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जीवन दर्शन [लघुकथा] - महावीर उत्तरांचली

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यह लगभग तय हो चुका था कि दार्शनिक को विषपान करना ही पड़ेगा। जब ज़हर से भरा प्याला दार्शनिक के सम्मुख लाया गया तो उनसे पुन: कहा गया -- "अब भी वक़्त है, यदि तुम अपनी विद्वता और सिद्धांतों की झूठी माला उतार फैंको तो हम तुम्हें मृत्यु का वरन नहीं करने देंगे। हम तुम्हे अभयदान देंगे। मगरूर सम्राट की बात सुनकर दार्शनिक ने ज़ोरदार ठहाका लगाया।


 महावीर उत्तरांचली रचनाकार परिचय:-



१. पूरा नाम : महावीर उत्तरांचली
२. उपनाम : "उत्तरांचली"
३. २४ जुलाई १९७१
४. जन्मस्थान : दिल्ली
५. (1.) आग का दरिया (ग़ज़ल संग्रह, २००९) अमृत प्रकाशन से। (2.) तीन पीढ़ियां : तीन कथाकार (कथा संग्रह में प्रेमचंद, मोहन राकेश और महावीर उत्तरांचली की ४ — ४ कहानियां; संपादक : सुरंजन, २००७) मगध प्रकाशन से। (3.) आग यह बदलाव की (ग़ज़ल संग्रह, २०१३) उत्तरांचली साहित्य संस्थान से। (4.) मन में नाचे मोर है (जनक छंद, २०१३) उत्तरांचली साहित्य संस्थान से।

"क्यों हँसे तुम?" प्रश्न किया गया।

"सम्राट मेरी मृत्यु तो आज होनी तय है किन्तु आपकी मृत्यु कब तक आपके निकट नहीं आएगी?" प्रश्न के उत्तर में दार्शनिक ने सत्ता के मद में चूर सम्राट से स्वयं प्रश्न किया। वह निरुतर था और अपनी मृत्यु का यूँ उपहास करने वाले इस महान दार्शनिक की जिंदादिली पर दंग भी।

"मुझे मृत्यु का अभयदान देने वाले सम्राट क्या आप सदैव अजर-अमर रहेंगे? कभी मृत्यु का वरन नहीं करेंगे? यदि आप ऐसा करने में समर्थ हैं और मृत्यु को भी टाल देंगे तो मैं अपने सिद्धांतों की बलि देने को प्रस्तुत हूँ।" दार्शनिक की बातों का मर्म शायद सम्राट की समझ से परे था या वह जानकर भी अंजान बना हुआ था। चहूँ और एक सन्नाटा व्याप्त था। हृदय की धडकने रोके सभी उपस्थितजन अपने समय के महान दार्शनिक की बातें सुन रहे थे। जो इस समय भी मृत्यु के भय से तनिक भी विचलित नहीं था।

"मृत्यु तो आनी ही है, आज नहीं तो कल। उसे न तो मैं रोक सकता हूँ न आप, और न ही यहाँ उपस्थित कोई अन्य व्यक्ति। यह प्रकृति का अटल नियम है और कठोर सत्य भी, जो जन्मा है, उसे मृत्यु का वरन भी करना है। इस अंतिम घडी को विधाता ने जन्म से ही तय कर रखा है। फिर मृत्यु के भय से अपने सिद्धांतों से पीछे हट जाना तो कोई अच्छी बात नहीं। यह तो कायरता है और मृत्यु से पूर्व मृत्यु का वरन कर लेने जैसा ही हुआ न।" दार्शनिक ने बड़ी शांति से कहा।

"मगरूर सम्राट के इर्द-गिर्द शून्य तैर रहा था। दार्शनिक की बातों ने समस्त उपस्थितजनों के मस्तिष्क की खिडकियों के कपाट खोल दिए थे।

"आपने ठीक ही कहा था कि मैं जीवित रहूँगा, मरूँगा नहीं क्योंकि मुझे जीवित रखेगी मेरे विचारों की वह अग्नि, जो युगों तक अँधेरे को चीरती रहेगी। लेकिन कैसी विडम्बना है सम्राट कि मेरे जो सिद्धांत और विचार मुझे अमरता प्रदान करेंगे, उनके लिए आज मुझे स्वयम मृत्यु का वरन करना पड़ रहा है।"

"तुम्हारी कोई अंतिम इच्छा?" सम्राट ने बेरुखी से पूछा।

"अंत में इतना अवश्य कहूँगा कि जीवन की सार्थकता उसके दीर्घ होने में नहीं, वरन उसका सही अर्थ और दिशा पा लेने में है।" दार्शनिक की विद्वता के आगे सभी नतमस्तक थे और इस असमंजस में थे कि कैसे सम्राट के मन में दया उत्पन्न हो और इस अनहोनी को टाला जाये।

...मगर तभी एक गहरा सन्नाटा सभी के दिमागों को चीरता हुआ निकल गया। जब दार्शनिक ने हँसते-हँसते विष का प्याला अपने होंठों से लगा लिया।

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