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बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ (भाग – 137 व 138)- [कहानियाँ]- राजीव रंजन प्रसाद



रचनाकार परिचय:-

राजीव रंजन प्रसाद

राजीव रंजन प्रसाद ने स्नात्कोत्तर (भूविज्ञान), एम.टेक (सुदूर संवेदन), पर्यावरण प्रबन्धन एवं सतत विकास में स्नात्कोत्तर डिप्लोमा की डिग्रियाँ हासिल की हैं। वर्तमान में वे एनएचडीसी की इन्दिरासागर परियोजना में प्रबन्धक (पर्यवरण) के पद पर कार्य कर रहे हैं व www.sahityashilpi.com के सम्पादक मंडली के सदस्य है।

राजीव, 1982 से लेखनरत हैं। इन्होंने कविता, कहानी, निबन्ध, रिपोर्ताज, यात्रावृतांत, समालोचना के अलावा नाटक लेखन भी किया है साथ ही अनेकों तकनीकी तथा साहित्यिक संग्रहों में रचना सहयोग प्रदान किया है। राजीव की रचनायें अनेकों पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं तथा आकाशवाणी जगदलपुर से प्रसारित हुई हैं। इन्होंने अव्यावसायिक लघु-पत्रिका "प्रतिध्वनि" का 1991 तक सम्पादन किया था। लेखक ने 1989-1992 तक ईप्टा से जुड कर बैलाडिला क्षेत्र में अनेकों नाटकों में अभिनय किया है। 1995 - 2001 के दौरान उनके निर्देशित चर्चित नाटकों में किसके हाँथ लगाम, खबरदार-एक दिन, और सुबह हो गयी, अश्वत्थामाओं के युग में आदि प्रमुख हैं।

राजीव की अब तक प्रकाशित पुस्तकें हैं - आमचो बस्तर (उपन्यास), ढोलकल (उपन्यास), बस्तर – 1857 (उपन्यास), बस्तर के जननायक (शोध आलेखों का संकलन), बस्तरनामा (शोध आलेखों का संकलन), मौन मगध में (यात्रा वृतांत), तू मछली को नहीं जानती (कविता संग्रह), प्रगतिशील कृषि के स्वर्णाक्षर (कृषि विषयक)। राजीव को महामहिम राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी द्वारा कृति “मौन मगध में” के लिये इन्दिरागाँधी राजभाषा पुरस्कार (वर्ष 2014) प्राप्त हुआ है। अन्य पुरस्कारों/सम्मानों में संगवारी सम्मान (2013), प्रवक्ता सम्मान (2014), साहित्य सेवी सम्मान (2015), द्वितीय मिनीमाता सम्मान (2016) प्रमुख हैं।

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प्रश्नोत्तर शैली की बस्तरिया आदिवासी कवितायें
बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ (भाग – 137)

बस्तरिया कविता में अधिकांश प्रश्नोत्तर शैली की हैं अत: सीधे श्रोता से बात करती हैं और उससे जुडती हैं। अनेक बार कविता में समुपस्थित तीसरा पक्ष भी अपनी बात किसी न किसी माध्यम से कहने लगता है। यह तीसरा पक्ष कोई देवी-देवता अथवा मृतक पूर्वज हो सकता है। एक मृत्यु गीत से इसी तरह का उदाहरण देखिये - झुलना झूले मायू रा/ निकुन सेवा कियकौम रा/ निकुन पूजा हियाकौम रा/ काला मेंडा हियाकौम रा/ ताने भोजन केविन रा/ पुजारी लामे लेंगरा हिमु रा/ ताने भोजन किया का रा/ पुजारी अहर टुपु हिमु रा/ गिरदा वानाह किमु रा...।

