रचनाकार परिचय:-
देश हित में नहीं है ‘त्रुटिपूर्ण शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009’
अजय कुमार श्रीवास्तव
एम.ए. (राजनीति विज्ञान एवं समाज शास्त्र)
3/277, विराट खण्ड, गोमती नगर, लखनऊ-10
मोबाइलः 94159-60146
एम.ए. (राजनीति विज्ञान एवं समाज शास्त्र)
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अभी कुछ दिन पूर्व ‘‘शिक्षा का अधिकार अधिनियम के तहत दायर हुए 40 हजार से अधिक मामले’’ शीर्षक से इण्टरनेट पर एक समाचार प्रकाशित किया गया था। इस समाचार के अनुसार विश्व बैंक की एक रिपोर्ट में यह खुलासा हुआ है कि भारत में शिक्षा का अधिकार अधिनियम के तहत अब तक 40 हजार से अधिक मामले दायर किये गये हैं। विश्व बैंक के नीतिगत शोधपत्र में पोर्टल ‘इंडियनकानून डॉट ओआरजी’ के आंकड़ों के हवाले से कहा गया कि भारत में 8 साल पहले अमल में आने के बाद से अब तक शिक्षा का अधिकार अधिनियम के तहत 41,343 मामले दायर किये गये हैं। इनमें से 2,477 मामले उच्च्तम न्यायालय तक पहुंचे और वहां इनकी सुनवाई चल रही है। इससे यह सिद्ध होता है कि इस अधिनियम में कई कमियां विद्यमान हैं जिनके कारण न्यायालयों में मुकद्मों की संख्या लगातार बढ़ती चली जा रही है।
इसके साथ ही अभी कुछ समय पूर्व एक न्यूज चैनल के माध्यम से यह बात भी सामने आई थी कि कर्नाटक में अल्पसंख्यक संस्थानों को शिक्षा के अधिकार अधिनियम के साथ ही कई अन्य प्रकार की मिली हुई छूट का फायदा उठाने तथा अपने शिक्षण संस्थानों की स्वायत्तता को बचाने के लिए लिंगायत समुदाय हिन्दू धर्म से अलग होने की मांग कर रहा है। हमारी इस बात से देश के सभी नागरिक सहमत होंगे कि अपने निजी स्वार्थ की पूर्ति के लिए इस तरह की भावना देश की एकता एवं अखण्डता के लिए अत्यधिक खतरनाक है। यही नहीं इस अधिनियम के अन्तर्गत निजी स्कूलों को मान्यता देने के लिए ऐसे-ऐसे कठोर नियम बनाये गये हैं, जिनका पालन न कर पाने के कारण अब तक देश भर में लाखों निजी स्कूल बंद हो चुके हैं। मजे की बात यह है कि नेशनल बिल्डिंग कोड के अनुसार स्कूल भवन का निर्माण एवं स्कूल भवन में अग्नि शमन यंत्र की स्थापना आदि जैसे नियमों का पालन न कर पाने के कारण एक ओर जहां निजी स्कूलों को बंद किया जा रहा है तो वहीं दूसरी ओर सरकार अपने सरकारी स्कूलों को बिना इन नियमों को पूरा किये बिना ही संचालित कर रहीं हैं।
वास्तव में शिक्षा का अधिकार अधिनियम-2009 के लागू होने के बाद से देश में न केवल शिक्षा का स्तर गिरा है बल्कि इस अधिनियम के कारण एक ओर जहां बच्चों के मन में बचपन से सामाजिक भेदभाव पैदा हो रहा है तो वहीं दूसरी ओर अपने बच्चों को शिक्षा के अधिकार अधिनियम के अन्तर्गत निजी स्कूलों में निःशुल्क पढ़ाने की चाह में अमीर से अमीर अभिभावक भी फर्जी प्रमाण-पत्रों का सहारा लेकर सरकारी धनराशि का दुरूपयोग कर रहे हैं। समय-समय पर समाचार पत्रों एवं न्यूज चैनलों में इस संबंध में समाचार भी प्रकाशित होते रहते हैं। अभी पिछले वर्ष रिलीज हुई ‘हिन्दी मीडियम’ फिल्म में भी इस सच्चाई को बखूबी दिखाया गया है।
वास्तव में इस तरह की घटना ये बताने के लिए काफी है कि शिक्षा के अधिकार अधिनियम 2009 के तहत अनुचित लाभ उठाने की चाह में झूठ का सहारा लेने वाले हमारे देश के नागरिकों का नैतिक एवं चारित्रिक हनन भी हो रहा है। यही नहीं शिक्षा के अधिकार अधिनियम की धारा 12(1)(ग) के तहत गरीब एवं कमजोर वर्ग के बच्चों के लिए कक्षा 1 से 8 तक निजी असहायतित स्कूलों में आरक्षित 25 प्रतिशत सीटों की प्रतिपूर्ति की धनराशि फर्जी तरीके से प्राप्त करने के लिए घोटालों को अंजाम देने में कुछ निजी स्कूल भी पीछे नहीं हैं।
हमारे देश का संविधान देश के 6 से 14 वर्ष तक के प्रत्येक बच्चे को निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने का मौलिक अधिकार देता है। लेकिन शिक्षा का अधिकार अधिनियम की धारा 12(1)(ग) देश के कुछ चुनिंदा बच्चों को ही निजी स्कूलों में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्राप्त करने का अवसर देती है, जो कि संविधान की भावना के अनुरूप नहीं है। साथ ही यह कानून कमजोर और सक्षम वर्ग, सरकारों और निजी स्कूलों के बीच की खाई को पाटता नहीं बल्कि यह खाई और चौड़ी करता है। यह अत्यन्त ही दुःख की बात है कि जिस देश के लोगों का चरित्र दुनिया के लिए एक मिसाल हुआ करता था, उसमें बच्चों के शिक्षा के अधिकार के नाम पर बने हुए नियमों के कारण ना केवल देश के बच्चों में बचपन से ही भेदभाव की भावना पनपती जा रही है बल्कि देश के नागरिकों में भी नैतिक एवं चारित्रिक गिरावट आती जा रही है।
