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बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ (भाग – 47 व 48)- [कहानियाँ]- राजीव रंजन प्रसाद

रचनाकार परिचय:-

राजीव रंजन प्रसाद

राजीव रंजन प्रसाद ने स्नात्कोत्तर (भूविज्ञान), एम.टेक (सुदूर संवेदन), पर्यावरण प्रबन्धन एवं सतत विकास में स्नात्कोत्तर डिप्लोमा की डिग्रियाँ हासिल की हैं। वर्तमान में वे एनएचडीसी की इन्दिरासागर परियोजना में प्रबन्धक (पर्यवरण) के पद पर कार्य कर रहे हैं व www.sahityashilpi.com के सम्पादक मंडली के सदस्य है।

राजीव, 1982 से लेखनरत हैं। इन्होंने कविता, कहानी, निबन्ध, रिपोर्ताज, यात्रावृतांत, समालोचना के अलावा नाटक लेखन भी किया है साथ ही अनेकों तकनीकी तथा साहित्यिक संग्रहों में रचना सहयोग प्रदान किया है। राजीव की रचनायें अनेकों पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं तथा आकाशवाणी जगदलपुर से प्रसारित हुई हैं। इन्होंने अव्यावसायिक लघु-पत्रिका "प्रतिध्वनि" का 1991 तक सम्पादन किया था। लेखक ने 1989-1992 तक ईप्टा से जुड कर बैलाडिला क्षेत्र में अनेकों नाटकों में अभिनय किया है। 1995 - 2001 के दौरान उनके निर्देशित चर्चित नाटकों में किसके हाँथ लगाम, खबरदार-एक दिन, और सुबह हो गयी, अश्वत्थामाओं के युग में आदि प्रमुख हैं।

राजीव की अब तक प्रकाशित पुस्तकें हैं - आमचो बस्तर (उपन्यास), ढोलकल (उपन्यास), बस्तर – 1857 (उपन्यास), बस्तर के जननायक (शोध आलेखों का संकलन), बस्तरनामा (शोध आलेखों का संकलन), मौन मगध में (यात्रा वृतांत), तू मछली को नहीं जानती (कविता संग्रह), प्रगतिशील कृषि के स्वर्णाक्षर (कृषि विषयक)। राजीव को महामहिम राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी द्वारा कृति “मौन मगध में” के लिये इन्दिरागाँधी राजभाषा पुरस्कार (वर्ष 2014) प्राप्त हुआ है। अन्य पुरस्कारों/सम्मानों में संगवारी सम्मान (2013), प्रवक्ता सम्मान (2014), साहित्य सेवी सम्मान (2015), द्वितीय मिनीमाता सम्मान (2016) प्रमुख हैं।

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स्त्रीराज्य बस्तर और महारानी प्रमिला
बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ (भाग – 47)

महाभारत युद्ध की समाप्ति के पश्चात युधिष्ठिर ने जब अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा छोड़ा था, तब उस घोड़े की रक्षा में स्वयं अर्जुन सेना के साथ चले थे। दक्षिण की ओर चलते चलते युधिष्ठिर के अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा “स्त्री राज्य” में पहुँच गया। - “उवाच ताम महावीरान वयं स्त्रीमण्डले स्थिता:” (जैमिनी पुराण)। स्त्री राज्य (कांतार) की शासिका का नाम प्रमिला था। उल्लेखों से ज्ञात होता है वह बड़ी वीरांगना थी। प्रमिला देवी के आदेश से अश्वमेध यज्ञ के उस घोड़े को बाँध कर रख लिया गया। घोड़े को छुड़ाने के लिये अर्जुन ने रानी प्रमिला तथा उनकी सेना से घनघोर युद्ध किया; किन्तु आश्चर्य कि अर्जुन की सेना लगातार हारती चली गयी। स्त्रियाँ युद्ध कर रही थीं इसका अर्थ यह नहीं कि वे साधन सम्पन्न नहीं थी जैमिनी पुराण से ही यह उल्लेख देखिये कि किस तरह स्त्रियाँ रथों और हाँथियों पर सवार हो कर युद्धरत थीं – “रथमारुद्य नारीणाम लक्षम च पारित: स्थितम। गजकुम्भस्थितानाम हि लक्षेणापि वृता बभौ॥” इसके बाद युद्ध का जो वर्णन है वह प्रमिला का रणकौशल बयान करता है। प्रमिला ने अपने वाणों से अर्जुन को घायल कर दिया। अब अर्जुन ने छ: वाण छोड़े जिन्हें प्रमिला ने नष्ट कर दिया। विवश हो कर अर्जुन को ‘मोहनास्त्र’ का प्रयोग करना पड़ा जिसे प्रमिला ने अपने तीन सधे हुए वाणों से काट दिया। अब प्रमिला अर्जुन को ललकारते हुए बोली – “मूर्ख! तुझे इस छोटी सी लड़ाई में भी दिव्यास्त्रों का अपव्यय करना पड़ गया” –प्रमीला मोहनास्त्रं तत सगुणम सायकैस्त्रिभि:। छित्वा प्राहार्जुनं मूढ़! मोहनास्त्रम न भाति ते॥ इस उलाहने ने अर्जुन के भीतर ग्लानि भर दी। अब अर्जुन ने रानी प्रमिला के समक्ष विनम्रता का परिचय दिया एवं संधि कर ली। इसके बाद ही यज्ञ के घोड़े को मुक्त किया गया।

