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भलाई करोगे तो भलाई ही मिलेगी - खंड 11 [मारवाड़ी हास्य-नाटक]- दिनेश चन्द्र पुरोहित


रचनाकार परिचय:-


लिखारे दिनेश चन्द्र पुरोहित
dineshchandrapurohit2@gmail.com

अँधेरी-गळी, आसोप री पोळ रै साम्ही, वीर-मोहल्ला, जोधपुर.[राजस्थान]
मारवाड़ी हास्य-नाटक  [भलाई करोगे तो भलाई ही मिलेगी ] खंड 11 लेखक और अनुवादक -: दिनेश चन्द्र पुरोहित


[मंच रोशन होता है, जोधपुर स्टेशन का उतरीय पुल नज़र आता है, प्लेटफोर्म एक से सीढ़ियां चढ़ने के बाद जो समतल हिस्सा आता है, वहां लाल कमीज़ पहने हुए कई कुली बैठे गुफ्तगू कर रहे हैं ! प्लेटफोर्म के खम्बे पर लगी घड़ी सुबह के सात बजने का वक़्त दिखा रही है ! अभी-तक जम्मू-तवी एक्स्प्रेस आयी नहीं है, इधर उदघोषक थोड़ी-थोड़ी देर बाद बार-बार रेडियो पर..उसके देर से आने की, घोषणा करता जा रहा है ! इस कारण पाली जाने वाले एम.एस.टी. होल्डर्स, प्लेटफोर्म पर उतरने का अपना मानस नहीं बनाया है ! इतने में प्लेटफोर्म पर खड़ी गाड़ी, रवाना होने के लिए सीटी देने लगी ! सीटी की आवाज़ सुनते ही रशीद भाई के चेहरे पर मुस्कान छाने लगी, वे अपने पहलू में खड़े सावंतजी से कहने लगे !]

रशीद भाई – अजमेर जाने वाली गाड़ी के जाने के पश्चात, हमें मज़बूरन जम्मू-तवी गाड़ी से ही जाना होगा ! अब आप कहिये, अपुन सभी को अजमेर वाली गाड़ी से चलना चाहिए या नहीं ?

[सावंतजी के पास ही खड़े, ठोकसिंगजी बीच में कह उठते हैं !]

ठोकसिंगजी – आपको जाना है तो आप जा सकते हैं, नहीं जाते हैं तो यहाँ बैठकर अपना दुःखड़ा रो लो..ये चार दिन छुट्टियां लेकर आपने जोधपुर में क्या किया ?

रशीद भाई – क्या करता, सावंतजी सेठ ? चार दिन की छुटियाँ लेकर कैसे वक़्त बिताया मैंने, वह मेरा दिल ही जानता है !

सावंतजी – आपके दिन बीत जाते हैं, या तो स्टेशन के प्लेटफोर्म पर या फिर आप भटके खाते फिरोगे गिरदीकोट बाज़ार में !

रशीद भाई – [हथेली सामने लाते हुए, कहते हैं] – अरे ज़नाब, यह बात नहीं है ! मैं करमठोक गया, इस कोर्ट-कचहरी के चक्कर में !

ठोकसिंगजी – इसमें, कौनसी नयी बात ? आपकी तो ग़लत आदत बन गयी, फुठरमलसा के साथ-साथ भटके खाने की ! भाई वे तो रिटायर होने के बाद काला कोट पहनाकर वकालत ही करेंगे, हाई-कोर्ट में ! मगर, आप उनके पीछे-पीछे काहे बेगाने की तरह वक़्त बरबाद करते जा रहे हैं ?

सावंतजी – [हंसी का ठहाका लगाकर, कहते हैं] – अरे यार, ठोकसिंगजी ! आपको, क्या पता ? ये ज़नाब तो, उनके मुंशीजी बनने का सपना देखते हैं...शायद फुठरमलसा..

रशीद भाई – [नाराज़गी के साथ, कहते हैं] – मुझे कौन लालच दे सकता है, ज़नाब ? मुझे कहाँ उनका मुंशी, बनना है ? मैं ठहरा, सेवाभावी..जो कोई शख्स मुझे किसी काम का कहे, मैं कर देता हूँ..और क्या ?

ठोकसिंगजी – अरे, ज़नाब ! आप सेवा नहीं करते हैं, आप तो लोगों से अपनी सेवा करवाते हैं ! आप कब बन गए, सेवाभावी ? [सावंतजी से] सावंतजी, ये महापुरुष अपने बच्चे से क्या कहते हैं ? कि, ‘छोड़ने आया तो, क्या...तू मुझ पर अहसान लाद रहा है ? आख़िर, मैं तेरा बाप हूँ ! चल, मुझे माल-गोदाम वाले प्लेटफोर्म पर लाकर छोड़ ! यों काहे बीच में छोड़ रहा है, मुझे ?’

[ठोकसिंगजी जेब से मिराज़ ज़र्दे की थैली निकालते हैं ! उस थैली से थोड़ा सा ज़र्दा निकालकर अपने होंठों के नीचे रखकर, दबाते हैं ! फिर सावंतजी से, आगे कहते हैं !]

ठोकसिंगजी – [होंठों के नीचे ज़र्दा दबाते हुए, कहते हैं] – वह बेचारा ठहरा, सीधा..उसने कुछ कहा नहीं, इनको लाकर छोड़ दिया माल-गोदाम के प्लेटफोर्म पर ! और इधर यह खोज़बलिया जी.आर.पी. पुलिस वाला, पहुँच गया वहां, चालान काटने ! कहने लगा ‘ठोकिरा, मोटर-साइकल लेकर प्लेटफोर्म पर कैसे आ गया ?

रशीद भाई – आपको क्या मालुम, उसकी गाड़ी जब्त करके ले गए पुलिस वाले ? क्या करें ? एक भी रेलवे महकमें का, जान पहचान का कर्मचारी हमारे काम नहीं आया ! आखिर कोर्ट-कचहरी के चक्कर काटे, और पंद्रह दिन बाद गाड़ी आयी छोरे के हाथ में !

सावंतजी - अरे यार, आपको क्या फर्क पड़ता है..आप कहाँ बैठते हैं घर में ? इधर-उधर नहीं घूमें और कोर्ट कचहरी के चक्कर काट लिए, क्या फर्क पड़ा आपको..? आपके लिए तो, सब एक ही बात है ! अरे यार, कई दिन पहले आपने एक फ़कीर का भला किया ! [लबों पर मुस्कान बिखेरते हुए, कहते हैं] और ज़नाब, आपने फोड़े पाये...? [हंसते हैं] फिर भी, आपने प्लेटफोर्म के ऊपर घूमना बंद किया नहीं ?

[रशीद भाई खारी-खारी नज़रो से सावंतजी को देखते हैं, आर होंठों में ही कह डालते हैं कि ‘यह कमबख्त सावंतिया, वश में आता नहीं ? इच्छा तो ऐसी होती है, इस सांवतिये को पूरा ही गटक जाऊं ? और, डकार भी नहीं लूँ !’ इस तरह सोच रहे रशीद भाई के चेहरे को देखकर, सावंतजी उनके मन के भाव पढ़ लेते हैं ! फिर क्या ? झट मुस्कराकर, बोल देते हैं !]

सावंतजी – [मन के भाव पढ़कर, मुस्कराहट के साथ] – मैं बकरा नहीं हूँ, रशीद भाई ! कि, आप बकरईद के दिन मझे हलाल करके आखा ही गटक जाओ..? यार रशीद, मैं इंसान हूँ ! ठोकिरे, आप जानते क्या हैं ? मनुष्यों को बचाने के लिए, अपने देश में कई क़ानून की धाराए हैं !

रशीद भाई – [नाराज़गी के साथ, ज़ोर से कहते हैं] – सावंतजी..!

सावंतजी – क्यों जोर से बोलते जा रहे हैं, आप ? मैं बहरा नहीं हूँ, अब बोलो शान्ति से..क्यों मुझे, खारी-खारी नज़रों से से देखते जा रहे थे ?

ठोकसिंगजी – अरे यार सावंतजी, आपने इनकी इनकी दुखती रग पर हाथ रख दिया..और अब आप बेचारे को, देश के क़ानून की धाराओं का दर दिखा रहे हैं ? बात केवल यही है, इन्होने किया उस फ़क़ीर का भला, और इनको तकलीफ़ क्या हुई ? बस यही, बयान करना है इन्हें !

रशीद भाई – दिन में ही आप क़िस्सा सुनने के लिए, तैयार हो जाते हैं यार ? भूल गए आप, बजुर्गों ने क्या कहा ? यह कहा, दिन में किस्से सुनने से मार्ग भूल जाते हैं ! सुन लीजिये, मेरे बाप का क्या जाता है ?

सावंतजी – अरे सुना दो, यार रशीद भाई ! क्यों आप, अपनी इंपोर्टटेन्स दिखाते जा रहे हैं ?

रशीद भाई – अब सुन लीजिये, क़िस्सा ! आपको क्या पता, मेरे हाथों के तोते उड़ गए ? और आप लोगों को आता है मज़ा, क़िस्सा सुनने में ! [जेब से रुमाल निकालकर, ज़ब्हा से टपक रहे एक-एक पसीने के कतरे को साफ़ करते हुए] अब सुनों, सुनने के बाद किसी की भलाई करने की कोशिश मत करना !

[रशीद भाई, अपनी आपबीती सुनाते दिखाई देते हैं ! सभी ध्यान देकर, क़िस्से को सुनते हैं ! गाड़ी सीटी देती हुई, पटरियों के ऊपर तेज़ी से दौड़ती जा रही है ! रशीद भाई अपनी आपबीती सुना रहे हैं, सुनायी जा रही एक-एक घटना उन सबकी आंखों के आगे चित्र बनकर छा जाती है ! मंच पर, अँधेरा छा जाता है ! थोड़ी देर बाद, मंच वापस रोशन होता है ! जोधपुर स्टेशन का मंज़र दिखाई देता है ! रशीद भाई स्टेशन से बाहर निकलकर, बाहर आ रहे हैं ! ऐसा लगता है, आज़ रशीद भाई एक्सप्रेस गाड़ी मिल जाने से, वे पाली से जल्द आ गए हैं ! अब वे गेट से निकलकर, चाय की दुकान की तरफ़ अपने क़दम बढ़ा रहे हैं ! चलते-चलते उन्हें पीछे से किसी के पुकारने की आवाज़ सुनायी देती है ! वे पीछे मुड़कर, देखते हैं !]

रशीद भाई – [पीछे मुड़कर, कहते हैं] – कौन है रे, बिरादर ?

[सफ़ेद चोला-पायजामा पहने आदमी उनके नज़दीक आता दिखाई देता है, जिसके सर पर सफ़ेद जालीदार टोपी पहनी हुई है ! वह नज़दीक आकर, कहता है !]

आदमी – [पास आकर] – असलाम वालेकम, मियां ! कहाँ जा रहे हो ?

रशीद भाई – [उसके कंधे पर, हाथ रखते हुए] – अरे यार, अल्ला नूर साहब तुम हो ? वालेकम सलाम ! मगर मियां, तुम कहाँ जा रहे हो ? क्या कहें, तुमको ? हम तो यहाँ मुफ़्त की हवा खा रहे हैं, अब तुम भी आ जाओ ! कहीं नहीं जाना हो तो, ज़रा टहल लेंगे यार !

अल्लानूर – [कंधे पर रखा हाथ, दूर लेते हुए] – क्या कहूं, यार ? तम्हारा तो नाक काम करता नहीं..यहाँ सड़ान्द भरी जगह पर, काहे घूम रहे हो तुम ? [हाथ पकड़कर, आगे कहते हैं] लो चलो यार, सामने चाय की दुकान पर साथ में बैठकर चाय पीयेंगे ! फिर.. !

रशीद भाई – [उनके गले में बांह डालते हुए, कहते हैं] – और फिर, खायेंगे...

[आगे कुछ सुनायी नहीं देता, क्योंकि स्टेशन पर आ रही गाड़ी की आवाज़, इतनी तेज़ है..कि, उसके आगे कुछ सुनायी नहीं देता ! फिर चलते-चलते दोनों, चाय की दुकान पर चले आते हैं ! बाहर रखी बेंच पर आकर, बैठ जाते हैं ! उनके बैठते ही, बेरा पानी भरा लोटा लिए आता है ! दोनों पानी पीकर, लोटा वापस उसे थमा देते हैं !]

अल्लानूर – [पानीका लोटा, वापस बेरे को थमाते हुए] – ए रे नूरिया, ज़रा दो कप कड़का-कड़क कटिंग चाय फटा-फट लेते लेते आ ! [रशीद भाई से] ऐसा है रशीद मियां, बाबा का उर्स है ! तेरी भाभी ने बोला है, इस बार बाबा को चादर चढ़ानी बहुत ज़रूरी है ! यार अजमेर चलना है, क्या करें ? पोता जो हुआ है, और लगे हाथ दरगाह के जन्नती दरवाज़े के दीदार भी कर लेते है !

रशीद भाई – दरवाज़ा तड़के चार बजे खुलता है, जाओ ना अल्लानूर साब किसने रोका है आपको ? ज़नाब, हमारी भी हाज़री लगा देना बाबा के दरबार में !

आलानूर – अरे यार, तेरे बिन कैसे जाऊं ? कब से तेरा इंतज़ार कर रहा हूँ, प्यारे ! तूने कहा था फोन पर, तनख्वाह मिल जायेगी फिर अपुन फ्री ! [बेरे को पुकारते हुए] अरे ओ नूरिया, कहाँ मर गया रे ? अभी-तक चाय लाया नहीं, कहीं बागानों से चाय उगाकर तो नहीं ला रहा है तू ?

[नूरिया आता है, और दोनों को चाय से भरे प्याले थमाकर, चला जाता है पानी की टंकी के पास..जूठे प्याले धोने !]

रशीद भाई – [चाय की चुश्कियाँ लेते हुए, कहते हैं] – तनख्वाह तो मिल गयी, यार ! आख़िर, जायेगी कहाँ ? मेहनत करते हैं, सुबह से लेकर शाम तक ! अब कहिये, आल्लानूर साहब मुझे खींचकर काहे ले जा रहे हो ? देखिये इधर, ऐसे पुराने वस्त्र पहनकर कैसे चलूँ यार ?

[इनकी बात सुनकर, अल्लानूर साहब खिल खिलाकर हंस पड़ते हैं ! सामने सड़क पर भीख मांग रहे, एक भिखारी को दिखालाते हुए कहते हैं..]

अल्लानूर – [भिखारी की तरफ़ उंगली का इशारा करते हुए, कहते हैं] – मियां उस फ़क़ीरड़े को देखो, बिल्कुल तुम्हारी जैसी खिचड़ी रीश, तुम्हारे जैसे कपड़े..सेम टू सेम, यू..फिर क्या करना, नए कपड़े पहनकर ? जाना तो है आख़िर, बाबा के मजार पर ! क्या फ़र्क पड़ता है, मियां ? चाहे आप फ़क़ीर की तरह जाओ, या सूट-बूट में ! बस तुम न जाने का बहाना मत बनाओ, यार ! चुप-चाप, चले चलो !

रशीद भाई – कह दे यार, कह दे मंगता-फ़क़ीर..चाहे जो बोल दे, प्यारे ! मगर, मैं इन वस्त्रों पर एक अठन्नी खर्च करने वाला नहीं !

अल्लानूर – जैसा ज़नाब चाहें, आप चाहे तो फ़क़ीर बनकर चलो या मदारी बनकर चलो..मुझे क्या करना ? बस ख़ास बात यही है कि, मुईनुद्दीन साहब चल रहे हैं हमारे साथ ! आगे मियां तुम जानों, और तुम्हारा काम जाने..?

रशीद भाई – [चहकते हुए] – कौन चल रहे हैं, ज़नाब ? मनचला साहब ? यार, अब तो मैं ज़रूर चलूँगा ! सुनना होगा, कैसे गाते हैं वे ? एक बात कह दूं आपको, ये छोरे के साले के साले हैं ! ज़नाब, अब तो मुझको नए वस्त्र पहनकर ही चलना होगा !

[दोनों चाय पीकर, चाय के ख़ाली प्याले नीचे रख देते हैं ! आल्लानूर साहब उठाते हैं और दुकानदार के पास जाकर, चाय के पैसे चुका देते हैं ! फिर, वे रशीद भाई से कहते हैं..]

अल्लानूर – अब यों करो, मियां ! नुक्कड़ पर एक रेडीमेट की दुकान है, दो जोड़ी कपड़े खरीद लो वहां जाकर ! फिर...

[अब दोनों दोस्त उस नुक्कड़ वाली दुकान पर पहुँच जाते हैं, रशीद भाई तो दुकान के अन्दर दाखिल हो जाते हैं....और अल्लानूर साहब, उस भीख मांग रहे फ़क़ीरड़े को अपने पास बुला लेते हैं ! थोड़ी देर बाद बाद, रशीद भाई नए कपड़े पहने दुकान से बाहर आते हैं ! इस वक़्त उनके हाथ में, उतारे हुए पुराने कपड़े हैं ! वहां खड़े फ़क़ीरड़े को देखकर, वे अल्लानूर साहब से कहते हैं..]

रशीद भाई – अच्छा किया, इस फ़क़ीरड़े को बुलाकर ! [फ़क़ीरड़े को पुराने कपड़े देकर, उससे कहते हैं] लीजिये बाबा, अब पहनना इन पुराने कपड़ो को ! अब प्लेटफोर्म पर, नंग-धडंग मत घूमना ! असभ्य लगोगे, ठोकिरे !

फ़क़ीर – अल्लाह का फज़ल है, म्यां ! आप जैसे रहम दिल इंसानों की दरियादिली ने, कभी इस फ़क़ीर को नंगा नहीं रखा ! अभी भी हुज़ूर की मेहरबानी से, इस बदन पर कपड़े पहने हुए हैं ! [रशीद भाई के दिए गए कपड़े, झोली में रखकर] आल्लाह आपको सलामत रखे ! [बड़बड़ाता है] हाय अल्लाह, इस ख़िलक़त में ग़रीब को मरने की जल्दी इसलिए भी है..कहीं ज़िंदगी की कशमकश में कफ़न महँगा न हो जाय ? अल्लाह मियां, मरने से पहले किसी रहमदिल मोमीन से कफ़न ज़रूर दिलवा देना !

[पुराने कपड़े लेकर, वह फ़क़ीरड़ा दोनों दोस्तों को सलाम ठोकता है..फिर, वह चला जाता है ! उसके जाने के बाद, अल्लानूर साहब रशीद भाई से कहते हैं..]

अल्लानूर – अरे मियां, ऐसे बिना जेबें संभाले कैसे दे दिए कपड़े..उस फ़क़ीरड़े को ?

रशीद भाई – संभाल ली, यार ! क्या रखा था, इन जेबों में ? तनख्वाह तो निकाल ली, ज़र्दा पड़ा होगा...तो फांकता रहेगा वो फ़क़ीरड़ा ! अब तुम चलो..चलो !

[अब दोनों दोस्त वहां से जाते दिखायी देते हैं, थोड़ी देर बाद मंच पर अँधेरा छा जाता है !]

