पर काम तैयार मिलेगा !

साबीर मियां – चच्चाजान ! आपको पूरा काम तैयार मिलेगा, आप काहे फ़िक्र करते हैं ? अब आप मुझे रूख्सत होने की इजाज़त दीजिएगा, गेट के पास ट्रकें खड़ी है..उनकी रवानगी करनी, बहुत ज़रूरी है !

रशीद मियां – शुक्रिया मियां, ढाई-पाने तीन बजे एक ट्रक रोके रखना..हमको जाना है स्टेशन, आज गाड़ी तीन बजकर बीस मिनट पर चली जायेगी ! ठीक ढाई बजे हम फारिग़ होकर, गेट पर आ जायेंगे !

साबीर मियां – अल्लाह के फज़ल से आपका हर हुक्म तामिल होगा ! अच्छा चलता हूं, ख़ुदा हाफ़िज़ !

[साबीर मियां गेट की तरफ़ जाते दिखाई देते हैं, उनके जाते ही सावंतजी ज़ोर से ठहाके लगाकर हंसते है ! फिर, हंसते हुए कहते हैं..]

सावंतजी – [हंसते हुए कहते हैं] – वाह रे, वाह मियां ! क्या तुम्हारी भाषा है ? यह मारवाड़ी है या उर्दू ? या यह है, हिंदी का नया रूप ?

रसीद भाई – जनाब, दांत निकालकर हंसिये मत..ज्यादा हँसे तो यह आपकी नक़ली बत्तीसी मुंह से बाहर निकलकर नीचे गिर जायेगी ! आपको देखनी है तो जनाब, देखिये मेरी क़ाबिलियत ! बढ़े हुए काम को, हम कैसे पूरा करवा देते हैं ? सरकार तो चाहती ही है, ज़्यादा से ज़्यादा काम हम पर लाद दें..मगर इस बन्दे में है, अक्कल ! काम को, कैसे निपटाया जाय ? यह तरीका, वह अच्छी तरह से जनता है !

सावंतजी – [ताज्जुब करते हुए, कहते हैं] – हां रशीद भाई, यह तो तेरे अन्दर कला है..लोगों को पटाकर, उनसे काम लेने की ! मगर, करूं क्या ? मेरे वश में तो, यह लूणकरण भी नहीं है !

रशीद भाई – ऐसी क्या बात है, भाईसाहब ?

सावंतजी - जब भी इस डोफ़े को किसी काम का कहता हूं, मगर वह नालायक बिना सुने ही किन्नी काटकर कह देता है के “भाईसाहब, मुझे लंगड़िया साहब ने बुलाया है..वे मुझे दफ़्तर के काम से कहीं बाहर भेज रहे हैं ! आप करणी दानसा से, यह काम करवा लीजियेगा !”

रशीद भाई – भाईसाहब, क्या आप सच्च कह रहे हैं ?

सावंतजी – नहीं तो क्या, मैं झूठ कह रहा हूं ? अरे मेरे भाई, उसके पास आनाकानी करने के कई जवाब रहते हैं....इसकी जेब में ! कभी कहता है पत्नि बीमार है, उसको डॉक्टर के पास ले जाना है ! कभी कुछ बोलता है, तो कभी कुछ..?

रशीद भाई – [हंसकर कहते हैं] - अरे जनाब, वह तो यह बहाना बना लेता है, के ‘उसे बांगड़ कोलेज़ जाना है, बच्चे की फ़ीस भरने !’

[अचानक रशीद भाई की निग़ाह मेन गेट पर गिरती है, जहां लूणकरणजी चुप-चाप नज़र चुराकर वहां से निकलने की कोशिश में है ! फिर क्या ? वे झट, सावंतजी से कहते हैं..]

रशीद भाई – [ज़ोर से कहते हैं] – अरे सावंतसा ! पकड़ो, पकड़ो ! इस छिपलाखोर को ! कहीं, यह भग न जाय ?

सावंतजी – [आवाज़ देते हैं] – अरे ए रे, लूणीयांಽಽ ! इधर आ, माता के दीने !

[लूण करणसा को कब यह अच्छा लगे, कोई उन्हें कहीं जाते..पीछे से आवाज़ दे दे, इससे उनके शकुन ख़राब हो जाते हैं ! अब श्रीमानजी मूड ऑफ़ किये हुए, वहा तशरीफ़ लाते हैं ! आते ही, खीजे हुए इंसान की तरह बकवास करते है]

लूण करजी – [खीजे हुए कहते हैं] – मेरी औरत बीमार है, मुझे जाना है घर..और इधर आप निक्कमों की तरह, पीछे से आवाज़ देते हैं ! यह कोई, शरीफ़ों का काम है ? अपशकुन हो गए मेरे, अब कौनसा काम पूरा होगा ?

सावंतजी – नाराज़ मत हो, प्यारे ! मैं तो तूझे काम याद दिला रहा था, अब क्या कहूं यार ? इधर तूझे याद किया, और उधर तू पलक मारते ही अल्लादीन के चिराग़ के जिन्न की तरह हो गया हाज़िर ! अब तो तेरी उम्र बढ़नी ही है, ईश्वर तेरी उम्र सौ साल की करे ! इसके अलावा, तूझे क्या दुआ दूं ?

लूण करणजी – आप क्यों मेरी उम्र बढ़ने की, आशा लिए बैठे हैं ? यह बंदा, अब ज्यादा जीने वाला नहीं ! खूब सारा काम दे दीजिये, और बेरहमी से लाद दीजिये मुझ पर.. ढेर सारा काम ! कभी सोचा, आपने ? के, काम करता-करता यह लूण करण कितना दुबला हो गया है ? [रोनी आवाज़ में, कहते है] मेरी, एक-एक हड्डी खटका दी रे..तुम लोगों ने !
[सावंतजी अपने पोपले मुंह पर जबरदस्ती मुस्कान लाते हैं, फिर उनसे कहते हैं]

सावंतजी – तू तो मेरा बब्बर शेर है है रे, मेरे ज़िगर का टुकड़ा ! तेरा ख्याल न रखूंगा तो फिर, किसका रखूंगा रे ? [अपना हाथ रखते हैं, उनके सर पर] कुछ नाश्ता-वाश्ता, किया या नहीं तूने ?

लूण करणजी – [सर पर रखा सावंतजी का हाथ, दूर हटाते हुए कहते हैं] – बहुत सारा नाश्ता किया है, मैंने ! सुबह से चरता आ रहा हूं, आप लोगों के पच्चड़ो में फंसकर ! काम-वाम आप लोग करते नहीं, तब सारे काम ये अफ़सर लोग मेरे उपर लाद देते हैं ! [लंगड़िया साहब की नक़ल उतारते हुए] यह रशीद पाउडर तोलता नहीं, अब यार लूण करण तोल दे यह पाउडर !

सावंतजी – आगे बोल, लूण करण !

लूण करणजी - [फिर वापस अपनी आवाज़ में कहते हैं] - यों कहते हैं, लंगड़िया साहब ! इसके बाद ये बाबू साहब हज़ारी लालसा अलग से हुक्म देते हुए ऐसे कहते हैं, के ‘यह सावंत सिंह...’

सावंतजी – [गुस्से से कहते हैं] – क्या बोला, यह मर्दूद हज़ारिया ? बोले तो बोल, मेरे सामने ! पीछे क्यों बोलता है, हितंगिया ? अब इस हज़ारे को गज़रा नहीं बना दिया तो मेरा नाम सावंत सिंह नहीं !

लूण करणजी – [जैसे वे आग में पूला डाल रहे हों, वैसे ही वे बोलते हैं] – इतना ही कहा, जनाब ! के, यह रशीद भी सावंत सिंह जैसा बन गया है ! यह साला भी पानी नहीं पिलाता, मुझे ! अब तू आ गया, लूण करण ! तू पानी पिला दे, यार !