एक ओर जहां अभिभावक अपने बच्चों को निजी स्कूलों में फ्री में पढ़ाने के लिए फर्जी प्रमाण-पत्रों का सहारा ले रहें हैं तो वहीं दूसरी ओर कुछ निजी स्कूल भी फीस प्रतिपूर्ति के नाम पर सरकारी धन को लूटने में लगे हुए हैं। इसके साथ ही इस अधिनियम के कारण देश के न्यायालय में दायर होने वाले मुकद्मों की संख्या को देखते हुए भी यह कहा जा सकता है कि इस अधिनियम में अनेक ऐसी कमियां है जिनके कारण कहीं निजी स्कूल न्यायालय की शरण ले रहें हैं तो कहीं अभिभावक न्यायालय में जाने को मजबूर है। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि शिक्षा के अधिकार अधिनियम 2009 के कारण एक ओर जहां सरकारी स्कूलों की गुणवत्ता लगातार खराब होती जा रही है तो वहीं दूसरी ओर इस अधिनियम के अन्तर्गत मान्यता के लिए निर्धारित कई कठोर नियमों का पालन न कर पाने के कारण देश के लाखों निजी स्कूल लगातार बंद होते चले जा रहें हैं। ऐसे में आखिर देश भर के बच्चों को शिक्षा कैसे प्रदान की जायेगी, यह एक अत्यन्त ही चिन्ता का विषय भी है।
हमारा मानना है कि किसी भी देश में बनने वाले नियम एवं कानून उस देश के नागरिकों एवं राष्ट्र हित को ध्यान में रखते हुए उनकी बेहतरी के लिए बनाये जाते हैं। परन्तु जिस तरह से शिक्षा के अधिकार अधिनियम 2009 के कारण देश में बच्चों-बच्चों में भेदभाव और जिसके कारण देश के नागरिकों के चरित्र में गिरावट आती जा रहीं हो, उस अधिनियम एवं नियम को न तो राष्ट्र के लिए सही माना जा सकता है और न ही देश के नागरिकों के लिए। वास्तव में यह एक ऐसा अधिनियम बन गया है जिसके कारण देश की एकता एवं अखण्डता प्रभावित होने के साथ ही हमारे देश के माननीय न्यायालय भी मुकद्मों के बोझ से प्रभावित हो रहें हैं। यहाँ सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि शिक्षा को मौलिक अधिकार बनाने के बाद जिस उद्देश्य के साथ इस अधिनियम को देश में लागू किया गया था, यह अधिनियम उस उद्देश्य की पूर्ति भी नहीं कर पा रहा है। इस अधिनियम के लागू होने के बाद से जहां एक ओर सरकारी स्कूलों की गुणवत्ता और भी अधिक खराब हुई है तो वही दूसरी ओर मान्यता की कठोर शर्तों को पूरा न कर पाने के कारण देश भर में निजी स्कूलों की संख्या भी लगातार कम होती जा रही है।
यह इस देश के बच्चों का दुर्भाग्य है कि एक ओर जहां देश में पढ़ने वाले बच्चों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है तो वहीं दूसरी ओर देश में कम फीस में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देने वाले छोटे-छोटे निजी स्कूलों के बंद होने से बच्चों के उनके शिक्षा प्राप्त करने के मौलिक अधिकार का भी उल्लघंन होता जा रहा है। सरकारी स्कूलों की गुणवत्ता इस प्रकार की है जिसमें कि गरीब से गरीब आदमी भी अपने पढ़ने के लिए नहीं भेजना चाहता है जबकि सरकारी स्कूलों में उनके बच्चों को निःशुल्क शिक्षा के साथ ही फ्री में बैग, किताब एवं दोपहर का खाना तक दिया जा रहा है। अतः शिक्षा के अधिकार अधिनियम 2009 को तुरन्त खत्म कर देना चाहिए।
इसके साथ ही हमारा यह भी मानना है कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21-ए के तहत देश के 6 से 14 वर्ष तक के आखिरी बच्चे तक को निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा प्रदान करवाने के लिए सरकार को एक ओर जहां अपने सभी सरकारी ¬स्कूलों की गुणवत्ता को और भी अधिक बढ़ानी चाहिए तो वहीं दूसरी ओर विश्व के कई देशों में अत्यन्त लोकप्रिय हो रहे ‘स्कूल वाउचर व्यवस्था’ को भारत में भी लागू करने पर विचार करना चाहिए। वास्तव में स्कूल वाउचर व्यवस्था भारत की शिक्षा व्यवस्था के लिए भी एक सशक्त एवं प्रभावशाली माध्यम बन सकता है। जिसके द्वारा देश के 6 से 14 वर्ष तक के दुर्बल वर्ग एवं अलाभित समूह के आखिरी बच्चे तक को ‘क्वालिटी एजुकेशन’ आसानी से दी जा सकती है। इसलिए सरकार को सारे देश में स्कूल वाउचर व्यवस्था को लागू करने हेतु एक बार मंथन अवश्य करना चाहिए।
- अजय कुमार श्रीवास्तव
एम.ए. (राजनीति विज्ञान एवं समाज शास्त्र)
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