[१]
[मंच पर रोशनी फ़ैल जाती है, रेल गाड़ी का मंज़र सामने दिखाई देता है ! शयनान डब्बे के अन्दर रशीद भाई, सावंतजी, ठोक सिंहजी और छंगाणी साहब बैठे नज़र आ रहे हैं ! ऊपर की बर्थ पर चंदूसा लेटे हैं, और वे ज़ोर-ज़ोर से खर्राटे ले रहे हैं ! अचानक, रेल गाड़ी रुक जाती है ! उसके रुकने से लगे धक्के के कारण, चंदूसा की नींद खुल जाती है ! वे अंगड़ाई लेते हुए उठते हैं, फिर बोलते हैं]
चंदूसा – [अंगड़ाई लेकर, कहते हैं] – अಽಽ...अಽಽ...अಽಽ...! सत्य नारायणजी यार, चाय-वाय पिला दो यार ! [वे बर्थ से नीचे उतरकर, बेंच पर बैठ जाते हैं !]
सावंतजी – [लबों पर मुस्कान बिखेरते हुए, कहते हैं] – ज़रूर पीजिये यार, चंदूसा ! अब चाय पीनी है तो पधार जाइए, दो केबीन छोड़कर अगले केबीन में..
रशीद भाई – [उनकी बात, पूरी करते हुए कहते हैं] – जहां सत्य नारायणजी बैठे हैं अपने मेहमान के पास ! अब आप चाय-वाय छोड़िये, वे आपको लूणी के प्रसिद्ध रसगुल्ले खिला देंगे, कचोरी और दाल के बड़े...आप जो चाहो, वे मंगवाकर खिला देंगे आपको ! मगर शर्त एक ही है, उनके मेहमान को गले...
छंगाणी साहब – [उतावली दिखलाते हुए, कहते हैं] – तापी वाले बालाजी आपकी जय हो, वहां इतना इंतज़ाम है तो मैं चला जाऊं उनके पास ?
रशीद भाई – साहब पधारिये, पधारिये ! वहां जाकर आप उनके मेहमान के पास ज़रूर बैठ जाना, बराबर उनके घुटने से घुटने मिलाकर ! फिर बड़े प्रेम से, उन्हें गले लगाना ! छंगाणी साहब, आप जैसे जैसे प्रेम करने वाले इंसान कहाँ मिलते हैं ?
छंगाणी साहब – [सीट से उठते हुए, कहते हैं] - ऐसी बात है तो, मैं यह गया...वहां ! मनुआर तो खूब होगी, वहां ! मज़ा आ जाएगा, तब !
चंदूसा – ज़रूर पधारो, साहब ! उनके मेहमान से गले लगकर मिलना, बड़े प्रेम से ! फिर आज मैं आपकी मेमसाहब को जाकर कह दूंगा कि, आज साहब हिज़ड़े को गले लगाकर आये हैं ! [चंदूसा ठहाके लगाकर, ज़ोर से हंसते हैं]
छंगाणी साहब – [शर्मसार होकर, वापस सीट पर बैठ जाते हैं] – क्या कहा रे, ठोकिरे ? तू मुझे हिज़ड़े के पास भेज रहा था, कुचमादी के ठीकरे ? ना भाई ना, मैं तो अब जाऊंगा नहीं वहां, यह कमबख्त हिज़डा मेरे कपड़े खोलकर अपने पास रख लेगा ! तब मैं, कैसे मेमसाहब को अपना मुंह दिखालाऊंगा ?
चंदूसा – [मुस्कराते हुए, कहते हैं] – और, आपके ससुराल से आये जूत्तों का क्या होगा ? ये जूत्ते तो ठहरे आपके कालजे की कोर, इनको हिज़ड़ा उठाकर ले गया तो बताओ मालिक...?
छंगाणी साहब – जूत्तों की बात करके आपने याद दिला दी मुझे, मेमसाहब की कही बात ! मेमसाहब कह रही थी कि, आज तुलसी इग्यारस है ! आज आप ज़रूर, गंगश्यामजी के मंदिर जाकर घर आना ! मगर, आप वहां एक बात का ध्यान रखना कि..
रशीद भाई – अपना सफ़ेद सफ़ारी सूट खोकर मत आना, अब ससुराल से कपड़े आने वाले नहीं ! ज़नाब, क्या यही बात कही होगी उन्होंने ?
छंगाणी साहब – अरे नहीं रे, रशीद भाई ! कपड़े कब आये रे, मेरे ससुराल से ? मेमसाहब तो यह कह रही थी कि, “भगवन, आप अपने जूत्ते मंदिर के दरवाज़े के पीछे छिपा देना...फिर, मंदिर में घुसना ! नहीं तो ये चोटे जूत्ते चोर इन जूत्तों को उठाकर, अपने पुराने जूत्ते रख जायेंगे ! समझे आप ? फिर, आप उन पुराने जूत्तों से कैसे काम चलाएंगे ?” तब, मैंने वापस उनसे कहा..
चंदूसा – रहने दीजिये, ज़नाब ! बदल दिए जाय, तो आपको क्या नुक़सान ? पहले से नए जूत्ते ही, हाथ आयेंगे आपके ! देण होगी, तो उस चोर को होगी..
सावंतजी – [मुस्कराकर, कहते हैं] – बीस पैबंद लगे जूत्तों को ले जाकर करेगा, क्या ? सर पर हाथ रखकर रोयेगा, माता का दीना !
ठोक सिंहजी – [मुस्काराकर कहते हैं] – ससुराल से आये हुए जूत्ते हैं, सावंतजी ! यों, कैसे कह रहे हैं आप ? घर पहुँचते ही मालिक, अपने बाल संभालेंगे..कहीं मेमसाहब की कुद्रष्टि, इन बालों पर न पड़ जाय ! भगवान बचाए इन बालों को, कहीं गुस्से से इन ख़ूबसूरत सफ़ेद बालों को वे खींच न डाले ? तभी कहता हूं, भगवान नहीं करे ‘बड़े जतन से रखे हुए जूत्ते, इनकी कालजे की कोर कहीं खो न जाए ? अब ये जूत्ते, इनके ससुराल से आने वाले नहीं !’
[इन लोगों को क्या पता, इस बातों की फुलवारी के चलते कितना वक़्त बीत गया है ? इस तरह ये लोग तो, चाय मंगवाना बिल्कुल भूल जाते हैं..तभी इंजन ज़ोर से सीटी देता है ! रेल गाड़ी धीरे-धीरे आगे बढ़ती है ! अब लूणी स्टेशन, पीछे रह जाता है ! गाड़ी ने अपनी पूरी रफ़्तार बना ली है ! अब, चन्दूसा कहते हैं..]
चंदूसा – भाड़ में जाए, इनके जूत्ते ! मेरी चाय गयी, तेल लेने ! मैं तो अब, वापस सोने चला जाता हूं !
[इतना कहकर, चंदूसा झट चढ़ जाते हैं बर्थ पर ! और अब वे वहां, खूंटी तानकर सो जाते हैं ! अब रेल गाड़ी की खरड़-खरड़ आवाज़ चंदूसा के खर्राटों के साथ ताल-मेल बैठाने लगी है ! अब, रशीद भाई अगला किस्सा कहना शुरू करते हैं !]
रशीद भाई – आगे मैं यह कह रहा था कि, इस तरह मामूजान की करामत से गुलाब खां कुंवारे नहीं रहे !
सावंतजी – मुझे रशीद भाई समझ में नहीं आ रहा है कि, ‘यह मुमताज़ अपनी पूरी ज़िंदगी, औरत बने कैसे रहा होगा ?’
रशीद भाई – ज़नाब, मैं आपसे सवाल करता हूं कि, क्या जिस्मानी-सुख ही केवल प्यार का ज़ज्बा होता है ? अब आपसे क्या कहूं, ज़नाब ? जानवरों के साथ रहते भी उनसे इतना प्यार हो जाता है, इंसान उनके बिना रह नहीं पाता ! मगर गुलाब खां साहब तो आख़िर इंसान हैं, और वे ठहरे मुमताज़ के सुख-दुख़ के साथी ! एक बार वापस आपो याद दिला देता हूं, मुमताज़ ठहरा जनखा..उसे जिस्मानी सुख से क्या लेना-देना ?
छंगाणी साहब – अरे, ज़नाब ! साथ रहते-रहते प्रीत बढ़ जाया करती है, इसमें जिस्मानी सुख का क्या लेना-देना ? पैंसठ साल का हो गया हूं, मैं ! सारे अंग ढीले पड़ गए हैं, मेरे ! मगर दफ़्तर से छूटते ही, सीधे घर पहुंचना चाहता हूं...मेमसाहब से मिलने ! रेल गाड़ी में आप देखा करते ही हैं, पूरे दिन मैं मेमसाहब को याद करता हूं !
रशीद भाई – जी हां ! बात भले, किसी भी मुद्दे पर चलती हो..? मगर आप, मेमसाहब का टोपिक जबरदस्ती बीच में डाल दिया करते हैं !
छंगाणी साहब – हां रशीद भाई, बुढ़ापा है..! जवानी कैसे भी निकल जाती है, मगर बुढ़ापा बिना जीवन साथी आराम से निकलता नहीं !
सावंतजी – सही कहा, छंगाणी साहब ! मोहबत आख़िर मोहब्बत होती है ! कहते हैं, दिल लगा गधी से तो परी क्या चीज़ है ? [रशीद भाई से, कहते हैं] रशीद भाई, मोहब्बत की राह में कई रोड़े भी आते हैं ! अब आप यह बताएं कि, यह सुलतान कभी उन दोनों की ज़िंदगी में रोड़ा बनकर तो नहीं आया, वापस ?
रशीद भाई – [हंसते हुए, कहते हैं] – आफ़ताब साहब के खौफ़ से, सुलतान कभी मुमताज़ के पास फटका नहीं ! गुलाब खां साहब की हवेली में छ: दिन तक नौकरानी बने रहने का लूज़ पोइंट, आफ़ताब साहब के पास था..और उस ख़बीस को डर था, कहीं आफ़ताब साहब इसके भेद को लोगों के बीच में न खोल दे ?
सावंतजी – गुलाब साहब के औलाद पैदा होने का कोई सवाल नहीं, तब उनकी दौलत का क्या हुआ ?
रशीद भाई – तीन सालों तक, गुलाब खां साहब मुमताज़ के साथ बड़े प्रेम से रहे ! उस दौरान, उन्होंने मुमताज़ को सूफ़ी गायकी की पूरी तालीम दी ! गायकी सिखाने के बाद ही उन्हें मालुम हुआ कि, मुमताज़ के गले का क्या कहना ? इस गले से ऐसे सुर निकला करते कि, लोग उसकी आवाज़ सुनकर उससे प्रभावित हुए बिना नहीं रहते ! हिन्दुस्तान में, तो क्या ? पाकिस्तान से भी उसको लोग बुलाया करते, उससे गीत सुनने ! सूफ़ी संतों की मज़ारों पर उसके गाये हुए गीतों की केसेटें, आज भी उसको चाहने वाले तन्मय होकर सुना करते हैं ! तीन साल बाद, गुलाब खां साहब का इंतिकाल हो गया ..
छंगाणी साहब – फिर, उस बेचारी मुमताज़ का क्या हुआ ?
रशीद भाई – और फिर, गुलाब खां के जाने के बाद उस मुमताज़ के लिए बाकी रहा क्या ? जो बंधन था, वो भी ख़त्म हो गया ! फिर वह, इस घर-गृहस्थी के चक्कर में क्यों फंसे ? उसको यह पूरी दुनिया, सूनी-सूनी लगने लगी ! गुलाब खां साहब की गायी हुई गज़लें, नगमों के सुर और वे मोहब्बत की बातें, हवेली का हर पत्थर उनकी यादों का चित्र बनकर पेश हो जाता ! उनके साथ बीते वाकये, भूल नहीं सकती थी, मुमताज़ ! बस, फिर क्या ? तमाम धन-दौलत यतीमखाने को दान में देकर, वह...
छंगाणी साहब – [चौंकते हुए, कहते हैं] - कहाँ चली गयी, वह मुमताज़ ? कहाँ गयी, जल्द कह डालो रशीद भाई ! कुछ कहिये, कहीं खो गयी..क्या ?
रशीद भाई – और वह कहाँ जाती, आख़िर ? गयी हज करने, और बाद में [ग़मगीन होकर, आगे कहते हैं] परवरदीगार के दर पर फ़किरनी बनकर शेष बची ज़िंदगी गुज़ारने लगी ! यहां से चले जाने के बाद, उसे किसी ने नहीं देखा ! न किसी ने सुना, वह कहाँ है ? वह ज़िंदा है, या मर गयी...कोई नहीं जानता !
[क़ब्रिस्तान जैसी शान्ति छा जाती है ! इस शान्ति में इन लोगों को ऐसा महशूश होने लगा, बहुत दूर से मुमताज़ की पाक रूह मीठे सुर में सूफ़ी नज़्म “ए ज़िंदगी, ले चल मुझे वहां, जो मुक़ाम आख़री हो...ज़िंदगी तेरे सफ़र का जो अंजाम आख़री हो’ गा रही है ! इन लोगों को ऐसा लगने लगा कि, धीरे-धीरे उसकी मधुर आवाज़ उनके नज़दीक आती जा रही है..अचानक, इंजन की सीटी सुनायी देती है ! ये लोग चेत जाते हैं, अब इन्हें चारों तरफ़ शान्ति महशूश होने लगी ! आख़िर, रशीद भाई इस शान्ति को तोड़ते हुए कहने लगे !]
रशीद भाई – सावंतजी, आदमी बूढ़ा हो जाता है..फिर उसकी शादी होती है, किसी जवान हसीना के साथ ! बस, उसकी तन्हाई दूर हो जाती है और उसकी मोहब्बत की दरिया उस पर बहने लगती है ! अपनी जान से ज़्यादा मोहब्बत करने वाले उस बूढ़े के अन्दर, वह हसीना अपने वालिद की छवि देखने लग जाती है ! उस बूढ़े की मौत के बाद, उसे ऐसा लगता है मानो उसका सब-कुछ लुट गया है ! [इतना कहकर, रशीद भाई वापस ग़मगीन होजाते हैं !]
सावंतजी – जाने वाले चले गए, और रहने वाले रह गए रशीद भाई ! अब आप, दिल पर बोझ न डालिए ! वापस आ जाइए, असली मुद्दे पर ! अब बताइये, कहीं यह आपका मामू कुंवारा तो नहीं रह गया ? दूसरों की शादी कराने वाले मामू के नसीब में, शादी करना लिखा गया या नहीं ? इस किस्से को, बयान कीजिएगा !
रशीद भाई – भाईसाहब ! अच्छा याद दिलाया, आपने ! जो इंसान दूसरों की शादी करवाने में कामयाब रहता है, उस बेचारे को ख़ुद की शादी के लिए कई पापड़ बेलने पड़े ! जहां-कहीं उसकी शादी की बात चलती, लोग रोड़े अटकाकर उसकी शादी होने नहीं देते ! चलिए, आपको यह पूरा किस्सा सुना ही डालता हूं ! अब, सुनिए !
[किस्सा बयान करते हुए, कहते हैं] मेरे मामूजान थे, आज़ाद पंछी ! कमाते और उड़ाते...
सावंतजी – उड़ाते होंगे पैसे, तवायफ़ों के नाच-गाने में...?
रहीद भाई – नहीं ज़नाब ! बस, इस उम्र में उनको लत लग गयी दारु पीने की ! ज़्यादातर वे दारु पीकर, माणक चौक की किसी बंद दुकान के चबूतरे पर लेट जाया करते ! एक बार यों हुआ...
