रमेशराज की बच्चा विषयक मुक्तछंद कविताएँ
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-मुक्तछंद-
।। गूंगा बच्चा ।।
जिंदगी की
सार्थकता तलाशता है
गूंगा बच्चा
सकेतों के बीच जीते हुए
अपने भीतर उगे
खामोशी के जहर को पीते हुए।
किसी परकटी चिडि़या के
आहत पंखों की तरह
बार-बार फड़फड़ाते हैं
गूगे बच्चे के होंठ।
अपने परिवेश की
भाषा से जुड़ने के लिए
विचारों के आकाश में
शब्दों के साथ उड़ने के लिए
उसके भीतर
भूकम्प उठाते हैं शब्द।
उसे अम्ल-सा छीलती है
हर लम्हा
होटों तक आयी हुई बात।
फिर भी
गूंगा बच्चा
गूंगा नहीं है
उसके अंग-अंग से
टपकते हैं शब्द
अपने में एक मुकम्मल
भाषा है गूंगा बच्चा।
निःशब्द होकर भी
खुला-सा खुला-सा है
गूंगा बच्चा।
-रमेशराज
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