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बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ (भाग – 45 व 46)- [कहानियाँ]- राजीव रंजन प्रसाद

रचनाकार परिचय:-

राजीव रंजन प्रसाद

राजीव रंजन प्रसाद ने स्नात्कोत्तर (भूविज्ञान), एम.टेक (सुदूर संवेदन), पर्यावरण प्रबन्धन एवं सतत विकास में स्नात्कोत्तर डिप्लोमा की डिग्रियाँ हासिल की हैं। वर्तमान में वे एनएचडीसी की इन्दिरासागर परियोजना में प्रबन्धक (पर्यवरण) के पद पर कार्य कर रहे हैं व www.sahityashilpi.com के सम्पादक मंडली के सदस्य है।

राजीव, 1982 से लेखनरत हैं। इन्होंने कविता, कहानी, निबन्ध, रिपोर्ताज, यात्रावृतांत, समालोचना के अलावा नाटक लेखन भी किया है साथ ही अनेकों तकनीकी तथा साहित्यिक संग्रहों में रचना सहयोग प्रदान किया है। राजीव की रचनायें अनेकों पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं तथा आकाशवाणी जगदलपुर से प्रसारित हुई हैं। इन्होंने अव्यावसायिक लघु-पत्रिका "प्रतिध्वनि" का 1991 तक सम्पादन किया था। लेखक ने 1989-1992 तक ईप्टा से जुड कर बैलाडिला क्षेत्र में अनेकों नाटकों में अभिनय किया है। 1995 - 2001 के दौरान उनके निर्देशित चर्चित नाटकों में किसके हाँथ लगाम, खबरदार-एक दिन, और सुबह हो गयी, अश्वत्थामाओं के युग में आदि प्रमुख हैं।

राजीव की अब तक प्रकाशित पुस्तकें हैं - आमचो बस्तर (उपन्यास), ढोलकल (उपन्यास), बस्तर – 1857 (उपन्यास), बस्तर के जननायक (शोध आलेखों का संकलन), बस्तरनामा (शोध आलेखों का संकलन), मौन मगध में (यात्रा वृतांत), तू मछली को नहीं जानती (कविता संग्रह), प्रगतिशील कृषि के स्वर्णाक्षर (कृषि विषयक)। राजीव को महामहिम राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी द्वारा कृति “मौन मगध में” के लिये इन्दिरागाँधी राजभाषा पुरस्कार (वर्ष 2014) प्राप्त हुआ है। अन्य पुरस्कारों/सम्मानों में संगवारी सम्मान (2013), प्रवक्ता सम्मान (2014), साहित्य सेवी सम्मान (2015), द्वितीय मिनीमाता सम्मान (2016) प्रमुख हैं।

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बल, छल, वीरगति और विजय
बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ (भाग – 45)

सत्ता को ले कर पारिवारिक खींचातानी, षडयंत्र, छल आदि एक दौर की सामान्य घटना हुआ करती थी। ऐसे में स्थिति तब अधिक जटिल हो जाती थी जब आंतरिक कलह का लाभ उठा कर निकटवर्ती राज्य आक्रमण कर दे। बस्तर में ऐसा ही एक समय तब आया जब भीषण अकाल पड़ा। यह दौर राजा वीरनारायण देव (1639-1654 ई.) के शासन का था। राज्य विपरीत परिस्थितियों से जूझ ही रहा था कि आक्रमण हो गया। चांदा के गोंड शासक बल्लारशाह के पास यह सुअवसर था कि वे बस्तर पर अपना अधिकार कर लें। पूरी ताकत से उन्होंने आक्रमण किया और भयावह युद्ध में बस्तर के राजा वीरनारायण देव वीरगति को प्राप्त हुए। इसके पश्चात भी युद्ध नहीं रुका और हार कर चांदा की सेना को पलायन करना पड़ा।