[रशीद भाई किस्सा बयान करते नज़र आ रहे हैं ! रेल गाड़ी तेज़ रफ़्तार से, दौड़ती जा रही है ! किस्सा सुन रहे ठोक सिंहजी, सावंतजी और छंगाणी साहब की आँखों के सामने वाकये फिल्म की तरह छा जाते हैं ! मंच पर, अंधेरा फ़ैल जाता है ! थोड़ी देर बाद, मंच वापस रोशन होता है ! माणक चौक का मंज़र, सामने आता है ! माणक चौक की अधिकांश दुकाने, खुल चुकी है ! इस कारण, अभी बाज़ार में काफ़ी चहलपहल दिखाई दे रही है ! चौक में कई तांगे वाले, अपने घोड़ों के लिए गुड़ ख़रीदने के लिए आये हुए हैं ! दुकानों पर बैठे दुकानदार उन ग्राहकों को आवाज़ लगाते हुए, अपने माल की बिक्री बढ़ा रहे हैं ! कई ग्राहक दुकानों की पेढ़ी पर खड़े रहकर, माल के भाव कम करवाने की कोशिश में जुटे हैं ! चौक में कई जगह फेरी वाले, अपने ताज़े फल, सब्जियां और छब्बील बेचने की फ़िराक में ग्राहकों को आवाज़ देते हुए अपने माल की बिक्री बढ़ा रहे हैं ! कुछ दुकानदारों ने आज़ दुकानें खोली नहीं है, वहां चबूतरों पर मणिहारी सामान बेचने वाली औरतों ने कब्ज़ा जमा रखा है ! वे वहां चादर पर मणिहारी के सामान जमाकर, ग्राहकों को माल बेच रही है ! रमज़ान मियां ठहरे गुड़-खांड के व्यापारी, उनकी दुकान से सटा हुआ उनका गोदाम है ! यहां अभी, गुड़ व खांड की बोरियां उतरने वाली है ! इसलिए कई हमाल गोदाम के चबूतरे पर बैठे बीड़ियां फूंकते जा रहे हैं ! गोदाम का दरवाज़ा अभी खुला है, इतने में एक लोरी [छोटी ट्रक] आकर वहां रुकती है ! लोरी के हॉर्न की आवाज़ सुनकर, रमज़ान मियां के मुनीमजी अपनी धोती को संभाले आते दिखाई दे हैं ! वे एक हाथ से अपनी ढीली गाँठ लगायी धोती को संभाल रहे हैं, और दूसरे हाथ में उन्होंने दुकान की बही पकड़ रखी है ! और उन्होंने अपने कान पर कलम लगा रखी है ! चबूतरे पर बैठे हमाल, झट उठ जाते हैं ! सुलगती बीड़ी के अंतिम छोर को फेंककर, वे लोरी से बोरियां उठाने के लिए उस पर चढ़ जाते हैं ! दो मिनट बाद एक मज़दूर मुनीमजी के पास आता है, और वह उन्हें बोरियों का हिसाब देते हुए कहता है !]
एक मज़दूर – [मुनीमजी से, कहता है] – हुज़ूर, गिन ली है मैंने...सारी बोरियां ! बीस बोरियां है गुड़ की और चार है खांड की ! अब यह हिसाब, आप अपनी बही में लिख डालिए ! कितनी आयी लोरी से और कितनी आयी है, दिलावर सेठ के तांगे से ? यह हिसाब, अब मैं आपको...
[तभी दिलावर सेठ तांगे वाले का तांगा वहां आकर रुकता है, दिलावर तांगे से उतरकर घोड़े को रिज़गा डालते हैं ! तभी दो हमाल लोरी से उतरकर, सीधे चले आते हैं, दिलावर सेठ के पास ! उधर मुनीमजी दिलावर सेठ को बिना देखे ही, उस मज़दूर को कठोर लहज़े से कह रहे हैं!]
मुनीमजी – [कठोर लहजे से, कहते हैं] – अरे, ए इमाम की औलाद ! तू क्या समझता है, तेरे कहने से मैं बोरियों को हिसाब बही में लिख दूंगा ? सेठ हराम के पैसे देता नहीं है, मुझे ! जो बिना देखे, बोरियों का हिसाब लिख डालूं ? अपनी आँखों से देखूंगा, कितनी बोरियाँ आयी है लोरी से और कितनी आयी है तांगे से ! अब समझा, प्यारे ? पैसे कमाना, इतना आसान..
[मुनीमजी का बोला हुआ जुमला, अधूरा ही रह जाता है ! और धड़ाम से एक बोरी लोरी से गिरकर मुनीमजी के पांव के पास आकर गिरती है ! अचानक इस बोरी के नज़दीक आकर गिरने से बेचारे मुनीमजी डरकर, उछल पड़ते हैं ! मुनीमजी ने सोचा, ‘शायद किसी ने कोई बम लाकर, यहां पटक न दिया हो ? उनके इस तरह उछलने से, उनकी धोती की गाँठ खुल जाती है ! अब यह धोती, कहीं पूरी न खुल जाए ? इस डर से बेचारे दोनों हाथ से थाम लेते हैं, धोती को ! तभी उनके कानों में कड़कदार आवाज़ सुनायी देती है, और साथ में उनके रुखसार पर पड़ता है एक धब्बीड़ करता थाप ! फिर क्या ? बेचारे मुनीमजी के हाथ छूट जाते हैं, उस धोती से ! और खुली हुई धोती आकर गिर जाती है, ज़मीन पर ! अब आस-पास खड़े हमालों की हंसी, रुकने का नाम नहीं लेती ! धोती को किसी तरह खसोलकर, वे सामने देखते हैं..उनको सामने दिखाई देते हैं, दिलावर सेठ ! लुंगी-बनियान पहने, गले में देवानंद स्टाइल में रुमाल बंधा हुआ और चौड़ी छाती वाले दिलावर सेठ को देखते ही उनकी वाक्-शक्ति [नातिका] जवाब दे देती है ! इधर दिलावर सेठ अपने दोनों भुजाओं को ऊपर करके, उचकते डोलों को दिखलाते हैं ! और साथ करते हैं, ज़ोर की गरज़ना ! जिसे सुनकर, बेचारे मुनेमजी के मुख से चीख निकल उठती है ! इस यम राज जैसे आदमी के दीदार पाकर, वहां खड़े लोगों के बीच में खलबली मच जाती है ! कई दुकानदार डरकर, अपनी दुकानों के दरवाजों पर ताला लगाकर वहां से भागने की जुगत लड़ाते हैं ! चौक में खड़े लोग डरकर, भगने लगते हैं ! मगर आते-जाते राहिगीरों को, बिना पैसे का तमाशा देखने को मिल जाता है ! वे चारों तरफ़ घेरा डालकर, वहां खड़े हो जाते हैं ! बेचारे मुनीमजी की एक है, खोटी आदत ! वे जब किसी से भय खाते है, उसे देखते हुए उनकी आंख चल जाती है ! इस वक़्त भी, बेचारे दिलावर सेठ को देखते ही अपनी एक आंख चला देते हैं ! इनके इस कृत्य से दिलावर सेठ हो जाते हैं, नाराज़ ! वे झट गुस्से से उबलते हुए, उनका गिरेबान पकड़ लेते हैं ! फिर, कहते हैं !]
दिलावर सेठ – [मुनीमजी का गिरेबान पकड़ते हुए, कहते हैं] – क्यों रे, सुअर की औलाद ? जब तेरी आंख सलामत रहेगी, तब तू गिनेगा गुड़-खांड की बोरियां !
मुनीमजी – [धूज़ते हुए, कहते हैं] – हुज़ूर, ग़लती हो गयी ! आप अगर मुझे इशारा कर देते तो..[मुनीमजी की आंख, फिर चल जाती है] माई-बाप, चुटकी में आपका काम हो जाता !
दिलावर सेठ – [गिरेबान छोड़ते हुए, कहते हैं] – साले आंख मारता है, जनखे की औलाद ? आज़ तो मैं तेरी इस आंख का पक्का इलाज़ करके ही रहूंगा !
[गोदाम के सामने, साबीर मियां की दुकान है, जहां वे तरह-तरह रंग के दुपट्टे बेचा करते हैं ! ताला लगा रहे साबीर मियां पर, दिलावर सेठ की निग़ाह गिरती है ! उन्हें ताला जड़ते देखकर, दिलावर सेठ उनको आवाज़ देते हुए कहते हैं !]
दिलावर सेठ – [साबीर मियां को आवाज़ देते हुए, कहते हैं] – अरे, ए साबीरिये की औलाद ! ताला बाद में जड़ना, पहले आ इधर पोदीने की चटनी ! और साथ में लेते आ, एक दुपट्टा !
[साबीर मियां दुपट्टा लेकर उनके पास आते हैं, फिर वे हाथ आगे बढ़ाकर उनको दुपट्टा लेने के लिए कहते हैं !]
साबीर मियां – [नज़दीक आकर, कहते हैं] – लीजिये, सरकार ! और, कोई हुक्म ? [दुपट्टा थमाने के लिए, हाथ आगे बढ़ाते हैं]
दिलावर सेठ – [साबीर मियां के कंधे पर एक धोल जमाकर, कड़कदार आवाज़ में कहते हैं] – खैरात के अस्पताल की लंगड़ी टांग...दुपट्टा क्या, मुझे पहनाने के लिए लाया है ? [मुनीम की तरफ़, अंगुली से इशारा करते हुए कहते हैं] साले, पहना इसे ! आ गया जनखे की औलाद, बांका मुंह किये हुए ? [मुनीमजी से कहते हैं!] अबे सुन, इस दुपट्टे के पैसे इस गधे को चुका देना ! समझा, या नहीं ?
[भय के मारे बेचारे मुनीमजी, पीपल के पत्ते की तरह कांपने लगे ! बे बेचारे, क्या कहते ? उनके पहले, साबीर बोल उठे !]
साबीर मियां – चच्चा आपका हुक्म, मेरे सर ऊपर ! अभी पहना देता हूं, आपका हुक्म न मानूंगा तो फिर किसका मानूंगा ?
दिलावर सेठ – [ख़ुश होकर, कहते हैं] – ठीक है, मैं तेरा चच्चा हूं ! तू ख़ुशी से पहना, इसे ! [फिर कुछ सोचते हुए] मैंने इसको कैसे कह डाला, गधे की औलाद..? जब मैं इसका चच्चा हुआ, तब क्या...मैंने गधे का चच्चा बनना मंजूर कर डाला ? नहीं, नहीं ! मैं इसका रिश्तेदार नहीं बन सकता ! [प्रगट में कहते हैं] नहीं रे, मैं तेरा चच्चा नहीं हूं रे ! तू तो है इस जनखे की औलाद का, गधेड़ा मामू ! अब पहना इसे दुपट्टा, फिर करवाते हैं इसका निकाह !
[साबीर मियां को इशारे से कहते हैं कि, इस मुनीम को यह दुपट्टा पहना दे ! फिर क्या ? साबीर मियां झट, मुनीमजी को दुपट्टा ओढ़ा देते हैं ! फिर अगला हुक्म लेने के लिए, दिलावर सेठ से हाथ जोड़कर कहते हैं!]
साबीर मियां – [हाथ जोड़कर, कहते हैं] – हुज़ूर, आपका हुक्म तामिल हो गया ! हुक्म हो तो, मैं अपने घर चला जाऊं ? लंच का वक़्त हो गया, भोजन भी करना है !
दिलावर सेठ – कहाँ जा रहा है, गधे ? यहां खड़ा रह, और तालियां पीट ! [मुनीमजी से, कहते हैं] दुल्हन बन गया, पोदीने ? अब लगा ठुमके, रशीदा जान की तरह !
[साबीर मियां ताली पीटते हैं, और मुनीमजी ऊंचे हाथ करके नाचते हैं..रशीदा जान की तरह ! यह खिलका देख रहे तमाशबीन. तालियां पीटकर ज़ोर-ज़ोर से हंसते हैं ! मगर लोगो का यह हीं हीं करके हंसना, दिलावर सेठ को कहां पसंद ? वे उनको फटकरते हुए, कहते हैं..]
दिलावर सेठ – [फटकारते हुए, कहते हैं] – अबे, ओ छक्कों ! क्यों हंस रहे हो, मुंह फाड़कर ? यह कोई मुन्नी बाई का कोठा नहीं है, समझे नामाकूलों ! मैंने तो, खाली इस जनखे को सज़ा दी है ! [पास खड़े मज़दूर से, कहते हैं] बोल रे, पोदीने ! इसे सज़ा देकर सही काम किया, ना ?
मज़दूर – [हाथ जोड़कर, कहता है] – मालिक, या तो आप सज़ा दे सकते हैं या फिर सज़ा दे सकता है ख़ुदा ! दोनों बात, एक ही है ! आप सज़ा देते हैं, जिंदे इंसान को ! और वह ख़ुदा देता है सज़ा, इंसानों को..मरने के बाद !
दिलावर सेठ – [गले का रुमाल, कसते हुए कहते हैं] – मालिक के बच्चे, अब कह दे इस जनखे को...आख़िर, मैं क्या चाहता हूं ? अब, इसे क्या करना है ? समझ गया, अब ! माल लाने का भाड़ा, मेरी हवेली पहुंच जाना चाहिए ! अब नमाज़ का वक़्त हो गया है, मैं चलता हूं !
[अब दिलावर सेठ उस मज़दूर को समझाने लग गए कि, इतनी बोरियां तांगे मे लादकर लाने का भाड़ा उनके घर पहुच जाना चाहिए ! भले ये सारी बोरियां, ट्रक में लादकर लायी गयी थी ! काम हो जाने के बाद, अब दिलावर सेठ का यहां रुकने का कोई प्रयोजन नहीं ! वे रूख्सत हो जाते हैं !]
मज़दूर – [मुनीमजी से, कहते हैं] – सुनिए मुनीमजी, चार बोरियां तांगे से आयी है, उसका भाड़ा दे दीजिये !
मुनीमजी – किस बात का भाड़ा ? सारी बोरियां तो आयी है, ट्रक से ! तांगे से एक भी बोरी लादकर नहीं लायी गयी, फिर तू कैसे मांग रहा है भाड़ा ?
मज़दूर – [मुस्कराता हुआ, कहता है] – आप जैसे कह रहे हैं, वही सही है ! मुनीमजी, एक बात कहूं आपको..क्या आपको अभी-तक, अक्ल आयी नहीं ? आप कहो तो, दिलावर सेठ को वापस बुलाकर ला दूं ? आली ज़नाब, आपका मुज़रा एक बार और देख लेंगे ! फिर आप मुज़रा करते, बहुत अच्छे लगेंगे !
[मज़दूर का कहा जुमला सुनकर, वहां खड़े तमाशबीन ज़ोर से ठहाके लगाकर हंसने लगे ! इन लोगों के लगाए गए कहकहों से, हसन मियां रंगरेज़ की दुकान के चबूतरे पर नशे में पड़े मामूजान की ऊंघ में ख़लल पड़ता है ! ये बेचारे मामूजान हमेशा की तरह आज भी, दुकान के चबूतरे पर ऊंघ में पड़े हैं ! अब इस ऊंघ में ख़लल पड़ते ही, वे झट उठते हैं...और पियक्कड़ की तरह, पांव लड़खड़ाते हुए मुनीमजी के पास चले आते हैं ! फिर मुंह से दारु की बदबू छोड़ते हुए, कहते हैं !]
मामूजान – [मुंह से बदबू छोड़ते हुए, कहते हैं] – वाहಽಽ, ज़नाब वाह ! मुनीमजी यार, आप कैसे नाचते रहे..मानो वह ख़ूबसूरत मुन्नी बाई, अपने कोठे पर नाच दिखला रही है ? वाहಽಽ यार, आपके जैसा नचन्या लौंडा चिराग़ लेकर ढूंढें तो भी नहीं मिलता ! कहो, मुनीमजी..ऐसा शौक है तो, आपको बरातों में नाचने का धंधा दिलवा दूं ? अच्छे पैसे कमा लोगे, यार !
एक तमाशबीन – तू तेरी शादी में इस मुनीम को नचवा देना, मामू प्यारे ! मामू, यह अपना ही आदमी है, अच्छे पैसे दिलवा देना..अपने ससुरजी से !
दूसरा तमाशबीन – ओय नूरिया तेरा दिमाग़ ख़राब है, तू कुछ नहीं जानता यार ? किस मोमीन के क़िस्मत फूटेगी, जो इसके हाथ में अपनी बेटी का हाथ देगा ? यह कमबख्त ठहरा, बाद:परस्त ! सुबह देखो न शाम, यह दारु पीता हुआ ही मिलेगा ! है क्या आख़िर, एक नंबर का दारुखोरा !
मामूजान – [तैश में आकर, कहते हैं] – बंद कर, बकवास ! साले फाज़िर, तेरे पैसे की पीता हूं क्या ?
नूरिया – अरे, बड़बोले ! ज्यादा बक मत, बकवादी कीड़े ! पहले तू इस मुनीम को, नचवा दे तेरी बरात में ! फिर आकर करते रहना, बकवास..
दूसरा तमाशबीन – यह क्या नचवा सकता है, और कहाँ है, इसमें इतनी औकात इस मुनीम को अपनी बरात में नचाने की ?
मुनीमजी – [मुस्कराहट अपने लबों पर फैलाकर, कहते हैं] – इसकी बरात तब निकलेगी, जब कोई मोमीन अपनी लड़की का हाथ इस बाद:परस्त के हाथ में देगा ? हां, हां, एक बात कहता हूं ! इसकी शादी में मैं ज़रूर जमकर नाचूंगा, अगर यह बाद:परस्त दिलावर सेठ की इकलौती बेटी से शादी कर लेता है, तो..
