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बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ (भाग – 67 व 68)- [कहानियाँ]- राजीव रंजन प्रसाद

रचनाकार परिचय:-

राजीव रंजन प्रसाद

राजीव रंजन प्रसाद ने स्नात्कोत्तर (भूविज्ञान), एम.टेक (सुदूर संवेदन), पर्यावरण प्रबन्धन एवं सतत विकास में स्नात्कोत्तर डिप्लोमा की डिग्रियाँ हासिल की हैं। वर्तमान में वे एनएचडीसी की इन्दिरासागर परियोजना में प्रबन्धक (पर्यवरण) के पद पर कार्य कर रहे हैं व www.sahityashilpi.com के सम्पादक मंडली के सदस्य है।

राजीव, 1982 से लेखनरत हैं। इन्होंने कविता, कहानी, निबन्ध, रिपोर्ताज, यात्रावृतांत, समालोचना के अलावा नाटक लेखन भी किया है साथ ही अनेकों तकनीकी तथा साहित्यिक संग्रहों में रचना सहयोग प्रदान किया है। राजीव की रचनायें अनेकों पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं तथा आकाशवाणी जगदलपुर से प्रसारित हुई हैं। इन्होंने अव्यावसायिक लघु-पत्रिका "प्रतिध्वनि" का 1991 तक सम्पादन किया था। लेखक ने 1989-1992 तक ईप्टा से जुड कर बैलाडिला क्षेत्र में अनेकों नाटकों में अभिनय किया है। 1995 - 2001 के दौरान उनके निर्देशित चर्चित नाटकों में किसके हाँथ लगाम, खबरदार-एक दिन, और सुबह हो गयी, अश्वत्थामाओं के युग में आदि प्रमुख हैं।

राजीव की अब तक प्रकाशित पुस्तकें हैं - आमचो बस्तर (उपन्यास), ढोलकल (उपन्यास), बस्तर – 1857 (उपन्यास), बस्तर के जननायक (शोध आलेखों का संकलन), बस्तरनामा (शोध आलेखों का संकलन), मौन मगध में (यात्रा वृतांत), तू मछली को नहीं जानती (कविता संग्रह), प्रगतिशील कृषि के स्वर्णाक्षर (कृषि विषयक)। राजीव को महामहिम राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी द्वारा कृति “मौन मगध में” के लिये इन्दिरागाँधी राजभाषा पुरस्कार (वर्ष 2014) प्राप्त हुआ है। अन्य पुरस्कारों/सम्मानों में संगवारी सम्मान (2013), प्रवक्ता सम्मान (2014), साहित्य सेवी सम्मान (2015), द्वितीय मिनीमाता सम्मान (2016) प्रमुख हैं।

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परलकोट और विस्थापन व्यथा कथा
बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ (भाग – 67)

उत्तर बस्तर के जिला कांकेर से दक्षिण-पश्चिम में पखांजुर तहसील के अंतर्गत परलकोट क्षेत्र आता है जो कि कुल तहसील का तीन-चौथाई क्षेत्र है। इस क्षेत्र में कुल 134 गाँव हैं जिनकी जनसंख्या अब एक लाख से उपर जा चुकी है। दण्डकारण्य परियोजना के तहत बसाये गये शरणार्थियों में बंगाली जाति के नामशूद यहाँ प्रमुखता से पाये जाते हैं। विस्थापितों की बसाहट के दौरान के अतीत से एक घटना विश्लेषण के लिये सामने लाना चाहता हूँ। बात 12 अप्रेल 1975 की है। पखांजुर के पुराने बाजार में मध्यप्रदेश पुलिस के एक सिपाही आनन्द राय द्वारा जन-आक्रोश को दबाने के लिये चार राउंड गोली चालन के फलस्वरूप परलकोट ग्राम-13 के बीरेन राय नामक बालक की घटनास्थल पर ही मृत्यु हो गयी थी। इसके साथ ही वासुदेव एवं ममथ साहा नाम के दो व्यक्ति घायल हुए थे। इसके पश्चात बड़ी पुलिसिया कार्रवाई हुई जिसमे लगभग सत्रह गिरफ्तारियाँ हुई थी। यह सब कुछ एक असाधारण घटना के फलस्वरूप हुआ था जिसमें दण्डकारण्य परियोजना में अंतर्निहित भ्रष्टाचार तो सामने आया ही कालाबाजारी और शोषण की गिरफ्त में किस तरह यह जनजातीय क्षेत्र फँसने लगा उसका भी एक उदाहरण दिखाई पड़ा।

