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बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ (भाग – 135 व 136)- [कहानियाँ]- राजीव रंजन प्रसाद


रचनाकार परिचय:-

राजीव रंजन प्रसाद

राजीव रंजन प्रसाद ने स्नात्कोत्तर (भूविज्ञान), एम.टेक (सुदूर संवेदन), पर्यावरण प्रबन्धन एवं सतत विकास में स्नात्कोत्तर डिप्लोमा की डिग्रियाँ हासिल की हैं। वर्तमान में वे एनएचडीसी की इन्दिरासागर परियोजना में प्रबन्धक (पर्यवरण) के पद पर कार्य कर रहे हैं व www.sahityashilpi.com के सम्पादक मंडली के सदस्य है।

राजीव, 1982 से लेखनरत हैं। इन्होंने कविता, कहानी, निबन्ध, रिपोर्ताज, यात्रावृतांत, समालोचना के अलावा नाटक लेखन भी किया है साथ ही अनेकों तकनीकी तथा साहित्यिक संग्रहों में रचना सहयोग प्रदान किया है। राजीव की रचनायें अनेकों पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं तथा आकाशवाणी जगदलपुर से प्रसारित हुई हैं। इन्होंने अव्यावसायिक लघु-पत्रिका "प्रतिध्वनि" का 1991 तक सम्पादन किया था। लेखक ने 1989-1992 तक ईप्टा से जुड कर बैलाडिला क्षेत्र में अनेकों नाटकों में अभिनय किया है। 1995 - 2001 के दौरान उनके निर्देशित चर्चित नाटकों में किसके हाँथ लगाम, खबरदार-एक दिन, और सुबह हो गयी, अश्वत्थामाओं के युग में आदि प्रमुख हैं।

राजीव की अब तक प्रकाशित पुस्तकें हैं - आमचो बस्तर (उपन्यास), ढोलकल (उपन्यास), बस्तर – 1857 (उपन्यास), बस्तर के जननायक (शोध आलेखों का संकलन), बस्तरनामा (शोध आलेखों का संकलन), मौन मगध में (यात्रा वृतांत), तू मछली को नहीं जानती (कविता संग्रह), प्रगतिशील कृषि के स्वर्णाक्षर (कृषि विषयक)। राजीव को महामहिम राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी द्वारा कृति “मौन मगध में” के लिये इन्दिरागाँधी राजभाषा पुरस्कार (वर्ष 2014) प्राप्त हुआ है। अन्य पुरस्कारों/सम्मानों में संगवारी सम्मान (2013), प्रवक्ता सम्मान (2014), साहित्य सेवी सम्मान (2015), द्वितीय मिनीमाता सम्मान (2016) प्रमुख हैं।

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चक्रकोट के ढहते अवशेष
बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ (भाग – 135)

लौहण्डीगुड़ा के निकट बेनियापाल का मैदान दो बड़ी घटनाओं का साक्षी है। नाग राजा हरिश्चंद्र देव और अन्नमदेव के बीच युद्ध इसी मैदान में हुआ था तथा वर्ष 1961 के विभत्स्य गोलीकाण्ड का भी यह गवाह रहा है। नाग शासक सोमेश्वर देव निर्मित नारायणपाल का मंदिर, इसी क्षेत्र में एक खेत से हाल ही में प्राप्त ऋषभदेव की भव्य प्रतिमा, नारंगी और इन्द्रावती नदियों का रम्य संगम और फिर शांत इन्द्रावती एकाएक निर्झर हो जाती है जिसे आज चित्रकोट जलप्रपात के नाम से हम जानते हैं, यह सब कुछ एक आदर्श राजधानी की ओर इशारा करता है। सर्पाकार बहती हुई इन्द्रावती नदी तीन ओर से चक्रकोट दुर्ग को सुरक्षा प्रदान करती प्रतीत होती है तथा एक ओर विस्तृत मैदान समृद्ध नगर के लिये आदर्श था। चित्रकोट जलप्रपात के ठीक सामने ही सड़क के दूसरी ओर लगभग दो सौ मीटर भीतर जाने पर नागकालीन प्राचीन शिवमंदिर के अवशेष प्राप्त होते हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इतना विशालकाय शिवलिंग मेरी नजर में सम्पूर्ण बस्तर में दूसरा नहीं है। चित्रकोट के साथ से ही लगे कच्चे रास्ते पर उतर कर कुछ ही आगे बढने पर राजा हरिश्चंद्रदेव के किले के अवशेष देखे जा सकते है। किले का अधिकतम भाग अब नष्ट हो गया है। पत्थरों से निर्मित किले की दीवार का केवल एक भाग अब देखा जा सकता है और वह भी इसी लिये बच गया है चूंकि विशालकाय वृक्ष ने उसे अपनी पनाह दी हुई है। बस्तर में भी जो जानकारी प्राप्त होती है उनके अनुसार मिट्टी और पत्थर से किले की बाहरी दीवार का निर्माण किया जाता था। लौहण्डीगुड़ा के निकट अवस्थित नाग युगीन (राजा हरिश्चन्द्र देव के किले की बाहरी दीवार) अवशेष देख कर यह बात और मजबूती से मेरे मन में घर कर गयी थी कि बस्तर में ठोस और पक्के दुर्ग संभवत: इसलिये नहीं बनाये गये चूंकि यहाँ का भूगोल ही सुरक्षा और संरक्षण के लिये पर्याप्त था।