मामूजान – [नशे में, हिचकी खाते हुए कहते हैं] – हीच..हीच..! ज़रूर करूंगा, दिलावर सेठ की बेटी के साथ शादी ! हीच..हीच नहीं तो..[पांव लड़खड़ाते हैं]
नूरिया – [मामूजान का अधूरा जुमला पूरा करता हुआ, कहता है] - नहीं तो, कुंवारा मरुंगा..यही बात कहना चाहता है, ना ?
[सभी लोग हंसी का ठहाका लगाकर, ज़ोर से हंसते हैं ! उनको इस तरह हंसते देखकर, मामू नशे में झूमने लगते हैं ! फिर थोड़ी देर बाद, जेब से बाद-ए-तल्ख़ की बोतल निकालते है ! उसका ढक्कन खोलकर, एक-एक घूँट पीते हुए साथ में बोलते जाते हैं !]
मामूजान – [दारु का एक-एक घूँट पीकर, नशे में कहते जा रहे हैं] – वाह भाई, वाह ! कितनी बढ़िया है, यह बाद-ए-तूहूर ! [दारु का एक घूंट पीकर कहते हैं] प्यारों, पीओ दारु और हो जाओ मस्त..जिंदगी के सारे ग़म भूला दो, मेरे दोस्तों ! मेरा सहारा तो शराब का प्याला है, ज़ख्मों ने मुझे दर्द देकर पाला है, ठोकर मारकर गिराया ख़ुशी ने मुझे, तो हाथ बढ़कर ग़मों ने संभाला है मुझे !
[फिर, दारू का एक घूँट हलक में डालते हैं]
नूरिया – [मामू को एक घुद्दा मारते हुए, कहते हैं] – तू ही पी, साले बाद:परस्त ! अब यहां बैठा-बैठा करता रहेगा ज़ोलिद:बयानी..[पास खड़े तमाशबीन से, कहता है] ख़ुदा जाने, कहीं यहां दिलावर सेठ आ गए तो, इस माता के दीने की हड्डी-पसली तोड़ डालेंगे ?
मामूजान – [नशे में कहते हैं] – कुछ नशा आपकी बात का है ! ‘कुछ नशा धीमी बरसात का है, हमें आप यू ही शराबी मत कहिए, ये दिल पर असर दिलावर सेठ की पहली मुलाक़ात का है !’ बुला दे रे, मेरे सुसुर दिलावर सेठ को ! फिर, निकाह की तारीख़ तय हो जायेगी ! [मुनीमजी के गले में अपने बाज़ू डालते हुए, कहते हैं] फिर तो यार मुनीमजी, तुम सभी चलोगे मेरी बरात में ! बन्दोली निकालने की जिम्मेदारी, अब आपकी रही मुनीमजी !
नूरिया – मुनीमजी, आप यहीं बैठिये ! आपको तो अब, दिलावर सेठ के सामने मुज़रा पेश करना है ! यह नशेड़ी नशा उतरते ही, अपने घर चला जाएगा ! काहे की फ़िक्र करते हो, इसकी ?
दूसरा तमाशबीन – [सभी तमाशबीनों से, कहता है] - अरे चलो रे, भाइयों ! धंधे का वक़्त है, काहे वक़्त बरबाद करते हो ?
[सभी जाते हुए, दिखाई देते हैं ! धीरे-धीरे इनकी पदचाप सुनायी देनी बंद हो जाती है ! मंच पर, अंधेरा फ़ैल जाता है !]
[२]
[मंच पर, रोशनी फ़ैल जाती है ! भदासिया फ़ाटक इलाके का मंज़र सामने आता है ! मस्जिद के ऊपर लगे माइक से मुअज़्ज़िन द्वारा दी गयी अज़ान की आवाज़ सुनाई देती है “अल्लाह हू अकबर अल्लाह हू अकबर अशहदो अनला इलाह इल्लिलाह अश हदो अन्ना मुहम्मदुर रसूलिल्लाह हैइया लस सला हैइया लल फला हैइया लल फला...!” पास ही गिन्नरों की बस्ती से बाहर निकलकर कई मोमीन, मस्जिद की तरफ़ अपने क़दम बढ़ाते हैं ! रेलवे क्रोसिंग की फाटक के पास गायों का झुण्ड खड़ा है ! इस झुण्ड के पास, लाठी लिए गफ्फार खां घोसी खड़े हैं ! ये इस वक़्त, फिक्रमंद दिखाई दे रहे हैं ! अब रशीद भाई और मामूजान इनके पास आकर, इन्हें सलाम करते हैं ! मगर ये ग़मगीन बाबा, इनको कोई जवाब नहीं देते ! तब मामूजान उनको एक बार और बतलाते हुए, कहते हैं !]
मामूजान – बाबा ! आप ग़मगीन हालत में, कैसे खड़े हैं ? कहिये, ज़नाब !
[गफ्फार खा ना तो ख़ुद बोलते हैं, और न किसी सवाल का जवाब दे रहे हैं ! तब आख़िर परेशान होकर, रशीद भाई हाथ में लगी घड़ी को देखते हैं...फिर, वे कहते हैं !]
रशीद भाई – छोड़ यार मामू, काहे वक़्त बरबाद करता जा रहा है ? नमाज़ का वक़्त हो गया है, अब क्यों देरी करता जा रहा है ? चलना है तो, चल ! और अब, जल्दी-जल्दी क़दम बढ़ा !
[तभी अज़ान की आवाज़, वापस सुनाई देती है !]
माइक से मुअज़्ज़िन द्वारा दी गयी अज़ान की आवाज़ सुनाई देती है - “अल्लाह हू अकबर अल्लाह हू अकबर अशहदो अनला इलाह इल्लिलाह अश हदो अन्ना मुहम्मदुर रसूलिल्लाह हैइया लस सला हैइया लल फला हैइया लल फला...!”
[अब गफ्फार खां से, बिना बोले रहा नहीं जाता !]
गफ्फार खां – जाइए, जाइए चले जाइए मोमिनों ! आप लोगों का, इस बेनमाज़ी से क्या काम ? जाकर हासिल कर लीजिये, सवाब...नमाज़ अता करके !
रशीद भाई – क्यों कड़वा बोल रहे हैं, बाबा ? सुख-दुःख में साथ रहना, सभी मोमिनों का फ़र्ज़ है ! अब आप यह कहिये, आप उदास क्यों हैं ?
गफ्फार खां – [ज़ोर से, कहते हैं] – लो सुन लो, मोमिनों ! आपका, इस बेनमाजी से क्या काम ? अब इन सभी मोमिनों के बीच यह ख़बर फैला दो, गफ्फार बहुत दुखी है, उसका खो गया है टोगड़ा ! तीन दिन हो गए हैं, उसे रेवड़ से निकले हुए ! सुनकर, ये मोमीन बहुत ख़ुश होंगे..कि, कमबख्त बेनमाज़ी का टोगड़ा खो गया बहुत अच्छा हुआ ! .
[इतना कहकर, गफ्फार खां वापस फ़िक्र में डूब जाते हैं ! मामूजान उनको दिलासा देते हुए, कहते हैं !]
मामूजान – [दिलासा देते हुए, कहते हैं ] – अल्लाह का फज़ल है, बाबा ! माशाल्लाह..
गफ्फार खां – किसका फज़ल है रे, कमबख्त ? मेरा खो गया, टोगड़ा..और तू कमज़ात बोल रहा है, माशाल्लाह...?
मामूजान – अल्लाह मियां का मेहर है, आप पर ! यह भी सोचिये आप, अगर आप उस टोगड़े साथ होते तो आप भी खो जाते ! अब आप फ़िक्र मत कीजिये, यह टोगड़ा है अल्लाह का बन्दा..
गफ्फार खां – काहे की बकवास कर रहा है, माता के दीने ? मेरा टोगड़ा, कैसे बन गया अल्लाह का बन्दा ? टोगड़ा मेरा, और तू कहता जा रहा है इसे अल्लाह का बन्दा ? अब बता तू, यह कौन है रे तेरा अल्लाह मियां ? कहाँ है, उसका घर ? बता मुझे, न तो यह लाठी है और और यह है तेरा सर ! [लाठी ऊंची करते हैं, फिर ज़मीन पर दो-तीन बार पटककर मामू को धमकाते हैं ]
मामूजान – [मस्जिद की तरफ़ जा रहे मोमिनों की तरफ़, इशारा करते हुए, कहते हैं] – देखिये बाबा, ये सभी मोमीन जा रहे हैं मस्जिद में..यह मस्जिद ही, अल्लाह मियां का घर है ! [काणी आंख को हथेली से ढकते हुए, कहते हैं] मैंने इस आंख से देखा है, उस टोगड़े को मस्जिद में दाख़िल होते ! आप मेरे ऊपर भरोसा कीजिये, और मस्जिद में जाकर देख लीजिएगा..आपका टोगड़ा वहां ज़रूर मिल जाएगा ! एक बार जाकर आप, ज़रूर देख लीजिएगा !
गफ्फार खां – मैं तो कभी गया नहीं, मस्जिद में ! तब मेरा यह टोगड़ा, कैसे चला गया मस्जिद में ? साहबज़ादे, तुझको झूठ बोलते शर्म नहीं आती ?
मामूजान – हुज़ूर, टोगड़े के मस्जिद में जाने की खबर सौ फीसदी सही है ! आप नहीं गए तो इसका मतलब यह नहीं कि, ‘आपका टोगड़ा मस्जिद में नहीं जाएगा, अरे हुज़ूर यह टोगड़ा तो अल्लाह का बन्दा है. ज़नाब ! इस कारण, वह तो ज़रूर जाएगा !’ मैं पूरी गारंटी के साथ कह रहा हूं ज़नाब कि, अब यह टोगड़ा आपके बुलाने से ही आयेगा वापस ! [रशीद भाई से, कहते हैं] अब चल रे, भाणजे ! वजू कर ले, पहले !
[दोनों मामू-भाणजा, वहां से रवाना होते हैं ! फिर रास्ते में, मामूजान रशीद भाई से कहते हैं !]
मामूजान - कैसी रही रे, भाणजे ? क्या करू, यार ? इस ग़फ्फार बा ने, मुझे पूरा परेशान कर रखा था ! कमबख्त जहां भी मिलता, वहां माँगने लग जाता...बकाया दूध का हिसाब ! अब यह नालायक जब जाएगा मस्जिद में और पूछेगा अपने टोगड़े के बारे में, तब इस कमबख्त की इज़्ज़त की भाजी बन जायेगी ! तब मुझे मिलेगा, संतोष !
रशीद भाई – मामू, तू अच्छा नहीं किया ! नमाज़ अता करने के वक़्त, तूने झूठ बोला ! अल्लाह मियां, तूझे कभी माफ़ नहीं करेगा !
[रशीद भाई की बात को हवा में उड़ाते हुए, मामूजान ज़ोर से हंसी के ठहाके लगाते हुए हंसते जाते हैं ! थोड़ी देर बाद, उनके हंसी के ठहाकों की आवाज़ सुनायी देनी बंद हो जाती है ! मंच पर, अंधेरा छा जाता है ! थोड़ी देर बाद, मंच पर रोशनी फ़ैल जाती है ! गफ्फार खां हाथ में लाठी लिए, मस्जिद की तरफ़ क़दम बढ़ाते नज़र आ रहे हैं ! अब, मस्जिद का मंज़र सामने आता है ! आज मस्जिद के इस पाक किये गए होल में, जुम्मे की नमाज़ अता होने वाली है ! इस कारण आज, मस्जिद में मोमिनों की भीड़ बहुत इकट्ठी हो चुकी है ! अब कई मोमीन जानमाज़ बिछा रहे हैं, तो कई मोमीन वजू करके..पाक होकर इधर ही आ रहे हैं ! तभी लाठी की ठुक-ठुक की आवाज़, सुनायी देती है ! अब गफ्फार खां लाठी लिए हुए, होल में दाख़िल होते दिखाई देते हैं ! उनको अन्दर आते देखकर, मोमिनों में ख़लबली मच जाती है ! एक बेनमाजी का, जुम्मे की नमाज़ अता करने के लिए आना....इन मोमिनों के लिए, अचरच की बात है ! अब वहां बैठे मोमिनों के बीच, गफ्फार खां चर्चा का विषय बन जाते हैं !]
एक मोमीन – [चहकता हुआ, कहता है] – सुभानअल्लाह ! आज तो ईद का चाँद, आसमान में उग गया है !
दूसरा मोमीन – ख़ुदा की इनायत है, आज एक बेनमाजी इंसान ख़ुदा की पनाह में आ गया है !
तीसरा मोमीन – [गफ्फार खां को चिढ़ाते हुए, कहता है] – जी हां ! यह तो ख़ुदा का करिश्मा है, आज़ एक बेनमाज़ी बन गया है नमाज़ी !
गफ्फार खां – [झुंझलाते हुए, कहते हैं] – ख़ुदा का करिश्मा कैसे हो गया रे, करमठोक ? मैं यहां आया हूं, अपना टोगड़ा लेने ! जानते हो, तीन दिन हो गए मेरे टोगड़े को खोये...तुम क्या जानते हो, मेरी तकलीफ़ को ?
[इतने में एक बुजुर्ग मोमीन उठकर, उनके पास आते हैं ! आकर उन सभी सभी मोमिनों को, शांत रहने का इशारा करते हैं ! फिर गफ्फार खां के कंधे पर हाथ रखकर, उनसे कहते हैं !]
बुजुर्ग – [गफ्फार खां के कंधे पर हाथ रखकर, कहते हैं] – चलिए, कुछ नहीं ! आपकी मेहरबानी हुई, आप यहां तशरीफ़ लाये ! देर से आये, दुरस्त सही ! अब आप जानमाज़ बिछाकर बैठ जाइए, यहां !
सभी मोमीन – बैठ जाइए, बाबा ! आपको सवाब मिलेगा !
गफ्फार खां – [चमककर, कहते हैं] – मैं क्यों बैठूं, नामाकूलों ? क्या मुझे आप इस पंगत में बैठाकर खाना खिला रहे हैं ?
[इतने में एक कुबदी मोमीन को परिहास करने की सूझी, वह उचककर कहता है !]
कुबदी – [उचककर, कहता है] – ए भुक्कड़ बाबा ! बैठ जा, बैठ जा ! मांग ले दुआ अल्लाह पाक से, दुआ क़ुबूल हो जायेगी !
गफ्फार खा – [चिढ़े हुए, कहते हैं] – क्यों बैठूं, हरामखोर ? मुझे नहीं चाहिए, खैरात ! अभी-तक मेरे बदन में दम-ख़म है, प्यारे मेहनत की खाता हूं..हराम की नहीं ! बस तुम लोग यह बता दो मुझे, तुम और तुम्हारे अल्लाह मियां ने मिलकर कहाँ छुपाया है मेरे टोगड़े को ?
कुबदी – [गुस्से से उबलता हुआ, कहता है] – मूर्खों के सरताज, यह मस्जिद है ! यहां, टोगड़े का क्या काम ?
गफ्फार खां – जैसे तुम लोग आये हो, इस मस्जिद में ! उसी तरह मेरा टोगड़ा भी दाख़िल हुआ है, इस मस्जिद में ! कारण यह है, वह भी तुम्हारी तरह अल्लाह का बन्दा है ! यह बात मुझे मामू ने कही है, उसने देखा है इस टोगड़े को मस्जिद में दाख़िल होते ! [तेज़ आवाज़ में, कहते हैं] तुम सब कान खोलकर सुन लो, चुपचाप लाकर दे दो मुझे मेरा टोगड़ा ! नहीं तो यह लाठी है, और तुम्हारा सर ! समझ गए, या नहीं ? [लाठी को ज़मीन पर पटकते हुए, धमकाते हैं]
दूसरा मोमीन – [उनको चिढ़ाता हुआ, कहता है] – यह मामू है, कौन ? तुम्हारा या उस टोगड़े का मामू ?
तीसरा मोमीन – [हंसता हुआ, कहता है] – इस बूढ़े को कुछ दिखायी नहीं देता, ख़ुदा जाने इसका ऐनक कहाँ खो गया ? मुझे तो ऐसा लगता है, अपना ऐनक गाय को पहनाकर आ गया होगा..यह बूढ़ा ? वह भूखी गाय, उस ऐनक को घास समझकर खा गयी होगी ?
