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बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ (भाग – 43 व 44)- [कहानियाँ]- राजीव रंजन प्रसाद

रचनाकाररचनाकार परिचय:-

राजीव रंजन प्रसाद

राजीव रंजन प्रसाद ने स्नात्कोत्तर (भूविज्ञान), एम.टेक (सुदूर संवेदन), पर्यावरण प्रबन्धन एवं सतत विकास में स्नात्कोत्तर डिप्लोमा की डिग्रियाँ हासिल की हैं। वर्तमान में वे एनएचडीसी की इन्दिरासागर परियोजना में प्रबन्धक (पर्यवरण) के पद पर कार्य कर रहे हैं व www.sahityashilpi.com के सम्पादक मंडली के सदस्य है।

राजीव, 1982 से लेखनरत हैं। इन्होंने कविता, कहानी, निबन्ध, रिपोर्ताज, यात्रावृतांत, समालोचना के अलावा नाटक लेखन भी किया है साथ ही अनेकों तकनीकी तथा साहित्यिक संग्रहों में रचना सहयोग प्रदान किया है। राजीव की रचनायें अनेकों पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं तथा आकाशवाणी जगदलपुर से प्रसारित हुई हैं। इन्होंने अव्यावसायिक लघु-पत्रिका "प्रतिध्वनि" का 1991 तक सम्पादन किया था। लेखक ने 1989-1992 तक ईप्टा से जुड कर बैलाडिला क्षेत्र में अनेकों नाटकों में अभिनय किया है। 1995 - 2001 के दौरान उनके निर्देशित चर्चित नाटकों में किसके हाँथ लगाम, खबरदार-एक दिन, और सुबह हो गयी, अश्वत्थामाओं के युग में आदि प्रमुख हैं।

राजीव की अब तक प्रकाशित पुस्तकें हैं - आमचो बस्तर (उपन्यास), ढोलकल (उपन्यास), बस्तर – 1857 (उपन्यास), बस्तर के जननायक (शोध आलेखों का संकलन), बस्तरनामा (शोध आलेखों का संकलन), मौन मगध में (यात्रा वृतांत), तू मछली को नहीं जानती (कविता संग्रह), प्रगतिशील कृषि के स्वर्णाक्षर (कृषि विषयक)। राजीव को महामहिम राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी द्वारा कृति “मौन मगध में” के लिये इन्दिरागाँधी राजभाषा पुरस्कार (वर्ष 2014) प्राप्त हुआ है। अन्य पुरस्कारों/सम्मानों में संगवारी सम्मान (2013), प्रवक्ता सम्मान (2014), साहित्य सेवी सम्मान (2015), द्वितीय मिनीमाता सम्मान (2016) प्रमुख हैं।

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बस्तर में सागर
बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ (भाग – 43)

हमने उन विरासतों को भी नहीं सम्भाला जो हमारी ही सुरक्षा के निमित्त निर्मित किये गये थे। छत्तीसगढ राज्य के ऐतिहासिक दृष्टि के महत्वपूर्ण सबसे बडे मानव निर्मित जलाशयों में से एक दलपतसागर, आज अपने अस्तित्व को बचाने की लडाई लड़ रहा है। कभी समाचार आता है कि भू-माफिया आसपास की जमीन को धीरे धीरे निगलते जा रहे हैं तो कभी यह कि जलकुम्भियों की जकडन में दलपत सागर दम तोड रहा है। कभी कभी वैज्ञानिकों के इस सागर को बचाने की कोशिशों की सफल-असफल खबरें आती हैं। जापान से किसी मछली को ला कर तालाब में डाला गया था कि वह जलकुम्भियों से लड सके लेकिन असफलता हाथ लगी। ब्राजील से किसी ऐसे कीडे के द्वारा जो जलकुम्भी में ही पनपता है उसे ही भोजन बनाता है के माधयम से इससे निपटने का प्रयोग किया गया। समग्र प्रयासों के बाद भी समस्या अभी विकराल है, इस हेतु जन-भागीदारी सहित अधिकाधिक कोशिशों की आवश्यकता है। यह इसलिये भी कि इस झील का अपना समाजशास्त्र है, अर्थशास्त्र है साथ ही गर्व करने योग्य इतिहास भी है।