[२]

[मंच रोशन होता है, माल गोदाम से एक गली बाहर निकलती है ! जो सीधी आकर, मुख्य सड़क से मिलती है ! इस गली के बाहर, एक ट्रक खड़ा है ! यह ट्रक अल्लानूर साहब का है, जो प्राय: मुम्बई से भैंसों को जोधपुर लाने-ले जाने के लिए काम में आता है ! दुधारू भैंसों का एक तबेला इनका मुंबई में है, और दूसरा है जोधपुर के नागौरी गेट के पास ! मुंबई में भैंस के दूध की किल्लत बनी रहती थी, इस कारण मुंबई में अल्लानूर साहब ने दूध का धंधा अच्छा-ख़ासा जमा रखा है ! जब कभी भैंसों को पाला आने वाला हो, तब अल्लानूर साहब इन भैंसों को जोधपुर मंगवाकर नागौरी गेट वाले तबेले में रखा करते हैं ! आज़ इन्होंने ट्रक की साफ़-सफ़ाई करवाकर उसमें जाजमें और बिस्तर बिछवा दिए हैं, वहां परिवार व मोहल्ले की औरतों तथा बच्चों को बैठाया गया है ! ट्रक के केबीन की ऊपर वाली जगह, जहां ट्रक के रस्से और लकड़ी के पाटिये रखे जाते हैं..उस जगह पर गद्दे बिछाकर, बुजुर्ग बैठ गए हैं ! केबीन में ड्राइवर के पहलू में, जवान छोरे बैठ गए हैं ! इन जवान छोरों में अल्लानूर साहब के भतीज-बहादुर ज़नाब रूप बहादुर को ड्राइवर के पहलू में बैठना रास नहीं आता, इसलिए वे जाकर बुजुर्गों के पास आकर बैठ जाते हैं ! ज़नाब रुप बहादुर ठहरे, एक आँख वाले यानि काणे ! जब से इन्होने सुना, ‘मुइनुद्दीन साहब साथ चल रहे हैं, और ये ज़नाब ठहरे इनके फेन ! बस, फिर क्या ? तब से रूप बहादुर ने, साथ चलने का इरादा कर लिया !’ मनचला साहब के अलावा अल्लानूर साहब के बुजुर्ग रिश्तेदार और गली-मोहल्ले के मौज़िज़ आदमी भी बाबा की मज़ार के दर्शनार्थ साथ चल रहे हैं ! ये सभी बुजुर्ग लोग, सड़क पर खड़े-खड़े आपस में गुफ़्तगू करते जा रहे हैं ! अब सामने से, अल्लानूर साहब और रशीद भाई आते दिखायी देते हैं ! रशीद भाई नज़दीक आकर, कहते हैं..]

रशीद भाई – देखो अल्लानूर साहब, तुम्हारे कहने से मैं आपके साथ चल रहा हूँ ! मगर मैंने घर पर कोई इतला नहीं की, अब यह तो तुम जानते ही हो मैं मोबाइल रखता नहीं..और रखे कौन, इस गले की घंटी को ?

अल्लानूर साहब – अरे, बिरादर ! फ़िक्र काहे करते हो, मियां ? सौ फीसदी सच्च कहता हूँ, मैं ज़रूर भाभी को इतला कर दूंगा ! अब तुम तो मियां, चलने की बात करो !

रशीद भाई – चल रहा हूँ, अल्लानूर साहब ! अब, चलना भी क्या ? एक दिन इस ख़िलक़त से भी, कहीं और चल देंगे !

[रशीद भाई आगे और क्या बोलते ? जैसे ही उनकी नज़रों में मनचला साहब यानि मुईनुद्दीन साहब आ जाते हैं..बस ज़नाब अपनी सारी फ़िक्र को एक तरफ़ रखकर, सामने खड़े मुईनुद्दीन साहब को गले लगा बैठते हैं ! बरबस अब मुईनुद्दीन साहब के मुख से, क़लाम निकल उठता है..]

मुईनुद्दीन साहब – [क़लाम पेश करते हुए] – ‘पापियों के पांव पड़ते गए, आदमियत पे होता गया वार है ! मुफ्लिसों की तरफ़ मुड़कर देखो कभी ज़िंदगी किन अभावों की झंकार है..?’

रशीद भाई – हुज़ूर, हमसे नज़र मिलाकर देख लीजिये..हम क्या कह रहे हैं ? सुनिए, ‘दिल संभाले संभलता नहीं आज तो, ग़र शरीफों के कोई बदकार है !’

मुईनुद्दीन साहब – [सामने देखकर, कहते हैं] – अरे हुजूर, रशीद भाई तुम यार..? [आगे बढ़कर, एक बार और गले लग जाते हैं] अरे यार तुम हमको इतना बदकार न समझो, हम तो यहीं कहेंगे ज़नाब के ‘अल्लाह रे ! ग़मे हिज़ा, दामन को जला बैठे, आंसू नहीं शोले हैं, इतना न मगर जाना !’

रशीद भाई – [वापस क़लाम पेश करते हुए] – ‘हर हाथ सवाली है, हर आँख पे पानी है, इस दौर में मुश्किल है गुज़र जाना !’

रूप बहादुर शाह – [अपनी एक काणी आँख को, हाथ से सहलाते हुए] – किस आँख पे पानी है, हुज़ूर...? ज़रा...

अल्लानूर साहब – [ट्रक पर चढ़कर, रूपबहादुर को आवाज़ देते हुए कहते हैं] – अरे, ओ साहबज़ादे ! जो सलामत है, उसी की बात करियो..! अब तुम चढ़ जाओ ट्रक में, नहीं तो फिर बोलोगे तुम..[क़लाम का एक अंश बोलते हैं] ‘अश्कों की अदा है ये, पलकों पर ठहर जाना..’ अब आ जाओ, आ जाओ ! नहीं तो तुम रह जाओगे, जोधपुर में ! फिर मज़नू की तरह जोधपुर की गली-गली में, कहते चलोगे कि ‘कोई पत्थर न मारो मेरे महबूब पर !’...?

[काणे रुपबहादुर शाह, अब ट्रक में चढ़ने लगे ! मगर अभी-तक मुईनुद्दीन साहब, अपने बुजुर्ग साथियों के बीच खड़े शेरो-शाइरी का लुत्फ़ लेते जा रहे हैं !

अल्लानूर साहब – अजी, ओ मनचला साहब ! पूरा वक़्त पड़ा है, पूरी रात इन आंखों में कट जायेगी..तब ज़नाब , अपना यह शेरो-शाइरी का पूरा शौक कर लेना जी ! अब इन सबको ले आवो गाड़ी में, यार मोड़ा हू रहा है !

मुईनुद्दीन साहब – हुज़ूर ! आपको क्या मालुम, फेन के कद्रदान का ? हमें तो लोग मिलते हैं जहां, घेर लेते हैं हमें ! अब सुनिए, अल्लानूर साहब तुम भी ! अर्ज़ करता हूं “फ़नों की कद्रदान नहीं का यह आलम आज़ देखा है, बरहना जिस्म नाचेंगे तो सब ताली बजायेंगे !”

अल्लानूर साहब – बरहाने जिस्म नचाते रहियो, बाद में ! पहले बात सुन लो, मेरी ! रशीदा जान वह फ़नकार आ रही है, कव्वालों के साथ ! हुज़ूर, वह भी चलेगी बाबा के दरबार में कव्वाली पेश करने !

रशीद भाई – क्या कहा, रशीदा जान..रशीदा जान ?

[रशीद भाई, रशीदा जान का नाम ऐसे ज़ोर से लेते हैं..के, उनके साथियों की आंखों के सामने आ रहे चित्र उड़न छू हो जाते हैं ! अब उनको भद्दी आवाज़ के साथ, ताली पीटने की आवाज़ सुनायी देती है ! आंखें मसलते हुए, वे सब अपनी आंखें खोलते हैं..उनको सामने प्लेटफोर्म पर ताली बजाता हुआ हिज़डा, रशीदा जान दिखाई दे जाता है ! वह पास आकर, ताली पीटता हुआ कहता है]

रशीदा जान – [ताली पीटता हुआ, कहता है] – सेठ कहिये, मैं रशीदा जान ही हूं ! चार ठुमका इस तरह लगाऊंगी, जिसे देखकर आप कथा बांचना छोड़ देंगे ! जितना मैं नेग मांगूगी उतना आप दे देना, ना तो सेठ मैं आपके सारे वस्त्र उतारकर ले जाऊंगी ! बोलो सेठ, तैयार हो..लगा दूं ठुमका ? [ताली बजाता है]

[रशीद भाई अपनी जेब से दस रुपये का कड़का-कड़क नोट निकालते हैं, नोट को देखते ही रशीदा जान उस नोट को छीनकर अपने ब्लाउज में ठूंस लेता है ! फिर क्या ? झट पास खड़े सावंतजी के गालों को हाथ से सहलाता हुआ, गीत गाना शुरू करता है !]

रशीदा जान – [गाता हुआ] – लागे थारा अच्छा नैण ! जबरा कांम कटारा नैण, दाखा री दारुड़ी फ़ीकी, घणा नसीला थारा नैण !

ठोक सिंहजी – अरे करमज़ला, तू मत याद दिला रे हमारे ठाकुर साहब को यह दारु दाखों का ! फिर तो यही जोधपुर में ही जम जायेंगे, और जायेंगे नहीं नौकरी पर !

[यह बात सुनते ही सब ज़ोर-ज़ोर से हंसने लगते है, इतने में गाड़ी की सीटी की आवाज़ सुनायी देती है ! थोड़ी देर बाद, प्लेटफोर्म नंबर एक पर जम्मू-तवी एक्सप्रेस आती हुई दिखायी देती है ! उसके प्लेटफोर्म नंबर एक पर रुकने पर सावंतजी बैग उठाकर अपने साथियों से कहते हैं..]

सावंतजी – [बैग उठाते हुए, कहते हैं] – अरे चलो, साथियों ! अपनी गाड़ी आ गयी है, अब रशीद भाई आप अपना शेष क़िस्सा गाड़ी में बैठकर सुना देना..कि, आगे क्या हुआ ? मगर, यहाँ बैठकर नहीं !

[सभी साथी बैग ऊंचाकर रुख्सत होते हैं, और उस बेचारे रशीदा जान को कोई भाव देता दिखाई नहीं देता कि वह क्या कह रहा है, या गालियां बकता जा रहा है...?]

रशीदा जान – [गाता हुआ] – “मैं पीछा न छोडूंगा सोनिया, पीछा न.. “ आ रही हूँ, तुम लोगों के पीछे-पीछे !

[मंच पर अंधेरा फ़ैल जाता है, थोड़ी देर बाद मंच पर वापस रोशनी फैलती है ! अब गाड़ी के शयनान डब्बे का मंज़र, सामने आता है ! आज यह डब्बा खचा-खच भरा है, डब्बे में बार-बार टी.टी,ई. आते-जाते दिखायी दे रहे हैं ! उनको देखते रशीद भाई, अपने सभी साथियों से कह रहे हैं..]

रशीद भाई – या तो चलिए लोकल डब्बे में, नहीं तो चलकर बैठ जाते हैं फुठरमलसा की मन-पसंद ठौड़, यानि..पाख़ाने के पास, फ़क़ीरों की बैठने की ठौड़ पर ! जहां फुठरमलसा आराम से बैठकर, ताश खेला करते थे ! उस जगह अच्छी तरह से बैठकर, अपुन सभी गुफ़्तगू करते रहेंगे ! वहां कोई टीका-टिप्पणी करने वाला नहीं !

ठोक सिंहजी – रशीद भाई, आपके लिए भी आराम ! जैसे ही बाबा का हुक्म हुआ, और आप झट चले जायेंगे पाख़ाने के अन्दर ! फिर, क्या ?

सावंतजी – चलो, भाई चलो ! आज तो रशीद भाई की तरफ़ से फ़क़ीरों की ठौड़, पर बैठना का निमंत्रण मिल गया है !

ठोक सिंहजी – रशीद भाई तो ख़ुद दिखायी देते हैं, फ़क़ीरों जैसे ! फिर क्या ? इनके पास अगर हम लोग बैठेंगे तो टी.टी.ई. हमसे भी आरक्षण का टिकट मांगेगा नहीं !

रशीद भाई – आप लोग कुछ भी कहो, आख़िर पहुंचना तो पाली ही है ! फिर, कहीं बैठो यार ! क्या फर्क पड़ता है, यार ?

[इंजन सीटी देता है, अब गाड़ी स्टेशन छोड़ देती है ! फिर क्या ? सभी साथी बैग उठाये, पाख़ाने की तरफ़ अपने क़दम बढ़ाते हैं ! अब सभी वहां पहुंच जाते हैं, वहां पहुंचकर रशीद भाई ने डब्बे का दरवाज़ा खोल दिया है..अब, ताज़ी हवा आने लगी है ! सभी वहां वाश-बेसिन के नीचे फर्श पर बैठकर, परस्पर वार्ता शुरू करते हैं !]

रशीद भाई – सुनो, आगे..रशीदा जान का नाम सुनते ही, सभी बुजुर्ग साथियों की आँखों मे चमक आ जाती है ! अब, बेफालतू क्यों वक़्त ख़राब करें ? एक-एक करते, सभी ट्रक में चढ़ जाते हैं ! और फिर जाकर, अपनी-अपनी सीटों पर बैठ जाते हैं ! थोड़ी देर बाद, रशीदा जान अपने कव्वाल साथियों के साथ ट्रक में चढ़ जाती है ! सभी मोहतरमा व बच्चे एक तरफ़ हटकर बैठ जाते हैं ! जिससे उन लोगों को बैठने की ठौड़ आसानी से मिल जाती है ! अब वे लोग शान्ति से, नीचे बिछाये गये गद्दों पर बैठ जाते हैं !

[रशीद भाई क़िस्सा बयान करते जा रहे हैं, सभी साथियों की आंखों केआगे वाकया चित्र बनकर फिल्मकी तरह छाता जा रहा है ! मंच पर, अँधेरा छा जाता है ! थोड़ी देर बाद, मंच रोशन होता है ! हाई वे पर ट्रक दौड़ती नज़र आ रही हैं ! अंधेरा फैलता जा रहा है, अब आशियत का अन्धेरा वाकयी अमावस की गहन रात का रूप लेता जा रहा है ! अब ट्रक, गहन जंगल से गुज़रती दिखाई दे रही है ! जंगल से गुज़रने के कारण, ट्रक की रफ़्तार कम कर दी गयी है ! चारों तरफ़ दिखायी दे रहे पेड़ों के पत्ते वायु के झोंकों से सायं- सायं की आवाज़ करते हिलने लगे ! उन पत्तों की खड़-खड़ करती आवाज़ ट्रक में बैठे जायरीनों के बदन में डर की सिहरन पैदा करती जा रही हैं ! अचानक कभी गाड़ी के आगे से फरणाटे की आवाज़ करते परिंदों का उड़कर निकल जाना, या कभी किसी चट्टान के ऊपर खड़े सियारों का एका-एक कूक लगाया जाना..ये आवाज़ें, सभी जायरीनों के रोंगटे खड़े करने के लिए पर्याप्त है ! गाड़ी के हॉर्न की आवाज़ सुनकर या किसी जंगली जानवर के दिखायी दे जाने से पेड़ों पर विश्राम कर रहे बंदर एकाएक जग जाते हैं और फिर वे डालियों पर कूद-फांद करते हुए शोर मचाने लगते हैं ! अचानक रशीदा जान की नज़रें, सामने से आ रहे बरगद के पेड़ पर जम जाती है ! इस पेड़ के पत्तों के बीच में छिपे तेंदुए की लाल सुर्ख आँखें, इस अँधेरे में चमकती हुई नज़र आती है ! जैसे ही यह ट्रक बरगद के पेड़ के निकट पहुंचता है, और वह तेंदुआ छलांग लगाता हुआ नज़र आता है ! उसके छलांग लगाते ही बंदरों का झुण्ड ज़ोर-ज़ोर से चीं-चीं करता हुआ किलियाता है ! छलांग लगाते हुए तेंदुए को देखकर रशीदा जान को ऐसा लगता है, मानों उस तेंदुए ने गाड़ी के ऊपर ही छलांग लगा दी है ? डर के मारे, ज़ोर से चिल्ला उठती है, रशीदा जान ! उधर ड्राइवर के पास बैठा मुनीरिया डर के मारे ज़ोर से चीख उठता है, जिससे ट्रक में बैठे सभी जायरीनों का दिल कांप उठता है !]

मुनीरिया – [डरकर, ज़ोर से चिल्लाता हुआ कहता है] – या अल्लाह ! तेंदुआ आ गया, कोई आकर बचाओ रे !

[लोगों को ऐसा महशूस होने लगा, वास्तव में तेंदुआ छलांग लगाकर ट्रक पर चढ़ चुका है ! ऐसा आभास होते ही सफ़दर मियां के मुंह से निकल जाती है, ज़ोर की चीत्कार ! फिर क्या ? बेचारे बचने के लिए तेज़ी से अपने हाथ फेंकते हैं ! और बेचारे, एक तरफ़ दुबक जाते हैं ! सफ़दर मियां को क्या मालुम, उनका हाथ आकर सीधा लग जाता है रूप बहादुरशाह के कांप रहे बदन पर ? रूप बहादुरशाह को इस काली रात में कुछ भी नज़र नहीं आ रहा है, बेचारे इस धब्बीड़ करते पड़े सफ़दर मियां के हाथ को वे तेंदुआ समझ लेते हैं ! ऐसा महशूस करने के बाद, बेचारे रूप बहादुरशाह की क्या हालत हुई होगी ? यह तो ख़ुदा ही जाने ! बेचारे रूप बहादुर बचने के लिए, पास बैठे बुजुर्ग कासीम मियां की गोद में दुबक जाते हैं ! हाय अल्लाह, यहाँ तो हो गयी दूसरी बात ! उनको तो रूप बहादुरशाह का चेहरा दिखायी दिया नहीं, और हो जाता है भ्रम ! कि, कोई तेंदुआ या बघेरा आकर गिर गया होगा उनकी गोद में ? फिर क्या ? उनकी अँगुलियों के बीच पकड़ी हुई सुलगती सिगरेट तड़ाक करती छूटती है, फिर क्या ? वह सिगरेट तो सेबरजेट की तरह जाकर चेंठ जाती है, अल्लानूर साहब के गाल पर ! अभी किसी पागल कुत्ते को छेड़ दिया जाय, फिर वह कुत्ता कैसे भड़कता है ? बस उसी पागल कुत्ते की तरह, अल्लानूर साहब भी भड़क जाते हैं ! फिर उन्होंने आव देखा न ताव, बस जमा देते हैं धब्बीड़ करता थप्पड़..बेचारे रूप बहादुरशाह के, कोमल ख़ूबसूरत गाल पर ! फिर चिल्लाकर, गुस्से से उफ़नते हुए उससे कहते हैं..]

अल्लानूर साहब – [धब्बीड़ करता थप्पड़ जमाते हुए, कहते हैं] – गधा कहीं का, दारुखोरे की तरह पड़ जाता है लोगों के ऊपर ! अब भी सुधर जा, नहीं तो और खायेगा मार ! [और दूसरा थप्पड़ मारने के लिए वे हाथ ऊंचा करते हैं, मगर यह क्या ? थप्पड़ लगने के पहले ही उनकी कोहनी ज़ोर से जाकर लगती है उनके पीछे दुबके हुए बैठे सफ़दर मियां की कमर पर, जो बेचारे डर के मारे मुंह फेरकर पीछे दुबके हुए बैठे हैं ! कोहनी लगते ही, वे बेचारे दर्द के मारे चिल्ला उठाते हैं..]

