नाम: नीतू सिंह ‘रेणुका’
जन्मतिथि: 30 जून 1984
प्रकाशित रचनाएं: ‘मेरा गगन’ नामक काव्य संग्रह (प्रकाशन वर्ष -2013), ‘समुद्र की रेत’ कथा संग्रह (प्रकाशन वर्ष -2016)
ई-मेल: n30061984@gmail.com
उन्हें झूला झूलना नहीं था, क्योंकि वे झूल-झूलकर थक चुकी थीं। दोनों की सफेद शर्ट पसीने से भींग चुकी थीं। मगर झूला किसी दूसरे को भी नहीं देना था, कम से कम तब तक तो नहीं देना था जब तक की इंटरवल खत्म नहीं हो जाता। इसलिए दोनों झूले पर बैठे-बैठे बस पाँव डुला रही थीं।
बेचारी मनीषा दूर से ही इन्हें झूले पर कब्ज़ा जमाए हुए देख रही थी मगर हटाने की हिम्मत उसमें नहीं थी। इसलिए इंतज़ार कर रही थी कि बेल बजने से पहले थोड़ी देर के लिए सही उसे एक बार झूलने को मिल जाए।
नीतू और मीनू भी ये बात जानती थीं मगर झूला छोडऩे को तैयार नहीं थीं। बल्कि उन्हें इस बात का गर्व हो रहा था कि उन्होंने किसी को झूला लेने से रोक रखा है।
मीनू की नज़र नीतू के डोलते हुए पैरों पर गयी। पैरों पर नहीं बल्कि उसके नए जूतों पर गई। नए जूते देख मीनू उछल पड़ी और झूले के सामने आ गई। मनीषा ने भी मीनू को झूले से उतरते देखा और झूले के और पास आकर उसके खम्बे से आशा-प्रत्याशा में झूलने लगी।
मगर मीनू तो नीतू के नए जूते देखने में व्यस्त थी।
‘वाव! न्यू शूज़?‘
‘हां! कल ही पापा ने खरीदवाए। अब न्यू क्लास में गए इसलिए न्यू शूज।’
‘तेरे पापा कितने अच्छे हैं। मेरे पापा तो मुझे दिलाते ही नहीं। सेकेंड क्लास से मैं यही जूते पहन रही हूँ।’
‘तेरे तो जूते फटते ही नहीं। मुझे तो जूते दिलवाने से पहले बहुत डाँटते हैं। कहते हैं तुझे जूते पहनने का शऊर नहीं है। क्लास फोर में आ गई, अब कब बड़ी होगी। दो महीने में जूतों का सत्यानाश कर देती है। मीनू को देखो कितने ढंग से जूते-कपड़े पहनती है।’
‘तेरे पापा कितने अच्छे हैं। काश वो मेरे पापा होते।’
‘तेरे पापा होते तो तुझे भी खूब डाँटते।’
‘तो क्या हुआ नए जूते तो खरीद देते। मेरी तो मम्मी भी बहुत गंदी हैं। मुझे चॉकलेट भी नहीं खाने देतीं। तेरी तो मम्मी भी अच्छी हैं, चॉकलेट तो देती हैं तुझे।’
नीतू भी झूले से नीचे कूद गई और कमर पर दोनों हाथ रख कर गुस्से से बोली ‘तेरे पेट में कीड़े हैं न। तू फिर भी चॉकलेट खाएगी।’
उधर मनीषा ने झूला लपक लिया था। मगर इन दोनों को अब कोई फ$र्क नहीं पड़ता था।
मीनू ने अपराधी के समान मुँह लटका लिया। दोनों क्लास की तरफ चल दिए। जाते-जाते नीतू कह रही थी, ‘मेरी मम्मी पापा को चॉकलेट और मिठाई और चीनी वाला कोई भी सामान नहीं खाने देती।’ दोनों क्लास के दरवाज़े पर खड़ी थीं। अंदर जाना नहीं चाहती थीं।
‘मगर क्यूँ’
‘अरे बुद्धू उन्हें शुगर की बीमारी है। इसलिए अगर तू मेरे घर में होती तो तुझे भी चॉकलेट नहीं खाने देतीं।’
