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बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ (भाग – 103 व 104)- [कहानियाँ]- राजीव रंजन प्रसाद


रचनाकार परिचय:-

राजीव रंजन प्रसाद

राजीव रंजन प्रसाद ने स्नात्कोत्तर (भूविज्ञान), एम.टेक (सुदूर संवेदन), पर्यावरण प्रबन्धन एवं सतत विकास में स्नात्कोत्तर डिप्लोमा की डिग्रियाँ हासिल की हैं। वर्तमान में वे एनएचडीसी की इन्दिरासागर परियोजना में प्रबन्धक (पर्यवरण) के पद पर कार्य कर रहे हैं व www.sahityashilpi.com के सम्पादक मंडली के सदस्य है।

राजीव, 1982 से लेखनरत हैं। इन्होंने कविता, कहानी, निबन्ध, रिपोर्ताज, यात्रावृतांत, समालोचना के अलावा नाटक लेखन भी किया है साथ ही अनेकों तकनीकी तथा साहित्यिक संग्रहों में रचना सहयोग प्रदान किया है। राजीव की रचनायें अनेकों पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं तथा आकाशवाणी जगदलपुर से प्रसारित हुई हैं। इन्होंने अव्यावसायिक लघु-पत्रिका "प्रतिध्वनि" का 1991 तक सम्पादन किया था। लेखक ने 1989-1992 तक ईप्टा से जुड कर बैलाडिला क्षेत्र में अनेकों नाटकों में अभिनय किया है। 1995 - 2001 के दौरान उनके निर्देशित चर्चित नाटकों में किसके हाँथ लगाम, खबरदार-एक दिन, और सुबह हो गयी, अश्वत्थामाओं के युग में आदि प्रमुख हैं।

राजीव की अब तक प्रकाशित पुस्तकें हैं - आमचो बस्तर (उपन्यास), ढोलकल (उपन्यास), बस्तर – 1857 (उपन्यास), बस्तर के जननायक (शोध आलेखों का संकलन), बस्तरनामा (शोध आलेखों का संकलन), मौन मगध में (यात्रा वृतांत), तू मछली को नहीं जानती (कविता संग्रह), प्रगतिशील कृषि के स्वर्णाक्षर (कृषि विषयक)। राजीव को महामहिम राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी द्वारा कृति “मौन मगध में” के लिये इन्दिरागाँधी राजभाषा पुरस्कार (वर्ष 2014) प्राप्त हुआ है। अन्य पुरस्कारों/सम्मानों में संगवारी सम्मान (2013), प्रवक्ता सम्मान (2014), साहित्य सेवी सम्मान (2015), द्वितीय मिनीमाता सम्मान (2016) प्रमुख हैं।

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वीरांगना चमेली बावी: एक अविस्मरणीय समर गाथा
बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ (भाग – 103)

नाग-चालुक्य संघर्ष अपने अंतिम दौर में था। अन्नमदेव ने टुकडों में बिखरे हुए नाग शासकों को पराजित कर बस्तर राज्य की नींव रख दी थी। इंद्रावती नदी के तट पर अवस्थित चक्रकोट राज्य अब भी शक्तिशाली था तथा चालुक्यों को यहाँ से प्रतिरोध मिल रहा था। राजा हरिश्चंद्र देव एकाएक घायल हो गये, उन्हें युद्धभूमि का त्याग करना पड़ा। तभी राजकुमारी चमेली बावी अपनी दो अन्य सहयोगिनियों झालरमती नायकीन तथा घोघिया नायिका के साथ आक्रांता सेना पर टूट पडीं। अपने युद्धकौशल से इस वीरांगना ने अन्नमदेव के विजय अभियान को इतना कठिन बना दिया कि उन्हें बारसूर और किलेपाल के सामंतों से अतिरिक्त सैन्य सहायता प्राप्त करने के लिये बाध्य होना पड़ा। आकस्मिक पराजय के पश्चात भी अन्नमदेव वीरांगना चमेली बावी को सौन्दर्य व क्षमताओं को देख कर अपना दिल दे बैठे। युद्ध ठहर गया तथा अन्नमदेव ने विवाह प्रस्ताव ले कर एक दूत राजा हरिश्चंद्रदेव के पास भेज दिया। अपने संदेश में अन्नमदेव ने कहलवाया कि “यदि राजकुमारी चमेली के साथ उनके विवाह प्रस्ताव को स्वीकार किया गया तब बस्तर राज्य की सीमा चक्रकोट से पहले ही समाप्त हो जायेगी”। अन्नमदेव आश्वस्त थे कि वे जो चाहते हैं वही होगा। हरिश्चंददेव के अधिकार मे केवल गढ़िया, धाराउर, करेकोट और गढ़चन्देला के इलाके ही रह गये थे; यह अवश्य था कि भ्रामरकोट मण्डल के जिनमें मरदापाल, मंधोता, राजपुर, मांदला, मुण्डागढ़, बोदरापाल, केशरपाल, कोटगढ़, राजगढ़, भेजरीपदर आदि क्षेत्र सम्मिलित हैं; से कई पराजित नाग सरदार अपनी शेष सन्य क्षमताओं के साथ हरीश्चंद देव से मिल गये थे तथापि अब बराबरी की क्षमताओं का युद्ध नहीं रह गया था।