युद्धभूमि में पिता की मौत के बाद उत्तराधिकार का संघर्ष उसके दो पुत्रों के बीच हुआ जिसके बाद वीरसिंह देव (1654-1680 ई.) ने सत्ता की बागडोर अपने हाँथ में ली। उन्होंने अपने समय में राजपुर दुर्ग का निर्माण करवाया था। वीरसिंह का समय भीजी जमीन्दारी के विद्रोह को शह दे कर बस्तर में अपना हस्तक्षेप कायम रखने वाली कुतुबशाही से निर्णायक छुटकारा पाने के लिये भी जाना जाता है। अपनी पुस्तक लौहण्डीगुडा तरंगिणी (1963) में महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव विवरण देते हैं कि राजा वीरसिंह ने अपने पिता की हत्या का बदला लेने के लिये चाँदा के राजा बल्लारशाह के विरुद्ध युद्ध किया तथा उसे अपनी आधीनता स्वीकार करने के लिये बाध्य कर दिया था। यह इति नहीं थी। अब बारी बल्लारशाह की थी जिन्होंने संगठित हो कर पुन: बस्तर राज्य पर आक्रमण किया। इस बार उसने छल से राजा के एक आदमी परसराम को अपने साथ मिला लिया था। परसराम ने राजा को कुसुम (भांग तथा दूध से बना तरल) पिला दिया। बेहोशी की हालत में युद्ध कर रहे राजा को कैद कर लिया गया और बल्लारशाह के सामने प्रस्तुत किया गया। राजा वीरसिंह को भांति भांति के कष्ट दिये गये। रोचक किम्वदंति है बस्तर के राजा के प्राण उसके सिर में थे इसी लिये अनेक प्रहार करने के बाद भी उन्हें मारा नहीं जा सका। प्रताडना से आहत राजा ने स्वयं अपनी मृत्यु का गुप्त रहस्य बल्लारशाह को बता दिया, जिसके बाद उनके सिर पर प्रहार किया गया, वहाँ से एक सोने की चिडिया उड कर निकल गयी तथा राजा की मृत्यु हो गयी (भंजदेव, 1963)। कथनाशय यह है कि अशक्त व बेहोश वीरसिंह की युद्ध भूमि में हत्या कर दी गयी थी। राजा की हत्या हो जाने के बाद भी इस युद्ध में बस्तर की सेना ही विजयी रहीं थी।


- राजीव रंजन प्रसाद

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नमक के बोरे में आक्रांता
बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ (भाग – 46)



राजा दलपतदेव (1731-1774 ई.) के समय तक मराठा राज्य की सीमा बस्तर से लग गयी थी। मराठा शासकों ने अपनी विस्तारवादी नीति के तहत पहले रतनपुर पर विजय हासिल की तथा इसके पश्चात नीलू पंडित के नेतृत्व में वर्ष 1756 को बस्तर पर आक्रमण कर दिया। मराठा सरदार नीलू पंडित को नीलकंठ पंडित के नाम से भी जाना जाता है जबकि लौहण्डीगुडा तरंगिणी के लेखक महाराजा प्रवीर उसे नीलू पंथ सम्बिधित करते हैं। आक्रमण होते ही राजा दलपत देव ने योजना के अनुसार अपनी सेना को जंगल की ओर हटने का निर्देश दिया। मराठा सेना बिना रक्तपात के मिली जीत से उत्साहित हो गयी। इसी बीच, दलपतदेव के सैनिकों ने मराठा सेना को बाहर से मिलने वाली मदद के सारे रास्ते बंद कर दिये। पूरी तैयारी के बाद भयानक आक्रमण किया गया। मराठे बुरी तरह ध्वस्त हुए। नीलू पंड़ित एक बंजारे की सहायता से नमक के बोरे में छिप कर भाग गया।

दि ब्रेट (1909) विवरण देते हैं कि नीलू पंडित ने एक बार पुन: बस्तर पर शक्तिशाली आक्रमण लिया था। निस्संदेह मराठा सेना बस्तर की तुल्ना में अधिक ताकतवर और प्रशिक्षित थी किंतु वे इस अंचल के भूगोल के आगे विवश थे। युद्ध जीता गया। दलपत देव के प्रत्याक्रमण का अंदेशा पाते ही इस बार सतर्क नीलू पंडित लूट खसोट से ही संतुष्ट हो कर भाग निकला। यद्यपि उसने महारानी को कैद कर लिया, उन्हें जैपोर मार्ग से पुरी ले जाया गया जहाँ उनकी मृत्यु हो गयी। सभी विवरणों को विवेचनात्मक दृष्टि से देखें तो यह ज्ञात होता है कि अनेक कोशिशों के बाद भी मराठा शासक राजा दलपत देव को अपनी आधीनता स्वीकार करने के लिये बाध्य नहीं कर सके थे। लगातार होने वाले मराठा आक्रमणों ने ही राजा दलपतदेव को अपनी राजधानी बस्तर से बदल कर जगदलपुर ले जाने एवं उसकी मजबूत किलेबंदी करने के लिये बाध्य कर दिया था।



- राजीव रंजन प्रसाद


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