
डा. महेंद्रभटनागर
सर्जना-भवन, 110 बलवन्तनगर, गांधी रोड, ग्वालियर -- 474 002 [म. प्र.]
फ़ोन : 0751-4092908 / मो. 98 934 09793
E-Mail : drmahendra02@gmail.com
drmahendrabh@rediffmail.com
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जीवन-भर
अजीबोगरीब मूर्खताएँ करने के सिवा,
समाज का
थोपा हुआ कज़र् भरने के सिवा,
क्या किया?
ग़लतियाँ कीं
ख़ूब ग़लतियाँ कीं,
चूके, बार-बार चूके!
यों कहें - जियेलेकिन जीने का ढंग
कहाँ आया?
(ढोंग कहाँ आया!)
और अब सब-कुछ
भंग-रंग हो जाने के बाद -
दंग हूँ, बेहद दंग हूँ!
विवेक अपंग हूँ!
विश्वास किया लोगों पर,
अंध-विश्वास किया अपनों पर।
और धूर्त सापफ़ कर गए सब
घर-बार,
बरबाद कर गए
जीवन का रूप-रंग सिँगार!
छद्म थे, मुखौटे थे,
सत्य के लिबास में झूठे थे,
अजब ग़ज़ब के थे!
जिदगी गुजर जाने के बाद,
नाटक की
फल-प्राप्ति / समाप्ति के क़रीब,
सलीब पर लटके हुए
सचाई से रू-ब-रू हुए जब -
अनुभूत हुए असंख्य विद्युत-झटके
तीव्र अग्नि-कण!
ऐंठते
दर्द से आहत तन-मन।
हैरतअंगेज़ है, सब!
सब, अद्भुत है!
अस्तित्व कहाँ हैं मेरा,
मेरा बुत है!
अब, पछतावे का कड़वा रस
पीने के सिवा
बचा क्या?
ज़माने को
न थी, न है
रत्ती-भर शर्म-हया!
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1 टिप्पणियाँ
बहुत दिव्य रचना है।
जवाब देंहटाएंआपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.