सफ़दर मियां – [चिल्लाकर, ज़ोर से बोलते हैं] – मुझे भैंस का ठान्गला समझ रखा है, क्या ? कोई आये, और मारे घुद्दा ? दूर हटो रे, सारे खोजबलिये अन्दर आकर ही गिरेंगे, यह क्या मिनख-मार तमाशा लगा रखा है ?

कासीम मियां – [हाथ ऊंचे करके, कहते हैं] – यह कैसा तमाशा ? किसको लग रहा है, घुद्दा ? और कौन किसके ऊपर गिर रहा है ? यहाँ तो केवल ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने की आवाजें सुनायी दे रही है ! या ग़रीब परवर ख्वाज़ा पीर..फ़रियाद तो सुन मेरे बाबा !

[इतना कहकर, कासिम मियां कैसे धीरज रखे ? उनको तो ऐसा लगने लगा कि, कोई शक्ति उन्हें किसी को पीटने के लिए उतारू करती जा रही है ! किसी को पीटने के लिए..उनके हाथ-पांव मचलने लगे..? उनके हाथ-पांवो पर उनका कोई वश चल नहीं रहा ! बस उनको भरोसा हो गया, के “कोई आसेब उनके बदन पर कब्ज़ा कर चुका है, और अब वह आसेब उनको मज़बूर करता जा रहा है...किसी को पकड़कर, पीटें !”

[फिर क्या ? गोद में छुपे हुए भयभीत रूप बहादुरशाह को दोनों हाथों से ऊंचाकर पटकते हैं नीचे..जो सीधे जाकर गिरते हैं मरियल सी, मरियम बी के ऊपर ! मरियम बी है जबरू उस्ताद की अम्मी, जो है बड़ी गुस्सेल ! फिर जान लीजिये, बेचारे रूप बहादुरशाह की क्या हालत हुई होगी ? बस ज़नाब , चिणगारी लगी और शोले भड़के..अब तो उनकी आंखें भभकते अंगारों के सामान लाल हो गयी ! फिर क्या ? अब उनका मुंह घिन से विवर्ण हो जाता है, क्योंकि इस भारी वज़नी रूप बहादुरशाह के नीचे दब जाने से, बेचारी मरियम बिन पानी की मछली की तरह तड़फने लगी..मगर ख़ुदा जाने, कहाँ से उनके बदन में शक्ति का संचार हो गया और वे धबाक करती उठती है ! फिर क्या ? उस निर्लज्ज को धबो-धब धबीड़ना शुरू करती है ! इधर उनके हाथ-पांव चले और उधर उन्होंने उस दुष्ट के हाथ-पांव ढीले कर डाले ! अब तो घायल शेरनी की तरह रूप बहादुरशाह की छाती पर चढ़कर, मोहम्मद अली मुक्केबाज़ की तरह मुक्के मारने लगी ! इस तमाशे से, गाड़ी में बैठी औरतें और बच्चें शोर मचा देते हैं ! अचानक एक जुगनू का झुण्ड इनके ऊपर से गुज़रता है, उस झुण्ड से निकल रही रोशनी में रशीदा जान को रुप बहादुरशाह का चेहरा दिखायी दे जाता है ! वह ज़ोर से चिल्लाती हुई, मरियम बी को चेताती हुई कहती है..]

रशीदा जान – [मरियम बी का हाथ पकड़कर, कहती है ज़ोर से] – क्या करती हो, बेग़म ? ये ज़नाब रूप बहादुरशाह है, कोई जंगली जानवर नहीं है..जो आप धबा-धब पीटती जा रही हैं ?

[इतने में सफ़दर मियां को सिगरेट पीने की तलब होती है, सिगरेट जलाने के लिए माचिश जलाते हैं ! तीली के जलते ही प्रकाश फैलता है, और उसकी रोशनी में मरियम बी को रूप बहादुरशाह का चेहरा नज़र आता है ! अब बेचारी मरियम बी पछताती है कि, उससे यह खता क्यों हुई ? यह साहब बहादुर तो, अल्लानूर साहब के लाडले भतीज बहादुर ठहरे ! उसने, उन पर कैसे जुल्म ढाह दिया ? अपने हाथों से हुई खता के लिए माफ़ी मांगकर, फिर उन्होंने रूप बहादुरशाह को शान्ति से कव्वालों के पास बैठा दिया ! इतने में, ट्रक रुक जाती है ! अल्लानूर साहब ज़ोर से ड्राइवर को आवाज़ देते हुए कहते हैं..]

अल्लानूर साहब – क्या हुआ है, चच्चा ? गाड़ी काहे रोक दी ?

[परेशानी से भरी, ड्राइवर की आवाज़ सुनायी देती है !]

ड्राइवर – क्या करूं, मियां ? यह मुनीरिया झरा-झरा रो रहा है ! कभी तो कहता है, पाख़ाना जाना है ! कभी बोलता है, पेशाबूर जाना है !

रशीद भाई – [हंसते-हंसते, कहते हैं] – तेंदुए को देखकर, कमबख्त को मूत उतर रहा है ?

[इनकी बात सुनकर, सभी हंस पड़ते हैं ! तब मुईनुद्दीन साहब बिना बोले कैसे रह पाते ? झट पेश कर देते हैं, एक शेर !]

मुईनुद्दीन साहब – [शेर पेश करते हुए, कहते हैं] – “यह इसका हौसला है की अब तक मर न सका, तुम्हारी तरफ़ से दोस्तों ! कोई कसर नहीं !”

कासिम मियां – इरशाद..इरशाद ! क्या कहना है, आपका ?

रशीदा जान – इरशाद को मारो गोली, बेचारे मुनीरिये को देखो ! ज़ंगल जाना है, पानी से भरा डब्बा या लोटा पकड़ा दो इसे !

[अब किसी को उठते न देखकर, आख़िर बेचारी रशीदा जान ख़ुद उठती है ! फिर ट्रक के बाहर मुंह निकालकर, वह ड्रावर फ़ज़लू मियां को आवाज़ देते हुए उनसे कहती है !]

रशीदा जान – [आवाज़ देती हुई, कहती है] – अरे ओ, फ़ज़लू चच्चा ! ज़रा इस मुनीरिये को पानी झिलाना, छोरे को निपटने जाना है !

फ़ज़लू चच्चा – क्या कहूँ, बेग़म आपको ? हमने पानी रखा नहीं है, सारा पानी गाड़ी धोने के काम आ गया ! मैं तो इसको डब्बा दे देता हूं, आगे तुम जानो !

[सीट के पीछे रखा कनस्तर का डब्बा उठाकर, थमा देता है मुनीरिये को ! फिर, उससे कहता है..]

फज़लू मियाँ – [डब्बा देते हुए, कहते हैं] – अबे, उठ रे मुनीरिये ! जा, बीबी से पीने का पानी लेकर चला जा....अब डरकर, यहां हंगना मत !

[सभी फ़ज़लू मियां की कही बात को सुनकर, ज़ोर से हंस पड़ते हैं ! आख़िर आब-आब होता हुआ, मुनीरिया डब्बा लेकर नीचे उतरता है ! और ट्रक के पीछे जाता है, पानी लेने !

रशीदा जान – [पीने की बोतल, उसके कनस्तर के डब्बे में खाली करती हुई कहती है] – पीने का पानी डाल रही हूं, मियां ! किफ़ायत से, खर्च करना ! आख़िर, तुम हो कैसे आदमी ? बंगला देश में सुदर वन के टाइगर, तुमने देखे नहीं..कभी ! और आ गए यहां, धोती ढीली करने ?

[रशीदा जान की कही बात सुनकर, वहां बैठी मोहतरमाएं पल्लू से लबों को ढांपती हुई मींई मींई निम्बली की तरह हंसने लगी ! बेचारा मुनीरिया शर्मसार होकर, अपना सर झुका लेता है ! फिर, वह डब्बे में पानी डलवाकर रूख्सत हो जाता है ! अब अल्लानूर साहब की कमर पर सफ़दर मियां घुद्दा मारकर, उन्हें उलाहना देते हुए कहते हैं]

सफ़दर मियां – [उलाहना देते हुए, कहते हैं] – अल्लानूर मियां, यह मुनीरिया किसका नेक दख्तर है ? तुमने तो ऐसे डरपोक आदमी को साथ ले लिया, जो डर के मारे यह यहां-कहीं हंग नहीं दें ? फिर ट्रक को धोएगा, कौन ? मुझे अब यह बताओ, इस छोरे का बंगला देश से क्या लेना-देना ?

अल्लानूर – मियां आप तो जानते ही हैं, रशीद मियां के ससुर मजीद मियां को ? उनके दोस्त बाबू खां का यह गोद लिया हुआ छोरा है ! क्या कहें ज़नाब, आज़कल इन मोमिनों का दिमाग़ ख़राब हो गया है..

सफ़दर मियां – [उतावली से, कहते हैं] – ऐसे नहीं, आप विगतवार पूरा क़िस्सा सुनाइये ! ऐसे मेरे समझ में, आने वाला नहीं !

अल्लानूर – आप आज़ से ही खाना शुरू कीजिये, बिदामें ! इतना तो आप जानते ही हैं, हिन्दुस्तान में कहाँ छोरों की कमी है ? जो ये रईसजादे, बंगला देश से छोरे मंगवाकर गोद लेते हैं !

रशीद भाई – छोरा बहुत होशियार है, इसलिए इसे गोद लिया होगा ! देखिये अल्लानूर साहब, यह छोरा होगा करीब २५ साल का...और इसने निकाह कर लिया जोधपुर की लड़की से ! अजी ज़नाब इसने तो कुड़ी भगतासनी में मकान भी ख़रीद लिया ! इधर देखिये, राशन कार्ड, ड्राइविंग लाइसेंस, आधार कार्ड सब कुछ बनवा लिया अपने नाम ! अरे ज़नाब, किसी को रत्ती भर भनक नहीं लगी कि यह छोरा बंगला देश का है !

[कासीम मियां को परायी पंचायती की बातें सुनने में, बहुत आनंद आता है ! मगर इन बातों को, बिना नशे-पत्ते किये कैसे सुना जाय ? उनकी धूम्रपान करने की तलब, अब बहुत बढ़ जाती है ! बस, फिर क्या ? झट जेब से, माचिस और सिगरेट का पैकेट निकाल लेते हैं ! और सिगरेट को सुलगाकर, धूम्रपान का लुत्फ़ उठाना शुरू कर देते हैं ! तभी यह छोरा मुनीरिया निपटकर आ जाता है, और ट्रक में आकर अपनी सीट पर बैठ जाता है ! अब ट्रक चालू हो गयी है,अब वह सरपट तेज़ गति से दौड़ती जा रही है !]

कासीम मियां – [मुंह से धुंए के बादल छोड़ते हुए, कहते हैं] – अल्लानूर साहब, इस मुनीर ने किसकी बेटी के साथ निकाह किया..जानते हैं आप ? अजी मैं बता देता हूं, माणक चौक वाले हसन मियां रंगरेज की पोती के साथ इस कमबख्त का निकाह हुआ !
[इतनी देर से इनकी गुफ़्तगू सुन रही मरियम बी, कई बार इस मुनीरिये की बेग़म का मुंह देख लेती है, आख़िर उससे बिना बोले रहा नहीं जाता ! वह पास बैठी सकीना बी को सुनाती हुई, कहती है !]

मरियम बी – [बुर्के की जाली हटाती हुई कहती है] - इतनी देर से मैं यह सोच रही हूं, यह मुनीरिये की बेग़म जानी-पहचानी कैसे लग रही है ? [पास बठी मुनीरिये की बेग़म का मुंह ऊंचा करती हुई, उससे कहती है] अरे छोरी, तू तो हमारी पोती निकली ? इतनी देर तू, चुपचाप कैसे बैठी रही ? करमज़ली, कोई दुआ-सलाम नहीं..अनजान बनकर बैठ गयी !

सकीना बी – तू तो वही है, ना ? जो ओढ़नों पर कसीदे निकाला करती थी, फिर हमें महंगे भाव से बेच दिया करती ! रिश्तेदारी की बात कहने पर अल्लाह कसम तू कहती थी कि, ‘अजी दादीजान, धंधा लिए बैठी हूं ! घोड़ा अगर घास से यारी करेगा, तो खायेगा क्या ?’ समझ गयी बानो ? अब हमने पहचान लिया है, तूझे ! बोल छोरी, अभी-तक तुमने अपने घर वाले से मिलाया क्यों नहीं ? हम तेरी दादी हैं, छोरी ! चार पैसे हथेली पर रखने की हमारी भी औकात है ! इतनी बात, भूला मत कर !

मरियम बी – इसको अब तुम तंग मत करो, देखो इसका मुंह कैसा उतरा हुआ है ? कहीं यह रोवणकाळी, अपने कज़रारे नयनों से आसूं न गिरा दे ? [मुनीरिये की दुल्हन से, अहती है] अरे छोरी, तुझको तेरा खाविंद रोटी खिलाता है या नहीं ? बोल, बोल ! काहे मुंह बंद करके बैठ गयी ?

मुनीरिये की दुल्हन – दादी बात यह नहीं है ! गफ्फूरिये के अब्बा मुझे बहुत ख़ुश रखते हैं ! मगर, इन दिनों ये पुलिसिये...

सकीना बी – क्या बोली, ये पुलिसिये ? क्या, वह चोरी-चकारी करता है ? हाय अल्लाह, तेरे तो करम फूट गए ! ख़ुदा रहम..ख़ुदा रहम ! क्या, तूझे ऐसा खाविंद मिला ?

सकीना बी – क्या बोली, ए ಽಽ.., पुलिसिये ? क्या, वह चोरी-चकारी करता है ? हाय अल्लाह, तेरे तो करम फूट गए ! ऐसा खाविंद, मिला ?

मुनीरिये की दुल्हन – [नम आँखों से आंसू गिराती हुई, कहती है] – यह बात नहीं है, दादी ! हमारी तो क़िस्मत ही खोटी ! ये सी.आई.डी. वाले अकसर घर आ जाते हैं, दादी ! और पूछते रहते हैं कि, यह मुनीरिया यहां कैसे ? और कहते हैं, दादी ! कि, यह साला तो फ़र्जी..मिस्टर नटवर लाल लगता है !

[सकीना बी अपने हाथों से, उसके ढलकते आंसूओं को पोंछती है ! फिर, उसे दिलासा देती है ! जास मिलने पर, मुनीरिये की दुल्हन रोती हुई अपनी व्यथा कह डालती है ! जिसे सुनते ही, यहां बैठी सभी आश्चर्य बूढ़ी औरतें चकित रह जाती है !]

मुनीरिये की दुल्हन – दादी, क्या कहूं, तुमको ? ये सी.आई.डी. वाले, बार-बार सवाल ऊपर सवाल करते जाते हैं ! अरे दादी, ख़ुदा जाने ये मुए सवाल करते थकते क्यों नहीं ! कहते हैं, ‘ओ मुनीरिया की जोरू ! तेरे खाविंद ने क्या-क्या चक्कर चलाये ? वह ठहरा बंगला देशी, कमबख्त इंडियन कैसे बन गया ? अब तो हम इसको जेल में डालकर पिसायेंगे, जेल के आटे की चक्की ! फिर बाद में, इसको भेजेंगे बंगला देश !’

मरियम बी – [ज़ोर से, कहती है] – सालों, भंगार के खुरपों ! एक औरत को अलग करोगे, उसके खाविंद से ? तुम लोगों की सात पुश्तें जाए, दोज़ख़ में ! [मुनीरिये की दुल्हन की नम आँहों से ढलक रहे आंसूओं को, पोंछती हुई कहती है] अरे छोरी ! तब तू अपने मर्द से, अलग कैसे रहेगी ?

सफ़दर मियां – ओ भाभी, किसको भेज रही हैं आप...दोजख़ में ? अभी तो भाभी पहला काम करो, आसेब से बचने का ! जानती हैं, आप ? पहले कासीम मियां ने पी थी, सिगरेट...तब घुस गया था आसेब उनके डील में, फिर उन्होंने खूब मचाया हुड़दंग ! अब दूसरी बार और पी रहे हैं, सिगरेट ! अब अल्लाह आने, अब क्या होगा ?

मुईनुद्दीन साहब – अजी मैं कहा रहा हूं, सौ फ़ीसदी यह आसेब लग गया था कासीम मियां को ! दो साल पहले, मैं इधर आया था सफ़दर साहब ! मैंने लोगों से सुना था कि,..

अल्लानूर – क्या सुना, मियां ?

मुईनुद्दीन साहब – हुज़ूर ! आप रशीद भाई के मामूजान को जानते होंगे ? इस मामू के काकी ससुर यानि दिलावर सेठ के भाईजान अकबर अली साहब...

अल्लानूर - इसका मतलब ?

मुईनुद्दीन साहब – देखो, अभी बर का बस-स्टैंड आयेगा ! बराबर उस चौराहे से यह ट्रक गुज़रेगी, फिर आयेगा बरगद का पेड़...

अल्लानूर – यही कहना चाहते हो, मियां ! कि, कुछ साल पहले मेरी इसी ट्रक से अकबर साहब ने सफ़र किया था ! और इसी स्थान पर वे बैठे थे, जहां आज आप बैठे हैं ! अंधेरी रात थी, बरगद की डालियां उनको नज़र आयी नहीं ! बस, फिर क्या ? उन डालियों से टकराकर बेचारे अकबर साहब नीचे गिर पड़े, और अल्लाह के प्यारे हो गये ! उनकी लोथ मिली या नहीं, यह मैं नहीं जानता ! आप जानते हैं, तो आप बताइयेगा !

मुईनुद्दीन साहब – लोथ का क्या करना, जी ? उनका गोद लिया भतीजा..

अल्लानूर साहब – कौनसा भतीजा...? दिलावर सेठ के कोई लड़का नहीं था, एक छोरी थी जिसका निकाह मामू प्यारे के साथ हुआ था !

मुईनुद्दीन साहब – उनका छोरा नहीं था तो क्या हुआ जी ? उनके चचेरे भाई गुलाम खां साहब के चार छोरे थे, वो मंझला छोरा अमज़द था ना..उसको गोद दे डाला इन्हें ! आगे सुनो, इस अमज़द ने लोगों को उनके फ़ातिहे की दावत खिला दी..दरूद के दिन ! आप सभी चले थे ना, दावत में..क्या भूल गए आप ? क्या दावत थी, मसालेदार लज़ीज़ सब्जियां..? और, बना था..

सफ़दर मियां – अरे, ज़नाब ! रुको मत, दूसरी बातों के ग़लत स्टेशन पर ! अजी अल्लाह के फ़ज़लो-करम से बातों की गाड़ी की रफ़्तार को बढ़ाते जाओ...अब आगे कहिये !

मुईनुद्दीन साहब – यह अपनी गाड़ी तो ज़नाब, बहुत तेज़ रफ़्तार से चल रही है...पूरा बदन हिल रहा है, इसके तेज़ चलने से ! फिर, आप कहना क्या चाहते हैं ?

सफ़दर मियां – अरे हुज़ूर, ट्रक की बात नहीं कर रहा हूं ! मुद्दा नहीं बदलने की बात, कह रहा हूं ! मियां तुम तो, आगे कहो ! क्या हो गया, अकबर साहब का ?

मुईनुद्दीन साहब – बस ज़नाब, अकबर साहब इस हादसे से मर गए और अकाल मौत के कारण बन गए आसेब ! बस, फिर क्या ? आते-जाते जायरीनों के डील में घुसकर, उनसे शैतानी हरक़तें करवाते हैं ! मैं बस अब यही कहूंगा कि, कुछ नहीं है इस ख़िलकत में ! अब जीना है तो फ़क़ीर बनकर जीयो, सुनो..अर्ज़ किया है “जळम ल्यौ है इब ताणी पीट्यां गया लकीर ! उळझ्यो फिरियो अड़ंगा माही तू कद मस्त फ़क़ीर ?”