नारायणपाल से आगे बढ़ने पर रास्ता कुरुषपाल गाँव की ओर जाता है। इसी गाँव में प्राचीन ऋषभदेव की भव्य प्रतिमा प्राप्त हुई है। इस ऐतिहासिक महत्व की प्रतिमा का संरक्षण वही ग्रामीण कर रहा है जिसके खेत से प्रतिमा प्राप्त हुई है। स्थानीय जैन समाज की सहायता से यहाँ एक छोटा मंदिर भी निर्मित कर दिया गया है अत: इतना तो कहा ही जा सकता है कि यह महत्वपूर्ण प्रतिमा बचा ली गयी है। जैसा कि हर आदिवासी गाँव होता है आपको कुरुषपाल में भी वैसी ही नैसर्गिक शांति तथा सहजता प्राप्त होगी। मुख्य ध्यान मेरा यहाँ की दीवारों ने खींचा। एक घर को दूसरे से अलग करने वाली दीवारें मोटी मोटी तथा पत्थर से निर्मित हैं जिसमे कि सीमेंटिंग मटेरियल लगा है - मिट्टी। यदि किले की दीवार और इन घरों की चार-दीवारों की तुलना की जाये तो जबरदस्त साम्यता देखने को मिलती है। बदलती हुई जीवनशैली के साथ आवश्यकता ही नहीं कि इतनी मोटी मोटी चारदीवारी बनायी जायें, आज यह भी आवश्यकता नहीं कि महीनो का श्रम कर समान आकार के पत्थरों को चुन-चुन कर जोडा जाये; सीधे बाँस की बाड़ियों से घेर कर भी काम चलाया जा सकता है अथवा ईंटों से चारदीवारी खड़ी की जा सकती है। ये चारदीवारियाँ परम्परागत हैं। ये चाददीवारियाँ वर्तमान भी हैं और इतिहास भी। जिन्हे जानना है कि सात सौ साल शासन करने के बाद नाग कहाँ गये वे यहाँ आ कर अवलोकन तो करें; परत दर परत, दृश्य दर दृश्य एक बीता हुआ युग वर्तमान में ही आकार लेने लगेगा और इसके लिये किसी मुद्रा को खोजना नहीं है कोई शिला नहीं बूझनी है।
- राजीव रंजन प्रसाद

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नितांत गहरी हैं बस्तरिया आदिवासी कवितायें  
बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ (भाग – 136)