[इस मोमीन की बात सुनते ही, दो-चार शातिर मोमीन गफ्फार खां को चिढ़ाने का लुत्फ़ उठाने के लिए “बूढ़े का ऐनक, बूढ़े का ऐनक” बार-बार बोलते हुए गफ्फार खां को चिढ़ाने लगे !
एक शातिर मोमीन – [चिढ़ाता हुआ, कहता है] – बोलो रे, बोलो ! इस बूढ़े का क्या खाया ?
दूसरे शातिर मोमीन – [एक साथ बोलते हैं, ज़ोर से] – बूढ़े का ऐनक, बूढ़े का ऐनक !
पहला शातिर मोमीन – [डरने का अभिनय करते हुए, कहता है] – ख़ुदा रहम, वह बेचारी गाय ऐनक खाकर अब-तक तो मर गयी होगी ? अब इस बूढ़े को, दोज़ख़ नसीब होगा..इस गुनाह के कारण !
[अब ये सारे मोमीन उसके कथन को सुनकर, ज़ोर से हंस पड़ते हैं ! अब, गफ्फार खां की बर्दाश्त करने की हद ख़त्म हो जाती है ! गुस्से से उबलते हुए, वे लाठी से उन मोमिनों को धमकाते हैं...फिर इन इन मोमिनों को गालियां देते हुए, कहते हैं !]
गफ्फार खां – [गुस्से से उबलते हुए, कहते हैं] – इमाम की औलादों ! टोगड़ा देते हो, या नहीं ? [धमकाते हुए, लाठी को ज़मीन पर बजाते हैं] अरे नामुरादों एक तो मेरा टोगड़ा लाकर दे नहीं रहे हो, ऊपर से मेरी मासूम गाय के क्यों दुश्मन बन रहे हो कमबख्तों ? अब सालों तुमने एक लफ्ज़ मेरी गाय के लिए बोला तो, मां कसम...
कुबदी – अरे जा रे, बूढ़े ! बाहर जाकर ढूंढ ले, तेरे टोगड़े को ! यह कोई गाय-भैंसों का बाड़ा है, जो तू उसे ढूंढ़ने चला आया यहां ?
गफ्फार खां – बाहर जाकर क्यों ढूंढू रे, खोजबलिये ? मामू ने बोला था, टोगड़ा अल्लाह का बन्दा है ! फिर बता तू, अल्लाह के बन्दे जाते कहाँ है ? यहीं आते हैं, अल्लाह के बन्दे ! फिर मामू ने भी यही कहा है, उसने उस टोगड़े को मस्जिद में घुसते देखा है !
[अब मतला गर्म होने लगा, कहीं झगड़ा बढ़ न जाए ? यह सोचकर, वे ही बुजुर्ग वापस गफ्फार खां को समझाने लगे ! और साथ में उन्होंने उस टोगड़े के मिलने की आशा, उनके दिल में जागृत कर डाली !]
बुजुर्ग – [दिलासा देते हुए, कहते हैं] – गफ्फार साहब, आप समझदार इंसान हैं...फिर आप, क्यों इन बच्चों के मुंह लगते हैं ? मैं आपसे अर्ज़ करता हूं, वाकयी आपने सत्य बात ही कही है कि ‘वह टोगड़ा, वाकयी अल्लाह का बन्दा है !’ और इस बात को मैं भी, मानता हूं ! अब आप बुरा नहीं मानते हैं तो मैं एक बात आपको कह सकता हूं ? कहिये, अर्ज़ करूं ?
गफ्फार खां – [नरमाई से, कहते हैं] – जी हां, मैं आपकी बात को बुरा क्यों मानूंगा ? मुझे आप इस मूर्खों के ख़िलकत में एक मात्र समझदार आदमी दिखाई दे रहे हैं ! कहिये, क्या सलाह देना चाहते हैं आप ?
बुजुर्ग – बस अब आपको अल्लाह पाक से मांगना होगा, आपका टोगड़ा ! इसके लिए आपको जानमाज़ बिछाकर यहां इन लोगों के साथ बैठना है, फिर आप भी अल्लाह से अपना टोगड़ा मांग लेना ! बस क़ायदा यही है, नमाज़ अता करके आप अल्लाह से कोई चीज़ मांग सकते हैं ! अल्लाह करीम है, वह सबकी मन्नत पूरी करता है !
गफ्फार खां – मगर, मुझे कहाँ आती है नमाज़ अता करनी ? मेरी पूरी ज़िंदगी ढोर-डंगर के साथ रहते बीती है ! अब आप ही सलाह दे दीजिये, मुझे क्या करना है ?
बुजुर्ग – ज़नाब, बस आप इन लोगों की नक़ल करते जाइए, ये मोमीन जैसे करते है....बस, आप वैसे ही करते रहें ! अल्लाह करीम है, वो ज़रूर आपके टोगड़े के दीदार कराएगा ! मेरे कहने का महफ़ूम यह है कि, आपका खोया हुआ टोगड़ा आपके पास लौट आयेगा !
गफ्फार खां – हुज़ूर देगा कैसे नहीं, अल्लाह मियां को देना पड़ेगा मेरा टोगड़ा ! आख़िर वह मेहनत की कमाई का है ! हुज़ूर आप इतना कहते हैं तो बैठ जाता हूं मैं, इनकी पंगत में ! बैठने में मेरे बाप का क्या जाता है ?
[इतना कहने के बाद गफ्फार खां जानमाज़ बिछाकर, मोमिनों की पंगत में बैठ जाते हैं ! थोड़ी देर बाद, मौलवी साहब तशरीफ़ रखते हैं ! और अब, उनकी बुलंद आवाज़ लाउड स्पीकर पर गूंज़ती है !]
मौलवी – [बुलंद आवाज़ में, कहते है] – अल्लाह पाक के बन्दों ! अब नमाज़ की रस्म अता की जा रही है, मेहरबानी करके जल्दी आ जाइए..वजू करके ! और फिर बैठ जाइए, जानमाज़ पर !
[थोड़ी देर बाद सभी सभी मोमीन वजू करके, आ जाते हैं और आकर जानमाज़ पर बैठ गए हैं ! गफ्फार साहब ठहरे भोले जीव, उनकी पूरी ज़िंदगी ढोर-डंगर चराने में बीत गयी है..वे क्या जाने, नमाज़ की रस्म कैसे अता की जाती है ? बस, वे दूसरे मोमिनों को देखते हुए, उनकी नक़ल करते जा रहे हैं ! कहा जाता है, नक़ल में भी अक्ल की ज़रूरत होती है ! मगर वो अक्ल, गफ्फार साहब के पास है कहाँ ? फिर क्या ? शामत आ जाती है, उनके आस-पास बैठे मोमिनों की ? कभी आस-पास बैठने वाले मोमिनों को अपने ऊपर, उनके कसरती बाहों का वार झेलना पड़ता हैं तो कभी....आगे बैठने वाला मोमीन जैसे ही नीचे झुकता है, उसी वक़्त उसके पिछवाड़े पर उनका सर आकर टकराता है ! इस झटके को वो बेचारा कैसे झेल पाता ? और वह आकर गिरता है, अपने आगे बैठे मोमीन के पिछवाड़े पर ! इस तरह उसके आगे वाला मोमीन अपने आगे वाले मोमीन पर गिरता है..इस तरह एक दूसरे पर गिरते रहने से, मोमिनों के बीच बैचेनी छा जाती है ! वे सभी गफ्फार साहब को गुस्से से देखते हैं, मगर मौलवी साहब की दी गयी हिदायत को याद कर, वे गफ्फार साहब को कुछ नहीं कहते ! तभी ख़ुदा से दुआ क़ुबूल करवाने के लिए सभी मोमीन हाथ ऊपर करते हैं, मगर वहां इतना पर्याप्त जगह नहीं कि, गफ्फार साहब अपने कसरती हाथों को पूरा फैला सके ? फिर क्या ? हाथ ऊपर करके, वे दुआ कैसे क़ुबूल करवा पाते....? वे ज़नाब अपने दोनों हाथों से, सामने वाले मोमीन के रुखसारों पर थप्पड़ जमाते नज़र आते हैं ! थप्पड़ खाने वाला मोमीन बेचारा गुस्सा पीकर, मौलवी साहब की हिदायत के अनुसार ख़ामोश रहता है ! कहा जाय, इसमें बेचारे गफ्फार साहब की क्या ग़लती ? वे बेचारे बुजुर्ग के बताये रास्ते के अनुसार दूसरे मोमिनों की नक़ल करते जा रहे हैं ! उधर इन मोमिनों के क्रिया-कलाप देख रहे मौलवी साहब का सर चकराने लगा ! इस वक़्त मौलवी साहब के दिल में क्या गुज़र रही है ? वो मौलवी साहब ही जाने, या उनका ख़ुदा ! वे एक बारगी गुस्से से इन मोमिनों की हलचल देखते जा रहे हैं, इसके अलावा वे बेचारे क्या कर सकते हैं ? कारण यह रहा, नमाज़ की रस्म अता होने के दौरान सारा ध्यान नमाज़ की ओर लगाना होता है! अन्यथा, अल्लाह पाक उनकी नमाज़ कुबूल नहीं करता ! आख़िर, किसी तरह नमाज़ की रस्म पूरी होती है ! अब सभी मोमीन दोनों हाथ आँखों पर लगाकर, समवेत स्वर में ज़ोर से बोलते हैं “आमीन !”]
सभी मोमीन – [एक सुर में, ज़ोर से कहते हैं] - “आमीಽಽन !”
[यह ‘आमीन’ शब्द गफ्फार साहब को साफ़-साफ़ सुनायी नहीं देता, वे इसकी जगह इसे ‘जामीन’ शब्द सुन लेते हैं ! यह शब्द ‘जामीन’, उनके दिमाग़ में खलबली मचा डालता है ! उनके दिल में यह विचार कौंध जाता है कि, ‘ये अल्लाह के कैसे मुरीद यहां इकट्ठे हो गए, जो बीच में गले पड़कर करने लगे हैं परायी पंचायती ? अरे ज़नाब यह टोगड़ा है मेरा, और ये नामुराद मेरे जैसे ईमानदार आदमी से मांग रहे हैं जामिन !’ यह सोचते जा रहे गफ्फार खां, के दिल में ऐसी टीस पैदा हो जाती है..वे इसे बर्दाश्त नहीं कर पाते ! फिर क्या ? गुस्से से उबलते हुए, उन मोमिनों को चिल्ला-चिल्लाकर कहने लगे !]
गफ्फार खां – [गुस्से से उबलते हुए, कहते हैं] – टोगड़ा मेरा, मेरी ख़री कमाई का ! उसे देना तो गया, दूर ! ऊपर से आप लोग मेरे जैसे ईमानदार आदमी से मांग रहे हैं, जामीन ? पहले कह देते कि, हमारी नीयत ख़राब है ! वाह रे वाह, अल्लाह मियां ! तेरे मोमिनों ने, मुफ़्त में मुझसे नमाज़ अता करवा डाली ? अबे ओ मर्दूदों, लाकर दे दो मुझे मेरा टोगड़ा...नहीं तो मैं यहीं बैठा हूं, धरना दिए हुए !
[इतना सुनने के बाद इन मोमिनों की सहन करने की शक्ति ख़त्म हो जाती है, अब सभी मोमीन चिल्लाते हुए गफ्फार खां को ताने देने लगते हैं !]
एक मोमीन – [चिल्लाता हुआ, कहता है] – हाय ख़ुदा ! यह बूढ़ा तो कमबख्त, काफ़िर निकला ? अरे देख क्या रहे हो, मोमिनों ? इसे पकड़कर, निकालो बाहर !
दूसरा मोमीन – [चीखता हुआ, कहता है] – पकड़िये इसके बाल, और खींचकर ले जाओ..इसे बाहर !
तीसरा मोमीन - [गुस्से से उबलता हुआ, कहता है] – कहाँ से आ गया, यह कमबख्त ? साले को सलीका नहीं आता, नमाज़ कैसे अता की जाती है ? कभी लोगों को थप्पड़ जमाता है तो कभी उनके पिछवाड़े को धकेल देता है आगे ? क्या यह, नमाज़ अता करने का तरीका है ? ज़िंदगी बिता दी इसने, ढोर-डंगर के साथ रहकर..यह काहे का नमाज़ी ? साला, यह तो काफ़िर निकला !
[अब चारों तरफ़ से, एक ही आवाज़ आ रही है ‘इसको, निकालो बाहर !’ अब यह शांत वातावरण, झगड़े का मैदान बनता जा रहा है ! कहीं, हुड़दंग न मच जाये ? फिर क्या ? अमन और शान्ति क़ायम करने के लिए, वही बुजुर्ग गफार खां के निकट आते हैं ! और समझाते हुए, गफ्फार खां से कहते हैं !]
बुजुर्ग – [गफ्फार खां को समझाते हुए, कहते हैं] – यह क्या कर रहे हैं, गफ्फार साहब ? आप जैसे बुजुर्गों को ऐसा करना शोभा नहीं देता ! आप सोचिये, अल्लाह मियां पर इस तरह गुस्सा करना क्या अच्छा है ? हुज़ूर, यह तहज़ीब के ख़िलाफ़ है ! ये बेचारे सभी मोमीन अल्लाह के बन्दे हैं, और आपका नाम है गफ्फार ! गफ्फार शब्द का अर्थ है, सबकी गलतियों को माफ़ करने वाला इंसान !
गफ्फार खां – आपको क्या पता, इन मर्दूदों ने मेरी कितनी बेइज़्ज़ती की है ? और आप कहते हैं, इनको माफ़ कर दूं ? अब आप इस बात को छोड़िये, यह कहिये कि..आप मुझे टोगड़ा दिलाएंगे, या नहीं ?
बुजुर्ग – मैं आपसे एक सवाल करता हूं कि, आप अपने दीवानखाने में गाय-भैंस बांध सकते हैं या नहीं ?
गफ्फार खां – [तुनककर कहते हैं] – यह कैसे हो सकता है, मालिक ? दीवानखानें में मेहमान बैठते हैं, वहां मैं कैसे गाय-भैंस बांधूगा..वो कोई पशुओं का बाड़ा नहीं है, हुज़ूर ! कोई पागल ही होगा, जो अपने दीवानखाने में अपनी गाय-भैंस बांधता होगा ?
बुजुर्ग – तब गफ्फार साहब, मैं यही बात आपको समझाना चाहता हूं ! आप जहां खड़े हैं, यह स्थान नमाज़ अता करने का है...यानि अल्लाह मियां के मेहमान उनके बन्दे यहां बैठते हैं ! अब आपको कुछ समझ में आया, या नहीं ? अब आपको समझ लेना चाहिये कि, अल्लाह मियां ने इस अपने दीवान खाने में आपके टोगड़े को बांधकर नहीं रखा है !
गफ्फार खां – [नम्रता से कहते हैं] – आप सौ फीसदी बात सत्य कह रहे हैं, मगर मेरा टोगड़ा...?
बुजुर्ग – [उनसे पिंड छुड़ाने की स्टाइल में, कहते हैं] – फिर क्या ? आप यों क्यों नहीं करते हैं, आप थोडा बाहर निकलिए...अल्लाह मियां ने आपकी अरदास मान ली है ! आप जाइए, सड़क पर..वहां आपको टोगड़ा खड़ा मिलेगा ! अल्लाह मियां करीम है, सबका काम करते हैं !
गफ्फार खां – [ख़ुश होकर, कहते हैं] – जैसे मालिक, आपकी मर्ज़ी ! मैं यह निकला बाहर, और...
[गफ्फार खां मस्जिद से बाहर निकलकर, सड़क पर आते हैं ! सड़क पर आते ही वे अपनी नज़र दौड़ाते हैं.. शायद, अल्लाह मियां ने उनकी अरदास मान ली हो ? वास्तव में हो जाता है, अल्लाह का चमत्कार ! उनको अब, सामने से आ रहा उनका नेक दख्तर जमाल मियां दिखाई देता है ! और उसके साथ में, मामूजान के भी दीदार हो जाते हैं ! जमाल मियां के एक हाथ में टोगड़े की रस्सी थामी हुई है, जिनके पीछे वो खोया हुआ टोगड़ा चल रहा है ! जमाल मियां का दूसरा हाथ, मामूजान के कंधे पर रखा है ! मामूजान, कहाँ अपनी आदत से बाज नहीं आने वाले ? वे चलते-चलते, दारु की बोतल से दारु का एक-एक घूँट पीते जा रहे हैं ! अब इस टोगड़े को देखकर, गफ्फार खां की आँखों में चमक आ जाती है ! नज़दीक आते ही मामूजान, चहकते हुए गफ्फार खां से कहते हैं !]