[ट्रक तेज़ गति से दौड़ रहा है, अब बर का बस स्टैंड आने वाला ही है ! मंच पर, अंधेरा छा जाता है ! रेल गाड़ी के शयनान डब्बे का मंज़र सामने आता है ! सभी युरीनल के बाहर आँगन पर बैठे हैं ! रशीद भाई उन सबको वाकया सुनाते जा रहे हैं !]

रशीद भाई – [भजन गाते हुए, कहते हैं] – ‘रसता लामा, दूर नगर है बांकी-टेडी घणी डगर है, ज़र-ज़र काया, झूठी माया, इण भवंतर रै तीर बता मन ! तू कद को मस्त फ़क़ीर ?’ वाह, ज़नाब वाह ! क्या बढ़िया भजन गाया है, मुईनुद्दीन साहब ने ? मैं तो कायल हो गया, उनके इस..

ठोक सिंहजी – अरे, ओ रमते जोगी ! जोग बाद में ले लेना, फ़क़ीर बनने में अभी काफ़ी वक़्त बाकी है ! बाबा से हुक्म ले लीजिएगा, और चले जाइए पाख़ाने की ओर..निपटने के लिए !

सावंतजी – [हंसते-हंसते, कहते हैं] – नहीं जा रहे हैं, ज़नाब..तो बैठे-बैठे पिछवाड़े से, तोप चलाते जाइए !

[रशीद भाई बैग से नेपकीन निकालते हैं, और साथ में साबुन की टिकिया भी निकाल लेते हैं ! फिर पाख़ाने का दरवाज़ा खोलकर, अन्दर दाख़िल हो जाते हैं ! उनके दरवाज़ा बंद करते ही, सभी अपने नाक पर रखे हाथ को दूर हटाते हैं ! अब रेल गाड़ी तेज़ गति से दौड़ती नज़र आ रही है ! मंच पर, अंधेरा फ़ैल जाता है !]

[३]

[मंच पर, रोशनी फ़ैल जाती है ! रेल गाड़ी की रफ़्तार धीरे-धीरे कम होती जा रही है, अब पाली स्टेशन आने वाला है ! थोड़ी देर बाद, पाली स्टेशन आ जाता है ! गाड़ी रुक जाती है, पाली उतरने वाले सभी यात्री, पाली के प्लेटफोर्म पर उतरते हैं ! रशीद भाई, ठोक सिंहजी और सावंतजी बैग लिए प्लेटफोर्म पर उतरते हैं ! अचानक उनकी नज़र, ठोकिरे लूण करणजी पर गिरती है ! जो भावू की केन्टीन पर खड़े मस्ती से चाय पीते जा रहे हैं ! बस, फिर क्या ? झट-पट सभी अपने क़दम, भावू की केन्टीन की तरफ़ बढ़ा देते हैं !]

लूण करणजी – [उन तीनों को आते देखकर, कहते हैं] – आइये मालिक, पधारिये ! चाय-वाय पीजिएगा ! फिर सुनना, आज के समाचार !

रशीद भाई – [पास आकर, उनके कंधे पर हाथ रखते हुए कहते हैं] – क्यों इंतज़ार करवा रहा है, भाई ? झट खोल दे यार, खबरों का पिटारा !

सावंतजी – तू तो यार, हाज़री रजिस्टर में हस्ताक्षर करके आया होगा ? अब तू यहां खड़ा-खड़ा, हम लोगों का इंतज़ार क्यों कर रहा है भाई ? हमारा दिल जलाने के लिए..यह कहने जा रहा होगा कि, अफ़सर ने हमारी सी.एल. पर खंज़र चला दिया है ! यह ख़बर हमें सुनाकर, फिर तू हमारे थाप खाए हुए चेहरे देखकर ख़ुश होना चाहता होगा ? नहीं तो तू कब रहा, हमारा शुभचिंतक ?

लूण करणजी – फिर क्या ? सुन लीजिये, जैसी आपकी मर्ज़ी ! मत पीजिएगा चाय, मेरा क्या गया ? ख़बर यह है कि, आज़कल माना रामसा सुधरते जा रहे हैं ! कल की बात है, आप लोगों के जाने के बाद माना रामसा ने बोरियों के नीचे गोलियां रखने का काम कर डाला !

रशीद भाई – [खिन्नता से, कहते हैं] – यह नशेड़ी अब सुधरने वाला नहीं, यह गधा किस काम का ? मुए ने काम बिगाड़ डाला, गोलियां रखकर ! जानता नहीं, दवाई के छिड़काव के बाद इन बोरियों के नीचे गोलियां रखी जाती है !

सावंतजी – अब चल रे, रशीद भाई ! काम बढ़ा डाला, इस चमघूंगे ने ! समझता कुछ नहीं, आकर बीच में कर गया पंचायती ! हम कहते तो यह नशेड़ी काम करता नहीं, अब तो यार..हमें दफ़्तर की छुट्टी होने तक रुकना पड़ेगा ! अब आज तो एक्सप्रेस गाड़ी में बैठने से रहे, चलो भाई चलो ! अब यहां रुकने से, कोई काम बनने वाला नहीं !

[फिर क्या ? तीनों पटरियां पार करते हैं, और फिर वे दफ़्तर जाने के लिए अपने क़दम बढ़ाते हैं ! मगर लूण करणजी मुस्कराते हैं, अब उनको इन लोगों की भिडंत माना रामसा से करवाने का अच्छा-ख़ासा मसाला जो मिल गया है ! बस देर है, खाली जाकर मोती पिरोने की ! वे झट चाय का खाली प्याला दुकान के काउंटर पर रखकर उधार की डायरी में चाय इन्द्राज करते हैं फिर, अपने क़दम रेलवे क्रोसिंग फाटक की तरफ़ बढ़ा देते हैं ! उनको मालुम है, जैसे ही जोधपुर से पाली आने वाली गाड़ी हाउसिंग बोर्ड कोलोनी से गुज़रती है तब आली ज़नाब माना रामसा झट स्कूटर पर सवार होकर दफ़्तर जाने के लिए घर से रवाना होते हैं ! इसलिए लूण करणजी ने सोच लिया है कि, इंजन की सीटी की आवाज़ सुनकर माना रामसा स्कूटर पर सवार होकर अपने घर से निकल गए होंगे...दफ़्तर जाने के लिए ? अब फ़ाटक पर उनको रोककर, उनको बस इतना ही कहना है कि, ‘क्या कहें, पंडितजी ! इन लोगों की नज़रों में, आपकी कोई कद्र नहीं ! आली ज़नाब आप इन लोगों का इतना सारा काम निपटा देते हैं, और ये लंगूर आपके लिए क्या-क्या बकते हैं ? ये कमबख्त ठहरे, अहसानफ़रामोश ! आगे से, इनकी मदद करना मत !’

[इंजन सीटी देता है, गाड़ी स्टेशन छोड़ देती है ! धीरे-धीरे, मंच पर अंधेरा छाने लगता है ! थोड़ी देर बाद, मंच पर रोशनी फ़ैल जाती है ! पाली रेलवे स्टेशन का
मंज़र, सामने आता है ! दफ़्तर की छुट्टी होने के बाद पैदल चलते हुए बेचारे ये तीनों साथी, थके-मांदे स्टेशन पर पहुंचकर उतरीय पुल की सीढ़ियों पर आकर बैठ गए हैं ! रशीद भाई ठहरे सेवाभावी, उन्होंने पानी की बोतलें प्लेटफोर्म पर आते ही ठन्डे पानी से भर ली है ! अब ये तीनों बेचारे थके हुए एक-दूसरे की खैरियत पूछ रहे हैं....क्योंकि, आज माना रामसा के कारण पूरे दिन रुककर बोरियों पर छिड़काव का काम पूरा करना पड़ा है !]

रशीद भाई – कैसे हो, भाईजान ? अभी-तक आपकी थकावट दूर हुई, या नहीं ? यार, मेरी तो एक-एक हड्डी चरमरा रही है ! यह अफ़ीमची कमबख्त, पंडित नहीं है ? साला एक नंबर का, कसाई है ! मुझे तो इसे पंडित कहते हुए, शर्म आती है !

[इतना कहकर, रशीद भाई पानी का एक घूंट पीते हैं !]

सावंतजी – [खारी नज़रों से रशीद भाई को देखते हुए, कहते हैं] – फिर तू कौनसा कम पड़ता है, ठोकिरा ? ‘उठ रहा है दम, उठ रहा है दम’ कहता कहता अस्थमे को लेकर बैठ गया मेरा भाई ! काम को बढ़ाता नहीं, तो क्या हुआ ? करता भी, नहीं ! पूरे दिन एक ही डाइलोग बोलता जाता है [रशीद भाई की आवाज़ में उनकी नक़ल उतारते हुए, कहते हैं] 'भाईजान, मेरा तो उठ गया, भाईजान, मेरा उठ गया !'’[वापस अपनी आवाज़ में, कहते हैं] अरे मियां, तू ख़ुद उठ जा अब इस दुनिया से !

ठोक सिंहजी – [बात को अच्छी तरह न सुनकर, कहते हैं] – ‘उठ गया, उठ गया’ क्या उठ गया..कौन उठ गया ? क्या अब हमको, किसी के लोकाचार [मय्यत] में जाना होगा ? मैं तो कहीं जाने वाला नहीं, मैं तो भाई अब गाड़ी पकड़कर सीधा जोधपुर जाऊंगा ! आप जाना चाहते हैं, तो आप पधारिये !

सावंतजी – उठे क्या ? उठे, इसका दम ! अस्थमा को लेकर बैठ गया, और दूसरा इसका साथी माना राम अफ़ीम लेकर लेट जाता है बबूल के तले ! तीसरा और चौथा इसका साथी इसके हैं करणी दान और लूण करण....जिनमें यह करणी दान तो अफसरों की आवभगत में लगा हुआ रहता है, और दूसरा यह लूण करण दफ़्तर में बैठा रहेगा ! इनके बीच में, मेरी हालत हो गयी है कोल्हू के बैल की तरह ? अब आप ठोक सिंहजी लोकाचार की बात चलाकर, माहौल क्यों बिगाड़ रहे हैं ?

ठोक सिंहजी – शान्ति रखिये, आपको दिल की बीमारी है ! ज़्यादा मगज़ पच्ची करना, अच्छा नहीं ! ज़नाब, आप अपने दिल की धड़कन का ख्याल रखिये ! बस, यह आपका दिल बराबर धड़कता रहे !

सावंतजी – [चिढ़े हुए, कहते हैं] – यह दिल कैसे धड़के, यार ? वह भी, इस उम्र मे ? क्या आपके कहने से, मैं इन ख़ूबसूरत लड़कियों को निहारता रहूँ ?

रशीद भाई – [मुस्कराते हुए, कहते हैं] – अरे ज़नाब, ज़रूर निहारते रहिये ! मगर निहारना उस रशीदा जान की ख़ूबसूरती को, न तो आप जानते ही हैं ! अब इस अवाम को कुछ नहीं कह सकते, न मालुम कब आपकी टाट को चटका दे ? देखते नहीं इन अखबारों और टी.वी. के चैनलों को ! पूरे दिन ये खोजबलिये टी.वी. चैनल वाले, ऐसी ही ख़बरें दिखलाते रहते हैं !

सावंतजी – क्या देखूं रे, ठोकिरा ? इस किन्नर को ?

ठोक सिंहजी – फ़ायदे में ही रहेंगे, ज़नाब ! रशीदा जान को थमाया दस का कड़का-कड़क नोट, वह दुआ देकर चला जाएगा ! मगर जवान लड़कियों को बुरी नज़रों से देख लिया तो फिर, इस अवाम की आंखें आपको फूटी हुई नज़र आएगी ! यह अवाम अगले इंसान की उम्र नहीं देखती, न देखती उसकी हालत ! बस वह तो उसे ठोकने में, लुत्फ़ उठाती नज़र आती है !

[जम्मू-तवी एक्सप्रेस ज़ोर से सीटी देती हुई, आती दिखाई देती है !]

रशीद भाई – [उठते हुए, कहते हैं] – इन जवान लड़कियों और इस हिज़ड़े को छोड़ो, यार ! अब आप इन महाराजा सावंत सिंह से कहिये कि, आप गाड़ी को निहारिये..न तो आप रह जायेंगे घाटे में ! फिर तो ज़नाब को रात गुज़ारने पड़ेगी इस प्लेटफोर्म पर, इन नामुराद फ़क़ीरों के साथ सोकर ! समझ गए, या नहीं ? चलिये, अब सीटें रोक लेते हैं !

[सभी बैग लेकर उठते हैं, गाड़ी प्लेटफोर्म पर आकर रुक गयी है ! अब ये तीनों शयनान डब्बे में दाख़िल होते हैं, एक केबीन में इन लोगों को खाली सीटें नज़र आती है...वहीं बैग रखकर, वे सभी बैठ जाते हैं ! इनके बैठने के बाद, बातों का दौर चल जाता है !]

सावंतजी – यार रशीद भाई, आज तो मेरा मगज़ बहुत गरम हो गया है ! इस माना राम अफ़ीमची के कारण, और ‘कुछ...कुछ’ मत बोलिए !

रशीद भाई – अब आप ‘कुछ...कुछ’ कहिये मत ! अब आप चुचाप बैठे, शेष क़िस्सा सुन लीजिएगा ! ताकि, आपके मगज़ को ताज़गी मिल जायेगी !

[गाड़ी सीटी देती हुई, स्टेशन छोड़ देती है ! धीरे-धीरे, गाड़ी की रफ़्तार बढ़ जाती है ! रशीद भाई अपनी आप बीती का वाकया, सुनाते जा रहे हैं ! यह वाकया चित्र बनकर, सबकी आँखों के आगे छा जाता है ! मंच पर, अंधेरा छा जाता है ! थोड़ी देर बाद, मंच रोशन हो जाता है ! बर बस स्टैंड का, मंज़र सामने आता है ! बस स्टैंड के चौराहे पर चारों ओर दुकानें नज़र आ रही है, कई दुकानें चाय की है और कोई दुकान मिठाई व नमकीन की भी है ! जगह-जगह बसें और ट्रकें खड़ी है ! ट्रको के ड्राइवर और ख़लासी ढाबों की तरफ़ जाते दिखाई दे रहे हैं ! मगर कई ड्राइवरों ने अपनी ट्रकों को हेड-पम्प के नज़दीक रोक रखी है ! इन गाड़ियों के ख़लासी बाल्टी और डब्बा लेकर हेड-पम्प के पास पहुंच गए हैं ! अब ये लोग हेड-पम्प से पानी निकालकर, गाड़ी को धोने लगे हैं ! कई ड्राइवरऔर ख़लासी हेड-पम्प के पास बैठकर, स्नान करने लगे हैं ! उधर अल्लानूर साहब की गाड़ी से औरतें और बच्चों ने कुतूहल वश गाड़ी से बाहर झांकना शुरू कर दिया है ! थोड़ी देर में ही अल्लानूर साहब की गाड़ी, मिठाई व नमकीन की दुकान के पास आकर रुक जाती है ! जैसे ही गाड़ी रुकती है, तभी इन बाहर झांकने वाले बच्चों की नज़र पानी-पुड़ी बेचने वाले पर गिरती है, पानी-पुड़ी देखते ही, अब इन बच्चों ने खाने की जिद्द पकड़ ली है ! बुजुर्ग लोगों को चाय की दुकान दिखाई देते ही, चाय पीने की तलब बढ़ जाती है ! वे सभी चाय की दुकान की तरफ़, अपने क़दम बढ़ा देते हैं ! इस वक़्त मुनीरिये को, सेवाभावी बनने का शौक चर्राता है ! वह झट उठकर इन बच्चों और औरतों के लिए, पानी-पुड़ी और नमकीन लाकर उनको खिलाने लगा है ! इस तरह खाने-पीने में काफ़ी वक़्त बीत गया है, इसलिए अब फ़ज़लू चाचा गाड़ी चालू करने की उतावली करने लगे हैं ! वे गाड़ी से उतरे लोगों को आवाज़ देकर बुलाने लगे हैं ! इस तरह वे चलने की उतावली में, हॉर्न बजाते जा रहे हैं !]

फ़ज़लू मियां – [हॉर्न बजाकर, खिड़की से मुंह बाहर निकालते हुए ज़ोर से कहते हैं] – जल्दी कीजिये, जल्दी कीजिये ! झट आकर बैठ जाइए, गाड़ी में !

रशीदा जान – ट्रक से मुंह बाहर निकालकर, कहती है] – क्या कर रहे हो, फ़ज़लू चाचा ? अभी तो सफ़दर मियां, कासीम मियां, मुईनुद्दीन साहब सभी चाय पीने गए हैं...जो वापस लौटे नहीं है !

फ़ज़लू मियां – [परेशान होकर, ज़ोर से कहते हैं] – कोई चाय पी रहा है, और खा रहा है पानी-पुड़ी ! अरे मुरीदों पहले यह सोचा करो कि, कितना दूर है अजमेर ? कब पहुंचेगे ? फिर कहना मत, वक़्त पर आप लोगों को पहुंचाया नहीं !

मुनीरिया – काहे का उलाहना दे रहे हो, चच्चा ? पहले तो आप देरी से ट्रक को लाकर खड़ी करते हैं, और फिर उलाहना देते जा रहे हैं हमें..देर हो गयी, देर हो गयी ? हमारे कारण देर हुई है, क्या ?

फ़ज़लू मियां – मगर, तुन जानते ही क्या हो ? यह अल्लानूर मियां तो, बार-बार गाड़ी को रुकवा रहा था ! फिर, तुम भी क्या बोल रहे थे ? खैर छोड़ो, पहले मेरी बात सुन लो ! मुईनुद्दीन चिश्ती साहब की दरगाह का जन्नती दरवाज़ा, तड़के चार बजे खुलेगा ! क्या तुम सबको उसके दीदार करने है, या नहीं ?

[सभी बुजुर्ग आते दिखाई देते हैं, थोड़ी देर में गाड़ी से नीचे उतरे सभी लोग गाड़ी में चढ़ जाते हैं ! सबके बैठने के बाद रूप बहादुर सभी औरतों और बच्चों की गिनती कर लेते हैं कि, कोई पीछे छूट तो न गया ? फ़ज़लू मियां उसका इशारा पाकर, गाड़ी का हॉर्न बजाते हैं ! मुनीरिया और और दूसके उसके हम उम्र के लडके जो नीचे उतरे थे, वे सभी हॉर्न की आवाज़ सुनकर चले आते हैं ! इस तरह सबके गाड़ी में बैठ जाने के बाद, फ़ज़लू मियां ट्रक को चालू करते हैं ! अब गाड़ी, हवा से बातें करने लगी है ! ठंडी-ठंडी हवा चल रही है, जो दिल में उमंग भरती जा रही है ! न जाने इस ज़ंगल में बसेरा करने वाली कोयलों ने क्यों मीठे सुर में कूहूकना शुरू कर दिया है ? अब मुईनुद्दीन साहब, रशीदा जान से फ़रमाइश कर डालते हैं !]

मुईनुद्दीन साहब – हमने बहुर शेर सुना दिए हैं, आपको ! अब बेग़म आपको कुछ सुनाना होगा !

