रमेशराज की बच्चा विषयक मुक्तछंद कविताएँ
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-मुक्तछंद-
।। बच्चा, मालिक और पेट ।।
हथौड़ा चलता हुआ बच्चा
हांफ-हांफ जाता है
हर हथोड़े की चोट के साथ।
बच्चा अपने को पसीने से
तर-ब-तर पाता है
हर हथौड़े की चोट के साथ,
लोहा पीटते हुए
बच्चा होता है चूर-चूर
थकान से भरपूर।
बच्चे की हथेलियां
छालों से भर जाती हैं
उन पर ठेकें उग आती हैं |
बच्चा धोकनी चलाते हुए।
लोहा तपाते हुए
अपनी जिंदगी भी फूंकता है
लोहे की तरह दिन-रात
धोंकनी के साथ।
बच्चे को
सुखद अनुभूतियां देता है
नयी-नयी शक्ल में
बदलता हुआ सुर्ख लोहा
पिटने के बाद ठंडा होते हुए।
बच्चा बार-बार चिहक उठता है
पानी में गिरते ही
सुर्ख लोहे को छुन्न के साथ।
क्यों कि बच्चा जानता है
पिटे लोहे का ठन्डा होना
उसकी हथेली पर
ग्राहक की
चवन्नी-अठन्नी का उछलना है
उसके परिवार का पलना है।
-रमेशराज
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