रचनाकार परिचय:-
अधूरी जिन्दगी
डॉ . विजय कुमार शर्मा
सहा. प्राध्यापक (हिंदी)
शासकीय महाविद्यालय आलमपुर, भिण्ड (म.प्र.)
मो. 9424255053
drvkshindi@ gmail. com , drvks.hindi@gmail.com
सहा. प्राध्यापक (हिंदी)
शासकीय महाविद्यालय आलमपुर, भिण्ड (म.प्र.)
मो. 9424255053
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उस रात बादल फटा। मानो वह जलभार से असहाय होकर धैर्य खो बैठा हो भूमि को ढूँढ़-ढूँढ़ कर वर्षा के तीरों से भेदना आज उसे अपना कत्र्तव्य लग रहा था। अचानक जोर से दरवाजे के पीछे कोई बोला- ’’खोलिओऽऽ....!’’ आवाज भारी और आतंकित थी, लगा कोई पीछे पड़ा है परंतु कोई नहीं था। यह तो बारशि की दहशत थी। दरवाजा खुला, रवि कुछ देर शोभा को क्रुद्ध नेत्रों से देखता रहा..... इतनी देर कैसे हो गई? तुम्हें पता नहीं बाहर क्या हालात हो रहे हैं? शोभा उपेक्षित भाव से बोली- ’’अंदर वाले रूम में थी, इसलिए सुनाई नहीं दिया, कपड़े बदल लो, चाय बना देती हूँ।’’ चाय पीने के बाद रवि के शरीर और मन देनों की गर्माहट थोड़ी शीतल हुई।
रवि और शोभा में वाक्-युद्ध होता ही रहता है। हमेशा युद्ध का कारण अज्ञात और उसका अंत अनिर्णित रह जाता है। बारिस थम गई थी। पानी फुट से इंच रह गया था, पर उसका प्रभाव कीचड़ के रूप में यत्र-यत्र दिख रहा था। घर की दीवालें सीलन से फूल गयीं थी, उसका प्लास्टर झड़कर फर्श पर गिर रहा था। रवि झाडू हाथ में लेकर फर्श साफ करने लगा। यह शोभा से देखा न गया, वह तिलमिलाकर बोली ’’झाडू बाद में लगाना पहले बाजार से कुछ सब्जी ले आओ, तुम्हें घर की तो कोई चिंता है नहीं ? स्वीटी पाँच दिन से बीमार है, उसे अस्पताल ले जाने की फुर्सत नहीं, झाडू की बहुत चिंता है, घूम-फिर कर उसे ही उठा लेते हो। घर साफ हो या न हो झाडू जरूर उठेगा। क्या तुम्हें दिख नहीं रहा कि अभी कुछ देर पहले ही झाडू लगा है? पर तुम्हें मजा आता है झाडू लगाने में?’’ रवि निस्तब्ध था उसे इन प्रश्नबाणों को झेलने की आदत पड़ गई थी। वह खड़ा हुआ कमरे में डले अस्त-व्यस्त सामान और सोफे पर पड़ी अनावश्यक वस्तुओं को देखकर किसी अपराधबोध का अनुभव करते हुए कुछ कहने को हुआ ’तूऽऽ....’’ और फिर बात को पी गया। वह सोचने लगा कि यह कोई नई बात तो नहीं है जो इस पर कुछ कहा जाए। उसने झाडू उठाया और फर्श साफ करने लगा। इस बार झाडू कुछ कह रहा था, पर आवाज तेज होने के कारण अस्पष्ट और दुर्बोध थी।
यह सिद्धांतों की लड़ाई थी जिसमें किसी एक की विजय अनिश्चित थी। शादी की शहनाई से ही इस युद्ध का बिगुल बज गया था। तब से अब तक न जाने कितनी बार यह युद्ध एक अंत तक पहुँचते-पहुँचते रह जाता है। हर बार दोनों योद्धा एक-दूसरे के तन और मन को इतना घायल कर देते हैं कि अब बस निर्णय हुआ लेकिन हर-बार की तरह हमेशा युद्ध अनिर्णय और मूक चीत्कार लिए कई महीनों के लिए नीवता में बदल जाता है।