मामूजान – [चहकते हुए, कहते हैं] – लीजिये बाबा, अपनी आँखों से देख लीजिये ! आख़िर अल्लाह पाक ने, आपको आपके टोगड़े से मिलवा दिया...टोगड़ा आ गया है, आपके पास ! अल्लाह मियां करीम है, वो सबकी मन्नत पूरी करता है ! आज देखा, आपने...? नमाज़ अता करने का चमत्कार ! अब तो हुज़ूर, आप रोज़ मस्जिद में आकर नमाज़ अता कर लिया करें ! मैं ठहरा बाद:परस्त, इसलिए आप मेरे हिस्से की नमाज़ भी अता कर लीजियेगा ! समझ गए, हुज़ूर ?
गफ्फार खां – क्या समझूं, प्यारे मियां ? टोगड़े को तो आना ही था, आख़िर वह है मेरी ख़री कमाई का टोगड़ा ! आख़िर प्यारे धंधे का वक़्त, क्यों ख़राब करूं...नमाज़ अता करके ?
मामूजान – हुज़ूर, मैं आपको यह समझाना चाहता हूं कि, “नमाज़ की वो शान है, जो रोक देती है तवाबे काबा को ! तेरे कारोबार की क्या औकात ? कि, जिसके लिए तू नमाज़ छोड़ देता है !”
[गफ्फार खां पर, मामूजान की बात का कोई असर होता दिखाई नहीं देता ! गफ्फार खां को बड़ी मुश्किल से हाथ आया है, यह उनका टोगड़ा ! वे झट टोगड़े की रस्सी को थाम लेते हैं, फिर उसे अपने हाथ से सहलाते हैं ! इसके बाद वे मामू को देते हैं, करारा ज़वाब !]
गफ्फार खां – नहीं रे, मामू प्यारे ! यहां किसके पास पड़ा है, इतना वक़्त...जो रोज़ जाकर मस्जिद में नमाज़ अता करे ? यह बात ज़रूर है, अब कभी यह टोगड़ा खो जाएगा तो मैं ज़रूर मस्जिद जाकर टोगड़ा भी लेता आऊंगा और नमाज़ भी अता कर लूंगा ! आज़ के ज़माने में, कौन मुफ़्त में नमाज़ अता करता है ? [जमाल मियां से, कहते हैं] अब चल रे, जमाल्या ! चल, भैंसियों को चारा-पानी दे दें !
[मंच पर, अंधेरा छा जाता है !]
[३]
[मंच पर, रोशनी फ़ैल जाती है ! माणक चौक का मंज़र दिखाई देता है ! कई तांगे वाले अपना तांगा रमज़ान मियां के गोदाम के सामने खड़ा करके, उनकी दुकान पर घोड़ों के लिए गुड़ खरीदने के लिए आ गए हैं ! उनके पीछे-पीछे गफ्फार खां भी, अपनी गाय-भैंसों के लिए गुड़ खरीदने के लिए रमज़ान खां की दुकान पर आ गए हैं ! इस वक़्त मुनीमजी को बही लिखनी नहीं है, इसलिए वे दुकान की पेढ़ी पर बैठकर ग्राहकों को गुड़ बेच रहे हैं ! अपनी बारी आते ही, गफ्फार खां मुनीमजी से कहते हैं !]
गफ्फार खां – भाई, गाय-भैंसों के लिए बढ़िया गुड़ दिखलाना !
मुनीमजी – [थोडा गुड़ हथेली में लेकर गफ्फार खां को थमाकर, कहते हैं] – बा’सा ! अभी बहुत अच्छा गुड़ आया है, आप इस गुड़ को पसंद करके ले लीजियेगा !
गफ्फार खां – यह नया गुड़ मुझे नहीं चाहिए, पुराना गुड़ दिखला दीजिएगा ! इस गुड़ को, आप वापस रख लीजिएगा, यह मुझे नहीं लेना ! [हथेली में रखा गुड़, मुनीमजी को थमा देते हैं]
मुनीमजी – ले लीजिये, बाबा ! इस गुड़ की किस्म, बहुत अच्छी है ! इस इलाके के सभी तांगे वाले, इस किस्म के गुड़ को ही ले जाते हैं ! हुज़ूर क्या कहूं, आपसे ? इस गुड़ को खाकर इनके घोड़े पोलो ग्राउंड में दौड़ने वाले घोड़ों की तरह तेज़ दौड़ते हैं !
गफ्फार खां – [गुस्से से उफ़नते हुए, कहते हैं] – अरे मर्दूद, क्या मैं अपनी गाय-भैंसों को पोलोग्राउण्ड में दौड़ाऊँगा क्या ? ज्यादा बकवास कर मत, और दे दे मुझे पुराना गुड़ !
मुनीमजी – [रुंआसे बनकर, रोनी आवाज़ में कहते हैं] – यही गुड़ ले लीजिएगा बाबा, दिलावर सेठ का हुक्म है ! अभी, पुराना गुड़ नहीं बेचना है !
गफ्फार खां – [गुस्से में वे तल्ख़ आवाज़ में, उन्हें कहते हैं] – अरे, ए हितंगिये ! क्या तू दिलावर सेठ के यहां नौकरी करता है, या फिर रमज़ान मियां के पास ? क्या रे, मुनीम..तू तांगे वाले के यहां कब से नौकरी करने लग गया ? या फिर तू आ गया यहां, भंग पीकर ? [अल्लाह को सुनाते हुए, दोनों हाथ ऊपर ले जाते हुए कहते हैं] या अल्लाह ! यह तेरा बन्दा मुनीम, काहे पागलपन की हरक़तें करता जा रहा है ?
दुकान का नौकर – [तराजू पर गुड़ रखता हुआ, कहता है] – ले लीजिये, बाबा ! क्यों करते जा रहे हैं, आप वक्ती-इख्तिलाफ़ ? कहीं दिलावर सेठ ने सुन लिया तो याद रखना, यह सेठ आपको भी बरातों में नचवा देगा ! [लबों पर मुस्कान लाकर, मुनीमजी से कहता है] क्या मुनीजी, सही बात कही ना ?
मुनीमजी – [हाथ जोड़कर, गफ्फार खां से कहते हैं] – बा’सा ! माफ़ कीजिएगा, आप कुछ दिन बाद दुकान पर आ जाना ! [पास खड़े तांगे वाले पर, नज़र गढ़ाकर कहते हैं] हुज़ूर, आपको पता नहीं..यहां खड़े हैं उनके मुख्बिर ! और आप करते जा रहे हैं, बेफालतू की बकवास ? आपका जाएगा कुछ नहीं, आपके पांव लटके हैं कब्र में ! मगर, मुझे पुराना गुड़ बेचकर जाना नहीं है क़ब्रिस्तान !
गफ्फार खां – [झुंझलाते हुए, कहते हैं] – तू पड़ा रह, यहां ! मगर अब तू यह बात तेरे दिमाग़ में बैठा देना कि, अभी मैं मरने वाला नहीं हूं ! सौ साल पूरे करूंगा, इस ज़िंदगी के..अब समझा ? आख़िर है तू, किस खेत की मूली ?
[फिर क्या ? गफ्फार खां मुनीम की सात पुश्तों को मुग़ल्लज़ात बकते हुए, रूख्सत हो जाते हैं ! रास्ते में चलते-चलते उनको ऐसा लगने लगा कि, किसी ने उनके कंधे पर हाथ रखा है ! ज़नाब गफ्फार खां ने समझा कि, कोई उनके कंधे पर रखे अंगोछे को चुरा रहा है ? फिर क्या ? वे पीछे घूमकर क्यों देखेंगे, ‘किस महानुभव ने, उनके कंधे पर हाथ रखा है ?’ वे तो बिना देखे ही, पीछे घूम जाते हैं और ज़ोर से एक घुद्दा देकर अपने कंधे को छुड़ा लेते हैं ! गफ्फार खां के कसरती हाथ का झटका लगने से, पीछे खड़े मामूजान का हाथ कंधे से छूट जाता है ! बेचारे मामू उस ज़ोर के झटके को संभाल नहीं पाते, और जाकर गिरते हैं पास चल रही मोहतरमा के ऊपर ! मगर यह मोहतरमा हसीन होने के साथ, बहादुर भी ठहरी ! वह अपने दोनों हाथों से, गिरते मामूजान को संभाल लेती है ! उनको बचाते वक़्त, उस मोहतरमा के बुर्के की जाली दूर हो जाती है ! और उसके ख़ूबसूरत चेहरे के दीदार हो जाते हैं, मामूजान को ! फिर क्या ? वे अपनी सुध-बुध खोकर, वे उसे अपलक देखते रह जाते हैं ! उस मोहतरमा के दिल में घंटियाँ बजने लगती है, और वह भी उनको अपलक देखती जाती है ! तभी गफ्फार खां की कड़कती आवाज़ मामू के कानों में सुनायी देती है, उस आवाज़ के कारण मामू का ध्यान भंग हो जाता है...और वे चेतन होकर, मोहतरमा के चुंगुल से निकलकर खड़े हो जाते हैं ! फिर, वे सामने क्या देखते हैं...? सामने गफ्फार खां, लाठी लिए खड़े है ! इतने में वो ख़ूबसूरत मोहतरमा, गायब हो जाती है ! अब मामू सोचते जा रहे हैं कि, ‘वह ख़ूबसूरत मोहतरमा कहाँ से आयी, और अब वह कहाँ चली गयी ?’ मामू को ऐसा लगता है, मानो उन्होंने अभी-अभी किसी ख़ूबसूरत मोहतरमा को सपना में देखा होगा..? जिसमें वो ख़ूबसूरत मोहतरमा, उनको अपनी बांहों में थामे खड़ी थी ?]
गफ्फार खां – अरे कमज़ात, दिलावर की बेटी से नैन मटका कर रहा था ? बछिया के ताऊ ! अगर यह दिलावर यहां आ गया तो, तेरी हड्डी-पसली तोड़ देगा ! अब बोल, गधेड़ा यहां क्यों आया ? कहीं तू मेरे गमछे को चुराने आया क्या, बोल किस कारण मेरे कंधे पर हाथ रखा ?
मामूजान – [मुस्कराकर, कहते हैं] – हुज़ूर अभी आपने क्या फरमाया, बछिया का ताऊ ? आली ज़नाब, आप मेरे ताऊ हैं...फिर मैं बछिया का ताऊ कैसे बन सकता हूं ? बछिया का क्या पता, जब मन में आये तब टोगड़े की तरह खो सकती है..फिर आप चले आयेंगे अल्लाह मियां के घर ! और उसे लेकर, चले आयेंगे ! मगर मुझे तो, सीधी-सादी अल्लाह मियां की गाय बनना ही अच्छा लगता है !
गफ्फार खां – तू अल्लाह मियां की गाय है ना, तब तू यहां बाज़ार में काहे घूमने आयी है ? ले चल तूझे रस्सी से बांधकर, मेरे गाय-भैंसों के तबेले में बैठाकर आता हूं ! अब मैं तूझे बांधकर, उसी तबेले में ही रखूंगा ! तब तेरे अल्लाह मियां को अक्ल आयेगी कि, ‘बिना किसी कारण, किसी भले आदमी के टोगड़े को रखना कितना बड़ा गुनाह है !’ मियां, यह बच्चों का खेल नहीं है !
[मामूजान कहीं उड़नछू न हो जाए, यह जानकर गफफार खां एक हाथ से मामू की गरदन पकड़ते हैं और दूसरे हाथ से उनके सर पर हाथ फेरते हुए उनसे कहते हैं!]
गफ्फार खां – [मामू के सर पर हाथ फेरते हुए, कहते हैं] – मुच मुच..आಽಽ जा, आಽಽ जा मेरी गौ..गौ ! चल ए मेरी लाडकी गौ, तूझे ताज़ी-ताज़ी घास चराऊं...गुड़-बाटा खिलाऊं मेरे गौ ! चल अपने तबेले में, यहां बाज़ार में इधर-उधर मुंह काहे मार रही है ? तुझको तो, बांधकर ही रखना होगा ! तब ही तू, टैमो-टैम दूध देती रहेगी !
मामूजान – [ज़ोर से, कहते हैं] - बाबा, छोडिये ना ..! गरदन में दर्द उठ रहा है, आप यह क्या कर रहे हैं ? मैं मामू प्यारे हूं, आपकी गाय नहीं हूं....न मैं, अल्लाह मियां की गाय हूं ! [होंठों में ही कहते है] यह कमबख्त बाबा तो, गज़ब का उज्जड़ निकला ? कमबख्त मुहावरे का अर्थ नहीं समझता, अल्लाह मियां की गाय सीधे सादे आदमी को कहा जाता है ?
[मामू के इस तरह दर्द के मारे चिल्लाने से गफ्फार खां गौर से उसका चेहरा देखते हैं, फिर सहसा बोल उठते हैं !]
गफ्फार खां – [मामू का चेहरा देखकर, कहते हैं] – अरेಽಽ तू तो निकला, मामू प्यारे ! जिसके पास देने को कुछ नहीं ! तुझसे कैसे निकालूँगा दूध ? तू तो वही है, साले ! जो तीन माह से दूध के पैसे दे नहीं रहा है ?
मामूजान – [हाथ जोड़ते हुए, कहते हैं] – हुज़ूर मैं अभी-तक ज़िंदा हूं, आपके पैसे चुकाने के बाद ही इस दुनिया से जाऊंगा ! [मुद्दा बदलकर, कहते हैं] अरे ज़नाब, मेरी गरदन छोडिये ! और बताइये कि, आप दावत में खाना खाने चल रहे हैं ?
गफ्फार खां – [मामू की गरदन छोड़ते हुए, कहते हैं] – साले ! तेरे फ़ातिहे का खाना खिला रहा है ?
मामूजान – [हंसते-हंसते, कहते हैं] – फातिहा का खाना ? जी हां, ज़रूर खाकर आ जाऊंगा आपके फ़ातिहे का खाना ! कहिये, कब खाना खाने आ जाऊं ?
गफ्फार खां – [पांव से जूत्ती निकालकर, कहते हैं] – अरे चमान, अभी-तक मैं मरा नहीं हूं मर्दूद ! तू अब, मेरे फ़ातिहे का खाना खायेगा ? [सर पर जूत्ती का वार करने के लिए, थोडा आगे बढ़ते हैं] ले खा ले, मेरे फ़ातिहे का खाना..अभी खिला देता हूं ! आज तो कमबख्त तुझे जूत्ती से पीट-पीटकर, तेरे सर को तरबूज नहीं बना दिया तो मेरा नाम गफ्फार नहीं !
[गफ्फार खां आगे बढ़ते हैं, मामू को जूत्ती से पीटने के लिए ! मगर मामूजान ठहरे, होशियार ! वे कब उनके हाथ से जूत्ती का प्रसाद खाने वाले ? झट उनके हाथ से जूत्ती छीनकर, उन्हें वापस जूत्ती पहना देते हैं ! फिर, हंसते-हंसते कहते हैं...]
मामूजान – [हंसते-हंसते, कहते हैं] – हुज़ूर, मैं आपके फ़ातिहे की बात नहीं कर रहा हूं ! आज नानाजी के दसवे दिन का फातिहा है, चलना है या नहीं ? मालिक आप नाराज़ न हो, आप जीओगे हजारों साल..मेरे जैसे नाती-पोतों के जनाज़े को कंधा देकर..!
[गफ्फार खां कोई जवाब नहीं देते हैं, बस वे मामू का चेहरा टकाटक देखते रहते हैं !]
मामूजान – गफ्फार बाबा, आप मेरे ताऊजी होकर फ़िक्र काहे कर रहे हैं ?
गफ्फार खां – [तपाक से, कहते हैं] – फ़िक्र..? अरे ए, इस ख़िलकत के अक्लेकुल ! कान की ठेठी बाहर निकालकर, क्या तू अक्लमंद बन गया क्या ? साले, मैं ही मिला तूझे..मूर्ख बनने के लिए ? बड़ा आया लाड साहब, मुझे ही मूर्ख बनाने चला ? तेरे जैसे कई इंसानों को मैं चरा चुका हूं, मर्दूद ! मैं तूझे, बेवकूफ लगता हूं ?