आश्चर्यजनक रूप से राजकुमारी चमेली ने स्त्री को संधि की वस्तु समझने वाले अन्नमदेव के विवाह प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। इसके पश्चात अगली सुबह होते ही युद्ध की दुंदुभि बजने लगी। हरिश्चंद देव की कुल सैन्य क्षमता से कई गुना अधिक सैनिकों ने बारसूर, किलापाल और करंजकोट की ओर से चक्रकोट्य को घेर लिया था। भीषण संग्राम हुआ; नाग आहूतियाँ देते रहे और अन्नमदेव बेचैनी के साथ युद्ध के परिणाम तक पहुँचने की प्रतीक्षा करते रहे। वे अब विजेता की तरह राजकुमारी चमेली बावी पर अधिकार चाहते थे। राजा हरिश्चंद्रदेव घालय होने के बाद भी युद्ध कर रहे थे, वीरगति को प्राप्त हुए। आनन फानन में राजकुमारी चमेली का राजतिलक कर उन्हें चक्रकोट्य की शासिका घोषित कर दिया गया।

कठिन संघर्ष के पश्चात चक्रकोट पर चालुक्यों का अधिकार हो गया। अन्नमदेव की विजयश्री का क्षण तब पराजय में परिणत हो गया जब उन्हें ज्ञात हुआ कि राजकुमारी चमेली ने अपनी विश्वासपात्र सहेलियों के साथ आग में कूद कर अपनी जान दे दी है। इस प्रेम कहानी की कतिपय निशानियाँ आज भी जगदलपुर में चित्रकोट जलप्रपात के निकट उपेक्षित पड़ी हैं जिसमें राजा हरिश्चंद्र देव के किले के अवशेष के अतिरिक्त राजकुमारी चमेली की समाधि सम्मिलित है।




- राजीव रंजन प्रसाद

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चालुक्य राजा पुरुषोत्तमदेव और कलचुरी 
बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ (भाग – 104)

भैरवदेव के बाद बस्तर पर शासन करने वाले चौथे राजा हुए - पुरुषोत्तम देव (1468 – 1534 ई.)। राजा पुरुषोत्तम देव ने जगन्नाथपुरी की तीर्थयात्रा की थी। जगन्नाथपुरी में ही उन्हें उन्हें ‘रथपति’ की उपाधि से विभूषित किया गया। पुरी के राजा ने मंदिर के पुजारी के माध्यम से बस्तर के राजा को 16 पहियों का रथ प्रदान किया था। राजा ने बस्तर लौट कर दशहरे के अवसर पर रथयात्रा निकालने की परम्परा आरंभ की। इस महति परम्परा के प्रणेता होने के अतिरिक्त राजा पुरुषोत्तम देव के शासन समय को उनके छत्तीसगढ के कलचुरियों से संघर्ष के लिये भी जाना जाता है।

राजा पुरुषोत्तम देव ने रायपुर के कलचुरी शासकों पर चढ़ाई कर दी। दुर्भाग्यवश पराजित हो गये। इधर बस्तर सेना ने रायपुर पर आक्रमण किया, उधर कलचुरी राजा ब्रम्हदेव ने रतनपुर रियासत से सहायता माँगी। रतनपुर के राजा जगन्नाथ सिंह ने सेना भेज दी। संयुक्त सेनाओं ने चौतरफा आक्रमण किया। भगदड़ मच गयी। राजा पुरुषोत्तम देव अपने हाथी को युद्धभूमि से भगा ले गये। कलचुरियों की सेना पीछे लगी हुई थी। इससे पहले कि पुरुषोत्तम देव शत्रु सैनिकों द्वारा पकड़े जाते, एक सेनापति ने अपने वस्त्र राजा को पहना दिये। राजा उस सेनापति के घोड़े पर सवार ‘बस्तर’ की ओर भाग निकले। इतिहासकार डॉ. के के झा बताते हैं कि प्रतिवर्ष सम्पन्न बस्तर दशहरा में रथ के उपर खड़े हो कर एक व्यक्ति द्वारा वस्त्र खण्ड को लगातार हाँथ से दूर करने तथा समेटने की जो क्रिया सम्पन्न की जाती है वह इसी घटना की स्मृति को सुरक्षित रखने के लिये है। यहाँ यह भी जोड़ना आवश्यक होगा कि पुरुषोत्तम देव के पलायन के पश्चात भी कलचुरियों ने पलट कर बस्तर भूमि पर आक्रमण नहीं किया। जिससे यह सिद्ध होता है कि भले ही विजय अभियान असफल हो गया हो तथापि पुरुषोत्तम देव शक्तिशाली शासक थे। उनके शासनकाल में ही राजधानी को मंधोता से हटा कर बस्तर लाया गया था। डॉ. हीरालाल शुक्ल मानते हैं कि कलचुरियों से युद्ध में 1534 ई. में राजा पुरुषोत्तमदेव की मृत्यु हुई। यद्यपि कलचुरियों के बस्तर पर शासन करने अथवा किसी अन्य प्रकार के हस्तक्षेप की कोई और जानकारी उपलब्ध नहीं होती।




- राजीव रंजन प्रसाद


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