रात होते ही स्वीटी का बुखार जोर पकड़ने लगा था। बुखार कैसे आया ? इस प्रश्न का उत्तर देनों एक-दूसरे से जानना चाहते थे। पर उत्तर भी कई प्रश्नों को एक-साथ दागता, इसलिए दोनों ने चुप रहना ही उचित समझा। बुखार का असर स्वीटी के चेहरे पर साफ दिख रहा था। उसकी आँखों में सफेदी छा रही थी। नाक बहने के कारण लाल हो गई थी। रूखे-सूखे बालों में बार-बार उँगलियाँ उलझाकर स्वीटी का खीजना चक्की के पाटों के बीच में पिसते हुए अनाज के जैसा लग रहा था। शोभा कत्र्तव्यमुक्त होकर बोली ’’अगर फुरसत हो तो चलो इसे डॉ क्टर को दिखालें ?’’ रवि ने खीजकर कहा-’’हाँ चलते हैं पहले ये तो बताओं कि यह बार-बार बीमार क्यों हो जाती है? औरों के भी बच्चे हैं, वे तो कभी-भी इतनी जल्दी बीमार नहीं होते? क्या मैं अब इसे भी देखूँ ? घर-बाहर सब मुझे ही देखना है? तुम्हें कुछ नहीं दिखता? बस खाना-पीना-सोना, यही दिनचर्या है तुम्हारी?’’ रवि की आँखे गीली और गला भारी हो गया था। वह स्वीटी को गोद में उठाकर क्लीनिक की तरफ चल दिया। शोभा पीछे-पीछे किसी गहनता में ठोकरें खाती हुई चली आ रही थी।
अलार्म बजा। रवि ने चद्दर से मुँह निकालकर देखा सुबह के पाँच बज रहे थे। शोभा स्वीटी को लिए गहन निद्रा में लीन थी। रोज की तरह रवि मॉर्निग वाक पर निकल गया। हल्की-हल्की दौड़ उसे बालपन में ले गई। बालपन जीवन के जंगल का वसंत होता है। रवि रूक कर एक जगह बैठ गया। उसका मन-मयूर इस वसंत में नृत्य करने लगा। किस तरह दोस्तों के बीच में उसकी एक महत्वपूर्ण पहचान थी, सभी दोस्तों में वह सिरमौर था। उसके द्वारा दी जाने वाली नसीहत दोस्तों के लिए कितनी अहम् होती थी। बड़े गर्व से वह अपने दोस्तों-रिश्तेदारों से कहता कि मुझे अपनी शादी को लेकर कोई चिंता नहीं, क्योंकि जैसे हम होते हैं वैसा ही हमें जीवन-साथी मिलता है। और यदि दुर्भाग्यवश जीवन साथी विपरीत मन वाला मिल भी जाए तो हमें उससे इतना प्यार करना चाहिए कि वह अपने मन की सारी कडुवाहट भुलाकर मिठास में बदल दे।’’ इसी दार्शनिकता को साबित करने के लिए जब भी रवि की सगाई की बात चलती वह झट से अपने माता-पिता से कह देता कि ’’मेरा विवाह किसी भी अनपढ़, गँवार लड़की से कर लो, मैं बड़े आराम से उसके साथ निर्वाह कर लूँगा। मुझमें सभी के साथ ऐडजेस्ट करने की क्षमता है। दिक्कत तो उन्हें आती है जो दूसरांे के सम्मान और अस्तित्व को महत्व ही नहीं देना चाहते। मुझे जन्म आपने दिया है, इसलिए मेरे विवाह का अधिकार भी आप लोगों को ही है। धिक्कार है ऐसे बच्चों पर जो अपने माता-पिता के प्रतिकूल जाकर शादी जैसा गम्भीर फैसला स्वयं ले लेते हैं।’’ अचानक पानी की कुछ बूँदे रवि के मुँह को चूम कर अदृश्य हो गईं। सामने माली बगीचे में छिड़काव कर रहा था। सूरज तनने लगा था। रवि ने माली से पूछा ’’भाई साहब कितने बज गऐ’’? माली उपेक्षित भाव से बोला, ’’आज कोई संडे थोड़ी है, जो दिन-भर यहीं पड़े रहोगे? जाओं अपना काम देखो? एक पल के लिए रवि ने फिर आँखें बंद कर लीं। शहनाई बज रही थी, एक हाथ शोभा की गर्दन में डला था, तो दूसरे हाथ से रवि उसकी माँग भर रहा था। इतना अपार सुख कि मानो उस विवाह-मण्डप के नीचे संसार की समस्त सम्पदाएँ एकत्रित होेकर अपने भाग्य की सराहना कर रही हों। इस बार बूँदों ने भिंगा ही दिया। माली बोला- ’’सोना है तो घर जाओ? मेरा काम क्यों खराब करते हो ?’’ रवि तंद्रा में था उसे अपने चारों तरफ उफनते हएु समुद्र में एक नाव हिल्लोरों से जूझती हुई दिखाई दी। उसने एक लंबी जम्हाई ली और हाथों को चेहरे पर रगड़ते हुए खड़ा हो गया। मानो कोई थका हुआ जुआरी हो। माली इस बार झल्लाया, ’’कोई काम-धंधा नहीं है क्या? आजाते हैं जाने कहाँ से पी-पिबा कर!’’ रवि नैराश्य भाव से बोला- ’’जा तो रहा हूँ यार!’’ दरवाजा खुला था। शोभा किचिन में कुछ बड़-बड़ा रही थी। स्वीटी मुँह में अँगूठा दिए टी.बी. देख रही थी। कमरे के हालात युद्ध को आमंत्रण दे रहे थे। इधर-उधर बिखरा हुआ सामान घायल सैनिकों के जैसा लग रहा था। योद्धा अपने सैनिकों की ऐसी दशा देख कर ललकारा ’’मेरी टाॅबिल कहाँ है? नहाने के लिए देर हो रही है?’’ आवेग में आकर उसने इधर-उधर पड़े सारे वस्त्र झकझोर डाले। पर अस्त-व्यस्त कपड़ों में अपनी टॉबिल को न ढूँढ पाना रवि के लिए जीवन की सबसे बड़ी असफलता थी। असफलता चिंतन को जन्म देती है। रवि किंकत्र्तव्यविमूढ़ खड़ा रहा फिर कुछ अनिर्णय भाव से पलंग की चादर खींचकर बाथरूम में घुस गया। सिर का पानी पैर को छू रहा था। साबुन की बट्टी बार-बार घिसी जा रही थी, पर मैल साफ नहीं हो रहा था। फिर भी मैल........ फिर भी मैल! न जाने क्यूँ बार-बार साबुन घिसे और उँगलियों के रगड़े जाने के बावजूद भी मैल की परत विरल होने का नाम नहीं ले रही थी।
दस का घण्टा बज रहा था। शोभा ने रवि के हाथों में टिफिन देते हुए कहा ’’कुछ रूपये दे जाओं मेरी सहेली आने वाली है उसको साथ लेकर मुझे बाजार से अपने लिए कुछ कुर्तियाँ खरीदने जाना हैं।’’ रवि बिना कोई प्रश्न किए शोभा को दो हजार रूपए थमा कर ऑफिस निकल गया।
धन चिंता का कारण हो सकता है परंतु पर्याप्त धन तो जीवन को हरा-भरा बनाता है, फिर ये चिताएँ कैसीं ? तनाव क्यूँ ? जब सारे सुख धन से प्राप्त हो सकते हैं, विषम परिस्थितियों को धन से सम बनाया जा सकता है तो फिर मेरी जिंदगी में ये नैराश्य क्यों ? बाइक चलाते हुए रवि इन्हीं दार्शनिक तर्कों में उलझा हुआ चला जा रहा था। रवि खुद को संबोधित करते हुए बोला- ’’जीवन के हर मोड़ पर मैंने ही ऐडजेस्ट किया है। सारे फर्ज, नैतिकताएँ मुझ पर ही लागू होती हैं? किसी को इन सब बातों की चिंता नहीं ? विवाह से उम्मीद लगाई तो वह भी विफल निकला! पटरी बिठाने के न जाने कितने अथक प्रयास किए सब बेकार गए। सोचा आज सीख जाएगी, कल सुधर जाएगी, परसों समझ जाएगी। आखिर........ कब जान पाएगी मुझे। गाँव से शहर लाया ताकि हवा-पानी के साथ विचार और अनुभूतियाँ भी बदलेंगी। पर कहीं कुछ नहीं बदला। अगर बदला भी तो सिर्फ मैं ! ताकि इन्हें कोई तकलीफ न हो। मैंने क्या नहीं किया ? माँ -बाप की इच्छानुसार शादी की। लड़की पंसद करने के विचार को तुच्छ और हीन मानते हुए सहर्ष भाव से उसे स्वीकार किया। उसकी कमियों को अपनी खूबियों से श्रेष्ठ माना। कभी किसी बात की जिद नहीं की, जो हुआ भविष्य में अच्छा हो जाएगा समझकर अनदेखा कर दिया। पर कब तक ? और क्यूँ ?