मामूजान – [लबों पर मुस्कान फैलाते हुए, कहते हैं] – हुज़ूर, आप जैसे आली ज़नाब ख़ुदा के घर से ऐसे ही बनकर आये हैं इस ख़िलकत में ! अब आपको, बनाने की क्या ज़रूरत ? [गफ्फार खां को क्रोधित होते देखकर, मामू मुस्कराकर कहते हैं] क्या कहूं जनाब, आपको ? वाह, बाबा वाह ! क्या नूरी चेहरा दिखाई दे रहा है, आपका ? [कुछ सोचकर, आगे कहते हैं] अब आगे क्या कहूं, आपको ? रास्ते में ताईजी से मुलाक़ात हुई, उन्होंने कहा ‘प्यारे मियां, ज़रा अपने ताऊजी से कह देना कि,..
[गफ्फार खां भले घर के बाहर अपनी बहादुरी दिखाते हैं, मगर घर के अन्दर बीबी के सामने वे मिमियाकर रह जाते हैं ! अब वे मामू की ज़बान से, अपनी बीबी का सन्देश सुनने के लिए बेताब हो जाते हैं ! अब वे डरते हुए, तपाक से बोल उठते हैं !]
गफ्फार खां – [डरते हुए, कहते हैं] – क्या कह रहा है, मूर्ख ? कहाँ मिली बहू बेगम, बता जल्द ? क्या कहा, तेरे ताईजी ने ?
मामूजान – [मुस्कराते हुए, कहते हैं] – ताईजी, कैसे कहती ? उनके साथ-साथ, आपाजान चल रही थी ! आपाजान ने कहा कि,...
गफ्फार खां – [मामू की हथेली दबाते हुए, कहते हैं] – मामू प्यारे ! बता दे प्यारे, आख़िर उन्होंने क्या कहा ?
मामूजान – [अपनी हथेली छुड़ाकर, आगे कहते हैं] – लीजिये, चप्पू को मारो गोली ! जाले को छोड़ो, मैं तो सीधी मकड़ी को ही दे मारता हूं ! सुनिए, कान खोलकर ! आपाजान ने कहा कि, ‘आज शाम का खाना, आपके घर नहीं बनेगा ! बम्बा मोहल्ले में क़ाज़ी साहब की बहू बेगम का इंतिकाल हो गया है ! इसलिए खाना आप ख़ुद बनाकर खा लेना, या फिर कहीं जाकर...
गफ्फार खां – क्यों भाई, खाना क्यों नहीं बनेगा ?
मामूजान – आपाजान ने कहा है कि, ‘मैं आयशा को साथ ले जा रही हूं, मय्यत में !’ [उनका मुंह ताकते हुए, आगे कहते हैं] आपको रंज तो ज़रूर होगा, मगर हम
क्या कर सकते हैं ?
गफ्फार खां – [सर पकड़कर, दुःख से कहते हैं] – ए मेरे परवरदीगार, तूने आज़ यह क्या कर डाला ?
मामूजान – [उनको तसल्ली देते हुए, कहते हैं] – अपना वश नहीं चलता है, बाबा ! यह मरना और जीना, सब ख़ुदा के हाथ में है ! खाली हाथ आये हैं, और खाली हाथ चले जायेंगे !
गफ्फार खां – अरे, गधे की औलाद ! मैं इस क़ाज़ी की बेगम के मरने का ग़म, ज़ाहिर नहीं कर रहा हूं ! [पेट पकड़कर, कहते हैं] यह पेट का मसला है है, प्यारे !
मामूजान – [मुस्कराते हुए, कहते हैं] – पेट में दर्द हो गया है तो, ज़नाब हकीम साहब के दवाखाने चलें ?
गफ्फार खां – [पेट से हाथ हटाकर, कहते हैं] – पेट में दर्द हो, मेरे दुश्मनों को ! साला फाज़िर, तू काहे की बकवास करता जा रहा है ? [सुर बदलते हुए, कहते हैं] मैं तो यह सोच रहा था, मामू प्यारे ! कि, तू बड़े प्रेम से मुझे फ़ातिहे की दावत में ले जा रहा है...तो फिर, मैं क्यों न शरीक हो जाऊं ? बोल, ठीक है या नहीं ?
मामूजान – आली ज़नाब, यह फ़ातिहे की दावत है, वहां पहुंचते ही आपके सामने थाली रखी नहीं जायेगी ! पहले आपको मौलावी साहब की तकरीरें सुननी होगी !
गफ्फार खां – [मामू की खुशामद करते हुए, कहते हैं] – अरे, मामू प्यारे ! सब ठीक है, सुन लूंगा, जो कहेंगे सब सुन लूंगा ! तू तो मुझे यह बता कि, खाना खाने कब चलना है वहां ?
[मामूजान उनके कान में फुसफुसाते, दिखाई देते हैं ! मंच पर, अंधेरा फ़ैल जाता है !]
[४]
[मंच पर, रोशनी फ़ैल जाती है ! मामूजान के ननिहाल की हवेली का मंज़र सामने आता है ! सूरज ढलता जा रहा है, अभी आसमान में लालिमा छायी हुई है ! संध्या का वक़्त हो गया है ! हवेली के अन्दर लोगों की चहल-पहल की आवाज़ें, दुरुद की रस्म के कारण बढ़ती जा रही है ! हवेली के अन्दर एक बड़ा होल है, जहां लोगों के बैठने के लिए जाजमें बिछी हुई है ! यहां मामूजान के सभी रिश्तेदार शान्ति से बैठे हैं, अब इन बैठे रिश्तेदारों में एक वही बुजुर्ग हैं जो नमाज़ के दौरान मस्जिद में गफ्फार खां से मिले थे ! वे अब खड़े होकर सीधे, यतीम खाने से आये हुए बच्चों के पास चले आते हैं ! उन्हें एक तरफ़ ले जाकर, बैठाते हैं ! बच्चे बैठ जाते हैं, फिर बुजुर्ग का इशारा पाकर वे मिलाद पढ़नी शुरू करते हैं ! अब मामू और गफ्फार खां, हवेली के अन्दर दाख़िल होते हैं ! दाख़िल होते ही, उनको पकवानों की सुगंध आती है जो उनकी भूख को बढ़ा देती है ! अब गफ्फार खां अपना पेट पकड़ते हुए, मामूजान से कहते हैं !]
गफ्फार खां – [पेट पकड़कर, कहते हैं] – मामू प्यारे ! अब यह कुल का छांटा कब होगा ? अब भूख बर्दाश्त नहीं होती ! अरे, कब आयेगा रे गुलाब जल ?
मामूजान – हुज़ूर ! ज़रा दुरुद तो पढ़ लेने दीजिये, मौलवी साहब आने वाले ही हैं ! आते ही फातिहा पढ़ लेंगे, इसके बाद..
गफ्फार खां – [पेट दबाते हुए, कहते हैं] – ‘इसके बाद’ कहकर क्यों खेल करवा रहा है ? घूमा दूंगा तुझे, चक्करघन्नी की तरह ! अब, मुझसे यह भूख बर्दाश्त हो नहीं रही है ! तू मुझे यहां खाना खिलाने के लिए लाया है, या लोगों का मुंह दिखलाने ?
मामूजान – बाबा, गुस्से को थूको ! कहीं आपकी तबीयत, नासाज़ न हो जाए ? आपकी तबीयत बिगड़ गयी तो आप, खाना खाने से महरूम न रह जायेंगे ! फिर आप मुझे उलाहना मत देना कि, मैंने खाना नहीं खिलाया !
गफ्फार खां – [गुस्से से उबलते हुए, कहते हैं] – करमज़ले ! तू क्या खिलाएगा ? अब मैं खिलाता हूं तूझे, जूत्तों की दावत ! चल बाहर, या तू कहे तो यहीं खिला दूं...बोल, क्या चाहता है ?
[गफ्फार खां को इस तरह भड़कते देखकर, खड़े बुजुर्ग को ऐसा महशूश होता है, ये बाबा सुबह की तरह यहां भी मेला न करवा दे ? यह विचार उनके दिल में आते ही, वे झट पहुँच जाते हैं गफ्फार खां के पास ! उनको हाथ जोड़कर, निवेदन करते हुए कहते हैं !]
बुजुर्ग – [हाथ जोड़कर, कहते हैं] – गुस्ताख़ी, माफ़ कीजिये ! यह मामू प्यारे ठहरा, नादान ! आपको तो पहले से पता है, यह कमबख्त ठहरा बादपरस्त ! आप ठहरे, समझदार आदमी ! चलिए, मौलवी साहब पधार गये हैं ! अब आप चलकर, जाजम पर बैठिये !
गफ्फार खां – यों कैसे बैठ जाऊं, क्या आप खाना खिला रहे हो ?
बुजुर्ग – सरे-ओ-अदब, आप बैठिये तो सही ! अभी फ़ातिहा पढ़ लिया जाएगा, बाद में हो जाएगा कुल का छांटा...फिर बंटेगी, सिरनी ! बाद में मालिक, आपके सामने लज़ीज़ भोजन हाज़िर है ! बहुत लज़ीज़ खाना तैयार किया है, इस अंधेरी गली में रहने वाले दाऊड़े कंदोई ने !
[इतना सुनते ही, गफ्फार खां के मुंह में पानी आ जाता है ! वे झट उनसे खाने का मीनू पूछ लेते हैं !]
गफ्फार खां – [मुंह में पानी आने पर, कहते हैं] – क्या मीनू है, ज़नाब ? दाल का हलुआ या मुर्गमुस्सलम ?
बुजुर्ग – शाकाहारी खाना बना है ! दाल-बिदाम का हलुआ, पञ्च मावे की चक्की, राजभोग वगैरा सभी पकवान बनाए गए हैं ! आप चलकर, बैठिये !
[आगे-आगे बुजुर्ग और उनके पीछे गफ्फार खां, जाजम पर बैठने के लिए अपने क़दम बढ़ाते हैं ! उनके बैठने के बाद मौलवी साहब आते हैं, लकड़ी के पाट [बड़ा तख़्त] पर बिछाए आसन पर बैठते हैं ! फिर दोनों हाथ ऊपर ले जाते हुए, वे अल्लाह मियां से दुआ माँगते हैं ! फिर, फ़ातिहा पढ़ना शुरु करते हैं !]
मौलवी साहब – [दोनों हाथ ऊपर ले जाते हुए, अल्लाह से अर्ज़ करते हैं] – ए मेरे परवरदीगार ! ज़नाब जलालुद्दीन साहब का इंतिकाल बरोज़ जुम्मा को हो गया, अल्लाहताआला उनकी रूह को जन्नतुल फिरदोश में आला जगह अता फ़रमाएं ! उनकी दसवे की दुरुद आज बरोज़ बुधवार को पूरी हुई ! अल्लाह आप अपने बन्दों को रोज़ी-रोटी, धंधा-रोज़गार में बरक़त देवें ! [दोनों हाथ नीचे लाकर, उन्हें अपनी आँखों से लगाते हैं] मेरे मोला, आमीन ! [इतना कहकर, वापस आसमान की ओर देखते हैं फिर ज़ोर से कहते हैं] आमीनಽಽ !
[अब गफ्फार खां को छोड़कर, सभी मोमीन ज़ोर से कहते हैं]
सभी मोमीन – [एक ही आवाज़ में, एक साथ ज़ोर से कहते हैं] – आमीनಽಽ !
[अब यह ‘आमीन’ शब्द गफ्फार खां को जामीन सुनायी देता है ! बस, फिर क्या ? ज़नाब का दिमाग़ गर्म हो जाता है, उनके दिल में वहम का कीड़ा रेंगने लगता है कि, ‘ये मर्दूद खाना खिलाने के पहले, मुझसे जामीन कैसे मांग रहे हैं ? क्या, यह तहजीब है इन लोगों की ?’ गफ्फार खां झट उठ जाते हैं, और रूख्सत होने के लिए तैयार हो जाते हैं ! उनको जाते देखकर, वही बुजुर्ग उनके पास आते हैं...और उनसे, कहते हैं !]
बुजुर्ग – [गफ्फार खां को रोकते हुए, उनसे कहते हैं] – गफ्फार साहब, आप यों बिना खाना खाए कैसे रूख्सत हो रहे हैं ज़नाब ? खाना खाकर जाइए, ज़नाब !
गफ्फार खां – ऐसा खाना, आप जैसे मुसाहिबों को मुबारक ! आप ही, अरोग लीजियेगा ! ऐसा खाना किस काम का, जहां खाना खाने के पहले शरीफ़ आदमी से जामीन मांगा जाता है ? जो आदमी जामीन पेश करता है, अब आप उसी को खाना खिलाते रहना !
बुजुर्ग – आप क्या कह रहे हैं, गफ्फार साहब ? आपसे किसने मांगा है, जामीन ? आप पूरी बात को समझाकर, कहिये !
[बेचारे बदनसीब गफ्फार खां बिना-खाए-पीये, रूख्सत होते दिखाई देते हैं ! उनके पीछे बेचारे बुजुर्ग उनको आवाज़ देते रह जाते हैं ! वे बेचारे कुछ समझ नहीं पाते, आख़िर गफ्फार खां किस वज़ह से नाराज़ होकर जा रहे हैं ? और वे बराबर एक ही शब्द ‘जामीन’ का क्यों हवाला देते जा रहे थे ? इतने में सूफ़ी गायकों के बोल बुलंद आवाज़ में उठते हैं, ये बोल रूख्सत हो रहे गफ्फार खां के कानों में गिरते हैं !]
सूफ़ी गायक – [गाते हुए, अलाप के साथ सुर उठाते हैं] – ओಽಽ जाने वाले हो सके तो, लौट कर मत आनाಽಽ...
[फिर क्या ? बेचारे गफ्फार खां के चेहरे पर फ़िक्र की रेखाएं स्पष्ट दिखाई देती है ! और वे, मन में सोच लेते हैं ‘अब तो चलना ही, अच्छा है ! इतनी देर तक वे क्यों अपनी इज़्ज़त की भाजी बनवा रहे थे..? अब बची-खुची इज़्ज़त को, क्यों नीलाम होने दें ?’ झट क़दमों को गति देते हैं, और नौ दो ग्यारह हो जाते हैं ! अब मंच पर, अंधेरा छाने लगता है ! थोड़ी देर बाद, मंच रोशन होता है ! रेल गाड़ी का मंज़र सामने आता है, रशीद भाई किस्सा बयान करते हुए नज़र आ रहे हैं ! अब दोनों हाथ ऊपर ले जाते हुए, अंगड़ाई लेते हैं ! फिर, वे कहते हैं !]
रशीद भाई – [अंगड़ाई लेकर, कहते हैं] - इस तरह लोगों के साथ करतूतें करते-करते मामूजान इतने बदनाम हो जाते हैं, लोग इनको शरारती दिमाग़ रखने वाला फाज़िर इंसान समझ लेते हैं ! इधर इन लाड साहब ने एक दूसरी बुरी आदत पाल ली, रोज़ दारु पीने की ! पियक्कड़ों की तरह अगर पूरे दिन इनको दारु नसीब नहीं होती तो, सूरज ढलने के वक़्त वे किसी तरह दारू का इंतज़ाम कर लेते थे ! बस यही कारण रहा, जिसके कारण इनकी शादी नहीं हो रही थी !
सावंतजी – हां यार, बात तो सौ फीसदी सही है, एक तो ज़नाब ठहरे काणे..ऊपर से दारुखोरे अलग...!
ठोक सिंहजी – यह तो कहिये, रशीद भाई ! आख़िर, इनकी शादी तो हुई, या फिर कुंवारे ही मरे ?
रशीद भाई – आख़िर उन्होंने अपना तिकड़मी दिमाग़ काम में लिया, जिससे उनका विवाह दिलावर सेठ की इकलौती बेटी के साथ हो गया ! दिलावर सेठ ठहरे, विलायती शराब के शौकीन ! ऐसे तो वे रोज़ दारु पीते नहीं थे, मगर कभी-कभी ख़ुशी के मौक़े पर विलायती दारु के दो-चार घूंट हलक में उतार लिया करते ! बस, ज़नाब को यह कमज़ोरी हाथ में आते ही वे रोज़ शाम को विलायती दारु लेकर उनके दीवानखाने चले आते ! चित्रा सिनेमाघर की केन्टीन का ठेका आते ही, उन पर पैसों की बरसात होने लगी ! लीजिये, अब यह पूरा किस्सा बयान कर लेता हूं ! आप सभी कान खोलकर, सुन लीजिएगा !
[रशीद भाई किस्सा बयान करते दिखाई देते हैं, रेल गाड़ी तेज़ रफ़्तार से दौड़ती नज़र आ रही है ! अब जैसे-जैसे वे किस्सा आगे बढ़ाते जाते हैं, एक-एक वाकया चित्र बनकर उन सबकी आँखों के आगे छाने लगता है ! मंच पर, अंधेरा छाने लगता ही ! थोड़ी देर बाद, मंच वापस रोशन होता है ! दिलावर सेठ की हवेली का मंज़र सामने आता है ! दिलावर सेठ मनसद पर बैठे हैं ! उनके आस-पास, कई दारु की खाली बोतलें लुढ़की पड़ी है ! मनसद से कुछ दूर, इनके ख़िदमतगार अंगूर मियां हुक्का तैयार कर रहे हैं ! हुक्का तैयार हो जाने के बाद, अंगूर मियां दिलावर सेठ से कहते हैं !]