‘पर तेरे पापा तो अच्छे दिखते हैं। वो तो बीमार नहीं लगते।’
‘नीतू फिर अपने गुस्से वाले अवतार में आ गई और उसकी पसीने से चिपकी शर्ट में ऊँगली घुसाकर बोली ‘तेरे पेट के कीड़े तेरी शर्ट पर दिखते हैं? नहीं दिखते न? फिर पापा का शुगर कैसे दिखेगा।’
मीनू ने जगह-जगह से चिपकी अपनी शर्ट की सिलवटों को दिखाते हुए कहा ‘ये देख कीड़ा। ये देख एक और कीड़ा। ये एक और।’
नीतू भी खिलखिलाकर हंस पड़ी और दोनों मिलकर सिलवटें गिनने लगीं।
***
मनीषा झूले का अभी ठीक से मज़ा भी नहीं उठा पाई थी कि सामने से सिमी और दीपा आ गए। सिमी बोली ‘बस! बहुत झूल लिया। अब हमारी बारी।’
‘लेकिन मैं तो अभी-अभी झूली हूँ।’
‘मुझे नहीं पता। मैंने तुझे झूलते हुए देख लिया बस तूने बहुत झूल लिया।’ मनीषा ने झूला जैसे ही धीमा किया दीपा ने झूले की जंजीर थाम ली और मनीषा को घूर कर देखा। बेचारी मनीषा फिर झूले के डंडे से ही झूल-झूलकर संतुष्ट होने लगी। सिमी और दीपा ने अभी ठीक से झूलना भी नहीं शुरू किया था कि मनीषा ने कहा ‘मैंने न! नीतू और मीनू की बातें सुनी।’ सिमी और दीपा ने मनीषा को ध्यान से देखते हुए कहा ‘क्या?’
सिमी बोली ‘क्या सुना तुमने?’
किसी दक्ष नर्तकी की तरह मनीषा ने अपनी एक भौंह उठाते हुए कहा ‘झूला दो! तो बताऊँगी।’ सिमी और दीपा तुरंत झूले से अलग हो गए। मनीषा ने किसी मशहूर अदाकारा की तरह अपने बाल पहले पीछे झटके फिर अपना पूरा समय लेते हुए झूले को किसी मंहगे आभूषण की तरह पकड़ा। झूले को फूँक कर साफ किया फिर किसी रानी के ङ्क्षसहासन पर विराजमान होने की मुद्रा में झूले पर बैठी। हल्के-हल्के पैरों को ज़मीन में धकेलने लगी। झूले ने गति पकड़ ली।
‘कुछ बोल’ सिमी झल्लाई।
‘क्या बोलूँ? .... हवा नहीं है ग्राउंड में।’ मनीषा अज्ञानता का लबादा ओढ़े बोली। ‘ओफ्फो! मीनू और नीतू के बीच क्या बात सुनी तूने।’ ‘ओह! वो.....बस यही कि नीतू ने नए जूते खरीदे हैं। मीनू को उसके पापा नहीं खरीद रहे।’ ‘हम्म’
सिमी ठुड्डी पर हाथ रख कुछ सोचते-सोचते बोली ‘आइडिया’
दीपा ने कहा, ‘क्या आइडिया? मुझे भी बता। बता न!’ सिमी ने दीपा के कान में कुछ कहा और दीपा मुस्कुरा दी।
***
फोर्थ पीरियड शुरू हो गया था। मैथ्स की टीचर क्लास में आईं और क्लास की शांति को भंग करती हुई बोली ‘ङ्क्षप्रसिपल मैडम ने कुछ काम के लिए बुलाया है इसलिए आज गेम्स दे रही हूँ। मगर कोई हल्ला नहीं मचाएगा। सब चुपचाप लाइन बनाकर ग्राउंड में जाएंगे। कोई शिकायत नहीं आएगी वरना मैं सबको वापस बुला लूँगी।’
बच्चे खुशी से चीखना चाहते थे मगर अपनी हंसी दबा-दबाकर लाइन से बाहर निकल गए। ग्राउंड में जाते ही सबने मैदान में ऐसे दौडऩा शुरू कर दिया जैसे किसी ने खाली फर्श पर पानी फेंक दिया हो।
नीतू और मीनू कंधे से कंधा मिलाए उछलती हुई चली जा रही थीं कि सिमी और दीपा भी कंधे से कंधा मिलाए, उनके आगे आकर खड़ी हो गईं।