सावंतजी – इस में क्या है, बड़ी बात ? लूण करण ! तू तो बड़े-बड़े अफसरों को पानी पिलाने का तुज़ुर्बा रखता है, फिर यह गज़रा..अरे नहीं रे, यह हज़ारा क्या है तेरे सामने ? साला ठहरा होगा, गाजर-मूली और क्या ?

रशीद भाई – तू क्यों फ़िक्र करता है, लूण करण ? ज़्यादा से ज़्यादा यही कहेगा, ‘लो देखिये, मेरे आगे बड़े-बड़े तुर्रम खां पानी भरते हैं !

लूण करणजी – [मुंह बांका करके, कहते हैं] – आप लोग मेरी तारीफ़ कर रहे हैं, या मेरी जूत्तियां रगड़ रहे हैं ?

सावंतजी – अरे यार, लूण करण ! तू तो मस्त रहा कर, यार !

लूण करणजी – कैसे रहूं, मस्त ? सुबह से काम करता-करता थक गया, मुंह में एक निवाला रोटी का डाला नहीं !

रशीद भाई – किसकी फ़िक्र करता है, लूण करण ? तू तो मस्त रहा कर, अब चल छप्परे के नीचे ! अभी खोलते हैं टिफिन..वहां बैठकर !

[अब सावंतजी लूण करणजी का हाथ पकड़कर, उनसे कहते हैं]

सावंतजी – [लूण करणजी का हाथ पकड़कर कहते हैं] – देख यार, लूण करण ! तू छोटी-छोटी बातों को लेकर, नाराज़ क्यों होता है ? यों कैसे काम चलेगा, डोफ़े ? देख तेरे भाभीजी ने क्या बनाकर भेजे हैं, आज ? भरवा बैंगन..बड़े मस्त बने है, यार ! चल, अब टिफिन खोलते हैं !

[सभी जाते हुए दिखाई देते हैं, धीरे-धीरे उनके पांवों की पदचाप सुनायी देनी बंद हो जाती है ! थोड़ी देर में, मंच पर अंधेरा फ़ैल जाता है !]

[५]

[मंच पर रोशनी फ़ैल जाती है, छप्परे के नीचे माना रामसा लेटे नज़र आ रहे हैं ! इनके आस-पास, बारदान बिछे हैं ! इन बारदानों पर सावंतजी, रशीद भाई और लूण करणजी बैठे हैं, उनके पास सावंतजी और रशीद भाई के टिफिन रखे हैं ! अब खाने के टिफिन खुलते हैं, और चारों तरफ़ सब्जियों की सोरम फ़ैल जाती है ! मगर इस सोरम का असर, अफ़ीम की पिनक में लेटे माना रामसा पर नहीं होता ! इन लोगों के आने पर हुई खट-पट से, माना रामसा की ऊंघ में ख़लल ज़रूर पहुंचता है..जो अब, इनको अच्छा नहीं लगता ! क्योंकि, यहां तो ये माना रामसा ठहरे कुत्तिया के ताऊ..पूरे खोड़ीले नंबर एक ! फिर क्या ? आख़िर, अपनी लालकी को बोलने के लिए निकाल बैठते हैं !]

माना रामसा – [अफ़ीम की पिनक में कहते हैं] – आप लोग आ गए, आख़िर ? क्या कर लोगे, मेरा...न मालुम कहाँ से आ जाते है, ये कुत्तिया के ताऊ मेरी नींद में ख़लल डालने ? [धुतकारते हैं] धुरಽಽ धुर..! भागो..यहां से ! पहले आ गया यह कमबख्त बाबू हज़ारिया, और अब आ गए ये मुए ?

[इतना लताड़ने के बाद, उनके मुख से एक कलाम निकल जाता है !]

माना रामसा – [कलाम सुनाते हुए] – “सो रहा था चैन से ओढ़े कफ़न मज़ार में, यहां भी सताने आ गए किसने पता बता दिया ?”

[यह कलाम सुनते ही, रशीद भाई को बहुत बुरा लगता है ! फिर, क्या ? रशीद भाई बोलने लगते हैं, फाटे-फुवाड़े !]

रशीद भाई – [गुस्से में बकते हैं] – सीढ़ी काडिया..अफ़ीमची की औलाद ! साला काम करता नहीं, और मुर्दे की तरह यहां पड़ा रहता है ! हम लोग काम से फारिग़ होकर थके हुए यहां आते हैं, सोचते हैं कुछ देर सुस्ता लें ! मगर यह क़ब्रिस्तान का मुर्दा, न मालुम कहाँ से आकर सो जाता है यहां ?

सावंतजी – [ज़ोर से कहते हैं] – अरे ए, मतीरे के बीज ! हम तो चले जायेंगे, दो रोटी खाकर ! फिर तेरे बुलाने से भी, आयेंगे नहीं हम !

रशीद भाई – अब मैं भी तूझे कलाम सुना देता हूं, सुन ! “हम छोड़ देंगे इस महफ़िल को, फिर याद आये तब रोना मत ! इस दिल को तसल्ली दे देंगे, दुनिया में बज़िद नहीं रहे !”

लूण करणजी – मरने दो, इनको ! इनको भोजन नहीं, इनको तो चाहिए अफ़ीम ! खाना, कहाँ है ? अब आप लोग तो टूट पड़ो, इस खाने पर ! नहीं तो यारों, ख़त्म हो जायेंगे ये भरवा बैंगन !

रशीद भाई – क्या बोल रहा है, लूण करण ? क्यों भरवा बैंगन के पीछे लगा है ? खोल मेरा टिफिन, फिर देख क्या आता है तेरे सामने ?

लूण करणजी – [उनका उपहास उड़ाते हुए कहते हैं] – आप आख़िर, लाओगे क्या ? वही पतली दाल और लुखी रोटियां ?

रशीद भाई – नहीं रे, लूण करण ! तू खोल तो सही मेरा टिफिन, अभी तेरे सामने क्या आता है.. ? जानता नहीं, आज है जुम्मे रात ! इस दिन लज़ीज़ बादशाही खाना बनता है, ले झट कर..सज़ा दे दस्तरख्वान ! अभी तेरे सामने आता है, गोविन्द गटों की सब्जी और देसी घी में बनाये हुए परामठे !

[टिफिन के ढक्कन हटा दिए जाते हैं, फिर सभी अपने ऊपर नियंत्रण नहीं रख पाते ! झट कबूतरों की तरह, भोजन पर टूट पड़ते हैं ! सभी खाना खाकर टिफिन साफ़ कर देते हैं, लूण करणजी भर-पेट भोजन करके अब अपने पेट को हाथ से सहलाते हैं ! इसके बाद वे भैंस की तरह, डकारते हैं ! अब बिल्ली की तरह मुंह साफ़ करके, श्रीमान कहते हैं..]

लूण करणजी – यह क्या, सड़ा-गला..खाना भेज दिया भाभीजी ने ? यह खाना खाकर मेरा पेट ख़राब हो गया, भाभीजी को आता क्या ? आता है खाली, गोबर करना ! [गाली की पर्ची निकालते हैं] भाभीजी की मां की..

सावंतजी – [आंखें तरेर कर कहते हैं] – क्या बोल रहा है, लूण करण ? जबान पर लगाम दे

लूण करणजी – [मीठी चिमटी काटते हुए, ज़ोर से कहते हैं] – ताला लगा दीजिये, अपने मुंह पर ! सच्च कहने में, काहे की शर्म ? उल्लू के पट्ठो ! तुम्हारा लाया हुआ, यह कोई खाना है ? या है, भैंसों का चारा ? [हाथ सामने लाकर, एक्सन करते हुए कहते हैं] भोजन तैयार करती है, हमारे करणी दानसा की घर वाली ! क्या लज़ीज़ खाना बनाती है, मसालेदार..जिसे खाकर लोग अंगुलियां चाटते रह जाते हैं !