एक कव्वाल – [बीच में, बोलता है] – बेग़म आप इनकी फ़रमाइश पूरी कीजिये ना, ये कब-कब हमारे साथ आते हैं ?

रशीदा जान – चलिए, इंशाअल्लाह ! आपकी तमन्ना पूरी हो ! सुनिए, अर्ज़ किया है कि, ‘इस छोटे से पेट के ख़ातिर, हुआ आदमी मैला ! शायद कभी नहीं भर सकता, ये चमड़ा का थैला ! रोटी, कपड़ा और मकान, के चक्कर में ए दीप ! भूल गयी लैला मज़नू को, और मज़नू को लैला ! पर्दा जो आंख पर पड़ा, वो हटा दिया ! जीवन के सत्य से, मुझे परिचित करा दिया ! ख़्वाबों की नरम गोद में, सोया हुआ था मैं ! आकर नसीम-सुबहे ने मुझको जगा दिया !’

[रशीदा जान की सुरीली आवाज़ ने सबको मोहित कर डाला, अचानक रशीदा जान का गाना बंद होते ही चारों तरफ़ सन्नाटा छा जाता है ! इस सन्नाटे को चीरती हुई, मुनीरिये के बेटे गफ्फूरिये के चिल्लाने की आवाज़ सुनायी देती है !

गफ्फूरिया – [चिल्लाता हुआ, कहता है] – आ हा ಽಽ मर गया रे ! मुंह जल रहा है, अम्मी ! पानी..पानीಽಽ !

मुनीरिये की बीबी – [गफ्फूरिये को थप्पड़ रसीद करती हुई, कहती है] - तेरे अब्बा ने पानी भरा क्या, जो पिला दूं..साहबज़ादे को ? उसने तो पानी-पुड़ी खिला-खिलाकर, लोगों को मुंह जला डाला ?

[इतने में सकीना बी की चीख, अलग से सुनायी देती है ! वह मरियम बी को, ताने देती हुई कहती जा रही है !]

सकीना बी – [चीखती हुई, कहती है] – आ..हाಽಽ ! हाय अल्लाह, मुंह जला डाला रे..इस खबीस मुनीरिये ने ! ओ मरियम बीबी, तेरे कहने से मैंने खायी थी पानी पुड़ी ! अब मुंह तो क्या, पूरा हलक भी जल रहा है ! ख़ुदा रहम, इस मुनीरिये के बच्चे ने पानी पुड़ी के पानी में क्या-क्या मिलाकर पिला दिया ! बदतमीज़ मर्दूद कह रहा था, ‘दादी, इसका पानी नहीं पीया..तो क्या मज़ा आया, पानी पुड़ी खाने में ?’

मरियम बी - [ज़ोर से, कहती है] – मुनीरिये के बच्चे ने नहीं खिलाये हैं, सकीना बी ! इस बच्चे के बाप ने खिलायी हैं, पानी पुड़ी ! ख़ुदा जाने, यह उल्लू का पट्ठा कहाँ से लेकर आ गया पानी पुड़ी ? ऐसा लगता है, इस नामुराद ने लाल मिर्च कूट-कूटकर पानी में डालकर पिला दी हो ? [गला जलने से से, वह चीखती हुई ज़ोर से कहती है] आ आहाಽಽ ! अरे..पानी, पानी ! अब तो मेरा गला भी जल रहा है ! [बाहर झांकती हुई, फ़ज़लू मियां से कहती है] अरे ओ फ़ज़लू मियां ! क्या तुमने पीने का पानी रखा है, या नहीं ?

फ़ज़लू मियां – [ वहीं से चिल्लाते हुए, कहते हैं] – अरी ओ फातमा, काहे चिल्ला रही हो ? मैं क्यों पानी रखूंगा ? गाड़ी धोने का पानी रखा है, पीना है तो बाल्टी पकड़ा दूं तुम्हें ?

मरियम बी – फ़ज़लू मियां, मारना है क्या..हेड पम्प का पानी पिलाकर ? हाय रे, मेरी तकदीर ? [ चिल्लाती हुई, मुनीरिये से कहती है] अबे, ओ मुनीरिये ! जला डाला रे हलक मेरा, अब उठ कर कहीं से पानी तो लेकर आ मर्दूद !

मुनीरिया – [वहीं से चिल्लाता हुआ, कहता है] – अरे दादी ! तुम नहीं जानती, तुमको हो गयी है बीमारी एसिडिटी की ! तुमने ही तो आगे बढ़-बढ़कर मांगा था पानी पुड़ी का पानी..मैंने तो बहुत बार कहा, आपको ! बच्चों के लिए लाया हूं, आपके लिए नहीं !

मुनीरिये की दुल्हन – बच्चों का हलक इतना सस्ता है, जो मिर्च मिला पानी पिलाकर उनका हलक जला डाला ? अब म्यां इस गफ्फूरिये को, पानी कहाँ से लाकर पिलाऊं ?

[पास बैठे फ़ज़लू मियां का ध्यान चूकने लगा ! कहीं , दुर्घटना घटित न हो जाय ? इस आशंका को लिए, वे झल्लाते हुए मुनीरिये से कहते हैं !]

फ़ज़लू मियां – [झल्लाते हुए, कहते हैं] – अरे, ओ बकवादी कीड़े ! चुपचाप बैठ जा, अपनी सीट पर ! मेरा ध्यान काहे बंटा रहा है, मर्दूद ? जानता नहीं, गाड़ी चला रहा हूं !

[अब पास बैठे रूप बहादुर को घुद्दा देती हुई, मरियम बी कहती है !]

मरियम बी – [रूप बहादुर को घुद्दा देती हुई, कहती है] – उठ रे, मर्दूद ! क्या देख रहा है, आँखे फाड़-फाड़कर ? चल गाड़ी रुकवाकर, पानी लेकर आ कमबख्त !

रूप बहादुर – मैं क्यों जाऊं, दादी ? मेरी बदन की आपने ऐसी ठुकाई की है, अब मुझसे उठा नहीं जाता ! रशीद चच्चा बैठे हैं ना, बड़े ख़िदमतगार बने फिरते हैं, रेल गाड़ी में सबको पानी पिलाते हैं ! उनको क्यों नहीं भेजती हैं, दादी ?

मरियम बी – तू जवान छोरा बैठा आराम कर रहा है, और तेरे बूढ़े चच्चा को भेजूंगी बाहर पानी लाने ? लानत है, तेरी जवानी को ! [कमर पर, धोल जमाती हुई कहती है] उठ भंगार के खुरपे ! जा, गाड़ी रुकवा दे ! देखता नहीं ? मेरा गला जल रहा है, और ऊपर से तू करता जा रहा है बे-फालतू की बकवास ?

[अब न जाने कितनी ही औरतों के मुंह और हलक से जलन उठने लगी, इन सबकी आवाज़ें गूंज़ने लगी ! अचानक फ़ज़लू मियां गाड़ी को रोक देते हैं, गाड़ी के रुकते ही औरतों और बच्चों ने बाहर झांकना शुरू कर दिया है ! वे सामने क्या देखते हैं ? सामने एक डरावना बड़ा बरगद का पेड़ नज़र आता है ! इस बरगद की जटाएं ऐसी लगती है, मानों ये जटाएं न होकर किसी जिन्न की फ़ैली हुई दाढ़ी हो ? हवा से हिलती हुई ये बरगद की जटाएं और डालियां, सायं-सायं की आवाज़ निकालती हुई बहुत डरावनी लग रही है ! कई जंगली जानवरों की आवाज़े साफ़-साफ़ सुनायी दे रही है, जो इस सन्नाटे को तोड़ती जा रही है ! इतने में, मुनीरिये की आवाज़ सुनायी देती है !]

मुनीरिया – [गाड़ी से उतरकर, कहता है] – सकीना दादी ! खाली पानी की बोतलें इकट्ठी करके, दे दीजिएगा ! [दस क़दम दूर एक घास-फूस की झोपड़ी की तरफ़ उंगली का इशारा करता हुआ, कहता है] वहां से पानी भरकर ला दूंगा ! उस झोपड़ी में, कोई इंसान तो रहता ही होगा !

[सकीना बी खड़ी होकर, उस झोपड़ी को देखने लगती है ! उस झोपड़ी के अन्दर रखी एक लालटेन, रोशनी फैलाती जा रही है ! सभी औरतों से ख़ाली पानी की बोतलें इकट्ठी करके, सकीना बी उन्हें मुनीरिये को थमा देती है ! मगर मुनीरिये की क़िस्मत अच्छी नहीं, जैसे ही वह झोपड़ी के नज़दीक उस बरगद तले पहुंचता है..एक ही झपाटे में बरगद की डालियों पर बैठे सारे परिंदे एक साथ उड़ान भरते हैं ! और ये सारे परिंदे मुनीरिये के सर को छूते हुए नभ में उड़ जाते हैं ! इनके उड़ने से निकली ‘छीं आवो की आवाज़ और इधर सहमी हुई चिड़ियों की चीं ಽಽ चीं ಽಽ करती हुई आवाज़, उसके दिल को दहला देती है ! और उधर उस बरगद के तने की शक्ल, उसे अकबर खां के चेहरे के सदृश लगती है....! बरगद की जटाएं, हवा से हिलती हुई सायं-सायं की भयानक आवाज़ निकाल रही है ! अब ये हिल रही जटाएं, अकबर खां की दाढ़ी की तरह दिखाई देने लगी है ! बस, फिर क्या ? डर के मारे, उस मुनीरिया के बदन के रोम-रोम खड़े हो जाते हैं ! अब यह सामने खड़ा बरगद का तना जो उसको अकबर खां साहब के आसेब की शक्ल लिए नज़र आ रहा है, उसे अब ऐसा लग रहा है मानों उनका मुख ज़ोर से अट्टहास करता जा रहा है ? तने में अकबर खां साहब के आसेब की शक्ल को देखते ही, डर के मारे उसके मुख से चीख निकल उठती है ! उसका पूरा बदन, पीपल के पत्ते की तरह कांपने लगता है !]

मुनीरिया – [डर के मारे चीखता हुआ, कहता है] - भूतಽಽ ! अकबर खां का भूत !

[इस मुनीरिये की चीख सुनकर, फ़ज़लू मियां डब्बे में पानी भरकर गाड़ी से नीचे उतरते हैं ! सकीना बी ने उनके हाथ में थामे हुए डब्बे की तरफ़ ध्यान तो दिया नहीं, और उन्होंने समझ लिया शायद वे मुनीरिये की मदद में उसके साथ चलने के लिए तैयार हुए हैं ! तब झट सकीना बी ट्रक से नीचे उतरकर, उनको शुक्रिया अदा करती हुई उन्हें कहती हैं !]

सकीना बी – आपका भला हो, फ़ज़लू मियां ! आप उस मुनीरिये के साथ जाने के लिए, तैयार हो गए हैं ! बेचारे को डर लगता है, अकेले जाने में ! थोड़ा रुकिए, ज़रा मैं कारचोब वाला इमामजामीन दे दूं आपको पहनने के लिए....तब आपको, आसेब का खतरा न रहेगा !

फ़ज़लू मियां – [ चिढ़े हुए, ज़ोर से कहते हैं] –मैं क्यों जाऊं, उस मुनीरिये के साथ ? मुझे क्या करना है, उसके साथ जाकर ? यह तो साला उल्लू की दुम, डरता ही रहेगा..कमबख्त बनता है, बंगाल का टाइगर ? [ख़लासी को आवाज़ देते हैं] अरे, ओ नूरिया ! मैं पाख़ाना जा रहा हूं, कब्ज़ बढ़ गयी है यार ! इस बर के चौराहे पर, इस मुनीरिये ने पानी पुड़ी क्या खिला दी ? हाय अल्लाह, पेट में मरोड़े उठने लगे, मैंने तो डब्बा भर लिया है पानी से, अब तू बाल्टी के पानी का ध्यान रखना ! पानी बेकार ख़राब करना मत !

[इतना कहकर, फ़ज़लू मियां ज़ंगल में निपटने चले जाते हैं ! बेचारी सकीना बी देखती रह जाती है कि, यह कैसा आदमी है जिसके दिल के अन्दर रहम नाम की कोई चीज़ नहीं ? सोचते-सोचते, उनकी नज़र सामने से आ रहे सफ़ेद कपड़े पहने एक आदमी पर गिरती है ! उस आदमी की दाढ़ी घुटने तक फ़ैली हुई है, उसके बदन पर सफ़ेद अंगरखी और घुटने तक सफ़ेद धोती पहनी हुई है ! इस आदमी के हाथ में लालटेन हैं ! जिसकी रोशनी में वह ऐसे वह धीरे-धीरे चल रहा है, अब यह मंज़र ऐसा लगता है मानों ‘फिल्म बीस साल बाद’ में दिखाया गया वह डरावना मंज़र वापस दोहराया जा रहा है ? तभी यह काणा रूप बहादुर ट्रांजिस्टर ओन करके, शैतानी हरक़त को अंजाम दे देता है ! ज्यों ही ओन करता है, गीत ‘गुमनाम है कोई, बदनाम है कोई..’ गूंज़ने लगता है ! इस गीत को इस सन्नाटे में सुनकर, डर के मारे सबके बदन के रोम खड़े हो जाते हैं ! अब यह सामने से आ रहा बूढ़ा आदमी सकीना बी को डरावना लग रहा है, उसे ज़िंदा जिन्न समझकर वह ज़ोर से चीख उठती है !]

सकीना बी – [डरकर चिल्लाती हुई, ज़ोर से कहती है] – आसेಽಽब ! अरेಽಽ मुझे मारना मत...बचा रेಽಽ ख्वाज़ा पीर !

[सकीना बी और मुनीरिया भयभीत होकर, झट दौड़कर चढ़ जाते हैं ट्रक में ! और फिर, चुपचाप आकर ट्रक में बैठ जाते हैं ! अब मुनीरिये को वापस आया देख, रशीद भाई ताना देते हुए कहते हैं !]

रशीद भाई – लो देख, लीजिएगा ! लो बंगाल का टाइगर आ गया वापस ! अरे ओ सकीना चाची, अब तेरे क्या हो गया ? अब-तक तो तू चिड़िया की तरह चहकती जा रही थी, अब यह चुप्पी कैसे ? बैठ गयी, बिल्ली की तरह ? अब बोल, तू डर क्यों रही है, मेरी मां ?

[सकीना बी, क्या बोले ? उसका डील तो पीपल के पान की तरह कांप रहा है, अब इसके बदन में कहाँ रही इतनी हिम्मत ? जो दो शब्द भी बोल सके ! अचानक लालटेन लिए वह आदमी वहां आ जाता है और ट्रक के पास आकर खड़ा हो जाता है ! उसकी शक्ल देखते ही ट्रक में बैठी औरतें और बच्चे ऐसे डरे कि, उनके मुंह से केवल चीख निकल गयी मगर इसके आगे उनके मुख से एक शब्द न निकल सका ! होंठों में ही वे ख़ुदा से अरदास करने लगे ‘ए मेरे मौला ! आकर बचा हमें, इस जिन्न से !’ कोई बड़बड़ाता है ‘जिन्न तू ज़लाल तू आयी बला को टाल तू !’ डर के मारे औरतों और बच्चों के के सुर मींई-मींई निम्बली सिसकियां में बदल जाते हैं ! यह सामने खड़ा भूत है या राक्षस ? अब तो विरोध करने की शक्ति, अब किसमें बची है ? ऊपर विराजमान बुजुर्ग तो बेचारे पहले से थर-थर कांपते जा रहे हैं, उने बदन पर अचानक बर्फ का ठंडा अहसास होने लगा है ! अब इस आदमी ने इन लोगों की ऐसी बुरी हालत देखकर, सकते में आ जाता है ! फिर वह लालटेन को ऊंची करके उसकी मंद-मंद रोशनी में सबको देखता है ! फिर उनको देखता हुआ कहता है..]

वह बूढ़ा आदमी – [दिलासा देते हुए, मधुरता से कहता है] – आप लोग डरो मत ! ना तो मैं हूं भूत, और ना मैं हूं जिन्न ! बस आप लोगो जैसा हाड़-मांस का इंसान हूं ! आप जैसे बटाउड़ो की सेवा में, इस जंगल में रहता हूं !

[अब इस आदमी की मधुर आवाज़ सुनकर, सभी को ढाढ़स बंध जाता है ! मगर अभी-तक जवान औरतों और नन्हें बच्चों के दिल से डर ख़त्म हुआ नहीं है ! ये बच्चे तो अभीतक अपनी मां की गोद में दुबके बैठे हैं ! सिसकारी की आवाज़ ज़रूर सनाई दे रही है, मगर इस आवाज़ में अब वो डर समाया हुआ नहीं हैं ! अब वह बूढ़ा, आगे कहने लगा !]

वह बूढ़ा आदमी – [डर रही जवान औरतों से, कहता है] – मैं यहां ही झोपड़ी बनाकर रहता हूं, बाया ! आप सबको डरने की कोई ज़रूरत नहीं है ! मैं तुम लोगों के, बाप-दादा की उम्र का हूं ! [रूप बहादुर की ओर उंगली से इशारा करता हुआ, कहता है] इस जवान छोरे को मेरे साथ भेज दो, तो मैं इसके साथ आप सब के लिए पीने का ठंडा जल और नाश्ता भेज दूंगा ! [रूप बहादुर से कहता है] उठ रे, छोरे !

रूप बहादुर – [डरा हुआ, कहता है] – मैं नहीं, किसी दूसरे को ले जाइये ! क्या पता, कहीं आप अकबर खां साहब के भूत हो तो ? और आप यहां, अपना रूप बदलकर आ गए हो तो हमें क्या मालुम ?

[रूप बहादुर की बात सुनकर, वह बूढ़ा ज़ोर से ठहाके लगाकर हंसने लगा ! उसके लगाए जा रहे हंसी के ठहाकों की गूंज़ इस ठंडी रात में दूर-दूर तक गूंज़ने लगी ! यह गूंज़ इन जायरीनों के कानों में पड़ते ही, उनको एक बार अपने बदन में ठंडी बर्फ जैसी सिहरन महशूश होने लगी ! उनको ऐसा लगने लगा, मानों कोई जिन्न इस ठंडी रात में अट्टहास करता जा रहा है ! तभी हिम्मत करके सेवाभावी रशीद भाई अपने दिल को मज़बूत करते, उस बूढ़े से कहने लगे !]

रशीद भाई – बा’सा ! मैं आपके साथ चल रहा हूं, आप इस छोरे को छोड़िये ! बात यह है बा’सा, मेरे मामूजान के काकी ससुर अकबर खां साहब की मौत [बरगद की तरफ़ उंगली से इशारा करते हुए, कहते हैं] इस बरगद की डालियों से टक्कर खाकर ट्रक से नीचे गिर पड़े ! और, उनकी मौत हो गयी ! इस गहन रात में आपको सफ़ेद कपड़ों में देखकर यह छोरा आपको अकबर खां साहब का भूत समझ बैठा ! आप ख़फ़ा मत होना, इस प्रकरण में इस छोरे की कोई ग़लती नहीं !

बूढ़ा आदमी – [मुस्कराकर, कहता है] - बस यही बात है, अरे भाई ये अकबर खां साहब वही है ना, माणक चौक वाले ? उनकी दुर्घटना का वाकया, मेरे सामने हुआ था !

रशीद भाई – क्या, आप सत्य कह रहे हैं ?