अंगूर मियां – [हुक्का तैयार करके, कहते हैं] – ज़नाब, हुक्का तैयार है ! आपके पास रख रहा हूं ! अब हकीम साहब के आने का वक़्त हो गया है !
दिलावर सेठ – [दारु के नशे में चहकते हुए, कहते हैं] – क्या..क्या ? मियां, आपने क्या कहा ? कौन साहब, तशरीफ़ ला रहे हैं ? [कुछ सोचते है, अचानक उनकी आँखों में चमक आ जाती है] शायद तशरीफ ला रही होगी, रशीदा जान ? वाह, क्या नाचती है वो...ठुमका लेकर ? माशाल्लाह ! क्या गाती है, मीठे सुर में ?
अंगूर मियां – नाचने वाली रशीदा जान नहीं आ रही है, ज़नाब ! आपको नचाने वाले हकीम साहब, ज़रूर तशरीफ़ ला रहे हैं !
[अब जाम उठाकर, दिलावर सेठ उसे अपने लबों के पास लाते हैं ! मगर उसे खाली पाकर, वापस उसे मनसद पर लुढ़का देते हैं ! फिर ग़मगीन होकर, कहते हैं !]
दिलावर सेठ – [नशे में, कलाम पेश करते हुए कहते हैं] - नशे में भी तेरा नाम लब पर आता है,
चलते हुए मेरे पांव लड़खड़ाते जाते हैं, तूफान सा दिल में उठता है मेरे, हसीन चेहरे पर भी दाग नज़र आता है ! [होंठों में ही, कहते हैं] नशे में मामू तेरा नाम मेरे लब पर आता है, चलते हुए मेरे पांव लड़खड़ा रहे हैं, तूफ़ान सा दिल में उठता है मेरे, कब आ रहा है तू रम की बोतल लेकर !
अंगूर मियां – [तेज़ आवाज़ में, कहते हैं] – हुज़ूर, आ रहे हैं...आप संभल जाइए !
दिलावर सेठ – वाह मियां, क्या मुज़्दा सुनाया ? अब तो मुझे, बाद-ए-तुहूर के दीदार हो जायेंगे ! फिर, जमेगी महफ़िल ! [दरवाज़े पर दस्तक सुनायी देती है, जिसे सुनकर वे कहते हैं] अब बुला दो मेरे प्यारे मामू को, अभी वो ही आया होगा...मेरा लख्ते ज़िगर ?
अंगूर मियां – [ज़ोर से आवाज़ देते हुए, कहते हैं] – हकीम साहब, तशरीफ़ रखिये ! [दिलावर सेठ से कहते हे] मामू नहीं आया है, हकीम साहब ही होंगे ! [अन्दर ही अन्दर, मामू को बुरा-भला कहते हुए] लाहोल विल कूव्वत ! सुबह-सबह, इन्होंने इस कमबख्त बाद:परस्त का नाम मुंह पर लिया ! ख़ुदा रहम, मैं क्यों इस कमज़ात का नाम अपनी ज़बान पर ला रहा हूं ? ख़ुदा मेरी इस गुस्ताख़ी को माफ़ करें, क्यों लाया मैं अपने मुंह पर इस कमज़ात बाद:परस्त का नाम वो भी सुबह-सुबह नमाज़ अता करने के वक़्त ?
बाहर दालान से, क़दमबोसी की आवाज़ सुनाई देती है ! और साथ में, हकीम साहब की आवाज़ सुनायी देती है !]
हकीम साहब – आ गया, बरखुदार ! अब क्यों झल्लाते हो ? चिल्लाना बंद कीजिये, पड़ोसी यहां इकट्ठे न हो जाय, आपकी खैरियत पूछने ? [जिलकन हटाकर, अन्दर तशरीफ़ रखते हैं] आदाब, खैरियत तो है ?
दिलावर सेठ – ख़ाक खैरियत ? जल रहा है, जल रहा है मेरा.. “ग़म इस कदर मिला कि घबरा के पी गये, थोड़ी ख़ुशी सी मिली कि मिला के पी गये, यू तो ना थे हम पीने के आदी, शराब को तन्हा देखा तो तरस खा के पी गये ! अब जल रहा है..जल रहा है....’
हकीम साहब – [बात काटते हुए, कहते हैं] – मुझे कहीं भी, जलने की बदबू नहीं आ रही है ! [नाक से लम्बी सांस लेकर, सूंघने का अभिनय करते हुए कहते हैं] मगर, ज़नाब.....
दिलावर सेठ – [ज़ोर से कराहते हुए, कहते हैं] – आಽಽ आಽಽ..! जल रहा है, मेरा कलेज़ा [नाक़ाबिले बर्दाश्त दर्द होने से, वे चीत्कारते हैं] आಽಽ आಽಽ..! ख़ुदा रहम ! पीर दूल्हे शाह आकर मुझे बचाओ, मेरे मोला ! बर्दाश्त नहीं होता..अरे कोई मामू को बुला दो, हलक में उतर गयी दारु..तो यह दर्द स्वत: गायब हो जाएगा ! [पेट पर हाथ रखते हुए, चिल्लाते हैं] अरे मर गया रे..कोई पिला दे रे, दो घूंट बाद-ए-तुहूर के !
हकीम साहब – [रीश को हाथ से सहलाते हुए, कहते हैं] – बस, अब मैं समझ गया ! आख़िर, मेरी दी हुई दवा क्यों नहीं काम कर रही है ? [मनसद पर बिखरी हुई खाली बोतलों को देखते हुए, कहते हैं] अब समझा, यह मर्ज़ है बीमारी का ! लगता है, इनका मरने का इरादा हो गया है ! अभी-तक, चालू है ?
दिलावर सेठ – [दर्द से कराहते हुए, कहते है] – आಽಽ आಽಽ आಽಽ..! अल्लाह के नेक बन्दे, ऐसे क्यों बक रहे हैं आप ? चालू...? और वो भी, मैं ? अरे मेरे एहबाब मुझे इतना ज़लील न करो, लोग मुझे...
हकीम साहब – [उनके पास बैठकर, कहते हैं] – नाराज़ मत होइये, ज़नाब ! आप चालू माल कैसे हो सकते हैं ? मैंने, चालू नहीं कहा है आपको ! मगर, मैंने यह कहा ‘मैखाने से लायी ये बेरहम बोतलें...फिर, हो गई चालू ? मेरा सवाल यह है, ज़नाब ! [बैग से दवाई की बोतल निकालते हुए, अंगूर मियां से कहते हैं] अंगूर मियां, दिन में इस दवाई के केवल तीन घूंट ही पाने हैं, सुबह, दोपहर और शाम ! समझ गए, अंगूर मियां ? पीते ही, इनका दर्द छूमंतर हो जाएगा ! इनका, विशेष ध्यान रखना !
अंगूर मियां – [दवाई की बोतल, हाथ में लेते हुए कहते हैं] – गोया, इनका क्या ध्यान रखा जाय ? हकीम साहब,अब तो अल्लाह मियां ख्याल रखेगा इनका !
हकीम साहब – अल्लाह मियां का नाम लेकर, अपनी जिम्मेवारी से बचने की कोशिश मत कीजिये ! आख़िर आपको ख़िदमतगार रखा, किसलिए ? [अंगुली के इशारे से, मनसद पर बिखरी बोतलों को दिखलाते हुए] मियां, ये दारु की ख़ाली बोतलें क्या बयान कर रही है ?
अंगूर मियां – [रोनी आवाज़ में, कहते हैं] – क्या कहूं, आपको ? आप मेरे ऊपर भरोसा करेंगे नहीं ! और कहेंगे कि. मैं ठहरा इब्नुलवक्ती ! [हकीम साहब से आंखें मिलाते हुए, बोलते जा रहे हैं] अनाब, क्या आप यही कहना चाहंगे ?
हकीम साहब – क्या कह रहे हैं, मियां ? मैंने कब कहा आपको, इब्नुलवक्ती ? आज़कल आपकी नातिका, बहुत चलने लगी है ?
अंगूर मियां – कुछ और, कह दीजिये ज़नाब ! अब आपको, अपने दिल में मेरे प्रति ग़लतफ़हमियां रखनी अच्छी बात नहीं है !
हकीम साहब – क्या कह रहे हैं, मियां ? आप सारी तहज़ीब-वहज़ीब भूल गए, क्या ?
अंगूर मियां – [परेशान होकर, कहते हैं] – कैसे निभाऊं, इस तहज़ीब को ? कह दीजिये, ‘मैं तो ठहरा एक साकी, कहते हैं – पथिक बना मैं घूम रहा हूँ, सभी जगह मिलती हाला, सभी जगह मिल जाता साकी, सभी जगह मिलता प्याला, मुझे ठहरने का, हे मित्रों, कष्ट नहीं कुछ भी होता, मिले न मंदिर, मिले न मस्जिद, मिल जाती है मधुशाला।
[बेचारे हकीम साहब, क्या कहते ? अब, अंगूर मियां कब चुप रहने वाले ? वे तो, कहते ही जा रहे हैं !]
अंगूर मिया – सुन लीजिये, मेरा काम है ज़नाब की ख़िदमत करना ! यह ख़िदमत करता-करता, मैंने ही यह दारु इनको पिलाकर...ख़ाली बोतलें यहां बिखेरकर रखी है ! ताकि, आप इन खाली बोतलों को देख सकें ! ज़नाब, आप और कुछ कह सकते हैं कि, मेरे अन्दर न तो है कूव्वत और न है सलाहियत !
हकीम साहब –तौबा...तौबा ! मियां, आप आगे कुछ बोले तो ?
[दिलावर सेठ का पेट-दर्द बढ़ता ही जा रहा है, और इधर ये दोनों ये दोनों इनके एहबाब बिना सोचे-समझे बेफालतू की बकवास करते ही जा रहे हैं..रुकने का कोई नाम नहीं ! आख़िर इनकी बकवास नाक़ाबिले बर्दाश्त होने पर, दिलावर सेठ दोनों को फटकारते हुए कहते हैं !]
दिलावर सेठ – [फटकारते हुए, कहते हैं] – ख़ामोश ! तकलिया...मरीज़ की ख़िदमत करने चले हो, या उसका मर्ज़ बढ़ाने ? “अब नहीं कोई बात ख़तरे की, अब सभी को सभी से ख़तरा है” अब केवल सहारा है, इस बाद-ए-तुहूर के खाली दो घूंट का ? [मनसद से खाली बोतल उठाकर, उसे निहारते हुए कहते हैं] हाय रे, अब कहाँ है दो घूंट दारु ? यह बोतल तो मुझे, पूरी खाली ही लगती है ! हाय अल्लाह, अब मैं क्या करूं ? अब मेरी मौत, मुझे बुलाने आ रही है ! अब मुझे, सौ फ़ीसदी मरना है !
[दिलावर सेठ दर्द से, कराहते हैं ! कराहते हुए उनके मुंह से, एक मारवाड़ी शेर निकल जाता है !]
दिलावर सेठ – आ..हाಽಽ..! [शेर पेश करते हुए, कहते हैं] “जद मैं मरुंला, क एक लूंठो ज़श्न मनाईजेला ! क, कांई मैं सांच्या ई मरग्यो..? क और कोई, तंग करण रो चालो है ?” जो कोई भी रिश्तेदार है मेरा..उसे मेरी नहीं, मेरी दौलत...[दर्द के मारे, कराहते हैं] आಽಽ..अ....
[कहते-कहते, दिलावर सेठ सिसकते जाते हैं ! उनका यह हाल देखकर, अंगूर मियां के दिल में टीस उठती जाती है ! फिर क्या ? वे नर्म होते हुए, कहते हैं !]
अंगूर मियां – [नर्म होते हुए, कहते हैं] – मेरी गुस्ताख़ी माफ़ कीजिएगा, हकीम साहब ! आप तो ठहरे, बड़े नेकबख्त ! [मनसद पर बिखरी खाली बोतले हटाते हुए, कहते हैं] अरे हुज़ूर, हमने नसीबे दुश्मना जान ज़ोखिम पाल ली है ! छ: महीने बीत गए हैं, तनख्वाह के दीदार हुए ! इधर यह रमज़ान का महिना भी ख़ाली चला गया, और...
[हकीम साहब ठहरे, धंधे वाले इंसान ! इस तरह यहां बेफालतू की बकवास सुनने बैठ गये तो, घर पर इनकी इंतज़ार में बैठे उन मरीज़ों का क्या होगा ? अब ज्यादा देर की तो, उन मरीज़ों के उलाहने अलग से सुनने पड़ेंगे ? इतना सोचने के बाद, उनके मुख से यह जुमला निकल उठता है !]
हकीम साहब – [बैग उठाते हुए, कहते हैं] – बुरा न मानना, मैं ठहरा दिलावर सेठ का एहबाब ! दारु के नशे के कारण, इस बढ़ते हुए अलील को मैं देख न सका ! इन बोतलों को देखकर, मुझे गुस्सा आ गया था, वो आप पर उतार डाला ! आप जैसे ख़िदमतगार [चुभती बात कह देते हैं] दारु तो लाकर इनको दे सकते हैं, मगर वक़्त पर इनको दवा नहीं पिला सकते !
[उनकी ऐसी उलाहना देती बात सुनकर, अंगूर मियां उनको खारी-खारी नज़रों से देखने लगे ! उनके दिल में यह ख्याल बराबर आ रहा है कि, ‘यह मर्दूद हकीम जानता क्या है, असलियत ? यहां तो हवेली में आने वाला हर खैरख्वाह, मेरे ऊपर चढ़ता नज़र आ रहा हैं ? कभी तो यह निक्कमा मामू प्यारे विदेशी दारू की बोतलें इनको थमाकर चला जा है, इस दीवालिये दिलावर सेठ को ? और इधर, यह दिलावर सेठ..? ख़ाली मामू की बात, आंखें मींचकर मान लेते हैं ! इसमें, मेरी क्या ग़लती ? अब आया यह हकीम, इनका बड़ा एहबाब बनकर ? अल्लाह चाहेगा तो बकरीद के दिन, बकरे के स्थान पर इस हकीम को कर दूंगा कुरबान !’]
हकीम – आदाब, दिलावर साहब ! अब रूख्सत होने की इजाज़त दे दीजिएगा, घर पर कई मरीज़ मेरा इंतज़ार कर रहे होंगे !
[बेचारे दिलावर सेठ तो दर्द के मारे बेहाल है, वे क्या बोल पाते ? अब उनसे इजाज़त लेने की, अब ज़रूरत कहाँ ? हकीम साहब झट बैग उठाकर, जिलकन हटा देते हैं...फिर, वे अपने घर की तरफ़ चल देते हैं ! उनके जाने के बाद, दीवानखाने में शान्ति छाने लगती है ! थोड़ी देर बाद, बाहर से मामूजान की आवाज़ सुनायी देती है ! फिर वे जिलकन हटाकर, दीवानखाने में दाख़िल होते दिखाई देते हैं ! उनके हाथ में रूसी शराब वोदका की बोतल है, जिसे सर रखकर वे झूम-झूमकर गाते हुए दिलावर सेठ के निकट चले आते हैं !]
मामूजान – [सर पर बोतल रखे हुए, झूम-झूमकर गीत गाते हैं] – ना हरम में, ना सुकूँ मिलता है बुतखाने में
चैन मिलता है तो साक़ी तेरे मैखाने में, झूम, झूम, झूम
( झूम बराबर झूम शराबी, झूम बराबर झूम ) -3
काली घटा है, आ आ…, मस्त फ़ज़ा है, आ आ…
काली घटा है मस्त फ़ज़ा है, जाम उठाकर घूम घूम घूम
झूम बराबर …
अंगूर मियां – [झुंझलाते हुए, कहते हैं] – क्या कर रहे हो, मामू प्यारे ? यह दीवान खाना है, मैख़ाना नहीं है ! नाचना बंद करो!