रशीद भाई – [चिढ़े हुए कहते हैं] – जाಽಽ जा, करणी दान के घर ! साला चटोखरा, चला जा उसके गांव !

लूण करणजी – [सावंतजी और रशीद भाई को चिढ़ाते हुए कहते हैं] – जाऊंगा, ज़रूर जाऊंगा करणी दानसा के घर ! जीमकर आऊंगा, नौरता की नम को !

सावंतजी – [हंसते हुए, कहते हैं] – जा, चले जाना करणी दान के घर ! कुछ मिलेगा नहीं, आयेगा वापस मुंह लटकाए ! [रशीद भाई की तरफ़ देखते हुए, कहते हैं] क्या कहते हैं उसे, बोल रे रशीद भाई वो क्या मुहावरा है ?

रशीद भाई – सुनिए ! चौबेजी जाए जीमने को, खाने को कुछ मिलता नहीं..बेचारे मुंह लटकाए आते हैं वापस, छब्बेजी बनाकर ! मामला कुछ ऐसा ही है, हुज़ूर ! [लूण करणजी की तरफ़ मुंह करते हुए कहते हैं] समझ गया, लूण करण ? कुछ बात, तेरे दिमाग़ में घुसी या नहीं ?

लूण करण – [रोनी आवाज़ में कहते हैं] – हुज़ूर, क्या प्रीति-भोज गया तेल लेने ?

सावंतजी – क्यों दिमाग़ चाटता है, फ़िज़ूल में ? मुफ़्त का माल-मसाला खाना हो तो चला जा, मुझसे क्यों पूछता है करमज़ले ?

[प्रीती भोज होगा या नहीं, इस सवाल का जवाब प्राप्त करने के लिए लूण करणजी सावंतजी की मस्कागिरी करने के लिए तैयार हो जाते हैं ! अब वे झट उनका कंधा दबाते हुए, अर्ज़ करते हैं !]

लूण करणजी – [सावंतजी के कन्धों को दबाते हुए कहते हैं] – मेरे बड़े भाई, यों काहे नाराज़ होते हैं आप ? आपको बताने में क्या जाता है, के ‘वास्तव में, प्रीती-भोज रद्द तो नहीं हो गया ?’ बता दीजिये ना, वैसे भी यह बात आपके पेट में पचेगी नहीं ! नहीं बताओगे जनाब, आपके पेट में दर्द होने लगेगा..ज़रूर !

सावंतजी – [अहसान लादते हुए, कहते हैं] – ले लूण करण बता दूं आखिर, तू भी भले मुझे क्या याद रखेगा यार ? के, कभी सावंत सिंह जैसा दिलदार इंसान तूझे मिला था !

रशीद भाई – अरे सुना दो, यार सावंतजी ! काहे इसे, बच्चों की तरह ख़ुश करते जा रहे हो ? भाईसाहब, यह छोटा बच्चा नहीं है ! यह कमबख्त, तीन-तीन बच्चों का बाप है !

सावंतजी – सुन रे, लूण करण ! तू अब, करणी दान के गांव जाने का प्रोग्राम रद्द कर दे ! और आगे से सीख ले ले, के ‘लालच बुरी बला है !’ कभी इस करणी दान की तरह, लालच करना मत ! इस गधे ने सोचा, के “बलि के बकरे को मोटा-ताज़ा बना दूं, तो फिर माताजी बलि लेकर तुष्ठमान हो जायेगी...और साथ में उनके भक्त, प्रसादी लेकर ख़ुश हो जायेंगे ! फिर...

रशीद भाई – [हड़बड़ाते हुए, कहते हैं] – कहीं उसने, कोई ग़लत काम तो नहीं कर डाला ?

सावंतजी – असली तिल्ली का तेल हल्दी मिलाकर पिला दिया, उसे ! फिर शामत आयी बकरे की, उसके दिमाग़ की नसों में चढ़ गयी गर्मी...और बेचारा, बेमौत मर गया !

[यह सुनते ही, लूण करणजी ग़मज़दा हो गए ! फिर क्या ? उन्हें बकरे की मौत का ग़म सताने लगा, वे बैठे-बैठे अपने दोनों घुटनों के बीच सर डालकर रोने लगे..मानो, कोई उनका अज़ीज़ रिश्तेदार मर गया हो ? फिर, रोते-रोते कहते गए..]

लूण करणजी – [रोते हुए, कहते हैं] – अरे मेरे रामसा पीर ! बेचारा बकरा, यों ही बेमौत मर गया..ऊंಽಽ ऊंಽಽ..ओ मेरे प्यारे बकरे, तू क्यों मर गया रे..! ओ मेरे माताजी, यह क्या कर डाला आपने ? पहले आप उसकी बलि ले लेते, तो अच्छा रहता ! [धमीड़ा लेते हुए रोते हैं] हाय हाय मेरे बलि के बकरे, चार दिन बाद मर जाता..तू इतना जल्दी क्यों मर गया रे, ऊंಽಽ ऊंಽಽ...

सावंतजी – तू क्यों रोता है, डोफ़ा ? मरा तो एक खाली बकरा, और तू बोबाड़ा निकालकर रोता जा रहा है..कमबख्त !

रशीद भाई – बोबाड़ा निकालकर रोयेगा ज़रूर, साले का लज़ीज़ खाना हो गया नज़रों से अदीठ ! इस भुक्खड़ की, यही दशा होनी चाहिए ! बड़ा आया, लज़ीज़ खाना खाने वाला ?

लूण करणजी – [घुटनों से मुंह बाहर लाते हुए, कहते हैं] – यहां कौन मरता है, खाने के लिए ? मुझे तो फ़िक्र है, बेचारे करणी दानजी की..जिनकी मन्नत पूरी हुई नहीं !

सावंतजी – लूण करण अब तू यह मत सोचना, के करणी दान दूसरा बकरा लाकर अपनी मन्नत पूरी करेगा !

लूण करणजी – [वापस अच्छी तरह से बैठते हुए, कहते हैं] – तब, आगे क्या हुआ ? यह तो बता दीजिये, क्यों टाल रहे हैं जनाब..भेजा मार के !

सावंतजी – देख भाई, लूण करण ! वह मन्नत तो उसी बकरे पर बोली गयी थी, अब वह दूसरा बकरा लाकर मन्नत पूरी नहीं कर सकता ! अब यों हुआ, उसकी औरत हुई नाराज़..और खरी खरी सुनाने लगी, के “अब माता रानी को भोग पहुंचा नहीं, अब अपुन सब पर माता रानी कहर बरफा देगी ! आप ऐसा क्यों नहीं कर लेते, दाल-बाटा और चूरमे का भोग लगा दीजिएगा..इस तरह, अपुन की बात भी, रह जायेगी !

लूण करणजी – [ख़ुश होकर, कहते हैं] – यह तो अच्छा होगा, रामसा पीर की कृपा से ! अब तो शानदार प्रीति-भोज अपुन के लिए, तैयार !

सावंतजी – [गुस्से में कहते हैं] – अरे ए, काणे मतीरे के बीज ! तूझे तो खाने की लगी है, ज़रा उस करणी दान के मन की दशा को देख ! बेचारा रोता-रोता मेरे पास आया, और बोला “भाईसाहब, मुझसे ग़लती तो हो गयी, कहीं अब माताजी भिष्ठ तो नहीं मिला देगी हम सबको ?”

लूण करणजी – [ख़ुशी से कहते हैं] – आपने ज़रूर कहा होगा, के “बना दीजिये दाल, बाटा और चूरमा !”