मृतक स्तम्भ बना कर अपने पूर्वजों को सर्वदा स्मरण में रखने वाले आदिवासी किस तरह उनसे जुडे होते हैं यही इस गीत की मधुरता है। मृतक पूर्वज से उसके परिवार की मनुहार चल रही है जहाँ उसे प्रसन्न रखने के लिये कहा जा रहा है कि आप झूले में बैठ कर झूलो और हम आपकी सेवा करेंगे, हम आपको काला मेंढा भेंट में देंगे। अब मृतक पूर्वज बिना उत्तर दिये कैसे रह सकता है? उसकी बात कहने का माध्यम कोई भी बन सकता है चाहे वह घर का ही कोई बालक-बालिका हो अथवा कोई ओझा-गुनिया। मृतक स्पष्ट कर रहा है कि उसे काला मेंढा खाने में कोई दिलचस्पी नहीं है उसे तो लम्बी पूंछ वाला पशु चाहिये। वह परिजनों के समक्ष मांग रखता है कि सुगंधित धूप जलाया जाये और अच्छी तरह उसकी सेवा की जाये। कविता के इस पक्ष में यह समझने की आवश्यकता नहीं कि मांग रखी गयी है तो मान भी ली जायेगी। परिजन मृतक से मान मनुव्वल करेंगे, माँग को घटाने की कोशिश करेंगे और अनेकों बार किसी बड़े पशु से आरंभ हुई मांग मुर्गी के अंडे पर जा कर भी खतम हो सकती है। कई बार लडाई-झगडे और रूठना-मनाना जैसे दृश्य भी सामने आते हैं। आदिवासी कविताओं में इसी सादगी का सोंधापन है।

इन कविताओं की सबसे बडी बात है स्पष्टता। इस बात का ध्यान है कि सुनने वाला सहजता से अर्थ ग्रहण करे और आनंदित हो। कविता नयी पीढी को सिखाती है, युवाओं के लिये प्रेम संप्रेषण का माध्यम है तो बुजुर्गों के लिये अपने अनुभव बाँटने का भी। मैथिली शरण गुप्त की प्रसिद्ध कविता “माँ कह एक कहानी/ बेटा समझ लिया क्या तूने/ मुझको अपनी नानी” की पूरी बुनावट ही प्रश्न और उसका उत्तर है। अधिकतम बस्तरिया कविता का यही स्वाद है। गुलेल से शिकार करना सिखाने के लिये बना यह गीत और इसकी सहजता देखिये - कायनाके गुलेल दर्द कायनाके डोरी वो दई कायनाके गुलेल/ बाँस के तो गुलेल बाबू सन सुनरी डोरिगा बाबू/ कायनाके घोडा दर्द कायनाके फाटा वो दई/ बाँस के तो घोडा बाबू सुत के तो फाटा बाबू/ कायनाके धुनी दई कायनाके के गुल्ला/ बाँस के तो धुती बाबू माटी की गुल्ला/ कोनी हाथ में गुलेल दई कोनी हाथ में गुल्ला/ देरी हाथ में गुलेल बाबू जिउनी हाथ में गुल्ला।

बेटे का प्रश्न है कि माँ बताओ गुलेल कैसी होती है, वह कैसे बनायी जाती है? प्रत्युत्तर में माँ कहती है कि बेटे बांस की लकडी और सन की रस्सी से गुलेल बनती है। बेटा पुन: पूछता है कि गुलेल का घोडा किसका और उसकी लगाम किसकी बनेगी? माँ बताती है कि बाँस से घोडा बनाया जायेगा और सुतली से उसकी लगाम बनेगी, इस तरह गुलेल तैयार होगी। बात यहीं पूरी नहीं हुई चूंकि केवल गुलेल के घोडे और उसकी लगाम से ही बात नहीं बन सकती थी। बेटे ने अगला प्रश्न किया कि माँ टोकरी किससे बनती है और छोटी गोलियाँ किससे बनती हैं? माँ ने बताया कि टोकरी बाँस से बनेगी और मिट्टी से छोटी छोटी गोलियाँ बनायी जायेंगी जिनका प्रयोग गुलेल से शिकार करने के लिये किया जायेगा। बेटे ने पुन: पूछा कि किस हाँथ में गुलेल पकड़नी है और गोलियाँ किस हाँथ में रख कर चलानी है? माँ बताती है कि बेटे गुलेल को बायें हाँथ में पकड़ना है तथा दायें हाँथ से गोलियाँ चलानी है।




- राजीव रंजन प्रसाद

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बस्तरिया कविता अपने समाज और इतिहास का आईना हैं  
बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ (भाग – 138)

