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रंगों का पर्व [कविता] - आचार्य बलवन्त

आचार्य बलवन्तरचनाकार परिचय:-


आचार्य बलवन्त वर्तमान में बैंगलूरु के एक कालेज में हिन्दी विभागाध्यक्ष के रूप में कार्यरत हैं।
आपका एक काव्य-संग्रह "आँगन की धूप" प्रकाशित हो चुका है। इसके अतिरिक्त आपकी कई रचनाएं समय समय पर अहिंसा तीर्थ, समकालीन स्पन्दन, हिमप्रस्थ, नागफनी, सोच-विचार, साहित्य वाटिका, वनौषधिमाला आदि पत्रिकाओं एवं समाचार पत्रों में भी प्रकाशित होती रही हैं। आपकी कुछ रचनाएं आकाशवाणी जलगाँव और बंगलूरु से भी प्रसारित हुई हैं।



रंग-गुलाल से तर-ब-तर दो वर्गों के लोग आपस में भिंड़ गये।
बाबा ने नन्दू से पूछा, ‘ये कोहराम कैसा है बेटा?’
नन्दू ने बताया, ‘बाबा, आज होली है न,
लोग मना रहे हैं, खूब गा रहे हैं।
देखिए, अब आपसे मिलने आ रहे हैं।
नन्दू रंग-गुलाल लिए बाबा के पास आया,
सूखे होंठ और पकी दाढ़ियों को सहलाया,
और बोला, ‘बाबा हमें आशीर्वाद दीजिए
कि हम ऐसी होली कभी न मनायें,
ऐसी निकम्मी होली से हमेशा बाज आयें,
फिर फफक-फफक कर रो पड़ा।
बोला – बाबा! अपने हाथों मुझे अबीर लगाइये न,
कोई फाग, बसन्त का आप भी गाइये न।
आँखों से पूरा व्यक्तित्व लाँछित था बाबा का,
वक्त की नियति और समय के क्रूर मज़ाक़ पर मुस्कराये,
अपने प्यारे नन्दू की अंगुलियाँ पकड़ अबीर लगाये
और दुआयें दी,
तुम्हारी यही उमर हो, जब भी होली आये,
बाबा के सूखे होंठ चूमे और पकी दाढ़ियाँ सहलाये।
बाबा ने कहा, ‘बेटे ! मैंने बड़ी दुनिया देखी इन अंधी आँखों से
और बहुत पछताया कि कैसे हैं ये लोग,
जो आँखें होते हुए भी देख नहीं पाते,
बार-बार सुनते हैं, समझ नहीं पाते।

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