[दावत होने की संभावना से अब ख़ुशी से, लूण करणजी सावंतजी के कंधे दबाने लगे ! इनका इस तरह का यह व्यवहार, सावंतजी को बहुत बुरा लगता है ! वे खीजकर, कहते हैं...]
सावंतजी – [खीजे हुए कहते हैं] – बीच में मत बोला कर, लूण करण ! इस तरह बार-बार बीच में, तेरे बोलने से मेरी ले टूट जाती है ! [रशीद भाई से कहते हैं] बता रे रशीद, मैं क्या कह रहा था ?

रशीद भाई – आपने यह कहा, कि “करणी दानसा ने आपसे सलाह माँगी, के अब उनको क्या करना चाहिए ?” हुज़ूर, आपने ज़रूर कोई सलाह दी होगी ?

सावंतजी – मैंने कहा “अब क्यों आया है, मेरे पास ? मेरे बाप, पूरा केस तूने बिगाड़ डाला..अब

रशीद भाई – मैं सौ आन्ना सही बात कहता हूं, हुज़ूर ! के “लालच बुरी बला है !” अब यह सोच लीजिये, के “मुफ़्त का माल खाना नापाक है, हराम है !” जैसा आप लोग, समझते हैं ! भले कैसा ही मीट-मसाले वाला, स्वादिष्ट भोजन बना हो..! खाना वही, जिसमें मेहनत के पसीने की गंध आती हो !” क्या सावंतजी, मैंने सही कहा या ग़लत ?

[अब तो पांसा पलट गया, क्योंकि ये बातें भले मानुष लूण करणजी को काहे पसंद आएगी ? वे तो झट गुस्से में, सावंतजी के कंधे दबाने बंद कर देते हैं ! फिर कोधित होकर, कहते हैं..]

लूण करणजी – कह दीजिये, कह दीजिये ना ! क्यों रखते हो, अपने दिल में ? के “मैं मुफ़्त का माल खाता हूं, ऐसा आप लोगों ने मुझे क्या खिला दिया ? ना मटन, ना कबाब-पुलाव..लुखे टुकडे खिलाकर काहे का अहसान जतला रहे हो ? ऐसा मत खिलाया करो, कल से मैं घर से अपना टिफिन लेते आऊंगा !”

[लूण करणजी इतना कहकर, पांव पटककर चल देते हैं ! पीछे से सावंतजी और रशीद भाई, उनको आवाज़ देते नज़र आते हैं ! मंच पर, अंधेरा फ़ैल जाता है !]

[६]

[मंच पर रोशनी फैलती है, गुस्से से काफ़ूर हुए लूण करणजी मेन-गेट से बाहर निकलते हुए दिखाई देते हैं ! अब वे हड़बड़ाते हुए चाय की दुकान की तरफ़, अपने क़दम बढ़ाते नज़र आते हैं !]

लूण करणजी – [बड़बड़ाते हुए] – ये..ये..? क्या, ये मेरे साथी है ? कौनसे साथी ? केवल स्वार्थ के पुतले हैं, ये साले ! दो टुकडे रोटी के मुझे खिलाकर, कमबख्त अहसान जतला रहे हैं ? अरे रामा पीर, ये तो साले कुत्तिया के ताऊ निकले ?

[चलते-चलते जोगा राम की चाय की दुकान आ जाती है, दुकान के बाहर रखी है दरार खायी हुई प्लास्टिक की कुर्सियां ! इन कुर्सियों के निकट ही, एक लकड़ी की बेंच रखी है ! जिस पर ग्राहक बैठें हैं ! बैठे-बैठे वे सभी, चाय की चुश्कियां लेते जा रहे हैं ! दुकान के दरवाजे के पास वाली सरकारी ज़मीन पर कब्ज़ा करके, जोग राम ने छितर के पत्थर का अस्थायी रसोड़े का स्टेण्ड बना रखा है ! उस पर अभी उसने पत्थर के कोयले की अंगीठी जलाकर रखी है, जिस पर अभी भगोला रखा है ! इस भगोले में, अभी चाय उबल रही है ! दुकान के अन्दर दीवाल पर कई देवताओं के चित्र टंगे हैं, जिनके आगे..अभी जोगा राम, अगरबत्ती खेह रहा है ! इतने में लूण करणजी तशरीफ़ लाते हैं ! आकर वे दरार आयी हुई प्लास्टिक की कुर्सी पर, तशरीफ़ आवरी होते हैं ! मगर, अभी-तक उनका बड़बड़ाना बंद नहीं हुआ है ! वे बैठे-बैठे, बड़बड़ाते जा रहे हैं !]

लूण करणजी – [बड़बड़ाते हुए] – इतना काम करता हूं, इन उल्लू के पट्ठों का..मगर ये ठहरे कृतघ्न ! साले, मेरे किये सारे काम भूल जाते हैं दो मिनट में ? इधर यह मेरी मज़बूरी, घर वाली पड़ी है बीमार..वक़्त पर टिफिन तैयार करती नहीं ! अगर वह टिफिन तैयार कर देती तो, कौन इन लंगूरों की कड़वी बातें सुनता ? मेरा सरदर्द बढ़ा दिया, इन कमबख्तों ने !
[जोगा राम को आवाज़ देकर, कहते हैं]

लूण करणजी – [आवाज़ देते हुए, कहते हैं] – अरे, ओ जोगसा ! एक कप चाय थमा दीजिये, मेरा सर-दर्द बढ़ता जा रहा है !

[मगर जोगाराम ठहरा व्यवहारिक दुकानदार ! वह इस उधारिये को, कोई भाव देता नहीं ! बस वह तो गोस्वामी तुलसी दास का पद गाता हुआ, रामजी की तस्वीर के आगे अगरबत्ती खेहता जा रहा है !]

जोग राम – [अगरबत्ती खेहता हुआ, पद गाता है] – “समर्थ को दोष ना गुसाई...”

लूण करणजी - [खीज़ते हुए कहते हैं] – क्यों जान-बूझकर यह पद गाते जा रहे हैं, आप ? आपको मालूम नहीं, इस पद को सुनकर मेरा कलेज़ा जल उठता है ! ये काली जुबां वाले ठहरे, समर्थ ! और, मैं इनका कुछ बिगाड़ नहीं सकता ! जब ये लोग अफसर और बाबूओं के काम करते नहीं, तब ये सारे काम मुझे सौंप दिए जाते हैं !

[बोलते-बोलते लूण करणजी हांप जाते हैं, लम्बी-लम्बी साँसें लेने के बाद वे आगे कहते हैं !]

लूण करणजी – [लम्बी साँसें लेने के बाद, आगे कहते हैं] – फिर मज़बूरन मैं उनके सौंपे गए काम करने में व्यस्त हो जाता हूं, तब मुझे कहां वक़्त मिलता घर वाली को अस्पताल दिखाने और दवाइयां लाने का ? अरे जनाब, इनकी इल्लत दूर करने के लिए, मैंने झिल्लत पैदा कर ली अपने लिए ! सुनो जोगसा, यह अंजाम है परोपकार करने का ! अब, समझे ?

[अगरबत्ती खेहने के बाद, जोगा राम लूण करणजी के नज़दीक आता है ! उनके पास आते ही, लूण करणजी तेज़ आवाज़ में उसे सुनाते हुए कहते हैं !]

लूण करणजी - [तेज़ आवाज़ में कहते हैं] – अब यह आपका तुलसी दास ठहरा गंवार, उसने यह क्या लिख डाला ? “परोपकार पुण्याय पापाय पर पीड़नम..” इससे, क्या लेना देना ? इस तुलसी दास के पद को लेकर, चाटूं नमक लगाकर ? मेरी जीवन की बगिया उज़ड़ रही है, जोगसा ! अब लाइए कड़का-कड़क चाय, मेरा सर-दर्द बढ़ता जा रहा है..चाय पीने से, थोड़ा दर्द कम हो जाएगा !