मामूजान – [आगे गाते हैं] - आज अँगूर की बेटी से मुहौब्बत कर ले
शेख साहब की नसीहत से बग़ावत कर ले
इसकी बेटी ने उठा रखी है सर पर दुनिया
ये तो अच्छा हुआ के अँगूर को बेटा ना हुआ
कमसेकम सूरत-ए-साक़ी का नज़ारा कर ले
आके मैख़ाने में जीने का सहारा कर ले
आँख मिलते ही जवानी का मज़ा आयेगा
तुझको अँगूर के पानी का मज़ा आयेगा
हर नज़र अपनी बसद शौक़ गुलाबी कर दे
इतनी पीले के ज़माने को शराबी कर दे
जाम जब सामने आये तो मुकरना कैसा
बात जब पीने की आजाये तो डरना कैसा
धूम मची है, आ आ…, मैख़ाने में, आ आ…
धूम मची है मैख़ाने में, तू भी मचा ले धूम धूम धूम
झूम बराबर …
अंगूर मियां – [झुंझलाकर कहते हैं] – क्या बक रहे हो, मामू प्यारे ? आपको क्या मालुम ? अल्लाह मियां ने इस नाचीज़ को चार-चार बेटे दिए हैं ! और आप कह रहे हैं, अंगूर के बेटा न हुआ ? मेरे प्रति आपके दिल में, आख़िर है क्या ?
मामूजान - [ध्यान न देकर, आगे गाते हैं] - इसके पीने से तबीयत में रवानी आये
इसको बूढ़ा भी जो पीले तो जवानी आये
पीने वाले तुझे आ जाएगा पीने का मज़ा
इसके हर घूँट में पोशीदा है जीने का मज़ा
बात तो जब है के तू मै का परस्तार बने
तू नज़र डाल दे जिस पर वोही मैख़्वार बने
मौसम-ए-गुल में तो पीने का मज़ा आता है
पीने वालों को ही जीने का मज़ा आता है
जाम उठाले, आ आ…, मुँह से लगाले, आ आ…
जाम उठाले, मुँह से लगाले, मुँह से लगाकर चूम चूम चूम
झूम बराबर …
अंगूर मियां – [चिढ़ते हुए, कहते हैं] – मैं बूढ़ा हूं, मगर पीता नहीं हूं तेरी तरह दारु ? पंजा लड़ा लो, मियां..शर्तिया मैं जीत जाऊंगा, तुम जैसे जवानों से ! समझ गए, मुझे दारु पीने की कोई ज़रूरत नहीं !
मामूजान – [ध्यान न देकर, आगे गाते हैं] - जो भी आता है यहाँ पीके मचल जाता है
जब नज़र साक़ी की पड़ती है सम्भल जाता है
आ इधर झूमके साक़ी का लेके नाम उठा
देख वो अब्र उठा तू भी ज़रा जाम उठा
इस क़दर पीले के रग-रग में सुरूर आजाये
कसरत मै से तेरे चेहरे पे नूर आजाये
इसके हर कतरे में नाज़ाँ है निहाँ दरियादिली
इसके पीने से पता होती है के ज़िन्दादिली
शान से पीले, आ आ…, शान से जीले, आ आ…
शान से पीले शान से जीले, घूम नशे में घूम घूम घूम
झूम बराबर …
[अब नाचते-नाचते मामूजान थक जाते हैं, फिर जाकर दिलावर सेठ के पहलू में आकर बैठ जाते हैं ! अब वे अंगूर मियां का परिहास उड़ाते हुए, कह देते हैं !]
मामूजान – ओ अंगूर मियां ! वल्लाह ! ऐसा कौनसा कारनामा आपने कर डाला, बेटा पैदा करके ? बेटियाँ पैदा करते तो यह नाचीज़ मामू प्यारे, रोज़ आपके दीवानखाने में आपकी ख़िदमत करने चला आता ! मगर, हाय अल्लाह...
[मामूजान वोदका की बोतल लाकर, दिलावर सेठ के सिरहाने रखते हैं ! फिर पालथी लगाकर दिलावर सेठ के पास आराम से बैठ जाते हैं ! फिर वहां बैठे, अंगूर मियां से कहते हैं !]
मामूजान – [अंगूर मियां से चहकते हुए, कहते हैं] – मेरी इतनी कहाँ है क़िस्मत, जो आपके दीवान- खाने आकर आपकी ख़िदमत करूं ? अंगूर मियां, आपसे क्या कहूं कि, मेरी क़िस्मत बड़ी ख़राब है ! देख लीजिएगा, कब से आली ज़नाब की ख़िदमत करता जा रहा हूं...यह तो अल्लाह मियां भी जानता है ! मगर ये ज़नाब नावाकिफ़ है, या फिर इनको मुझ पर वसूक नहीं हैं ?
[अब मामूजान ख़ाली पड़े जाम उठाते हैं, फिर दारु से भरकर जाम को दिलावर सेठ के लबों तक लाते हैं...फिर, कहते हैं !]
मामूजान – [उनके लबों के पास, जाम लाते हुए कहते हैं] – ‘एक पल में ले गई सारे ग़म खरीदकर; कितनी अमीर होती है ये बोतल शराब की ।‘ पीजिये, हुजूर !
दिलावर सेठ – [दारु पीते हुए, कलाम पेश करते हुए कहते हैं] – ‘कुछ भी ना बचा कहने को हर बात हो गयी; आओ चलो शराब पियें रात हो गयी !’
अंगूर मियां – आली ज़नाब, रात कहाँ हुई ? अभी सुबह है, नमाज़ अता का वक़्त है...
[अंगूर मियां की कही बात का कोई ध्यान नहीं देते, और मामूजान मनुआर के साथ उनको दारु पिलाते जा रहे हैं ! इधर दिलावर सेठ की दिल-ए-तमन्ना पूरी हो रही है, और उधर इनकी सेहत पर बुरा प्रभाव होने की आशंका को लिए अंगूर मियां फिक्रमंद दिखाई देते हैं ! वे मामू को खारी-खारी नज़रों से, देखते जा रहे हैं ! जी भर कर दारु पीने के बाद, दिलावर सेठ को हिचकी आती है ! हिचकी के साथ, वे कहते जा रहे हैं !]
दिलावर सेठ – [हिचकी के साथ, कहते हैं] – किसने कहा ? [हिचकी आती है, फिर कहते हैं] अरे नामाकूल, उस आदमी को पेश कर जिसने कहा कि मैं तूझ पर वसूक करता नहीं ! [मामूजान का गला पकड़कर अपने पास लाते हैं, फिर मामू की पेशानी को चूमकर आगे कहते हैं] मामू प्यारे, तू मेरे कलेज़ा का टुकड़ा है ! अब बोल, तू चाहता क्या है ?
[बस, मामू को इसी मौक़े का इंतज़ार था ! झट बैग से स्टाम्प-पेपर और स्टाम्प पेड बाहर निकालते हैं ! फिर, ज़बान पर मिश्री घोलते जैसे शहद से लबरेज़ शब्दों में कहते हैं !]
मामूजान – [शहद से लबरेज़ शब्दों में, कहते हैं] – अब्बू, ज़रा अंगूठा लाइए इधर ! [मामूजान स्टाम्प पेपर, उनके पास रखते हैं]
[दिलावर सेठ उन काग़ज़ों को देखते जाते हैं, कभी वे इन काग़ज़ों को देखते हैं तो कभी वे देखते हैं मामू का चेहरा ! इस तरह उनको भ्रम के ज़ाल पड़े देखकर, मामूजान मासूमियत से कहते हैं !]
मामूजान – [मासूमियत से कहते हैं] – अब तो हुज़ूर मैं आपको अब्बू ही कहूंगा, अब आप क्या देख रहे हैं मुझे ? मैं ठहरा आपका भावी दामाद, इसलिए आप किसी बात की फ़िक्र न करें ! तसल्ली से इस पेपर पर पर अपना अंगूठा लगा दीजिये, अगर नहीं लगाया तो आप जानते ही हैं...आगे, क्या होगा ? सोच लीजिये, यह दरख्वास्त दफ़्तर-ए-रसद में वक़्त पर जमा नहीं हुई..तो गुड़ का लाइसेंस गया, परवाज़े तखय्युल बनने !
[लाइसेंस का नाम सुनते ही, दिलावर सेठ की आँखों में चमक आ जाती है ! फिर क्या ? ख़ुश होकर, स्टाम्प-पेपर पर अंगूठा लगा देते हैं ! अंगूठा एक स्थान पर ही लगता है, दूसरी जगह वे अंगूठा लगाना भूल जाते हैं ! फिर, चहकते हुए मामू से कहते हैं !]
दिलावर सेठ – [चहकते हुए, कहते हैं] – मामू प्यारे ! पिला दे, और पिला दे “या हाथों हाथ लो मुझे मानिंद-ए-जाम-ए-मय; या थोड़ी दूर साथ चलो मैं नशे में हूँ !” अब क्या कहूं, मामू प्यारे ? मैं ज़िंदा हूं तेरी लायी हुई शराब के कारण ! मेरी इन रगों में खून की जगह तूने दारु भर डाली है ! अब तू वही नज़्म सुना, जो अभी तू गा रहा था !
[गाते हुए]
‘आज अँगूर की बेटी से मुहौब्बत कर ले
शेख साहब की नसीहत से बग़ावत कर ले
इसकी बेटी ने उठा रखी है सर पर दुनिया
ये तो अच्छा हुआ के अँगूर को बेटा ना हुआ
कमसेकम सूरत-ए-साक़ी का नज़ारा कर ले
आके मैख़ाने में जीने का सहारा कर ले
आँख मिलते ही जवानी का मज़ा आयेगा.’
[जैसे ही यह जुमला ‘अंगूर की बेटी से मुहौब्बत कर ले..’ दिलावर सेठ के मुंह से निकलता है, वहां बैठे अंगूर मियां उनको नाराज़गी से देखते हैं ! इस तरह अंगूर मियां को आंखें निकालते देखकर, दिलावर सेठ उनसे कहते हैं !]
दिलावर सेठ – अंगूर मियां, वल्लाह नाराज़ क्यों होते हैं आप ? हम ज़ोलीद:बयानी नहीं करते हैं, आइये आप भी बैठिये मनसद पर..फिर, जमाते हैं महफ़िल ! सुनिए, ‘ऐ-इश्क सजाओ तो कोई बात बने दौलत-ऐ-इश्क लुटाओ तो कोई बात बने जाम हाथों से नहीं है पीना मुझको कभी आँखों से पिलाओ तो कोई बात बने...
अंगूर मियां [बेरुखी से,कहते हैं] – ‘लफ़्ज़ों के फ़साने ढूंढते है हम लोग लम्हों में ज़माने ढूंढते है हम लोग तू जहर ही दे शराब कह कर साकी पीने के बहाने ढूंढते है हम लोग !’ हुज़ूर ! एक बार हकीमजी की हिदायत को याद कर लीजिये, यह दारु नहीं है ज़हर है आपके लिए !
दिलावर सेठ – [नाखुश होकर, कहते हैं] – चलिए, आपके पास कोई हासिले-मुशायरा नहीं है ! अब सो जाइए आप, लिहाफ़ ओढ़कर ! [मामूजान की पीठ थपथपाते हुए, कहते हैं] प्यारे मामू, बाद-ए-तुहूर से भर दे सभी ख़ाली ज़ाम ! [हिचकी आती है, फिर कहते हैं] फिर लगा दे झड़ी अंजुमन की ! बिसमिल्लाह करके...पढ़ना..[हिचकी आती है]
मामूजान – [मुस्कराते हुए, कहते हैं] – हम पियक्कड़ो के यही हाल है, ज़नाब ! आपके हुक्म की तामिल करता हूं, लीजिये पेश है ‘नहर पर चल रही पनचक्की..[हिचकी आती है] नहर पर चल रही पनचक्की [फिर, हिचकी आती है]
दिलावर सेठ – सुभानअल्लाह ! वाह मियां, वाह ! क्या, शानदार शेर पेश किया ? [कलाम को दोहराते हैं] नहर पर चल रही पनचक्की...नहर पर चल रही पनचक्की...[वापस आती है हिचकी, नींद के कारण आंखें बोझिल होती जा रही है ! मामूजान बोतल में बची दारु का आख़िरी घूंट अपने हलक में उतार लेते हैं, फिर वे चहकते हुए कहते है !]
मामूजान – [चहकते हुए, कहते हैं] – ज़नाब ! नहर पर चल रही है पनचक्की...[थोडा रूककर दिलावर सेठ का मुंह देखते हुए, कहते हैं] धुन की पूरी है..काम की पक्की ! मगर अब न तो है इरशाद, और न है शमाख़रोशी ! फिर मामूजान आखें फाड़कर देखते हैं, दिलावर सेठ को ! क्या देखते हैं, ज़नाब ? दिलावर सेठ के हाथ से जाम छूट गया है, और वे मनसद पर लुढ़क चुके हैं ! अब उनको नींद के आगोश में पाकर, झट दाहिने हाथ का अंगूठा खुले स्टाम्प पेड पर दबाकर स्टाम्प-पेपर पर उनके अंगूठे का निशान उस स्थान पर ले लेते हैं..जहां दिलावर सेठ अपना अंगूठा लगाना भूल गए थे ! फिर स्टाम्प-पेड को बंद करके बैग में रख लेते हैं, उसके बाद स्टाम्प पेपर की जांच कर लेते हैं कि, अंगूठा सही स्थान पर लगा है या नहीं ? फिर उसे भी, अपने बैग में रख लेते हैं ! इस तरह बहते दारु के दरिया को देखकर, अंगूर अपना खिसयाना चेहरा बना लेते हैं ! बोतल में दारु बची नहीं है, अगर होती तो मामू प्यारे दो घूंट अपने हलक में एक बार और उतार लेते ? अब, मामूजान दिलावर सेठ को झंझोड़ते हुए कहते हैं !]
मामूजान – [दिलावर सेठ को झंझोड़ते हुए, कहते है] – अब्बू ! उठिए ना..उठो अब्बू, उठो !
[मगर वे उठते नहीं, बस ऊंघ में ही कहते जा रहे हैं..]
दिलावर सेठ – [लेटे-लेटे ऊंघ में, कहते हैं] – अब ला दे रे, बरात ! सेहरा बांधकर आ जा, प्यारे मामू !
[ये शब्द दिलावर सेठ के मुंह से सुनते ही, मामूजान के चेहरे पर रौनक छा जाती ही ! अब वे दिलावर सेठ के ऊपर लिहाफ़ ओढ़ाकर, चिराग़ की रोशनी कम कर देते हैं ! फिर वे दरवाज़े की तरफ़, क़दम बढ़ा देते हैं ! उनके जाते ही, दिलावर सेठ के खर्राटों की आवाज़ गूंज़ने लगती है ! मंच पर, अंधेरा छा जाता है !]
नमाज़ की वह शान है, जो रोक देती है तवाबे काबे को...तो तेरे कारोबार की क्या औकात ? कि, जिसके लिए तू नमाज़ को छोड़ देता है ?
लेखक का परिचय
लेखक का नाम दिनेश चन्द्र पुरोहित
जन्म की तारीख ११ अक्टूम्बर १९५४
जन्म स्थान पाली मारवाड़ +
Educational qualification of writer -: B.Sc, L.L.B, Diploma course in Criminology, & P.G. Diploma course in Journalism.
राजस्थांनी भाषा में लिखी किताबें – [१] कठै जावै रै, कडी खायोड़ा [२] गाडी रा मुसाफ़िर [ये दोनों किताबें, रेल गाडी से “जोधपुर-मारवाड़ जंक्शन” के बीच रोज़ आना-जाना करने वाले एम्.एस.टी. होल्डर्स की हास्य-गतिविधियों पर लिखी गयी है!] [३] याद तुम्हारी हो.. [मानवीय सम्वेदना पर लिखी गयी कहानियां].
हिंदी भाषा में लिखी किताब – डोलर हिंडौ [व्यंगात्मक नयी शैली “संसमरण स्टाइल” लिखे गए वाकये! राजस्थान में प्रारंभिक शिक्षा विभाग का उदय, और उत्पन्न हुई हास्य-व्यंग की हलचलों का वर्णन]
उर्दु भाषा में लिखी किताबें – [१] हास्य-नाटक “दबिस्तान-ए-सियासत” – मज़दूर बस्ती में आयी हुई लड़कियों की सैकेंडरी स्कूल में, संस्था प्रधान के परिवर्तनों से उत्पन्न हुई हास्य-गतिविधियां इस पुस्तक में दर्शायी गयी है! [२] कहानियां “बिल्ली के गले में घंटी.
शौक – व्यंग-चित्र बनाना!
निवास – अंधेरी-गली, आसोप की पोल के सामने, वीर-मोहल्ला, जोधपुर [राजस्थान].
ई मेल - dineshchandrapurohit2@gmail.com
0 टिप्पणियाँ
आपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.