बूढ़ा आदमी – रामा पीर की कसम ! सत्य कहने में, मुझे काहे की शर्म ? आपको यह ख़ुश ख़बरी दे देता हूं कि, अकबर खां साहब मरे नहीं थे..वे आज भी जीवित होंगे ! बेचारे बूढ़े आदमी ट्रक से नीचे गिर पड़े थे, पुराना घी खाने का असर था..उनकी हड्डियां सलामत रही, बस मामूली से खरोंचे आयी थी ! मगर, अब आपसे क्या कहूं ? इनके साथी जो गाड़ी में बैठे थे..

रशीद भाई – आगे कहिये, बा’सा !

बूढ़ा आदमी – क्या कहूं ? इनके संगी-साथी हितेषी थे या दुश्मन ? उन लोगों ने इतना भी ध्यान नहीं रखा कि, बेचारे बूढ़े मियां का क्या हुआ ? खैर, मैंने देशी दवाइयों से इलाज़ करके उनकी ये चोटें ठीक कर दी ! चार दिन बाद, उनको...

रशीद भाई – आगे कहिये, बा’सा ! क्या हुआ आगे, क्या इनके घर वालों ने तहक़ीकात की या नहीं कि, अकबर खां जिंदा है या मर गए ? [अल्लानूर साहब, सफ़दर मियां, कासीम मियां और मुईनुद्दीन साहब जो अकबर साहब के साथ गए थे..उनको कनखियों से देखने लगे !]

बूढ़ा आदमी – मुझे इस बात का आश्चर्य हो रहा है कि, उनके घर से कोई आदमी यहां मालुम करने नहीं आया कि, बूढ़े मियां ज़िंदा है या मर गए ?

[इतना सुनते ही, सन्नाटा छा जाता है ! सभी बैठे बुजुर्ग यही जानते थे कि, खां साहब की लोथ घर पर नहीं आयी थी...और, इनके गोद लिए छोरे ने इनको मृत मान लिया ! बस, फिर क्या ? बिना लाश को दफ़न किये, खां साहब का फातिहा पढ़ लिया गया, और फ़ातिहे की दावत में भी शरीक हो गए ! लोगों को क्या ? उनको तो दावत से सरोकार था, बूढ़े मियां की मौत की तहक़ीकात से उन्हें क्या लेना-देना ? अब बूढ़े आदमी की बात सुनकर, उन सबको सौ फीसदी वहम हो गया है कि दाल में ज़रूर कुछ काला है ! उनके गोद लिए छोरे पर संदेह होता जा रहा है, कहीं इस छोरे ने इनकी जायदाद हड़पने का कोई प्लान तो न बना डाला था ? इस सन्नाटे को तोड़ते हुए, रशीद भाई कहने लगे..]

रशीद भाई – यह हम लोगों से बहुत बड़ी ग़लती हो गयी, हम लोगों में से कई लोग उनके फ़ातिहे की दावत खाकर आ गए ! कहाँ तो रही हममें वो हिम्मत, जो उनके गोद लिए छोरे से सवाल करें कि बोल भाई तेरे बाप की लोथ आयी नहीं और तू कैसे फ़ातिहे की दावत खिला रहा है ? करते भी क्या ? उनके गोद लिए छोरे की गिनती शहर के मौज़िज़ आदमियों में गिनी जाती है, इस मामले में उंगली करना इतना सहज नहीं है, बा’सा ! ये रसूखात रखने वाले, अपने ख़िलाफ़ चलते मामले को दबा देने की शक्ति रखते हैं !

बूढ़ा आदमी – [ग़मगीन होकर, कहता है] – राम, राम ! ऐसा गुनाह ? अरे साहब चुप रहकर, आपने यह क्या किया ?

रशीद भाई – आगे क्या हुआ, आप यह बताइये !

बूढ़ा आदमी – [गुस्से से उफ़नता हुआ, कहता है] - अब ख़बर लोगे ? उस वक़्त कहाँ मर गए, आप जैसे उनके रिश्तेदार ? बेचारा बूढ़ा आदमी चार दिन तक चात्तक पक्षी की तरह इंतज़ार करता रहा, कब उसका बेटा या उसके रिश्तेदार उसक टोह में यहां आकर उसकी ख़बर लेवें ? आख़िर बेचारे बूढ़े मियां दुखी होकर, मुझसे कहने लगे ‘मैं ख़ुद चला जाऊंगा, बस आप मुझे जोधपुर जाने वाली किसी भी गाड़ी में बैठा बैठा दीजिये ! बेचारे भूल गए होंगे, उनका काम हो गया होगा इसलिए आ नहीं पाए !

रशीद भाई – फिर ?

बूढ़ा आदमी – फिर क्या ? उनकी जिद्द के आगे मैं हार गया, और एक समझदार सरदारजी की ट्रक में उनको बैठाकर उन्हें रूख्सत दी ! अब मैं आप लोगो से पूछता हूं कि, खां साहब जोधपुर पहुंचे या नहीं ?

[ट्रक में बैठे बुजुर्ग सकते में आ गए ! अब वे बेचारे क्या कहते ? अब वे पछताने लगे कि, उन लोगों ने अकबर खां साहब के फ़ातिहे की दावत खाकर बड़ी ग़लती की थी ! बस सभी बेचारे बुजुर्ग नीची धुन किये, बैठ गए ! यह बात ज़रूर सत्य है, ऐसे तो सात पर्दे के भीतर छुपी बात नहीं रहती ! पिछली खिड़की से यह ख़बर उनके पास ज़रूर आ गयी थी कि, फातिहा का काम निपटने के बाद वहां एक फ़कीर आया था ! जो अपने-आप को अकबर खां होने का दावा कर रहा था ! उसकी बात न सुनने पर, गोद लिए छोरे पर ज़ायदाद हड़पने का आरोप लगाता हुआ, उसने बहुत हुड़दंग मचाया ! मगर, वहां किसीने उसकी बात सुनी नहीं और बेचारे को पागल घोषित करके उन लोगों ने उस बेचारे को पागलखाने में भर्ती करा आये ! अकबर साहब की इस तरह की बातों को चलते देख, मुईनुद्दीन साहब ने सोचा ‘यहां किसी पराये आदमी के सामने पूरे मोहल्ले की साख़ खोटी होती जा रही है ! अब इस मुद्दे को, बदला जाना बहुत ज़रूरी है ! वे झट ट्रक से नीचे उतर जाते हैं ! फिर मुनीरिये से सारी खाली बोतलें लेकर, उस बूढ़े आदमी से कहने लगे !]

मुईनुद्दीन साहब – बा’सा रहने दीजिये, इन पुरानी बातों को, अब आगे की सोचिये आगे क्या करना है ? चलिए, इन सारी बोतलों को भरवा दीजिये पानी से !
[बूढ़ा आदमी लालटेन की रोशनी में, मुईनुद्दीन साहब का चेहरा देखने लगा ! उन पर नज़र गिरते ही, उसके लबों पर मुस्कान छा जाती है ! वह मुस्कराता हुआ, कहता है !]

बूढ़ा आदमी – [मुस्कराता हुआ, मुईनुद्दीन साहब से कहता है] – अरे मालिक, आप तो मनचला साहब ‘रमते जोगी’ लग रहे हैं ? आपके दीदार से मुझे ऐसा लग रहा है, मैं स्वर्ग के आनंद लुट रहा हूं ! वाह वाह ! क्या भजन गाया करते हैं, आप ? आपके गाये भजनों को सुनते ही मुझे, दिल में साक्षात ईश्वर के दर्शन हो जाते हैं ! मालिक, आप मेरी झोपड़ी में अपने पाक क़दम रखकर उसे पवित्र कीजिएगा !

[अब झट वह बूढ़ा, बांह पसारकर उनको अपने गले लगा लेता है ! फिर, कहता है..]

बूढ़ा आदमी – [गले लगाकर, कहता है] – पिछले जन्म में मैंने कोई पुण्य कार्य किये होंगे, आप जैसे संत के दर्शन पाकर मैं धन्य हो गया !

[फिर दोनों एक-दूसरे के गले में हाथ डालकर, झोपड़ी की तरफ़ जाते दिखाई देते हैं ! धीरे-धीरे अंधेरा फैलता जा रहा है, उस अँधेरे को चीरते हुए मुईनुद्दीन साहब के भजन गाने के सुर गूंज़ते जा रहे हैं ! उनके ये मधुर सुर, इस वातावरण में भक्ति की अमृत वर्षा करने लगे ! धीरे-धीरे इनके सुर मंद पड़ जाते हैं, और वातावरण में नीरवता छा जाती है !]

[४]

[मंच पर रोशनी फ़ैल जाती है, गाड़ी के डब्बे का मंज़र सामने आता है ! अब सबकी आँखों के आगे, वाकये के चित्र आने बंद हो जाते हैं ! गाड़ी की रफ़्तार कम हो जाती है, लूणी स्टेशन आता दिखाई देता है ! लूणी स्टेशन के आते ही, गाड़ी प्लेटफोर्म पर आकर रुक जाती है ! अब यात्री गण प्लेटफोर्म पर, उतरते दिखाई देते हैं ! मालानी एक्सप्रेस से उतरे कई यात्री, इस जम्मूतवी एक्सप्रेस में दाख़िल होते दिखाई दे रहे हैं ! गाड़ी के प्लेटफोर्म पर आते ही, वेंडर अपने थैले गाड़ी के डब्बों की तरफ़ बढ़ाते जा रहे हैं ! अपने माल की बिक्री बढाने के लिए, वे ग्राहकों को बुलाने के लिए उनको आवाज़ देते जा रहे हैं ! चाय की थड़ी वाले डब्बों की खिड़कियों के पास से गुज़रते हुए ,ज़ोर से ‘चाये..चाये’ की आवाज़ लगाते जा रहे हैं ! उधर ठोक सिंहजी से चुपचाप बैठा नहीं जाता, वे आगे क़िस्सा सुनने के लिए, रशीद भाई से आग्रह करते हैं !]

ठोक सिंहजी – रशीद भाई, आगे क्या हुआ ? क्या यार, आप बार-बार इस बातों की गाड़ी को रोक लेते हैं ?

रशीद भाई – गाड़ी ऐसे नहीं चलती है, ठोक सिंहजी ! उसको चलाने के लिए तेल की ज़रूरत पड़ती है, इस बातों की गाड़ी का तेल है, चाय ! चाय आने के बाद इस मुंह को मिलेगी ताकत, ताकत आते ही यह बातों की गाड़ी रफ़्तार बनाकर चलती रहेगी !

[तभी रशीदा जान हिज़ड़ा रशीद भाई की आवाज़ सुनकर, इस केबीन में चला आता है ! जो अभी इस डब्बे में चढ़ा था, और यात्रियों से पैसे मांगता हुआ वह अब इस केबीन के नज़दीक चला आया था ! अब यहां बैठे सभी महानुभवों को देखता है ! फिर वह सबसे पहले रशीद भाई को देखकर, आंख मारता है..! फिर पीटता है, ताली ! बाद में रशीद भाई के पास आकर, उनके गालों को हाथ से सहलाता है ! उन गालों को सहलाता हुआ, वह कहता है !]

रशीदा जान – [रशीद भाई के गालों को सहलाता हुआ, कहता है] – यार सेठ साहब आप तो हैं, मियां रशीद ! और मैं हूं, रशीदा जान ! दोनों के नाम, एकसे...अब कहिये, अपुन दोनों की जोड़ी कैसी रहेगी ?

[उनको सीट से उठाकर, उनकी कमर में हाथ डालकर ज़बरदस्ती उनको नचाता है और साथ में गीत गाता जाता है !]

रशीदा जान – [रशीद भाई को नचाता हुआ, गीत गाता है] – ‘तमै एकला आवज्या छोरे, गुज़रज्या ने मैरे, अमै आवह छोरे, गगरी नदी ना तेड़े...’

[रशीद भाई झटका देकर अपना हाथ छुड़ा लेते हैं, और फिर बेंच पर बैठ जाते हैं ! बाद में, कहते हैं..]

रशीद भाई – यह क्या गा रहा है, गेलसफे ? यह, कोई गाना है ? कुछ समझ में नहीं आता कि, तू क्या गा रहा है ?

रशीदा जान – [चिढ़ता हुआ, कहता है] – ज़नाब, आपको क्या आता है ? आपको तो बीच में बोलना ही अच्छा लगता है ! आप भी कुछ नाच गाकर दिखला दीजिये, तब मैं समझ लूंगी कि आप एक कलाकार हैं ! लीजिये, मैं अभी इस बेंच पर बैठ जाती हूं ! और देख लेती हूं, आपका नाच-गाना !

[ठोक सिंहजी को बहुत गुस्सा आ रहा है, रशीद भाई पर ! बेचारे ठोक सिंहजी सोच रहे हैं “इस रशीद के बच्चे ने क्यों इस इस हिज़ड़े को, अपने मुंह लगाया ? इनके कारण ही यहां बैठे हमें, इस हिज़ड़े की बेतुकी बातें सुननी पड़ती है ! इनकी हिज़ड़ों को पानी पिलाने की ख़िदमत, अब हमारे लिए भारी पड़ रही है ! यह कैसी है, इन हिज़ड़ों के साथ दोस्ती ? ये आली ज़नाब तो, आदमी और हिज़ड़ों के बीच कोई भेद नहीं रखते ! इनका तो कुछ बिगड़ता नहीं ! इन्होंने तो अपनी इज़्ज़त बेच खायी, मगर इनके साथ बैठने वालों के लिए ये मुसीबत ला देते हैं ! इनको तो अपने इज़्ज़त का कोई ख्याल नहीं, मगर हमें तो है !” इस तरह ठोक सिंजी इन दोनों को अब, खारी-खारी नज़रों से देखने लगते हैं ! मगर, रशीद भाई को इनकी कहाँ परवाह ? उनके अन्दर तो अभी, एक कलाकार की रूह आकर घुस गयी है ! अब इस बदन में घुसे कलाकार को, कौन ललकार सकता है ? इस हिज़ड़े की क्या औकात ? जो इनकी कला को, ललकार रहा है ? बस, फिर क्या ? झट अंगोछे को कमर पर बांधकर, नाचना शुरू करते हैं ! नाचते-नाचते, वे गीत भी गाने लगते हैं ! अब यह ठोकिरा रशीदा जान उनको नाचता हुआ देखता है, देखता-देखता हंसता हुआ तालियां पीटकर उनका जोश भी बढ़ाता जा रहा है !]

रशीद भाई - [नाचते हुए, गाते हैं] – “म्हारी आंखड़ियां रौ तारौ, दुलारौ प्यारौ मरुधर देस..सोने रा डूंगर ज्यूं चमकै, रेतड़ली रा ढेर...पनां ज्यूं जड़ियोड़ा उण में, वै मरुधर रा कैर म्हारी आंखड़ियां रौ तारौ, दुलारौ प्यारौ मरुधर देस !”

[घूमर लेकर नाचते जा रहे हैं, रशीद भाई ! इतने में, तालियों की गड़गड़ाहट सुनायी देती है ! चमककर, वे अपना नृत्य रोक लेते हैं ! फिर, सामने देखते हैं ! सामने खिड़की के बाहर, आसकरणजी टी.टी.ई. और दूसरे यात्रियों को एक ताल में तालियां पीटते हुए देखते हैं ! इतने सारे लोगों को देखकर, कलाकारी का भूत उतरकर चला जाता है ! अब शर्म के मारे रशीद भाई, अपनी सीट पर आकर बैठ जाते हैं ! ठोक सिंहजी कभी हिज़ड़े को एक रुपया नहीं देते, मगर अब इस खेल से त्रस्त होकर जेब से दस का कड़का-कड़क नोट निकालकर रशीद भाई पर वारते हैं..फिर उस नोट को रशीदा जान को थमा देते हैं ! मगर, अब बात हो गयी दूसरी ! यहां कौन नहीं चाहता कि, तमाशा हो ? आसकरणजी और दूसरे बाहर खड़े यात्री झट अन्दर आ जाते हैं, और आकर रशीद भाई पर रुपये वारकर रशीदा जान को थमाने लगते हैं ! इस तरह अब, रशीदा जान की झोली नोटों से भर जाती है ! वह इन सब नोटों को इकठ्ठा करके, उन्हें ब्लाउज़ के अन्दर खसोल लेता है ! फिर वह उठकर, दूसरे केबीन में चला जाता है ! अब आसकरणजी आकर बेंच पर बैठ जाते हैं ! इतने में इंजन सीटी देता है, प्लेटफोर्म पर उतरे सभी यात्री झट डब्बे में आकर अपनी सीटों पर बैठ जाते हैं ! थोड़ी देर बाद गाड़ी सीटी देती हुई, स्टेशन छोड़ देती है ! धीरे-धीरे उसकी रफ़्तार बढ़ जाती है ! अब ‘चाये, चाये..गरमा-गरम चाय’ की आवाज़ लगाता हुआ चाय वाला कंधे पर चाय की टंकी उठाये इस केबीन में चला आता है !

चाय वाला – चाये, गरमा-गरम चाये...मसालेदार चाय ! [रसीद भाई के पास आकर, वह कहता हैं !] सेठ साहब, क्या चाय डाल दूं ? सारी थकावट, दूर हो जायेगी !

आसकरणजी – आज तो रशीद भाई, आप मेरी तरफ़ से चाय पीजिएगा ! [चाय वाले से कहते हैं] ए रे, मांगी लाल ! इन सबको मसालेदार चाय से सिकोरा भरकर, थमा दे !

[चाय वाला सबको चाय से भरकर, सिकोरा थमा देता है ! सभी चुश्कियां लेकर चाय पीते दिखाई देते हैं ! चाय वाला चाय की टंकी ऊंचाये ‘चाये, गरमा-गरम चाय’ की टेर लगाता हुआ वहां से चला जाता है ! अब ठोक सिंहजी चाय की चुश्की लेते हुए, कहते हैं !]

ठोक सिंहजी – [चाय की चुश्की लेते हुए, कहते हैं] – लीजिये रशीद भाई, अब आपका नशा-वशा हो गया है ! आपकी बातों की गाड़ी के इंजन को तेल मिल गया है, अब आप छोड़ी गये किस्से को आगे बढ़ाइए !

आसकरणजी – [चाय का खाली सिकोरा खिड़की से बाहर फेंकते हुए, कहते हैं] – आप अपना क़िस्सा बयान कीजिये, रशीद भाई ! मुझे अभी-तक डब्बे के यात्रियों के टिकट चैक करने हैं, रूख्सत दीजिएगा ! जय श्याम री, सा !

सावंतजी – पधारिये मालिक, फिर मिलेंगे ! जय श्याम री, सा !

[आसकरणजी रूख्सत होते हैं, रशीद भाई आगे का क़िस्सा बयान करते हैं !]

रशीद भाई – ख़ुदा रहम ! मेरे साथ कैसी बीती ? वह मेरा दिल ही जनता है ! यह ठोकिरा अल्लानूर ख़बीस साला भूल गया, मेरे घर पर इतला करना..घर वाले फ़िक्र करने लग गए कि, मैं कहाँ चला गया ? अजी क्या कहूं ज़नाब ? मेरी बीबी हसीना तो झार-झार रोने लगी, और उधर दरवाज़े पर दस्तक हुई ! उठकर उसने दरवाज़ा खोला, तो बाहर एक पुलिस वाले को खड़ा पाया !