जोगा राम – [शान्ति से कहते हैं] – बाबू साहब बहुत सुन लिया आपका भाषण, परोपकार के ऊपर ! अब आप पिछला हिसाब चुकाकर, मेरे ऊपर परोपकार कर दीजिए..लम्बे वक़्त से, हिसाब बकाया पड़ा है !

लूण करणजी - [उछलकर कहते हैं] – मैं कहाँ भाग रहा हूं, जोगसा ? इसी दफ़्तर में पड़ा हूं, बाद में चुका दूंगा ! [नरमाई से कहते हैं] पहले, चाय तो आने दीजिये ! अब क्या कहूं, आपसे ? आपकी बातें सुनकर, सर दर्द के मारे फटा जा रहा है ! [दोनों हाथों से, सर दबाते हुए कहते हैं] अब क्या करूं, रामा पीर ?

जोगा राम – सर तो मेरा दर्द करने लगा है, आपकी ऐसी लम्बी बढ़ती उधारी देखकर !

लूण करणजी – फ़िक्र मत कीजिये, जोगसा ! हमारा कोमन क्लब बना हुआ है, मैंने नहीं चुकाया तो सावंतजी चुका देंगे ! उन्होंने नहीं चुकाया, तो रशीद भाई भुगतान कर देंगे ! आप क्यों अपना खून जलाते हो, जोगसा ?

जोगा राम – आपके सभी दोस्तों के सामने, आपकी यह बात रख दी ! अब क्या कहूं, आपको ? सभी ने, इनकार कर डाला ! और कहा, यह चाय का खर्च क्लब बनने के पूर्व का है ! इसके चुकाने की जिम्मेदारी, उनकी नहीं है ! अब लूणसा, आपको चाय पीनी हो तो पहले आप पिछला हिसाब साफ़ कीजिये और फिर..
लूण करणजी – नहीं तो..?

जोगा राम - नहीं तो, फिर आप पतली गली से निकल जाइए ! समझ गए, बाबू साहब ? अरे रामा पीर, राजा कर्ण की वेळा न मालुम कहाँ से आ जाते हैं ये मुफ्तिये ? चाय का भुगतान करना तो दूर, और ये यहां आकर मेरे तुलसी दासजी को सुनाते जा रहे हैं अपशब्द !

लूण करणजी – जोगसा, ऐसा बोलना आपको शोभा नहीं देता !

जोगा राम – शोभा-वोभा गयी, भंगार में ! क्या, मैंने यहां राम रसोड़ा खोल रखा है ? यह चाय की दुकान खोली है, कमाने के लिए..अरे रामा पीर, यहां तो फ़क़ीरों की बस्ती निकली रे ! कमाना तो दूर, ये लोग तो मेरी लंगोट उतारकर ले जायेंगे !

[अब बेचारे लूण करणसा क्या करते ? बेचारे दयावनी नज़रों से जोगसा को देखने लगे, उनका दिल काग रहा है “शायद जोगसा को दया आ जाय, तो वे उनको एक कप चाय पिला दे..तो रामा पीर, जोगासा का भला करेगा ?” इसके सिवाय, उनका दिल क्या कह पाता ? अब वे राह चलते लोगों के चेहरे, देखने लगे ! भगवान करे..कहीं कोई परिचित आदमी दिखाई दे जाय, तो वह उन्हें चाय पिलाकर चला जाय..? अचानक लूण करणजी के भाग्य का सितारा चमका, और उन्हें पंडित माना रामसा चाय की दुकान की तरफ़ आते दिखाई देते हैं ! अब माना रामसा की चाल बदल गयी है, ऐसा लगता है उनका नशा उड़कर हवा चुका है ! अब माना रामसा तशरीफ़ लाते हैं, आकर वे उस कुर्सी पर अपना वज़न डाल देते हैं..जिस पर लूण करणजी तशरीफ़ आवरी हैं ! वजन डालते ही कुर्सी पर बैठे लूण करणजी अपना संतुलन बना नहीं पाते और वे धड़ाम से नीचे आकर गिरते हैं ! फिर क्या ? तड़-तड़ की आवाज़ करती, वह प्लास्टिक की कुर्सी टूट जाती है ! कुर्सी के टूटने की आवाज़ सुनकर, जोगा राम चौंक जाता है, और टूटी कुर्सी को देखकर वह लूण करणजी पर दामिनी की तरह तड़कने को उतारू होता है ! मगर यहां माना रामसा को पाकर, वह चुप रहकर शान्ति धारण कर लेता हैं ! लूण करणजी का इस तरह धड़ाम से नीचे गिरने की घटना, माना रामसा के लबों पर हंसी ला देती है..बेचारे किसी तरह उस हंसी को दबाते हुए, लूण करणजी को उठाते हैं ! फिर, उन्हें दूसरी कुर्सी पर बैठाते हैं ! अब पहलू में रखी कुर्सी पर, वे बैठते हुए कहते हैं !]

माना रामसा – [लूण करणजी को कुर्सी पर बैठाते हुए, कहते हैं] – अरे मेरे लूण करण, मेरे ज़िगर के टुकड़े ! तेरे कहीं, लगी तो नहीं ? चल खोल तेरा मुंह, डाल देता हूं इसमें भोले बाबा की प्रसादी ! अभी तेरे बदन का दर्द ऐसे छू मन्त्र होगा, जैसे गायब हुए गधे के सींग !

[जेब से अफ़ीम की पुड़िया बाहर निकालते हैं, उसमें से अफ़ीम की किरचियाँ निकालकर उनके मुंह में डाल देते हैं ! फिर, वे उनसे कहते हैं..]

माना रामसा – अब बता प्यारे, मुंह लटकाकर क्यों बैठा है ? ले अब कड़का-कड़क चाय पी लेते हैं, तो यार भोले बाबा की कृपा से यह नशा वापस उग जायेगा ?
लूण करणजी – माना रामसा, क्या आपका चाय का हिसाब साफ़ है या नहीं ? यह चाय आ जायेगी, या नहीं ?

माना रामसा – [हँसते हुए, कहते हैं] – लूण करण ! क्या जानता है तू, मेरे बारे में ? सुन, मेरा नाम है पंडित माना राम ! जिसका मान ठंडी हवा के झोंके की तरह, ठौड़-ठौड़ फैला हुआ है ! तू क्या कहता है रे, डोफ़ा ? तू कहे जिसे, मैं हाज़िर कर दूं यहां ! मेरे लिए चाय कौनसी बड़ी चीज़ है ?

लूण करणजी – समझ गया, हुज़ूर ! एक बार पहले आप, चाय को हाज़िर कीजिये ! मगर आप किसी भूत-प्रेत को, हाजिर न करें ! हुज़ूर, मैं तौ बहुत ज़्यादा डरता हूं इन भूतों से !
माना रामसा – [हंसते हुए कहते हैं] – गैलसफ़ा ! डरता क्यों है ? एक भैरू बाबा का ताबीज बनाकर तेरे गले में डाल दूंगा, फिर देखना इन भूतों को तो छोडो..इस लंगड़िये की टांगें धूज़ती रहेगी, तूझे देखकर ! बोल, क्या समझा ?

लूण करणजी – समझ गया, पंडित साहब ! मगर मेरी टांगें तो अभी से धूज़ने लगी है, इस यम राज रूपी जोगसा को देखकर ! इन टांगों का धूजना तब-तक जारी रहेगा जब-तक इसकी उधारी बाकी रहेगी, और मेरा यहां से रोज़ गुज़रना..! और, इस जिंदे ख़बीस का...

