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गलतफहमी [लघुकथा]- श्रद्धा मिश्रा

रचनाकार परिचय:-

परिचय-
नाम-श्रद्धा मिश्रा
शिक्षा-जे०आर०एफ(हिंदी साहित्य)
वर्तमान-डिग्री कॉलेज में कार्यरत
पता-शान्तिपुरम,फाफामऊ, इलाहाबाद
संपर्क-mishrashraddha135@gmail.com

*गलतफहमी*

आज शाम से ही मौसम में कुछ सुहावनपन था,काले,सफेद बदलो के अनेक तरह के चित्रों से आकाश भरा था। हर तरफ एक अजीब सी गंध थी,गंध या खुशबू?शायद इसे लोग खुशबू ही कहते है मगर ये गंध मुझे किसी बीते समय मे ले जाती है जब मुझे भी पसंद था इन फूलों की महक में खो जाना। मगर अब ये खुशबू मेरे लिए मात्र एक गंध थी। कभी कभी घुटन ब होती थी इनसे।इतना सोच ही रही थी कि आवाज आई आज पकौड़े हो जाये क्या? ये आवाज नमन की थी । मैन सुनते ही कहा हाँ क्यो नही? आज नमन का मूड कुछ रूमानी है आज बात कर लेनी चाहिए यही सोच कर मैं पकोड़े बनाने की तैयारी में जुट गई। नमन भी मेरी छोटी छोटी मदद कर रहे थे। मैने सारे वाक्य मन मे दुहरा लिए थे क्या क्या कहना है कहा से शुरू करना है। मैंने कहना शुरू किया नमन ऑफिस में सब ठीक है?
हाँ वहाँ क्या होना है। रोज का वही है काम काम काम और बॉस की किचकिच।
अच्छा!अब तो तुम ऊपर के चैम्बर में हो न?
हाँ।
वहाँ कोई खाश दोस्त बना या सब वैसे ही हैं?
नही कोई नही।
अच्छा!
कुछ देर की खामोशी रही
फिर मैंने ही कहा पकौड़ो के साथ चाय भी बना लूँ क्या?
अरे जान व्हाई नॉट यस प्लीज
चाय नाश्ता सब मेज पर रखकर मैने फिर एक बार नमन को देखा और कहा खा कर बताओ कैसे हैं?
तुम भी बैठो न,
मुझे कुछ काम निपटाने है तुम खाओ।
ऐसे भी क्या काम ,बाद में होंगे काम बैठो न
मैं बेमन सी बैठ तो गयी मगर वही सवाल बार बार
मन मे गुलाटियां ले रहा है। इतना ही सोचते हो तो क्या है ये सब क्यो है किसलिए है और कहते क्यो नही हो आखिर संकोच कैसा। कई बार हमने लड़ाईयां की बोलचाल भी बंद रही मगर ऐसा खयाल तो कभी नही आया मेरे मन मे।
तभी तेज हवा के झोंके से खुली खिड़की ने मेरी सोच में खलल डाल दिया।
अरे ये क्या चाय तो आपने ठंढी कर ली मैं फिर गर्म कर देती हूँ।
नो डिअर इसकी जरूरत नही तुम नाश्ता करो ये मैं करता हूँ।
नाश्ता ये नाश्ता मेरे प्रश्नो को नही मिटा सकता मुझे कहना ही होगा।
नमन मुझे कुछ बात करनी है
हाँ बोलो
मैं तुम्हे तलाक देना चाहती हूँ।
नमन मुस्कुराये आर यू जोकिंग?वैसे डराने का अच्छा तरीका है।
नही ये सच है,
नमन मेरे पास आकर बोले क्यो कोई और पसंद आ गया क्या?
नही मैं अकेले रहना चाहती हूँ अब।
मगर यहाँ कौन से हजारों हैं? मैं और तुम बस हम ही तो हैं। और वैसे भी संडे को छोड़ दें तो बाकी दिन तुम अकेली ही तो होती हो।

मगर मुझे अब नितांत अकेलापन चाहिए ।

मगर क्यो? कोई वजह भी तो हो?

वजह है नमन

वही तो मैं जानना चाहता हूँ। प्लीज टेल जान।

वजह है तुम्हारी अलमारी में रखे डिवोर्स पेपर।

व्हाट?तो ये बात है तुमने तो मेरी जान ही निकाल दी।

जान तो मेरी निकली थी इन्हें देखकर अगर यही सब करना है तो इतना दिखावा क्यो? साफ कह दो ।

मगर न कहना चाहता हूँ तो?

तो मैंने ये इल्जाम भी हर बार की तरह अपने सिर लिया तुम नही कह सकते मैं कहे देती हूँ।

नमन मुस्कुराते हुए मेरे पास आये और बोले ये तो मैंने कभी सोचा ही नही। मेरे हाथों को अपने हाथों में लेकर ऐसे पकड़ा की छोड़ना ही न चाहते हो मुझे। मैने पूछा फिर ये सब क्या?

तभी बदलो की गर्जना होने लगी मुझे लगा नमन के होठ हिले मगर मैं सुन नही पाई।
फिर नमन और करीब आकर बोले वो निम्मी दी बाहर हैं उनके एक क्लाइंट ने रखने को दिए थे ।

क्या? मैं आवक रह गयी। बाहर तेज बारिश शुरू हो गयी थी नमन बोले आज की बारिश में लगता है सारा शहर धूल जाएगा। मैने धीरे से कहा और मेरा मन भी।
फिर हम दोनों मुस्कुरा दिए।

श्रद्धा मिश्रा





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4 टिप्पणियाँ

  1. श्रद्धा मिश्रा27 नवंबर 2017 को 10:13 pm बजे

    क्षमा करें। मैं आपका संदेश देर से प्राप्त कर पाई। इन दिनों कुछ जरूरी काम निपटाने में व्यस्थ थी।

    जवाब देंहटाएं

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