पता ही नहीं चला कि कब ऑफिस का घण्टे भर का सफर गुजर गया। रवि ने गाड़ी स्टैण्ड पर लगाई और साहब से नजरें बचाते हुए अपने ऑफिस की कुर्सी पर आ बैठा। आते ही चपरासी ने एक लिफाफा थमाते हुए कहा- ’’साहब ने आप को याद किया है।’’ रवि ने अपनी अलमारी से एक फाइल निकाली। जेब से कुछ रूपए निकाल कर फाइल के पेट में भरते हुए चपरासी को थमा और उसे साहब को देने को कहा। रवि उपेक्षित भाव से चपरासी को देखकर बोला-’’मुझे नहीं, इस फाइल को बुलाया है, जिसमें उन मरीजो की लिस्ट है जो भर्ती तो सरकारी अस्पताल में होते हैं पर दिखवाने डॉ क्टर साहब के क्लीनिक पर आते हैं। यकायक एक जोरदार आवाज लगी। रवि दौड़कर साहब के कक्ष में प्रवेश कर गया। मानो रावण की लंका में अंगद। साहब दंभ स्वर में बोले -’’क्यों रे वामन! ऐसे ही नौकरी करेगा? इन मरीजों में भगवान वसता है! कुछ तो उस ईश्वर से डर। पिछली फाइलें भी पेंडिग हैं? आज भी तू लेट आया है, क्या वामन-विद्या मुझ पर ही चलाएगा? कई युग तुम लोगों ने धर्म का जुआ हमारे कंधों पर रखकर अपने खेत-खलियानों में जोते रखा। अब ये वामनगीरी नहीं चलेगी? आज अगर पूरा काम नहीं हुआ तो जाना मत! ’’रवि अपना पैर जमाना चाहता था पर कुछ सोचकर रह गया। रवि मन में बड़बड़ाया कि ’’सुनू कि सुनाऊँ? आखिर किस-किस को क्या-क्या सुनाऊँ ? सब कहीं-न-कहीं अपने-अपने क्षेत्र में विजित हो जाते हैं। हारता केवल मैं हूँ। क्यों हारता हूँ? इसका जबाव यह है कि मैं वामन हूँ? सबकी खुशामद नहीं करता ? शोभा से बात-चीत नहीं करता? उसे घुमाता-फिराता नहीं? पर ये सब बातें तो गलत हैं। सत्यता तो यह है कि मैं वामन होकर भी दलित से भी बद-दलित हूँ। शादी के इतने वर्षो के बाद भी शोभा की नजर में हर-तरह का प्रयास करने के बावजूद भी गैर जिम्मेदार हूँ।
रवि से रहा न गया वह जीभ को जमाते हुए बोला-’’साहब आपने भी सरकारी ढाल लेकर अपने क्लीनिक को खूब विजय दिलाई है। सरकारी खजाने की दवाई-दारू आपके क्लीनिक के मरीजों के स्वास्थ्य की अहम् संजीवनी है। इस से बड़ी मानव-सेवा संसार में और क्या हो सकती है? साहब तिलमिला गए-’’तू अपने -आप को ज्यादा होशियार समझता है? ध्यान रख, तेरी जीभ भी इसी क्लीनिक के पैसे से पग रही है, नहीं तो भीख माँग रहा होता। वैसे भी भीख माँग कर खाना तो तुम लोगों का सनातन कर्म है।’’ साहब की खीज से रवि को संबल मिला। वह पुनः जीभ को जमाकर बोला- ’’हमें पुनः पैतृक काम करने में कोई हर्ज नहीं पर ये बात-बात पर जातिगत भड़ास क्यों निकालते हो? क्या तीनों युगों में शोषण करने वाला ब्राह्मण मैं ही था? या वो शोषित शूद्र आप ही थे? जब नहीं थे तो फिर से जातिगत उलाहने क्यों? और यदि उस समय में शूद्र विरोधी दल सक्रिय थे भी तो क्या आज पुनः प्रतिशोध-वश ब्राह्मण या सवर्ण विरोधी दल बनाए जाने की आवश्यकता है? क्या प्रत्येक समाज को अपनी-अपनी जातियों को हथियार-लैस करके एक-दूसरे के समाने खड़े कर देना चाहिए? रवि की इन बातों से साहब को