इतिहास की बात करें, राजा दलपत देव के लिये जगदलपुर को राजधानी के लिये चयन करने के पश्चात उसे बाह्याक्रमणों से सुरक्षित रखना बड़ी चुनौती थी। यह निश्चित किया गया कि चयनित राजमहल परिक्षेत्र के पश्चिम दिशा में एक विशाल झील का निर्माण किया जाये। इस स्थान पर तीन तालाब यथा – सिवना तरई, बोड़ना तरई तथा झार तरई पहले से ही अवस्थित थे। इन तीनों ही तालाबों को आपस में मिला कर झील निर्माण का कार्य आरम्भ हुआ। स्वयं राजा दलपत देव नित्य कार्य की प्रगति देखने पहुँचते। एक दिन कार्य के दौरान एक हाथी की मृत्यु हो गयी। इस विशालकाय जीव को कहीं अन्यत्र ले जाना संभव नहीं हुआ तब मृत्यु स्थल पर ही उसे दफन कर दिया गया। हाथी की इस समाधि ने एक टीले का स्वरूप ले लिया था इस स्थान को मेंड्रा ढिपका के नाम से पहचान मिली है। झील की खुदाई से जो मिट्टी निकाली जाती उसका प्रयोग राजधानी के चारो ओर की जाने वाली किलेबंदी के लिये किया गया। लगभग 352 एकड विस्तार वाली विशाल झील जब निर्मित हुई तब उसका नाम दलपत सागर रखा गया।


- राजीव रंजन प्रसाद

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मधुरांतक देव और नरबलि
बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ (भाग – 44)



बस्तर अंचल में नाग राजाओं का शासन विभिन्न मण्डलों में विभाजित करता था, इन्ही में से एक था मधुर मण्डल जिसमें छिन्दक नागराजाओं की ही एक कनिष्ठ शाखा के मधुरांतक देव का आधिपत्य था। चक्रकोट के राजा धारवर्ष जगदेक भूषण (1050 – 1062 ई.) के निधन के पश्चात चक्रकोटय में उत्तराधिकार को ले कर संघर्ष हुआ और राजनीतिक अस्थिरता हो गयी। इस परिस्थिति का लाभ उठा कर ‘मधुर-मण्डल’ के माण्डलिक मधुरांतक देव ने चक्रकोटय पर अपनी “एरावत के पृष्ठ भाग पर कमल-कदली अंकित” राज-पताका फहरा दी। कहते हैं कि मधुरांतक देव नितांत बरबर और निर्दयी था। उसे कुचल देना ही आता था। ड़र के साम्राज्य ने शासक और शासित के बीच स्वाभाविक दूरी उत्पन्न कर दी। उस पर अति यह कि अपनी कुल-अधिष्ठात्री माणिकेश्वरी देवी के सम्मुख नरबलि की प्रथा को नीयमित रखने के लिये उसने राजपुर गाँव को ही अर्पित कर दिया था। यह गाँव वर्तमान जगदलपुर शहर के उत्तर-पश्चिम में स्थित है। वहाँ से जिसे चाहे उठा लो और देवी के सम्मुख धड़ से सिर को अलग कर दो।

जिन खम्बों पर साम्राज्यों की छतें खड़ी होती है वे शनै: शनै: कुचले हुए लोगों की आँहों भर से खोखले हो उठते हैं। आतंक के साम्राज्य के विरुद्ध जन-एकजुटता हुई, इस क्रांति का नेतृत्व किया था सोमेश्वरदेव ने। वे दिवंगत नाग राजा धारवर्ष जगदेक भूषण के पुत्र थे। मधुरांतक द्वारा पराजित और निर्वासित किये जाने के बाद वे चक्रकोटय के निकट ही किसी गुप्त स्थान पर रहते हुए जन-शक्ति संचय में लगे थे। उनका कार्य कठिन नहीं था। हाहाकार करती प्रजा को एक योग्य नेता ही चाहिये था। राज्य में विद्रोह अवश्यंभावी था। सोमेश्वर देव ने जनभावना का लाभ उठाते हुए उनके क्रोध को युद्ध में झोंक दिया। आक्रमण हुआ तो किले के भीतर रह रहे नागरिकों में हर्ष का संचार हो गया। मधुरांतक ऐसी सेना को साथ लिये कितनी देर लड़ सकता था जिनकी सहानुभूति और भरोसा उसने खो दिया था? युद्ध समाप्त हुआ। सोमेश्वर प्रथम (1069-1111 ई.) ने युद्ध में मधुरांतक का वध कर दिया तथा वे चक्रकोटक के निष्कंटक शासक बन गये।



- राजीव रंजन प्रसाद


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