कविता वह जो अपने परिवेश का दृश्य उपस्थित कर दे, परिस्थितियों का इस तरह प्रस्तुतिकरण हो कि उसे सुनने वाला भाव-विभोर हो उठे। अकाल पर इस आदिवासी कविता को देखिये जिसमें अनेक मर्म को छू लेने वाले बिम्ब हैं और एसे प्रभावी कि आश्चर्य से भर देते हैं। कविता है – निमारे वेके दांतोना रावानी/ डोरी भूमि दांतोंना दादा ले/ भूमि दुकार दुकार रौए दादा ले/ भूमि ते दुकार अरित रौए दादा ले/ हिकात हुरो भैंसो रौए दादा ले/ सरपाने भैसो अरित रौए दादा ले/ पुहले दहेलात रौनाल रौए दादा ले/ वेटले माराते कौशल रौए दादा ले/ कावर वोकार इंता रौए दादा ले रायका रेयौन कौराल रौए दादा ले।

एक भूखे का प्रश्न कि कहाँ उड़े बाज? और दूसरे भूखे का उत्तर कि बाज पश्चिम की ओर उड चला है क्योंकि भूख का दिन चढ़ा आया है और सारी दुनियाँ में अकाल फैला हुआ है। मेरे दोस्त वे भैंसे जो काली काली होती हैं सारी की सारी मर गई हैं। रूई के फूल सी सफेद होती हैं गायें, वे गर्मी में लडखडा कर गिर पडी हैं। टूटी हुई मिट्टी पर बाज और सूखे हुए पेड पर कौवा बोल रहा है और अब यह उड कर नीचे आने वाला है।

अकाल पर मैने अनेकों कवितायें पढी हैं किंतु स्मरण नहीं आता कि इतनी स्वाभाविक और सजीव कोई अन्य रचना निगाह से गुजरी हो। समस्या अथवा परिस्थिति ही क्यों आदिवासी कविता अपने भूगोल और इतिहास की व्याख्या के साथ भी जुडती है। बस्तर में अन्नमदेव और उसके वंशज काकतीय नहीं चालुक्य थे इस बात को इतिहासकार बहुधा एक कविता में प्राप्त पंक्ति “चालकी बंस राजा” से जोड कर देखने की कोशिश करते हैं। इसी तरह कला संस्कृति किस तरह राज्यों-रियासतों के दायरे लांघती रही है यह जानने के लिये शरीर पर चित्रित कराये जाने वाले गोदना पर ये पंक्तियाँ देखें – अगो बागाईडाग टुमकी दाई/ राईगढ दा डंकिंग दाई/ अगो बागा वाताक़ंग दाई/ सिंगार काती वातांग दाई/ सिंगार काती पुरौंग दाई/ डंडा नीला किंतांग दाई/ हुई तासी पुरौंग दाई/ मात मोली हीवौन दाई/ मात कोटी हेवाक दाई/ मात सिंगार कोटेरोम दाई।

प्रश्नोत्तर शैली की ही यह कविता बताती है कि गोदना गोदने वाले रायगढ से आये हुए हैं। रायगढ से बस्तर का जुडना और परस्पर कला के आदान प्रदान का इससे बेहतर साक्ष्य क्या हो सकता है। कविता में मानवीय भावों का चित्रण देखिये कि गोदना कराने वाली युवती सूई से डर रही है और होने वाले दर्द की कल्पना मात्र से विचलित है। वह गोदना न कराने के लिये तरह तरह के बहाने बना रही है जैसे कि ये गोदना करना नहीं जानते, इन्हें सूईयाँ चलाना नहीं आता इसलिये हम उनके दाम नहीं चुकायेंगे। इसके साथ ही साथ गोदना करा कर सुन्दर दिखने की इच्छा भी युवती में है अत: वह ऐसा रास्ता निकालना चाहती है जिससे दर्द भी न हो और काम भी बने अत: सखी से पूछती है कि अगर गुदनारियों (गोदना करने वालों) को आपत्ति न हो तो मैं स्वयं अपना गुदना कर लूं। ये उदाहरण बताते हैं कि बस्तर की मौखिक कविताओं में न केवल अपने समाज का दर्द रचा बसा है इनकी बारीक छानबीन से अंचल का वास्तविक इतिहास भी सामने लाया जा सकता है।




- राजीव रंजन प्रसाद


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