- राजीव रंजन प्रसाद

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वीर गेंद सिंह की शहादत
बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ (भाग – 48)



परलकोट नैसर्गिक स्थल है। उसकी सीमा को एक ओर से कोतरी नदी निर्धारित करती है। तीन नदियों का संगम परलकोट की सुन्दरता को चार चाँद लगा देता है। यहाँ के जमीन्दार को भूमिया राजा की उपाधि प्राप्त थी। ऐसी मान्यता है कि उनके पूर्व-पुरुष चट्टान से निकले थे। बस्तर के राजा भी इस किंवदंति को मान्यता देते थे इस लिये परलकोट के जमीन्दार को राज्य में विशेष दर्जा और सम्मान हासिल था, जो मराठा-आंग्ल शासन ने अमान्य कर दिया। गेन्दसिंह इस बात से आहत थे। उनके नेतृत्व में परलकोट विद्रोह (1825 ई.) ने आकार लिया। धावड़ा वृक्ष की टहनियों को विद्रोह के संकेत के रूप में एक गाँव से दूसरे गाँव भेजा गया। पत्तियों के सूखने से पहले ही टहनी पाने वाले ग्रामीण, विद्रोही सेना के साथ मिल जाते थे। लोगों को संगठित करने तथा योजना बनाने में घोटुलों ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। धनुष-वाण, कुल्हाड़ी और भाला ले कर हजारों की संख्या में वीर अबूझमाड़िये निकल पड़ते, फिर कभी मराठा संपत्ति जला दी जाती तो कही उनके व्यापारिक या सैनिक काफिले लूट लिये गये। गेन्द सिंह ने चमत्कार कर दिखाया। अब तक राजा या सामंत के लिये मर-मिटने वाले अबूझमाड़िये अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ रहे थे। स्वयं पर अपनी मर्जी के शासन का हक पाने के लिये बहुत कम संघर्ष इतिहास में दर्ज हैं। इसके साथ ही इस विद्रोह में नये टैक्सों की खिलाफत भी थी। छतीसगढ़ सूबे के ब्रिटिश अधीक्षक मेजर एगन्यू को सीधा हस्तक्षेप करना पड़ा। चाँदा से सेना बुला ली गयी, पुलिस अधीक्षक कैप्टन पेव को निर्देश दिये गये कि परलकोट विद्रोह को निर्ममता से कुचल दिया जाये। बंदूखों के आगे परम्परागत हथियारों से नहीं लड़ा जा सकता था। 20 जनवरी 1825, को विद्रोह का पूरी तरह से दमन करने के पश्चात परलकोट परगने की प्रजा और दूर-सुदूर से हजारो अबूझमाड़ियाओं के सामने निर्दयता से एक पेड़ की टहनी पर उपर खींच कर गेन्द सिंह फाँसी पर लटका दिये गये। बस्तर भूमि वीर गेंदसिंह की इस शहादत का आज भी पूरी श्रद्धा से स्मरण करती है।



- राजीव रंजन प्रसाद


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