साँप सूँघ गया। वे चुपचाप अपने कक्ष में चले गए। आज रवि ने कुछ ज्यादा ही कह दिया । कहीं का तीर कहीं चल गया। पर दर्द तो प्रत्येक तीर का तीक्ष्ण और असहाय होता है। रवि अपनी कुर्सी पर जाकर बैठ गया। पानी पिया, हवा खाई, फिर कुछ हल्का मन करने के लिए वह मोबाइल पर उँगलियाँ फेरने लगा। नेट चालू करते ही मैसेजों की बौछार होने लगी। पता ही नहीं चलता कि कौन-कौन से मैसेज महत्वपूर्ण हैं। अनेक ग्रुप वालों ने जबरदस्ती जोड़ रखा है। जो अपनी -अपनी श्रेष्ठ दलीलों से हमारे धर्म, जाति और मित्रता के सर्वश्रेष्ठ स्तर की पहचान कराते हुए हमें मानद उपधियाँ देते रहते हैं।
धर्म के 65, जाति के 85 और शोभा के चार मैसेज थे। रवि ने धर्म और जाति से गृहस्थ जीवन के मैसेज को श्रेष्ठ समझा। शोभा ने मैसेज में लिखा था ’’इस रविवार को रवि के बड़े भैया और भाभी आ रहे हैं, जिनकी खुशामद वो नहीं कर सकती और वह अपनी सहेली के साथ बाजार जा रही है। चाबी पड़ौस में रहने वाले त्रिपाठी जी के पास से ले लेना।’’ रवि ने एक लंबी सँास ली और नेट बंद करते हुए मोबाइल जेब में रख लिया। रवि को जीवन का हर-क्षण अधंकारमय लगता है। इतना सघन अंधकार कि मार्ग नहीं सूझता। थका सैनिक संध्याकाल में कराहता है पर रवि को अपने जीवन-संग्राम में कराहने का अवसर नहीं मिलता वह हर-क्षण परोक्ष शत्रुओं से आतंकित रहता है। शाम के पाँच बजे का घण्टा रवि के दिमाग में घनुष्टंकार करके बजा, पर साहब की तोप ऑफिस की फाइलों के बीच से मुहाने पर थी। घड़ी की सुई कार्य-युद्ध और गृह-युद्ध के बीच में बिना कुछ बजाए घूमती जा रही थी। अचानक चपरासी चाय का कप लिए सामने खड़ा हो गया। ’’चाय पीजिए.......... थोड़ा मन हल्का हो जाएगा? साहब की तो आदत है सबको परेशान करने की। अभी कह रहे थे, वामन गया क्या?’’ मैंने कह दिया ’’आज तो उन्होंने टिफिन भी नहीं किया, तब से काम में ही लगे हैं, अब उन्हें जाने दीजिए’’ पर साहब बड़े निर्दयी हंै, उन्होने आपके लिए एक और फाइल पकड़ा दी है, ’’ये लिजिए।’’ रवि ने बिना कोई प्रतिक्रिया दिए फाइल ले ली और चुपचाप फाइल को टटोलने गया। फाइल में दवाइयों के बिल थे, जिनका भुगतान मरीजों से लेना था। रवि ने एक नजर चपरासी को देखा और फाइल बंद करके अलमारी में रख दी। बैग उठाया और चेहरे पर एक खीज लिए चल दिया।
घर के दरवाजे पर लगा हुआ ताला रवि को अपने अस्तित्व पर प्रश्नचिह्न की भाँति लटकता हुआ लगा। एक पल के लिए उसका मन किसी निर्जन स्थान पर जाने को हुआ पर कुछ सोचकर रह गया। वह त्रिपाठी जी के घर चाबी लेने के लिए चल दिया। दरवाजा खुला पर रवि का मन अंदर जाने की गवाही नहीं दे रहा था। अचानक उसने देखा कि स्वीटी घर में अकेली फर्श पर बैठी अपनी गुड़िया से खेल रही है, और उसके आस-पास कुछ सेफ्टी-पिन बिखरी पड़ी हैं। रवि का दिल भर आया उसने तुरंत सेफ्टी-पिनों को बीन कर ड्रेसिंग में रखा और स्वीटी के माथे को चूमते हुए उसे गोद में उठा लिया। रवि ने स्वीटी को प्यार करते हुए पूछा-’’खाना खा लिया लालो।’’ स्वीटी अपनी बाल-भाषा में तुतलाने हुए बोली-’’मामा ममकीन दे गईं थी खाने के लिए पापाजी।’’ रवि की आँखों में आँसू छलक आए। वह स्वीटी को गोद में लेकर रोने लगा। स्वीटी अद्भुत भाव से अपने पिता की यह दशा देख रही थी। वह बोली- ’’आप लो क्यों लहे हैं पापाजी?’’ रवि कुछ बोल न सका उसने स्वीटी के माथे को चूमा और निर्जनता में डूब गया। स्वीटी अपने पिता के बैग को अंदर रूम में रखने के लिए खींचती हुए ले जा रही थी कुछ समय पश्चात दीवार पर टँगी तस्वीर पर लिखे आदर्श वाक्य ’’महापुरूषों के जीवन में संघर्ष होता है’’ ने रवि का ध्यान भंग किया। वह उठा और उसने पानी पीने के लिए रसोईघर का दरवाजा खोला। रसोई घर में बिखरे हुए सामान को देखकर रवि को अपने आप पर तरस आया। आटे का कनस्तर खुला पड़ा था। जगह-जगह चाय के धब्बे फर्श पर पड़ रहे थे। सब्जी की कतरन का ढेर लग रहा था। सिंक में बर्तन तैर रहे थे। रवि को यह सब देखने की आदत पड़ चुकी थी पर सहने की आदत डालने में वह हमेशा खुद को असमर्थ पाता रहा। उसने एक लम्बी साँस ली और रसोई का काम निपटाने लगा। दूध गर्म करके स्वीटी को पिलाया और खुद चाय पीकर बिस्तर पर लेट गया। स्वीटी रवि के पास आकर लेट गई। रवि तन्द्रा में था कि उसे स्वीटी के रोने की आवाज आई वह तुरंत उठा। स्वीटी पेट पकड़ कर जोर से रो रही थी। ’’क्या हुआ बेटा!’’ स्वीटी पेट पकड़े रोते हुए बोली- ’’पेत में दलद हो लहा है पापाजी।’’ रवि ने दीवार पर टँगी घड़ी में देखा आठ बज रहे थे। उसने तुरंत कपड़े बदले और बिना शोभा की प्रतीक्षा किए स्वीटी को डॉ क्टर को दिखाने के लिए घर से बाहर निकल आया। दरवाजे के अंदर कागज का एक टुकड़ा लिखकर डाल दिया। ’’मैं स्वीटी को दिखाने के लिए पास वाले हॉस्पीटल में जा रहा हूँ।’’
रवि के जाने के लगभग एक घण्टे बाद शोभा घर पहुँची। दरवाजा न खुलने पर उसने दूसरी चाबी लगा कर दरवाजा खोला। लाइट जलाई। घर को सूना देखकर उसका मन विलचित हुआ। देखा, एक कागज का टुकड़ा जमीन पर डला है। जिस पर कुछ लिखा था। शोभा बिना समय गँवाए दरवाजा बंद कर हॉस्पीटल की तरफ बढ़ गई। उसे अपना एक-एक कदम प्रश्नों के कठघड़े में खड़ा अनुभव हो रहा था। हॉस्पीटल छोटा ही था। शोभा ने देखा कि रवि सिर को पकड़े अचेत बैठा है। उसने रवि को झकझोरते हएु पूछा-’’स्वीटी कहाँ है? उसे क्या हुआ है? मैं तो उसे अच्छी-भली छोड़ कर बाजार गई थी?’’ अचानक रवि की निस्तब्धता टूटी, वह शोभा को करूण-दृष्टि से देखते हुए बोला- ’’उसने सेफ्टीपिन निगल ली है।’’ शोभा का चेहरा सफेद पड़ गया, वह घबराती हुई बोली ’’कैसे’’? रवि की आँखो में खून उतर आया ’’
यह तुम मुझसे पूछती हो, कैसे?’’ और फिर दोनो इस उत्तर को खोजने के लिए एक-दूसरे की आँखों में उतर गए।
लेखक - डॉ . विजय कुमार शर्मा
सहा. प्राध्यापक (हिंदी)
शासकीय महाविद्यालय आलमपुर, भिण्ड (म.प्र.)
मो. 9424255053
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