[जोगा राम लूण करणजी को खाती हुई नज़रों से देखता है, मगर इसका कोई प्रभाव माना रामसा पर दिखाई नहीं देता !]

माना रामसा – देख रे, लूण करण ! दफ़्तर के इन निक्कमें लोगों ने मेरा नाम बिगाड़ डाला, साले हरामखोर मुझे गुप-चुप बहाना राम बोलते हैं ! तू मुझे बता, के मैं किसी नज़र से बहाना राम लगता हूं ? क्या, मैं बहाने गढ़ता हूं ?

लूण करणजी – [रफतः रफतः बोलते हुए होठ हिलाते हैं] – जनाब, आप क्या गढ़ेंगे ? ऊपर वाले ने आपको पूरा गढ़कर ही भेजा है, इस खिलक़त में !

माना रामसा – बक-बक क्या कर रहा है, लूण करण ? क्या गढ़ा है, अभी बता मुझे !

लूण करणजी – [हंसते-हंसते कहते हैं] – आप क्या गढ़ सकते हो, जनाब ? आप तो, चाय मंगवाने की बात कीजिये ! मेरा सर-दर्द बढ़ता जा रहा है, जल्दी कीजिये !

माना रामसा – [कानों के ऊपर हाथ रखते हुए, कहते हैं] – क्या बोला रे ? क्या मैं बहाने गढ़ता हूं ? यार, तू भी मुझे बहाना राम समझता है ? अब सुन, कोई मुझे बहाना राम कहता है तब मेरा खून खौल जाता है ! मगर मैं हूं भक्त, भोले बाबा शम्भु का ! गुस्से को दबा देता हूं, और इन नादानों को कुछ नहीं कहता ! यार एक तू जानता है मेरा स्वभाव, या जानता है मेरा भोला शम्भु !

लूण करणजी – [उखड़े सुर में कहते हैं] – हुज़ूर बाद में सुन लूंगा आपका प्रवचन ! अभी आप यह बता दीजिये, के चाय के पैसे आप देंगे या मुझे आप यहां गिरवी रखकर जायेंगे ? एक बार और याद दिला दूं, आपको ! यहां मेरी साख़ चलती नहीं, फिर कहना मत..मैंने यह बात आपको बतायी नहीं !

माना रामसा – [जोश में आकर, कहते हैं] – रुपया-पैसे क्या चीज़ है, लूण करण ? ये रुपये-पैसे तो हाथ का मैल है, यार लूण करण ! ख़ालिश मोहब्बत के सामने तो भाई, यह धन-दौलत धूल सामान है ! अब तू रुपये-पैसे की रट लगाना छोड़, प्यारा ! तू इस मोहब्बत का ख्याल कर, जो बिकती नहीं ! बस वही अपनी पूँजी है, अब समझा ? बोल, क्या समझा ?
लूण करणजी – [होंठों में ही कहते हैं] – अभी-तक चाय तो आयी नहीं, और यह पंडित पहले से करता जा रहा है बोबाड़ा ? [प्रगट में कहते हैं] हां जी, समझ गया हुज़ूर !
माया रामसा – तू कहता है तो पहले चुका दूं, चाय के पैसे ?

[जेब से टेलीफ़ोन का बिल निकालते हैं, उसमें रखे गए बिल के रुपयों में से निकालते हैं दस का नोट ! फिर शेष राशि और बिल को वापस रख देते हैं अपनी जेब में ! बाद में, जोगा राम को आवाज़ देकर कहते हैं..]

माना रामसा – [जोगा राम को आवाज़ देकर, कहते हैं] – जोगा रामजी, ज़रा पहले ले लीजिये चाय के पैसे..फिर दो कप कड़का-कड़क चाय ऐसी लाओ यार, पीते ही नशा वापस उग जाय !

[जोगा राम उनके निकट आता हैं, आकर दस का नोट लेकर कहता है--]

जोगा राम – [दस का नोट लेते हुए, कहता है] – अरे पंडितजी, बाद में दे देते, आपके रुपये कहाँ जा रहे थे ? ऐसी क्या उतावली, हम तो हुज़ूर आपके ताबेदार है..आपके हुक्म के गुलाम ! कोई हुक्म हो तो दीजिये, जनाब !

[जोगा राम चाय लाने जाता है, माना रामसा लूण करणजी से कहते हैं--]

माना रामसा – [लूण करणजी से कहते हैं] – देख, लूण करण ! यह है, मेरी साख़ ! भाई बाज़ार में साख़ रखनी पड़ती है ! अब देख, ये लोग रोज़ कमाते हैं और रोज़ खाते हैं ! इनकी उधारी लम्बी अवधि के लिए, रखनी अच्छी नहीं ! बस यही मेरा उसूल है, भाई लूण करण ! इनकी उधारी बढ़ानी, मूर्खता है !

लूण कर्णजी – जनाब, समझ गया ! दफ्तर के लोगों की उधारी रख लेना, मगर इन लोगों की उधारी नहीं रखना..यही आपका उसूल है, जनाब ! [जोगा राम चाय लाता हुआ दिखाई देता है] लीजिये उस्ताद, अब चाय पी लेते हैं !

[जोगा राम आता है, और दोनों को चाय से भरे कप थमाकर चला जाता है ! अब दोनों चाय की चुश्कियां लेते हुए चाय पीते हैं ! चाय पीते-पीते, लूण करणजी कहते हैं--]

लूण करणजी – बाकी सब बात समझ गया, उस्ताद ! मगर एक बात मेरे समझ में नहीं आयी, जनाब ! आपने बाबू साहब के टेलीफ़ोन बिल से दस रुपये लेकर खर्च कर डाले, अब बताइये बिल की कम राशि कैसे जमा करायेंगे ?

माना रामसा – तू काहे की फ़िक्र करता है, लूण करण ? [हंसते हुए, कहते हैं] अरे यार, निकाले हैं खाली दस रुपये..कोई कारु का खजाना तो नहीं निकाला ? बिल जमा न करवा पाया, तो दो दिन बाद उन्हें बिल लौटा दूंगा और कह दूंगा उनसे “अचानक घर वाली बीमार हो गयी, घर में पैसे थे नहीं ..अत: इलाज़ के लिए बिल के रुपये काम में ले लिए ! अब एक तारीख को वेतन आने पर, आपके पैसे चुका दूंगा !”

[लूण करणजी का कंधा झंझोड़कर, उन्हें कहते हैं--]

माना रामसा - [लूण करणजी का कंधा झंझोड़कर, उन्हें कहते हैं] - अब लूण करण, तेरे समझ में कुछ आया या नहीं ?

लूण करणजी – हां समझ गया, उस्ताद ! बड़े कम्युनिस्ट दिन चल रहे हैं, हुज़ूर ! इसलिए आप इन रुपयों का मज़ा पूरे माह लेते रहेंगे ! फिर क्या ? लायेंगे आप, भोले बाबा की प्रसादी और डूब जाओगे आप जन्नती स्वप्न में ! आखिर अगले माह की एक तारीख को, उस बाबू को दे देंगे उस बिल के पैसे !

माना रामसा – [हंसी के ठहाके लगाते हुए, कहते हैं] – वाह, मेरे चेले ! तूने सही पहचाना, मुझे ! अब तू समझ ले, कि “अज़गर करे न चाकरी, पंछी करे न काम ! दास मलूका कह गए, सबके दाता राम !” बोल लूण करण, कुछ समझ में आया तेरे ? क्या समझा, प्यारे ?

लूण करणजी – हां समझ गया, सुपर ब्रदर ! सब समझ गया, उस्ताद ! वह कमजात बाबू भूल जाएगा, अपनी औकात ! फिर तो यह बाबू स्वप्न में भी नहीं सोचेगा, कि “पंडितजी के हाथ में रुपये थमाना ! इस वाकये को देखकर दफ्तर के दूसरे मुलाज़िम भी पहले से किन्नी काट लेंगे, और भविष्य में कोई आपको काम सुपर्द करने की हिम्मत नहीं करेगा !