बस्तर के जनजातीय परिवेश में कविता सदियों से लहलहाती फसल रही है। आदिवासी कविता ने कभी जनजीवन के हर्ष और विषाद को धुन-लय दी है तो कभी वह अंतर्निहित संघर्ष और शोषण को उजागर करने का स्वर बनी है। कविता राजा और देवी-देवता का स्तुति गीत बनी तो भूमकाल और विद्रोहों का स्वर भी बन कर बाहर निकली है। बस्तर की आदिवासी कविता में बिम्ब वही हैं जो उनके रोज के अनुभव हैं जिनमे आदिवासी समाज नित्य उठता बैठता, जिनको जीता आया है। इसीलिये कविता में चिड़िया भी आती है तो तूम्बा भी आता है, मछली भी आती है तो कांटा भी आता है, सौकार (साहूकार अथवा ब्याज पर रुपये देने वाला) भी आता है तो राजा भी आता है, दर्द भी आता है और ओझा-गुनिया भी आता है। बस्तरिया काव्य आज भी मौखिक साहित्य के रूप में ही विद्यमान है। इसे संग्रहित करने के गिने चुने प्रयास ही हुए है और उसपर बहुत अधिक कहा-लिखा नहीं गया है। मुख्यधारा कही जाने वाली कविता को यदि किसी तरह का दर्प हो कि उसकी कविता में रहस्य है, प्रयोग है, गहराई है, दर्शन है तो जरा रुक कर यह गीत गंभीरता से सुनना चाहिये -

सोरा धारू धरती नउ खण्डु पिरथी हो/ धरती मालिक बोरू लरियो मालिक बोरू हो/ धरती मालिक लिंगो लरियो पिरथी मालिक राजाल हो/ लिंगोना बेहले पाटा लरियो, लिंगोन बेहले डाकान हो/ पहिलि पाटा लिंगो लरियो, पहिलि डाकान लिंगो हो/ माड़िया पाटा लयोर लरियो माड़िया डाकान लयोर हो/ नाडुं नर्का दिया लरियो निके पोरोय पोयतोम हो/ होंगु दापु आयमा लरियो निके होहार लागि हो।

कई कई कोण से इस गीत को समझने की कोशिश करता हूँ और हर बार नये नये अर्थ मिलते हैं। यह काव्य प्रार्थना भी है तो आदिवासी दर्शन का उद्धरण भी। धरती को ले कर जिज्ञासाओं का एक सिरा है तो लिंगो के माध्यम से उत्तर भी सामने रखा गया है। कविता सवाल पूछती है कि आखिर सोलह खण्ड वाली पृथ्वी और नौ खण्डों वाले आकाश का स्वामी कौन है? उत्तर स्पष्ट है और बिम्ब के साथ दिया गया है कि जिस तरह राजा पृथ्वी का स्वामी होता है उसी तरह इस जगत का स्वामी है लिंगो। वही लिंगो जिसने पहला गीत लिखा फिर बहुत से गीत बनाये। वही लिंगो जिसके पहले कदम से जीवन का प्रादुर्भाव हुआ और आज माडियाओं की हर पदचाप का सर्जन उससे ही तो संभव हुआ है। मध्यरात्रि में दीपक जला कर हम तुम्हारा स्मरण कर रहे हैं लिंगो जिससे कि तुम हम से नाराज न हो जाओ, हमारा जोहार स्वीकार करो। यह कविता जितनी सहज है उतनी ही विशेषताओं भरी है।

बस्तरिया आदिवासी कविता में प्राण तत्व हैं। इन्हें सुननना भी अनूठा अंभव होता है चाहे आप पंक्तियों के अर्थ न समझ रहे हों। “ते रेला, रे रेला रे रेलो” अथवा “ते नामुर ना मुर रे ना ना” जैसी अनेक स्थाई धुनों में गीत पिरोये हुए हैं जो नितांत कर्णप्रिय प्रतीत होते हैं। ध्वनियाँ भी गीतों में जगह बनाती दिखाई पडती हैं जैसे - “टिमकी टिमकी टिम टिम/ टिम टिम टिम टिम/ ते ते रेलो रेलो रे हो ओ ओ”। मुहावरे और लोकोक्तियों के प्रयोग का सुन्दर उदाहरण भी काव्यांशों अथवा आम बोलचाल की भाषा में देखा सुना जा सकता है। संक्षेप यह कि बस्तरिया आदिवासी कवितायें लबालब भरी और नितांत गहरी हैं।


- राजीव रंजन प्रसाद


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