पखांजुर में कालाबाजारियों के नेता विष्णुदास के प्रति असंतोष से सारा मामला प्रारंभ हुआ था। उसने ही पहले समीर मण्डल और सुधीर मण्डल नाम के दो युवकों पर चाकू से प्राणघातक हमला करवाया। मामला खुलने के पश्चात असंतुष्ट भीड़ के हत्थे स्वयं विष्णुदास चढ़ गया। भीड़ ने उसे खूब पीटा किंतु किसी तरह जान बचा कर वह भाग निकला। इसके पश्चात प्रदर्शनकारियों की एक भीड़ जिसकी संख्या लगभग तीन हजार थी, वह शाम के तीन बजे पुराने बाजार की ओर बढ़ी। वहाँ लगभग साढ़े तीन सौ दूकाने थी जिनमे से आठ चुनिंदा दूकानों को लूटने के पश्चात उनमे आग लगा दी गयी। इस घटना की यदि और बारीक विवेचना की जाये तो खाद्यान्न समस्या और भ्रष्टाचार की कई परते सामने आती हैं। 11000 क्विंटल अनाज जिस क्षेत्र में आबंटित होना था वहाँ केवल 3000 क्विंटल ही पहुँचाया गया। इस अनाज पर भी कालाबाजारियों का आनन-फानन में कब्जा हो गया और जरूरतमंद लोगों के हिस्से केवल आक्रोश रह गया। मनमाने दाम में बेचे जा रहे अनाज से आम लोगों का हताश और उद्वेलित होना स्वाभाविक था। परलकोट और दण्डकारण्य परियोजना के तहत विस्थापन और बसाहट के बीच कितनी ही अनकही दर्द भरी ऐसी ही कहानियाँ हैं जो कही-सुनी नहीं गयीं।


- राजीव रंजन प्रसाद

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एक थे मोहन लहरी 
बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ (भाग – 68)


मोहन लहरी का जन्म 1908 को होशंगाबाद में हुआ था तथा 104 वर्ष की संघर्षपूर्ण जीवन यात्रा के पश्चात कांकेर (बस्तर) के एक गेस्ट हाउस में 29 अगस्त 2012 की मध्य रात्रि को उन्होंने आखिरी सांस ली। मूलत: पत्रकार श्री लहरी, रासबिहारी बोस के साथ मिल कर क्रांतिकारी आन्दोलन के सहभागी बने। उन्होंने फिलिपिन्स की फ्लोरा फ्रांसिस से प्रेम विवाह किया था। चौदह साल के दाम्पत्य जीवन में उनकी एक कन्या भी थी। वे नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के साथ जापान में रहे साथ ही जापानी अखबार निशि निशि के लिये पत्रकारिता भी कर रहे थे। उस दिन वे नेताजी के साथ किसी कार्य से बाहर थे जब उनके बंगले को आठ टन का बम गिरा कर नष्ट कर दिया गया। इस हमले में श्री मोहन लहरी की पत्नी तथा पुत्री मारे गये। श्री लहरी कुछ समय तक मानसिक रूप से आहत रहे तथा अस्पताल में भी थे। जापान से अपने परिजनों की निरंतर तड़पाती यादों से भाग कर वे नेताजी के निर्देश पर रंगून आ गये। बर्मा पहुँच कर उन्होंने वायस ऑफ बर्मा नाम का अखबार निकाला और कलम से स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ने लगे। उनसे बात करने वाले जानते हैं कि किस रुचिकर तरीके से श्री लहरी स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भारत लौटने की घटना का वर्णन करते थे, जब नेताजी के साथी होने के कारण उनके पीछे बहुत समय तक जासूस लगे रहे; आखिर श्री लहरी एक समय में नेताजी सुभाष चंद्र बोस की आजाद हिंद सरकार के मिनिस्ट्री आफ प्रेस पब्लिसिटी एंड प्रोपागेंडा के प्रोग्रामिंग आफिसर रहे थे। अपनी जासूसी से तंग आ कर दबंग श्री लहरी ने सीधे ही प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को पत्र लिखा। इसके बाद नेहरू जी से उनकी दार्जलिंग में मुलाकात हुई। पंडित नेहरू ने उन्हें चाईल्ड वेल्फेयर काउंसिल, मध्यप्रदेश का अध्यक्ष बना दिया। कर्मठ श्री मोहन लहरी ने स्वयं घूम घूम कर सिवनी, छिन्दवाड़ा जैसी जगहों में अनेक आँगनबाड़ियाँ खोली हैं।

आत्मा से पत्रकार श्री मोहन लहरी क्रोनिकल से भी कुछ समय तक जुड़े थे। बाद में भोपाल में रह कर वे स्वतंत्र पत्रकारिता करने लगे। उसी दौरान बस्तर रियासत के अंतिम महाराजा तथा तब विधायक रहे प्रवीर चन्द्र भंजदेव ने श्री लहरी का कोई आलेख पढ़ कर उनसे संपर्क किया तथा फिर उन्हें अपने साथ बस्तर ले आये। श्री लहरी लगभग साढ़े छ: साल तक प्रवीर चन्द्र भंजदेव के सलाहकार भी रहे तथा तत्कालीन बस्तर की ज्वलंत राजनीति में अपनी प्रखर सोच का योगदान देते रहे। प्रवीर से किसी अनबन के कारण स्वाभिमानी श्री लहरी कांकेर आ गये तथा 1965 से ले कर आज तक के अपने जीवन का शेष हिस्सा उन्होंने कांकेर में रह कर ही गुज़ारा।





- राजीव रंजन प्रसाद


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