माना रामसा – हां रे, लूण करण ! बस, फिर क्या ? बेगार से बच जायेंगे, और आराम से भोले बाबा की प्रसादी लेकर बबूल की छाव में लेटे रहेंगे ! अरे ए रे, लूण करण ! तू तो बहुत समझदार बन गया है रे, अब तो तू मेरा पक्का चेला बन जा ! और फिर, इस खिलक़त में मेरे बताये गए ज्ञान की रोशनी फैलाते जाना !

लूण करणजी – [माना रामसा के पाँव दबाते हुए, कहते हैं] – अरे उस्ताद, मैं तो कब का आपका चेला बन चुका हूं..इस दिल से ! अब एक बात कहता हूं, आप हैं चार्वाक मुनि और मैं हूं आपका वो पक्का चेला..जो आपके दर्शन-शास्त्र को, पूरे खिलक़त में फैलाता रहेगा !

[अब लूण करणजी के अन्दर गुरु-भक्ति के ऐसे भाव उमड़ पड़े कि, वे अब अपने गुरु माना रामसा के पाँवों को छोड़ते दिखाई नहीं दे रहे..? वे तो उनके पाँव दबाते ही जा रहे हैं, अब माना रामसा को ऐसा लगाने लगा “लूण करणजी जैसा चेला, कई हज़ारों सालों बाद एक पैदा होता है ! जैसे गुरु-भक्ति की प्रेरणा लेकर एकलव्य, गुरु द्रोणाचार्य का चेला बना था..आज उसी तरह लूण करणजी भी उस एकलव्य की भांति, वैसे ही गुरु-भक्त बन गए हैं ! ये तो गुरु-भक्ति में एकलव्य से पीछे रहने वाले नहीं, ये ज़रूर माना रामसा का नाम इस खिलक़त में रोशन करेंगे !” बस, फिर क्या ? उनकी गुरु-भक्ति से गद-गद होकर, माना रामसा उन्हें उठाकर अपने गले लगा लेते हैं !]

माना रामसा – [उनके दोनों कंधे पकड़कर उन्हें खड़ा करते हैं, फिर कहते हैं] – उठो वत्स ! [उन्हें गले लगाते हैं, और फिर उनके सर पर हाथ रखते हुए कहते हैं] जीते रहो, वत्स ! तुम्हारा यश इस खिलक़त में, ठण्डी हवा के झोंकों की तरह फैलता जाए !

लूण करणजी – [चेहरे पर मासूमियत लाते हुए कहते हैं] – उस्ताद अब मैं आपकी भक्ति में लीन हो जाना चाहता हूं, बस आप मुझे बिल के बचे हुए रुपये दे दीजिये ! बस, एक बार..

माना रामसा – [चाय पीते ही उनका नशा वापस उगने लगा, नशे में कहते हैं] - शाबाश मेरे चेले, अब जा मैंने तुझको सेवा करने का एक मौक़ा दिया ! बस, अब तू घटते दस रुपये शामिल करके इस बिल को जमा करवा देना !

[बिल और बचे हुए रुपये लूण करणजी को देते हुए, कहते हैं]

माना रामसा - यह ले रे, बिल और बचे हुए रुपये ! तू तो मेरा ज़िगर का टुकड़ा, और है तू मेरी अफ़ीम की पुड़िया ! तू तो मेरा पक्का चेला ठहरा, जो अब टेलीफोन का पूरा बिल राज़ी-खुशी जमा करवाने की यह जिम्मेदारी लेकर..अब गुरु-भक्ति का प्रमाण देने चला है !

[शेष बचे हुए रुपये हाथ में आ गए, अब लूण करणजी क्यों माना रामसा को जवाब देंगे ? वे तो झट, उन रुपयों को जोगा राम को थमा देते हैं ! फिर, तेज़ आवाज़ में कह देते हैं..]
लूण करणजी – [तेज़ आवाज़ में कहते हैं] – जोगिया की औलाद, अब तू डींग हांकनी छोड़ दे ! न तो पिला दूंगा, तूझे छठी का दूध ! [रुपये थमाते हैं] ये ले तेरे रुपये, अब कर ले तेरा हिसाब ! अब सुन ले, डोफ़ा ! जो चाय आज पी है, उसके भी पैसे हिसाब में जोड़ लेना ! मुझे अब माना रामसा की मुफ्त की चाय नहीं पीनी है, हिसाब होने के बाद बचे हुए रुपये लाकर दे मुझे !

[जोगा राम हिसाब करता हुआ दिखाई देता है, थोड़ी देर बाद वह बचे हुए रुपये लाकर लूण करणजी को देता है ! फिर, हाथ जोड़कर कहता है..]

जोगा राम – [हाथ जोड़कर कहता है] – हुज़ूर, नाराज़ मत होइए ! यह दुकान आपकी है, जब भी चाय पीनी हो तो ज़रूर पधारिये इस दुकान पर और इस ग़रीब को सेवा करने का मौक़ा दीजिएगा ! मगर आप इस ग़रीब को जोगिए की औलाद मत कहिये, क्योंकि मैं ख़ुद जोगिया हूं मगर जोगिए की औलाद नहीं हूं ! और वह पानी की बाल्टी के पास बैठा छोरा, जो जूठे कप-प्लेट धो रहा है..वह इस जोगिए की औलाद है ! [छोरे की तरफ़, अंगुली का इशारा करता है] समझ गए जनाब, वह मेरा लड़का लाडका बेटा है !

लूण करणजी – [तुनककर कहते हैं] – कप-प्लेट धोने वालों की जमात ! इस जागीरदार की बराबरी करने चले, तुम ? सालों, तुम जानते क्या हो ? गाँव दुधिया में, इस जागीरदार की ५ बीघा ज़मीन है ! समझ गए, साले ? बोल, क्या समझा ?

जोगा राम – हुज़ूर, आप बड़े ठिकाने के जागीरदार सरदार हैं ! ग़लती हो गयी मुझसे, आपको पहचाना नहीं ! आगे से, ऐसी ग़लती नहीं होगी !
माना रामसा – [बहुत ख़ुश होकर, कहते हैं] – ओ मेरे केसरी सिंह नाहर ! मैं आज़ बहुत ख़ुश हुआ क्योकि, तुमने मेरा तकिया कलाम “समझ गए, क्या समझे” को अपना लिया ! वास्तव में तू तो एक बड़ी कुत्ती चीज़ है, वाह रे वाह..तू तो मेरा पक्का चेला निकला ! [लूण करणजी के सर पर चुम्मा लेते हैं, फिर कहते हैं] सदका उतारूं, यार कहीं किसी की नज़र न लग जाए..

[फिर क्या ? उनकी बात सुनकर लूण करणजी झट उठे, और बादशाह अकबर के दरबार में किया जाने वाला नीमतस्लीम [कोर्निश] झुककर करते हैं]
लूण करणजी – [झुककर सलाम करते हुए कहते हैं] – आदाब, उस्ताद ! आपकी मेहरबानी है..बस, अब आपका यह आशीर्वाद देने वाला यह पाक हाथ आप मेरे मस्तक पर रख दीजिये एक बार ! आपका आशीर्वाद मिल गया तो उस्ताद, यह आपका पका चेला इस ख़िलक़त को जीतकर आपके मान की ध्वजा पूरे विश्व में फ़रुखाएगा !
[अब लूण करणजी के पहले ली हुई अफ़ीम सर पर चढ़कर बोलने लगी, अब उनके दिमाग़ में नशा छाने लगा ! अब वे बोलते ही जा रहे हैं..उनके चुप होने का, कोई सवाल ही नहीं !]