[अब यह पूरा वाकया चित्र बनकर, फिल्म की तरह सुनने वालों की आँखों के आगे छा जाता है ! मंच पर अंधेरा छाने लगता है, थोड़ी देर बाद मंच रोशन होता है ! राजकीय महात्मा गांधी अस्पताल के इंटेंसिव वार्ड का मंज़र सामने आता है ! इस वार्ड के बाहर, दरवाज़े के पास एक सुरुक्षा गार्ड स्टूल पर बैठा दिखाई दे रहा है ! वह रोगी के किसी रिश्तेदार को वार्ड के अन्दर दाख़िल नहीं होने देता, इसलिए रोगियों के सभी रिश्तेदार बाहर आहते में मौजूद है ! कई रिश्तेदार या रोगी के घर वाले फर्श पर दरी बिछाकर बैठे हैं ! कई रेलिंग पकड़कर, आपस में बातें कर रहे हैं ! थोड़ी देर बाद दो पुलिस वाले वार्ड से बाहर आते हैं, बाहर आकर वे सीधे रशीद भाई के घरवालों और उनके शुभचिंतकों के पास आकर खड़े हो जाते हैं ! फिर, उनसे कहते हैं !]

एक पुलिस वाला – [हसीना बी से, कहता हुआ] – बड़ी बहन, फ़िक्र कीजिये मत ! आपके मियां रशीद भाई खतरे से बाहर हैं ! मगर, उनको अभी-तक होश नहीं आया है !

हसीना बी – [नयनों से आंसू ढलकाती हुई, कहती है] – एक बार उनको देखकर आ जाऊं, तो मेरे दिल को तसल्ली मिल जाय !

दूसरा पुलिस वाला – ऐसी ग़लती करना मत, बड़ी बहन ! क्या आप जानती नहीं, आपके अन्दर जाने पर आपके साथ कई तरह के रोगों के कीटाणु वार्ड के अन्दर चले जायेंगे..जो रोगी को खतरा पहुंचा सकते हैं ! आप धैर्य रखें, और अपने दिल को मज़बूत बनाएं ! ऊपर वाला मालिक, सब ठीक करेगा !

मजीद मियां – कैसे रखें, इस दिल को मज़बूत ? पति की दुर्घटना के बाद, मेरी बच्ची ने उसकी शक्ल नहीं देखी...क्या, शक्ल देखें ? इसके खाविंद का चेहरा खून से लथपथ, मुंह पर इतना खून..उसको पहचाने भी कैसे ? इधर आप लोगों ने रोगी की जेब से डायरी और अन्य काग़ज़ात बरामद किये, जिसे देखते ही मेरी यह बच्ची बेहोश होकर फर्श पर गिर पड़ी !

पहला पुलिस वाला – देखिये, चच्चा जान ! उन काग़ज़ों और उस टेलीफ़ोन डायरी की जांच हुई, तब मालुम पड़ा कि वे सारे काग़ज़ात एफ़.सी.आई. से सम्बंधित हैं जो मोहम्मद रशीद वल्द अब्दुल अज़ीज़ से सम्बन्ध रखते हैं ! डायरी में इस कर्मचारी के घर का फ़ोन नंबर और पता मिल गया, फिर क्या ? भदवासिया फाटक पर आये आपके घर पर, रशीद भाई की दुर्घटना की इतला दे दी गयी !

जबरुद्दीन – हवलदार साहब ! रशीद भाई कहकर गए थे कि, आज़ तनख्वाह का दिन है..इस कारण आज आने में देरी हो सकती है ! मगर इनकी जेब से तनख्वाह मिलना तो दूर, एक रूपया बरामद नहीं हुआ ?

पास खड़ा पड़ोसी – मुझे तो लगता है, यह कोई साज़िश है ! न तो तनख्वाह कहाँ जा सकती है ? ऐसा लगता है इनका कोई दुश्मन होगा, जिसने इनसे सारे रुपये-पैसे छीनकर इनको चलती गाड़ी से धक्का देकर नीचे गिरा दिया होगा ? आख़िर मियां मिले थे, भगत की कोठी और जोधपुर के बीच..एक पटरी के पास !

दूसरा पुलिस वाला – यह तो ठहरा, जांच का मामला ! जब-कभी ज़नाब होश में आयेंगे, तब इनसे पूछ-ताछ होगी और ये आली ज़नाब अदालत में बयान देंगे, तब यह मामला स्वत: निपट जाएगा ! अब आप हमारा वक़्त ख़राब न करें, बस आप यह जान लीजिये कि इनकी हिफ़ाज़त के लिए यहां एक कांस्टेबल तैनात रहेगा ! हमारी ड्यूटी का वक़्त ख़त्म हो गया है, अब चलते हैं ! ख़ुदा हाफ़िज़ !

[इतना कहकर, दोनों पुलिस वाले रूख्सत होते दिखाई देते हैं ! अब हसीना बी पल्लू ढांपकर, सिसकती जा रही है ! उनको इस तरह रोते देखकर, उनका नेक दख्तर शहज़ाद और ऊनके अब्बाजान मजीद मियां ढाढ़स बंधाते जा रहे हैं ! थोड़ी देर बाद, मंच पर अंधेरा फ़ैल जाता है ! थोड़ी देर बाद, मंच पर रोशनी फ़ैल जाती है ! अब गाड़ी का मंज़र सामने आता है, रशीद भाई क़िस्सा सुनाते-सुनाते थक गए हैं ! उनके द्वारा अब क़िस्सा बयान न करने पर, सावंतजी और ठोक सिंहजी की आखों के आगे वाकये के चित्र आने बंद हो गए हैं ! रशीद भाई अंगड़ाई लेते हुए, कह रहे हैं..]

रशीद भाई – [दोनों हाथ ऊपर ले जाते हुए, अंगड़ाई लेते हुए, कहते हैं] – आಽಽ हाಽಽ ! यार ठोक सिंहजी, थक गया ! अब मैं क्या बताऊं, आपको ? मुझे तो इस कमबख्त अल्लानूर पर इतना क्रोध आ रहा था कि, यह कमबख्त ऐसा लापरवाह है, जिसने मेरे अजमेर जाने की इतला करने का जिम्मा अपने हाथ में लिया और भूल गया नामुराद कि, ‘उसको मोबाइल से फ़ोन करके, मेरे घर इतला देनी हैं ?’ कमबख्त भूल गया, फिर साला झख मारने के लिए ले गया मुझे..अजमेर, ख्वाज़ा साहब की दरगाह ?

सावंतजी – जैसा भुल्लकड़ तू है, वैसा ही यह तेरा दोस्त अल्लानूर है ! तू तो कमबख्त भूल जाता है, बोरियों के नीचे दवाई की गोलियां रखना ! और गेलसफा बैठ जाता है जाकर, उस अफ़ीमची के पास अफ़ीम लेने ! फिर यह तेरा दोस्त अल्लानूर कौनसा कम पड़ता है, बैठ गया होगा इस मनचले के पास गपें ठोकने ?

[रशीद भाई को ख़ुद की ग़लती दिखलाना, उन्हें कैसे पसंद आये ? झट उनकी आँखों की भृकुटी चढ़ जाती है, और वे सावंतजी को खारी-खारी नज़रों से देखने लगते हैं ! अब रेल गाड़ी ने, तेज़ रफ़्तार पकड़ ली है ! इंजन की तेज़ सीटी के आगे, इन दोनों के बीच हो रही नोंक-झोंक सुनायी नहीं देती ! सीटी देती हुई रेल गाड़ी, तेज़ रफ़्तार से पटरियों के ऊपर दौड़ रही है ! थोड़ी देर बाद, मंच पर अंधेरा फ़ैल जाता है !]

[५]

[मंच रोशन होता है, रेल गाड़ी का मंज़र सामने आता है ! सावंतजी, ठोक सिंहजी और रशीद भाई बेंचों पर बैठे हैं ! अब रशीद भाई, आगे का क़िस्सा बयान करते जा रहे हैं !]

रशीद भाई – सुनिए ! तड़के हम पहुंच गए, अजमेर ! हाथ-मुंह धोकर सीधे चले गए, ख़वाजा साहब की दरगाह के जन्नती दरवाज़े पर ! अब आपको क्या बताऊं ? इतनी सारी भीड़ जमा थी उस दरवाज़े के पास, मानों कि टिड्डी दल का जमाव हो गया हो वहां ! हाय अल्लाह ! इस भीड़ को देखते ही, हर किसी का हौसला पस्त हो जाया करता है ! मगर हमने, हिम्मत रखी ! फिर भी फ़िक्र सताने लगी, इस भीड़ के बीच कैसे करेंगे जन्नती दरवाज़े के दीदार ?

सावंतजी – आप तो ठहरे, आख़िर बूढ़े आदमी ! मुझे तो यह शंका है, कहीं इस भीड़ के अन्दर किसी शैतान के पिल्ले ने आपको धक्का देकर नीचे न गिरा दिया हो ?

रशीद भाई – यही डर था, सावंतजी ! फिर क्या ? मैं बेचारा बूढ़ा आदमी अगर कुचल दिया गया, इस भीड़ के पांवों के तले तो...? मगर, ऐसा कुछ नहीं हुआ ! मालिक ने सुनी हम लोगों की अरदास, तड़के ठीक चार बजे जन्नती दरवाज़ा खुला और हम लोगों को आराम से जन्नती दरवाज़े के दीदार हो गए ! हमारा इस तरह शान्ति और तसल्ली से इंतज़ार करना, आख़िर काम आया ! आनंद आ गया, जगह-जगह शहनाई बज रही थी..शहनाई के सुर सुनकर जन्नती आनंद आ गया ! उसके वर्णन करने की, मुझमें समर्थता नहीं !

सावंतजी – मत कीजिएगा, वर्णन ! ज़नाब आप तो यह बता दीजिएगा कि, जोधपुर में आपकी क़दमबोसी कब हुई ?

रशीद भाई – [चिढ़ते हुए, कहते हैं] – यह क्या, ज़नाब ? आपने बीच में बोलकर मेरी बोलने की लय तोड़ डाली ! सावंतजी, आपमें कोई क़ाबिलियत नहीं है क़िस्सा सुनने की ! क़िस्सा सुनते वक़्त हूंकारा देते रहना गया चूल्हे में..कम से कम बीच में बोलकर आप, क़िस्सा कहने का मज़ा तो नहीं बिगाड़ते ? अब आपसे क्या कहूं, ज़नाब ? सारा मज़ा किरकिरा कर डाला, आपने !

ठोक सिंहजी – [मुस्कराते हुए, कहते हैं] – अबे भोड़े खां साहब, अब तुमको यहां बैठाकर आरती उतारे क्या ? औरतों की तरह मुंह चढ़ाकर बैठ जाते हैं, आप ? आसकरणजी मालिक नशा-पता करवाकर गए हैं, अभी ! फिर अब आपका मूड, ख़राब ख़राब कैसे होगा ? चलिए, अब किस्से को आगे बढ़ाइए !

[आख़िर अपने साथियों का मान रखते हुए, रशीद भाई क़िस्सा बयान करने लगे ! अब वाकया चित्र बनकर फिल्म की तरह सावंतजी व ठोक सिंहजी की आँखों के आगे छाने लगा ! मंच पर, अंधेरा छा जाता है ! थोड़ी देर बाद, मंच वापस रोशन होती है ! राजकीय महात्मा गांधी अस्पताल का मंज़र सामने दिखाई देता है, अब अस्पताल का पिछला हिस्सा नज़र आता हैं, जहां कोटेज़ वार्ड बने हैं ! अब रशीद भाई कोटेज़ वार्ड वाले दरवाज़े से गुज़रते हुए खुले चौगान में आ जाते हैं, यहां रास्ते में ओथियोपेडिक वार्ड, दवाई बिक्री केंद्र और केन्टीन नज़र आती है ! इस वक़्त वे अपने क़दम फिमेल वार्ड की ओर बढ़ा रहे हैं, और चलते-चलते बड़बड़ाते जा रहे हैं !]

रशीद भाई – [चलते-चलते, बड़बड़ाते हैं] – अच्छी की ख्वाज़ा पीर, आपने ? घर गया, और खाए गौते ! और ऊपर से ये पड़ोसी मुझे देखकर कहने लगे ‘चच्चा, आप घर कैसे आ गए ? यहां तो ताला लगा हुआ है ! आपके सभी घर वाले गांधी अस्पताल गए हैं, ऐसा सुना है कि आपके किसी बूढ़े रिश्तेदार का एक्सीडेंट हो गया है और वह आई.सी. वार्ड में भर्ती है !’ यह सुनकर, मेरा मगज़ ख़राब हो गया ! सोचता हूं, शायद मेरे ससुर मजीद मियां का ही एक्सीडेंट हुआ होगा ? हाय अल्लाह, अब तो अस्पताल के चक्कर काटते रहो और पैसे की बरबादी करते जाओ ! इधर अवकाश के खाते में, कोई आकस्मिक अवकाश शेष नहीं ! ख़ुदा रहम, अब इनकी तीमारदारी में उपार्जित अवकाश पर खंज़र चल जाएगा ?

[अब चलते-चलते, फिमेल वार्ड की ढाल आ जाती है ! ज़नाब अभी-तक अपनी धुन में चले जा रहे हैं, चलते-चलते वे सामने से ढाल उतर रही एक मोहतरमा से टक्कर खा बैठते हैं ! टक्कर लगने से वह मोहतरमा हो जाती है, नाराज़ ! वह झट बुर्के की जाली हटाकर, बकती है गालियां !]

वह मोहतरमा – [जाली हटाकर, कहती ही] – अरे मुए, तेरे आंखें है या बटन ? कमबख्त देख़कर चलता नहीं, मर्दूद ! लुगाइयों से टक्कर खाने में मज़ा आता है, तुझे ? घर पर, तेरी मां-बहन नहीं है जो..?

[रशीद भाई उस मोहतरमा का चेहरा देख लेते हैं, और उनके मुख से अचरच की चीख निकल जाती है ! फिर आश्चर्य से, लबों पर मुस्कान लाकर कह उठते हैं !]

रशीद भाई – [मुस्कराकर, कहते हैं] – अरे हसीना, तू यहां ? तू यहां कैसे खड़ी है, मेरी बेग़म...मेरी खातून, तेरे अब्बू अब कैसे हैं ? खैरियत तो है ?

हसीना बी – बिफ़रकर, कहती है] – तू किसको अपनी लुगाई कह रहा है, माता के दीने ? अभी दूंगी तेरे टाट पर, जूत्ती उतारकर ! क्या..क्या..बोल रहा था तू.....

[हसीना बी, आगे क्या कहे ? रशीद भाई का चेहरा देखकर वह सकपका जाती है, सहसा उसके मुंह से यह जुमला निकल उठता है !]

हसीना बी – [अचरच से, अहती है] – अरे तुम, यहां ? फिर, वार्ड में कौन ? क्या तुम दुरस्त हो गए, क्या ? यह कैसे हो गया ? कहीं अल्लादीन के चिराग़ का जिन्न आकर, तुमको ठीक कर गया ? नहीं..नहीं..वह तुम नहीं हो सकते ! तुम मेरे खाविंद नहीं हो सकते, तुम एक शातिर बहरूपिये हो ! [उनको देखकर, हसीना बी घबरा जाती है !]

रशीद भाई – घबरा मत, मेरी नूर महल ! मैं ठीक हूं, मगर मुझे हुआ क्या ? अच्छी तरह से देख ले मैं ही हूं, तुम्हारे शहज़ाद का अब्बा ! अब आंखें फाड़कर काहे देख रही है, मुझे ? क्या कभी मुझे देखा नहीं है..मेरे बच्चों की अम्मी ?

हसीना बी – [घबराती हुई, कहती है] – अरे..अरे तुम शहज़ाद के अब्बा नहीं हो सकते, वह बेचारे वार्ड में भर्ती है ! तुम बहरूपिये हो, या खबीस ? हट जाओ, मेरी आँखों के आगे से ! [दुःख के मारे, सर थामकर, कहती है] हाय अल्लाह, मेरा खसम मर गया क्या ? जो मेरे सामने आसेब बनकर आया है, मुझे डराने ? [डरकर, चीखती हुई कहती है] ओ मेरे पीर दुल्ले शाह, आकर मुझे बचा मेरे मोला !

रशीद भाई – मज़ाक छोड़ो, बेग़म ! यह बोलो कि, तुम्हारे अब्बू कैसे है ? सुना है कि, उनका एक्सीडेंट हो गया और वे इसी अस्पताल में भर्ती है !

[पीछे से ढाल उतर रहे मजीद मियां, सुन लेते हैं उनका दामाद क्या कह रहा है..उनके बारे में ? फिर क्या ? बैसाखी क सहारा लिए आते हैं पास, और आकर तड़ककर रशीद भाई से कहते हैं !]

मजीद मियां – [तड़ककर, कहते हैं] – क्या हुआ रे, मेरे ? नासपीटे, क्या बकता जा रहा है ?

रशीद भाई – [डरते हुए, कहते हैं] – अरे हुज़ूर, आप यहा कैसे ? आपको अस्पताल के बेड पर होना चाहिए ? आपका एक्सीडेंट हो गया, ना ?

मजीद मियां – [गुस्से से उबलते हुए, कहते हैं] – धरूंगा चार ठोल, तेरे सर पर..तब आएगी कमबख्त, तूझे अक्ल ! मर्दूद, एक दुरस्त आदमी को डेथ बेड पर सुला रहा है... ? मेरा एक्सीडेंट क्यों होगा ? क्या तू मुझे, अस्पताल में भर्ती देखने आया है ? फिटोल कहां-कहां फिरकर आ रहा है, तू ? लोगों को कहता जा रहा है कि, मेरा एक्सीडेंट हो गया और मैं इस अस्पताल में आख़िरी सांस ले रहा हूं ?

रशीद भाई – अरे, चच्चाजान ! मैंने कब ऐसा कहा ? कहीं आपको ग़लतफ़हमी तो न हो गयी, चच्चाजान ?

मजीद मियां – अभी आते समय, तूने जुम्मन मियां से यह नहीं कहा कि, ‘मेरा एक्सीडेंट हो गया, और मैं इसी अस्पताल में आख़िरी सांस ले रहा हूं ?’

रशीद भाई – [घबराकर, कहते हैं] – अरे चच्चाजान ! मैंने कब कहा आप...

मजीद मियां – [तल्खी से] – क्यों रे, तूने मुझे खर्रास समझ रखा है ?अब सुन, जुम्मन मियां कह रहा था कि तू यों बोला ‘चच्चा घर पर ताला लगा है, और मजीद चच्चा का एक्सीडेंट हो गया है ! अब मैं जा रहा हूं, गांधी अस्पताल ! क्या करूं, चच्चा ? अब तो, खर्चा ही खर्चा है !’

रशीद भाई – [हंसी को दबाते हुए, कहते हैं] – मैं क्या करता, चच्चा ? पड़ोस की लुगाइयों ने कहा कि, ‘मियां, यहां क्यों आये ? गांधी अस्पताल जाओ, वहां कोई तुम्हारा बूढ़ा रिश्तेदार अंतिम साँसें ले रहा है !’ फिर रास्ते में मिल गए, आपके दोस्त जुम्मन मियां ! वह टेक्सी में बैठे कहीं जा रहे थे, उन्होंने टैक्सी रुकवाकर मुझसे बात की...

मजीद मियां – और कमबख्त तू, मोती पिरोने बैठ गया ? वह सीधा अस्पताल आया, और साथ में लेकर आ गया सारे दोस्तों को ! मुझे दुरस्त देखकर, मुझे हैरानी से देखने लगा ...