सिमी ने नीतू के जूतों की तरफ देखकर ‘वाव! नीतू नए जूते। वाह! वाह! न्यू ङ्क्षपच’ कहते हुए नीतू को ज़ोरदार चिकोटी काटी। इतनी ज़ोर से कि वह चीख पड़ी।
‘उफ्फ ! धीरे।’
दीपा ने उसी जगह एक और चिकोटी काटकर नीतू की हालत बिच्छू का डंक खाए इंसान सी कर दी ‘मेरी तरफ से भी न्यू ङ्क्षपच।’
फिर सिमी ने अपनी नज़र मीनू के जूतों की तरफ घुमाई ‘छी: मीनू तुम्हारे कितने गंदे जूते हैं। छी: छी: कितने पुराने हैं। तुम क्या बहुत गरीब हो। नए जूते नहीं पहन सकती हो।’
मीनू को तमतमाता छोड़ सिमी और दीपा बगल से निकल गए और थोड़ी दूर जाकर ज़ोर-ज़ोर से हंसने लगे।
अब मीनू का दिल किसी भी खेल में नहीं लग रहा था। वह बहुत तेज़ी से कभी यहाँ तो कभी वहाँ जा रही थी। नीतू के लिए उसकी गति से काम करना मुश्किल हो रहा था। जब कहीं मन नहीं लगा तो मीनू क्लास की तरफ मुड़ गई। ‘क्लास में क्यों जा रही है, अभी तो गेम्स पीरियड है ?’ नीतू ने लगभग गिड़गिड़ाते हुए पूछा।
‘तू चल बस।’
‘मैडम मारेगी।’
‘तू चलती है या नहीं ?’
क्लास में घुसकर मीनू ने खाली क्लास को गुस्से से देखा जैसे क्लास ने ही उसे उसके जूतों के लिए चिढ़ाया हो। फिर उसने एक डेस्क पर जाकर किसी दूसरे बच्चे का बैग़ खोलकर एक नोटबुक निकाली और उसको बीचों बीच फाडक़र दो टुकड़े कर दिए।
‘हे भगवान! मीनू तूने ये क्या किया ?’ नीतू ने लगभग काँपते हुए कहा।
‘अब तू देख मैं सिमी से कैसे बदला लेती हूँ ?’
‘अरे पागल! ये सिमी नहीं सुमा की साइंस नोटबुक थी जो तूने जंगलियों की तरह फाड़ दी।’
मीनू थोड़ी देर सकपकाई। मगर बदले की आग में झुलसता उसका दिमाग़ आइंसटीन से भी तेज़ चल रहा था।
‘मैं फिर भी सिमी को मज़ा चखाऊँगी। तू बस देखती जा।’
‘क्या? कैसे?’ ‘चल अब बाहर चल।’
***
बाकी का पीरियड मीनू और नीतू ने मजे से खेल में बिताया। सिमी और दीपा हैरान थीं कि मीनू को चिढ़ाने का उनका प्लान फेल कैसे हो गया? मीनू को बेतहाशा खुश देखकर सिमी और दीपा का मज़ा खराब हो गया था।
पीरियड खत्म होते ही पसीने से लथपथ बच्चे क्लास में लौट आए और साइंस की टेक्स्टबुक और नोटबुक निकालकर बैठ गए। कोई किसी को गुदगुदी कर रहा था तो कोई किसी को पेंसिल की नोंक चुभोकर बता रहा था कि मेरी पेंसिल की नोंक तेरी पेंसिल की नोंक से तेज़ है। मीनू बस साइंस टीचर के आने का इंतज़ार कर रही थी उसे किसी की बातें सुनाई नहीं दे रही थी और सुनाई देतीं तो समझ नहीं आती।
आखिर टीचर ने क्लास में कदम रखा और एकदम शांति छा गई। बच्चे इंतज़ार कर रहे थे कि ये मिस भी शायद गेम्स पीरियड दे दें। मगर जब मिस ने बोर्ड पर एटमासफियर लिखा तो सबने निराशा भरी
आह ली।
मगर सुमा तो अचानक फफक-फफक कर रो पड़ी। कोई नहीं जानता था, मीनू और नीतू को छोडक़र कि वह क्यों रो पड़ी?
टीचर ने कहा ‘क्या हुआ?’