लूण करणजी – [अफ़ीम के नशे में बोलते ही जा रहे हैं] – उस्ताद, आपकी ख़िदमत में यह नाचीज़ एक कलाम पेश करता है ! उस्ताद सुनिए, अर्ज़ किया है..इश्क इश्क [हिचकी आती है, फिर कहते हैं] बढ़ता गया ! मोहब्बत हो गयी आपसे [वापस चेतन होते हैं, जागृत होकर कहते हैं] तब क्या होता है, उस्ताद ? गौर करके सुनिए, उस्ताद ! अर्ज़ किया है, मरीज़-ए-इश्क पर, लानत ख़ुदा...मर्ज़ बढ़ता ही गया..जूं जूं की दवा...बोलिए हुज़ूर, इरशाद ! इरशाद..

[मगर, यह क्या--? चेले का नशा बढ़ता ही जा रहा है, मगर उधर उस्ताद का नशा उतरता ही जा रहा है ! अब जैसे ही माना रामसा अपनी जेब में हाथ डालते हैं, जेब ठंडी पाकर वे घबरा जाते हैं ! वह बार-बार सोचते जा रहे हैं, के “वह नोटों की गर्मी, अब कहाँ चली गयी ? जिन नोटों को, उन्होंने बाबू हज़ारी लाल से दूरभाष-बिल जमा कराने के लिए प्राप्त किये थे !” अब उनको सारा माज़रा, समझ मे आ जाता है ! अब, वे लूण करणजी से कहते हैं..]

माना रामसा – क्यों रे, क्यों बोलूं रे इरशाद ? पहले इस हथेली पर रख, बिल के रुपये !

[हथाली सामने करते हैं, मगर यह क्या ? रुपये रखने के स्थान पर, लूण करणजी उस हथेली पर रख देते हैं बिल...जिसे, जमा करवाना है ! फिर मुस्कराकर, लूण करणजी कहते हैं..]

लूण करणजी – [मुस्कराकर कहते हैं] – उस्ताद ! यह बन्दा, आपकी ख़िदमत में हमेशा हाज़िर रहेगा ! पैसा पैसा क्या चीज़ है, उस्ताद ? यह तो हाथ का मैल है ! ख़ालिश मोहब्बत और प्रेम के सन्मुख, यह धन-दौलत धूल है उस्ताद ! यह लीजिये, आपका बिल ! या तो वापस उस बाबू को लौटा देना, या फिर आप घर से पैसे लाकर इसे जमा करवा देना..उस्ताद, जैसी आपकी मर्ज़ी !

[उनका यह रवैया देखकर, माना रामसा उन्हें आंखें फाड़कर अचरच से देखने लगे ! मगर, लूण करणजी के ऊपर कोई असर होने वाला नहीं ! वे तो लगातार, बोलते ही जा रहे हैं..]

लूण करणजी – अगर आपको यह प्रेम-मोहब्बत अच्छी नहीं लगती है, तब यह बन्दा आपसे वादा करता है ! वह अगले महीने की एक तारीख़ को ये रुपये ज़रूर आपको लौटा देगा, जब यह प्रेम और मोहब्बत की दुश्मन ‘तनख्वाह’ आ जायेगी इन हाथो में !

[माना रामसा के ललाट पर पसीने की बूंदें छलकने लगी, इन बूंदों को देखकर लूण करणजी झट जेब से रुमाल निकालकर माना रामसा को थमाते हुए कह देते हैं..]

लूण करणजी – [रुमाल थमाते हुए कहते हैं] – उस्ताद, ज़रा ज़ब्हा पर छलक रहे पसीने के एक-एक कतरे को साफ़ कर लीजिये ! मैं आपका पक्का चेला हूं, इसलिए मेरा आज़ से एक यही मक़सद होगा के ‘मैं आपके पद-चिन्हों पर चलता रहूं !’ मगर हुज़ूर, मुझसे एक ग़लती हो गयी !
माना रामसा – अब यही बाकी रहा, जल्दी बक दे !

लूण करणजी - अभी मैंने जो चाय पिलायी आपको, वे दस रुपये नरेशजी पुरोहित के थे ! उन्होंने नमकीन लाने के लिए, मुझे दिए थे ! अब नरेशजी मुझसे पूछेंगे तब मैं यही जवाब दूंगा, के अचानक घर वाली की तबियत ख़राब हो गयी तब..

माना रामसा – [आंखें तरेरकर कहते हैं] – बोल बोल, अब तू चुप क्यों हो गया ? बोल आगे !

लूण करणजी – तब पहलू में बैठे माना रामसा, बोले [माना रामसा की आवाज़ की नक़ल उतारते हुए] “डोफ़ा झट जा, और भाभी को अस्पताल ले जा !’ [अपनी आवाज़ में कहते हैं] तब मैंने झट दस रुपये नमकीन लाने के लिए माना रामसा को थमाये, और चला गया घर ! अब कुछ समझे, उस्ताद ? क्या समझे, जनाब ? अब बताइये ‘क्या मैं आपका पक्का चेला बन गया, या नहीं ?’

[माना रामसा अन्दर ही अन्दर, धमीड़ा लेते हुए कहते रहे “जेब से निकल गए सारे रुपये, ऊपर से उधारी बढ़ गयी..कर्ज़ा चढ़ गया, दो जनों का !” फिर वे प्रगट में, मरी हुई आवाज़ में कहते हैं..]

माना रामसा – [मरी हुई आवाज़ में कहते हैं] – “साला, तू तो मेरा पक्का चेला निकला रे !”

[उन दोनों के वार्तालाप को सुन रहे बाप-बेटे, अब अपनी हंसी दबा नहीं पा रहे हैं ! सहसा वे दोनों, ज़ोर से ठहाके लगाकर हंसने लगे ! रफतः रफतः इन ठहाकों की आवाज़ मंद हो जाती है, और मंच पर अंधेरा फ़ैल जाता है !]
















लेखक का परिचय
लेखक का नाम दिनेश चन्द्र पुरोहित
जन्म की तारीख ११ अक्टूम्बर १९५४
जन्म स्थान पाली मारवाड़ +
Educational qualification of writer -: B.Sc, L.L.B, Diploma course in Criminology, & P.G. Diploma course in Journalism.
राजस्थांनी भाषा में लिखी किताबें – [१] कठै जावै रै, कडी खायोड़ा [२] गाडी रा मुसाफ़िर [ये दोनों किताबें, रेल गाडी से “जोधपुर-मारवाड़ जंक्शन” के बीच रोज़ आना-जाना करने वाले एम्.एस.टी. होल्डर्स की हास्य-गतिविधियों पर लिखी गयी है!] [३] याद तुम्हारी हो.. [मानवीय सम्वेदना पर लिखी गयी कहानियां].
हिंदी भाषा में लिखी किताब – डोलर हिंडौ [व्यंगात्मक नयी शैली “संसमरण स्टाइल” लिखे गए वाकये! राजस्थान में प्रारंभिक शिक्षा विभाग का उदय, और उत्पन्न हुई हास्य-व्यंग की हलचलों का वर्णन]
उर्दु भाषा में लिखी किताबें – [१] हास्य-नाटक “दबिस्तान-ए-सियासत” – मज़दूर बस्ती में आयी हुई लड़कियों की सैकेंडरी स्कूल में, संस्था प्रधान के परिवर्तनों से उत्पन्न हुई हास्य-गतिविधियां इस पुस्तक में दर्शायी गयी है! [२] कहानियां “बिल्ली के गले में घंटी.
शौक – व्यंग-चित्र बनाना!
निवास – अंधेरी-गली, आसोप की पोल के सामने, वीर-मोहल्ला, जोधपुर [राजस्थान].
ई मेल - dineshchandrapurohit2@gmail.com


 










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