हसीना – छोड़ो अब्बूजान, ख़ुदा के मेहर से आप बच गए..अब जाने दीजिये !

मजीद मियां – जाने कैसे दूं, इस मर्दूद को ? मेरी खैरियत पूछने आ गयी मेरी सारी मित्र-मंडली, सबको चाय-वाय पिलाकर विदा किया ! इस तरह, मेरी जेब के १५० रुपये खर्च हो गए !

रशीद भाई – छोड़ो इन बातों को ! असल बात सुनो, मेरी ! नाराज़ मत होना, गुस्सा करने से वी.पी. बढ़ जाता है ! फिर, बिल बढ़ जाएगा डॉक्टर का ! अब सुनिए, स्टेशन से बाहर आते ही यह अल्लानूर मुझे मिल गया और ज़बरदस्ती ले गया नुझे अजमेर ! कह रहा था, उसके पोता हुआ है... इसीलिए ख्वाज़ा साहब की मज़ार पे चादर चढ़ानी है !

मजीद मियां – [रशीद भाई को नए वस्त्र पहने देखकर, कहते हैं] – हुमಽಽ, अब थोड़ा-थोड़ा करके सारा माज़रा समझ में आता जा रहा है ! ये नए कपड़े..? पुराने कपड़े कहाँ डालकर, आ गया मर्दूद ?

रशीद भाई – [डरते-डरते, कहते हैं] - हु..हु..हुज़ूर ! उस फ़क़ीरड़े को..

मजीद मियां – [लबों पर मुस्कान बिखेरते हुए, कहते हैं] - अबे चल, उस केन्टीन पर बैठकर चाय पीयेंगे और बातें करेंगे ! [हसीना बी से, कहते हैं] बेटा तुम आगे चलो, इतनी देर मुझे यहां खड़ा रखा जिससे मेरे पांवों में दर्द हो रहा है ! अब वहां चलकर बैठूंगा, तब कहीं जाकर इन पांवों को आराम मिलेगा !बि

[अब सभी ग्राउंड में दिखाई दे रही उस केन्टीन की ओर, अपने कदम बढ़ा देते हैं ! ग्राहकों के बैठने के लिए, इस केन्टीन के बाहर कई स्टूल रखे हैं ! ये तीनों उन पर आराम से बैठ जाते हैं, मजीद मियां अपनी बैसाखी पास रखे एक खाली स्टूल पर रख देते हैं ! अब रशीद भाई बेरे को, तीन कप चाय लाने का हुक्म देते हैं ! फिर वे मजीद मियां को समझाते हुए, कुछ कहना चाहते हैं !]

रशीद भाई – मैं कह रहा था, कि..

मजीद मियां – [बात काटते हुए, कहते हैं] – कुछ भी कहने की ज़रूरत नहीं, साहबज़ादे ! जो कहना है, वह मैं बोल रहा हूं..बस, तुम दोनों सुन लीजिये ! बात आईने की तरह साफ़ है, मैं अभी वार्ड से ही आ रहा हूं ! मालुम पड़ा है, उस बीमार को होश आ गया है ! [हसीना बी की ओर देखते हुए, कहते हैं] आख़िर वह बीमार कौन है, कुछ मालुम पड़ा ? उसको पहचाना, या नहीं ?

रशीद भाई – क्या, मैं बताऊं ?

मजीद मियां – कुछ कहने की ज़रूरत नहीं, ये जो रोगी है वे हैं मामू प्यारे के ससुर दिलावर सेठ के भाई अकबर खां साहब !

हसीना बी – [अचरच करती हुई,कहती है] – क्या कहा, अब्बूजान ? वह तो मर गए ना, उनके फ़ातिहे की दावत में हम सभी शरीक हुए थे ! फिर...?

मजीद मियां – अब तुम दोनों, मेरी बात को अच्छी तरह से समझ लो ! अकबर खां साहब की मौत नहीं हुई थी ! स्वार्थ और जायदाद हड़पने के लालच में, उनके खोलायत छोरे अमज़द ने यह बुरा काम किया ! उसने अकबर खां साहब के मौत की झूठी खबर फैला दी थी ! अब मैं तुम दोनों से पूछना चाहता हूं कि, तुम किसी ने अकबर खां साहब की लोथ देखी थी या नहीं ? सच्च यह है, किसी ने उनकी मृत देह देखी नहीं है !

हसीना बी – हां, सच्च है...किसी ने उनकी लाश देखी नहीं है ! क्योंकि, दुर्घटना स्थल से उनकी लाश आयी नहीं, और लाश के बिना दफ़न किये उसने उनके फ़ातिहे की दावत कर डाली ! जिसमें सभी रिश्तेदारों को, खाना खाने के लिए बुलाया था उसने !

मजीद मियां – फिर क्या ? तेरे खाविंद ने क्या किया ? रेलवे स्टेशन के बाहर रेडीमेट कपडे ख़रीदकर पहन लिए, और पुराने कपड़े किसी फ़क़ीर को पहनने के लिए दे डाले ! आख़िर, यह फ़क़ीर था कौन ?

रशीद भाई – [आश्चर्य से, कहते हैं] – हाय अल्लाह ! क्या वह फ़क़ीर, अकबर साहब ख़ुद थे ? तभी पुलिस ने उनकी पतलून की जेब से मेरी डायरी और मेरी नौकरी के संबंधी काग़ज़ात बरामद किये थे ! पुराने कपड़े देते वक़्त, तनख्वाह तो निकाल ली मैंने मगर काग़ज़ात और डायरी को जेब से निकालना भूल गया...!

मजीद मियां – [ज़ोर से, कहते हैं] – साहबज़ादे ! तुमने क्या निकाला, और क्या नहीं मिकाला जेब से..? अब इससे कोई लेना-देना नहीं ! तेरी भूल जाने की ग़लत आदत से, मैं वाक़िफ़ हूं ! और यह भी जनता हूं, तू कभी अपने पास मोबाइल रखता नहीं ! ज़रूर तूने उस भुल्लकड़ अल्लानूर को कह दिया होगा कि, मेरे अजमेर चलने की की सूचना मेरे घर पहुंचा देना ! और, वह नालायक भुल्लकड़...

रशीद भाई – [घबराते हुए, कहते हैं] – हाय अल्लाह, क्या उसने घर पर इतला नहीं की ?

मजीद मियां – [हंसते हुए, कहते हैं] – तुम दोनों ठहरे, भुल्लकड़ नंबर एक ! जैसा तू लापरवाह, वैसा ही तेरा दोस्त अल्लानूर ठहरा एक नंबर का भुल्लकड़ ! अरे मियां, वह दोस्त कैसा है ? जानते हो, तुम ? बम्बई से फ़ोन आता है भैंस को भेजना है, मगर यह गेलसफ़ा अपने तबेले से भैंसे को ट्रक में बैठाकर भेज देता है बम्बई ! यही कारण है कि, ‘इसी गफ़लत के कारण बम्बई से काल इसके हागड़ी के पास आते हैं, अब इसके पास नहीं आते !’

[मजीद मियां की बात सुनकर, रशीद भाई और हसीना बी ज़ोर से ठहाके लगाकर हंसते हैं ! तभी केन्टीन का बेरा चाय से भरे तीन सिकोरे लाकर, स्टूल पर रखकर चल देता है ! अब तीनों चाय की चुश्कियां लेते हुए, चाय पीते नज़र आते हैं ! धीरे-धीरे, मंच पर अंधेरा फैल जाता है ! थोड़ी देर बाद, मंच वापस रोशन होता है ! रेल गाड़ी के डब्बे का मंज़र सामने दिखाई देता है ! रशीद भाई क़िस्सा बयान करते नज़र आते हैं ! अब वाकया के चित्र, जो फिल्म की तरह ठोक सिंहजी और सावंतजी की आँखों के आगे छा रहे थे, अब उनका आना बंद हो जाता है ! रशीद भाई कह रहे हैं..]

रशीद भाई – कभी-कभी वाकये को अच्छी तरह से नहीं समझते हैं, तब बेफालतू का खर्चा बढ़ जाता है और दूसरी तरफ़ हमारी बेवकूफ़ी पर होती है जग-हंसाई !

सावंतजी – वाह, वाह ! यह भी अच्छा हुआ, इस भ्रम-जाल में फंसकर उस बेचारे बूढ़े अकरम खां का इलाज़ तो हो गया ! न तो उस बेचारे ग़रीब अकरम खां का इलाज़, कौन करवाता ? आपके द्वारा इलाज़ करवाने से, बेचारे बूढ़े अकबर खां ज़िंदा बच गए ! रशीद भाई ने यह पुण्य कार्य किया है, इसलिए इन्हें सवाब मिला है ! रशीद भाई,आप बहुत भाग्यशाली हैं !

रशीद भाई – [मुंह बनाकर, कहते हैं] – भाग्यशाली...? यहा कौन है, भाई ? इस प्रकरण में फंसकर, १५-२० हज़ार रुपये के नीचे आ गया हूं मैं ! सारी ग़लती मेरी बीबी की, जिसने घायल का मुंह अच्छी तरह से न देखा और बवाल मचा डाला ! कि, मेरा एक्सीडेंट हो गया है ! फिर क्या ? सभी गधे यहां हो गए, इकट्ठे ? जैसे कि, मेरा इंतिकाल होने वाला है ! और करने लगे, मेरी मौत का इन्तिज़ार ! और ऊपर से आप कह रहे हैं, मैं भाग्यशाली हूं ?

ठोक सिंहजी – देखिये ज़नाब ! भलाई की है, आपने ! इसका फल अच्छा ही मिलेगा, आपको ! [तभी जेब में रखे मोबाइल पर घंटी आती है, मोबाइल जेब से बाहर निकालकर उसे ओन करके अपने कान के पास लाते हैं] हेलो कौन ? [फ़ोन से आ रही आवाज़ सुनकर, कहते हैं] अच्छा, मुनीरिये के प्रकरण से पीछा छूटा ? अच्छा हुआ, साहब ! अब मै पूरी बात को विस्तृत रूप से कह दूंगा, आपके इस सेवाभावी को ! जय बाबा री ! अब रख रहा हूं, फ़ोन ! ठीक है ? [मोबाइल जेब में रखते हुए, कहते हैं] लीजिये, रशीद भाई ! अब खिलाओ, मिठाई ! आप मुनीरिये के फैलाए जाल से, बाहर निकल गए हैं

रशीद भाई – [ख़ुश होकर, कहते हैं] – फुठर मलसा का भला हो ! बेचारे फुठर मलसा ने न मालुम कितने चक्कर लगाए होंगे मेरे लिए, इस सी.आई.डी. दफ़्तर के ! मुझे तो इस मुनीरिये के बाप ने फंसा डाला था, प्रकरण में मेरा झूठा नाम डालकर !

सावंतजी – यह मुनीरिया है, कौन ? वही जो आपके साथ अजमेर चला था, अल्लानूर साहब की ट्रक में बैठकर ?

रशीद भाई – हां यार, कभी-कभी यह थोड़ी सी जान-पहचान और यह भलाई करने की मेरी आदत बुरा फंसा देती है मुझे ! बात यह है, यार ! यह मुनीरिया है बंगला देश का वासी ! बालपने में इसके मां-बाप मर गए, और यह ठोकिरा अपने किसी रिश्तेदार के साथ आ गया जोधपुर ! उस दौरान मेरे चच्चा के दोस्त बाबू खां ने ले लिया, इसे गोद ! क्योंकि, उनकी कोई औलाद नहीं थी !

ठोक सिंहजी - अब आगे की कोई बात, कहने की कोई ज़रूरत नहीं ! आपकी कहे गए किस्से को सुनकर हम समझ गए कि, इस कमबख्त बाबू खां ने अपने बयान में कहा होगा कि ‘गोद लेने की रस्म के वक़्त, रशीद भाई भी वहां मौजूद थे !’ और किसी ग़ैर ने कह दिया होगा कि, ‘आप इस मुनीरिये के मददगार रहे, और आपके प्रयासों से इसे मिली है भारत देश की नागरिता !’ आख़िर इस बाबू खां के जान-पचान वालों में, आप एक पढ़े-लिखे सरकारी कर्मचारी रहे हैं ! यह सत्य है, एक पढ़ा-लिखा आदमी ही ऐसे काम को अंजाम दे सकता है !

रशीद भाई – इसके अलावा आपने पिछली गाथा में सब सुन लिया है, जो मुनीरिये की दुल्हन ने बताया था ! कि, सी.आई.डी. वाले रोज़ इसके घर आते हैं जांच के क्रम में ! बस, इसी दौरान मुझे सी.आई.डी. दफ़्तर से नोटिस मिला कि ‘मैं गोद लेने की रस्म में वहां मौजूद था, इस तरह मैंने इस ग़लत काम में सहयोग दिया है ! क्यों नहीं अब, मेरे ख़िलाफ़ कानूनी कार्यवाही की जाए ?’

ठोक सिंहजी – फिर आप गए होंगे, फुठर मलसा के पास ! जो विधि-स्नातक हैं और अब रिटायर होने के बाद हाई कोर्ट में वकालत कर रहे हैं ! फिर क्या ? उन्होंने आपका यह यह प्रकरण हाथ में लेकर पता लगाया कि, ‘उस वक़्त आपकी नाम राशि का कोई आदमी था जो माणक चौक में रहता था, और वह गोद की रस्म के वक़्त वहां मौजूद था !’ आख़िर, उन्होंने पता लगा लिया..उन्हें ऐसे आदमी की जानकारी भी मिल गयी !

रशीद भाई – और वह निकला, बाबू खां का पड़ोसी ! जो इस रस्म के वक़्त वहां मौजूद था, और कालांतर उसकी मृत्यु भी हो गयी है ! बस, फिर क्या ? फुठर मलसा ने इस रस्म के वक़्त, इस व्यक्ति की उपस्थिति सिद्ध कर डाली ! उस व्यक्ति की मृत्यु हो गयी है, इसलिए अब सी.आई.डी. उसे बुलाकर उसके बयान भी नहीं ले सकती ! बस उस वक़्त उस पड़ोसी की उपस्थिति सिद्ध होने पर, मुझे बचा लिया फुठर मलसा ने !

ठोक सिंहजी – बस, आपने यही बात सही कही है ! क्योंकि आप उस वक़्त जोधपुर में नहीं थे, और आप बाड़मेर में नौकरी करते थे ! तब आपकी उपस्थिति बाड़मेर में बोलती है, तब आप यहां इस रस्म में कैसे हाज़िर रहते ? एक ही वक़्त, आदमी अपनी उपस्थिति दो स्थान पर दर्ज नहीं करवा सकता ! यही पॉइंट निकालकर, फुठर मलसा ने आपको बचाया है ! उन्होंने तो सिद्ध कर डाला कि, ‘आप उस गोद लेने की रस्म में वहां थे भी नहीं ! और इस मुनीरिये को आप जानते भी नहीं, आज़कल अनजान आदमी की कौन करता है मदद ?’

सावंतजी – [मुस्कराते हुए, कहते हैं] - अब मुझे समझ में आया कि, ‘रशीद भाई क्यों फुठर मलसा के आगे-पीछे घूम करते थे ? यहां न तो उनको बनना है, उनका मुन्शी ! और न इनको सेवाभाव झलकाना था...! ज़नाब तो अपना काम निकलवाने के लिए ही, उनके पास जाया करते थे !’

ठोक सिंहजी – रशीद भाई, आप अपने फ़ायदे के लिए फुठर मलसा के आगे-पीछे घूमते थे..क्या मैं झूठ कह रहा हूं ? अब कहिये आप, ऊपर वाला हिसाब बराबर रखता है ! आपने उस ग़रीब अकबर खां का भला किया, उसका इलाज़ करवाकर ! तब ऊपर वाले ने फुठर मलसा को भेजकर, आपको अदालती कार्यवाही होने से बचाया है ! अब आप एक बात अपने दिमाग़ में बैठा लीजिये कि, ‘भलाई करोगे तो भलाई ही मिलेगी !’

[अब आगे कौन, और क्या बोला ? रेल गाड़ी के इंजन की सीटी की आवाज़ के आगे, कुछ सुनायी नहीं देता है ! रेल गाड़ी की रफ़्तार कम होती जा रही है ! थोड़ी देर बाद जोधपुर स्टेशन आ जाता है, रेल गाड़ी रुक जाती है ! मंच पर अंधेरा फ़ैल जाता है !]

मेरी बात -: इस खंड में यह बात दर्शायी गयी है कि, भलाई करना बेकार नहीं जाता ! यह ऊपर वाला जिसे हम कई नाम से पुकारते हैं कोई इसे ईश्वर कहता है तो कोई इसे ख़ुदा या गोड कहता है ! वह सभी मनुष्यों के भले-बुरे कर्मों का हिसाब-किताब बराबर रखता है ! किसी को उसी हाथ उसका फल मिल जाता है, तो किसी को पूर्व जन्म में किये कर्मों के फल इस जन्म में मिलते हैं ! मगर, मिलते ज़रूर हैं !

अब इस खंड के बाद आप इस हास्य नाटक ‘गाड़ी के मुसाफिर’ का अंतिम खंड यानि खंड १२ ‘डेड बेंत का कलेज़ा’ पढेंगे ! इस खंड में यह समझाया गया है कि, दारु के अवैधानिक व्यापार पर हम कैसे लगाम कस सकते हैं ! मुझे पूरी आशा है, आप उस खंड को ज़रूर पढ़कर अपने विचार मेरे पास भेजेंगे ! मेरे ई मेल हैं -: dineshchandrapurohit2@gmail.com

जय श्याम री !




लेखक का परिचय
लेखक का नाम दिनेश चन्द्र पुरोहित
जन्म की तारीख ११ अक्टूम्बर १९५४
जन्म स्थान पाली मारवाड़ +
Educational qualification of writer -: B.Sc, L.L.B, Diploma course in Criminology, & P.G. Diploma course in Journalism.
राजस्थांनी भाषा में लिखी किताबें – [१] कठै जावै रै, कडी खायोड़ा [२] गाडी रा मुसाफ़िर [ये दोनों किताबें, रेल गाडी से “जोधपुर-मारवाड़ जंक्शन” के बीच रोज़ आना-जाना करने वाले एम्.एस.टी. होल्डर्स की हास्य-गतिविधियों पर लिखी गयी है!] [३] याद तुम्हारी हो.. [मानवीय सम्वेदना पर लिखी गयी कहानियां].
हिंदी भाषा में लिखी किताब – डोलर हिंडौ [व्यंगात्मक नयी शैली “संसमरण स्टाइल” लिखे गए वाकये! राजस्थान में प्रारंभिक शिक्षा विभाग का उदय, और उत्पन्न हुई हास्य-व्यंग की हलचलों का वर्णन]
उर्दु भाषा में लिखी किताबें – [१] हास्य-नाटक “दबिस्तान-ए-सियासत” – मज़दूर बस्ती में आयी हुई लड़कियों की सैकेंडरी स्कूल में, संस्था प्रधान के परिवर्तनों से उत्पन्न हुई हास्य-गतिविधियां इस पुस्तक में दर्शायी गयी है! [२] कहानियां “बिल्ली के गले में घंटी.
शौक – व्यंग-चित्र बनाना!
निवास – अंधेरी-गली, आसोप की पोल के सामने, वीर-मोहल्ला, जोधपुर [राजस्थान].
ई मेल - dineshchandrapurohit2@gmail.com


 










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1 टिप्पणियाँ

  1. बिलकुल सही बात, जो हम दूसरें को देते हैं वाही लौटकर हमारे पास आता हैं.

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