सुबुकते हुए सुमा ने कहा, ‘किसी ने मेरी नोटबुक फाड़ दी।’
टीचर ने नोटबुक के दोनों हिस्से हाथ में लेते हुए आश्चर्य से देखा। फिर उसकी भौहें ऐसी तनी जैसे पूछ रही हों कि किसकी इतनी हिम्मत हो गई। उसने लडक़ों की तरफ देखकर और दोनों हिस्से हवा में ऊपर उठाते हुए पूछा ‘ये किसने किया? खुद ही बता दो वरना ख़ैर नहीं। सबको ङ्क्षप्रसिपल मैडम के पास ले जाऊँगी।’
सब लडक़े हतप्रभ एक-दूसरे को देख रहे थे। सबने एक बार मुडक़र अनिल की तरफ देखा। अनिल पत्ते की तरह काँपने लगा। जब वह गलती करता था तब उसे उतना डर नहीं लगता था जितना आज नहीं करने पर लग रहा था। मिस ने भी अनिल को ही घूर कर देखा। अनिल घबराहट में पसीना-पसीना हुआ जा रहा था। आज तक इतनी मार खाई थी मगर कभी रोया नहीं। आज उसका चेहरा रोने जैसा हो रहा था।
मीनू को अपनी चाल कामयाब होती नहीं दिख रही थी। मैडम जैसे-जैसे अनिल की तरफ बढ़ रही थी वैसे-वैसे मीनू अपनी हिम्मत बटोर रही थी। अनिल के पास जाकर जब मिस खड़ी हुई और कुछ कहने ही वाली थी कि मीनू ने आवाज़ लगाई ‘मिस!’
मिस मुड़ी। मीनू ने सिमी की ओर ऊँगली दिखाते हुए कहा ‘मैंने गेम्स पीरियड में सिमी को सुमा की नोटबुक फाड़ते हुए देखा था।’
बेखबर सिमी के होश एक ही पल में फाख्ता हो गए।
अब तो सिमी बस गिड़गिड़ाती रह गई कि ‘मिस मैंने नहीं किया।’ ‘फिर किसने किया?’
‘मुझे नहीं मालूम। मैंने नहीं किया।’
‘बाहर जा के नील डाउन करो और क्लास खत्म होने तक ऐसे ही नील डाउन रहना।’
मिस ने अब एटमोसफियर पढ़ाना शुरू कर दिया था। अनिल ने मुस्कुराना शुरू कर दिया था। माया ने सुमा की पीठ सहलाना शुरू कर दिया था। दरवाज़े के बाहर घुटनों के बल खड़ी सिमी को देख मीनू ने मुस्कुराना शुरू कर दिया था।
क्लास चल रही थी। मीनू ने सिमी से बदला ले लिया था। मगर रह-रहकर मीनू की नज़र डेस्क के नीचे झूलते हुए नीतू के पैरों की तरफ जा रहे थे। उसका मन अब पढ़ाई में नहीं लग रहा था और न ही सिमी को देखकर खुश होने में। उसको अब नीतू के जूते देख-देखकर बेचैनी हो रही थी।
***
छुट्टी हो गई थी। उषा, नीतू और मीनू एक साथ घर जा रहे थे। साथ चलते-चलते उषा की नज़र भी नीतू के जूतों पर गई। ‘वाव! न्यू शूज़।’
‘हाँ’
मीनू ने एक नज़र फिर नीतू के जूतों को देखा और बाकी के समय घर पहुँचने तक उसकी नज़र अपने जूतों पर टिकी रही। उषा और नीतू की बाकी बातों पर मीनू का ध्यान ही नहीं था।
घर पहुँचकर मीनू ने अपना बैग एक कोने में फेंका और चुपचाप बाथरूम में जाकर पापा की शेङ्क्षवग किट से ब्लेड उठा लाई। पहले बढिय़ा से अपने जूते काटे, फिर ब्लेड वापस रखकर सीधा पापा के कमरे में गई। न्यूज़ पेपर में घुसे अपने पापा से मीनू ने कहा ‘पापा! क्या हम इतने गरीब हैं कि आप मुझे नई क्लास के लिए नए जूते नहीं दिला सकते?’
अब पापाजी ने मीनू को जूते दिलाने के लिए छुट्टी तो ली नहीं थी और इस विषय पर पहले ही वो अपना निर्णय मीनू को सुना चुके थे।
‘तुम्हें एक बार में समझ नहीं आता क्या। जब तक जूते सही-सलामत हैं नए जूते नहीं खरीदे जाएंगे।’
‘लेकिन मेरे जूते तो फट गए हैं। ये देखो।’ ब्लेड से कटे जूतों को देख पापा तो समझ ही गए कि जूते फटे हैं या कटे और समझ कर मुस्कुरा दिए।
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1 टिप्पणियाँ
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन एक प्रत्याशी, एक सीट, एक बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
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