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सिसकते दीपों और रोती बातियों का दर्द मिटाना ही-दीपोत्सव ० विकृत मानसिकता का दमन जरूरी [आलेख]- डॉ. सूर्यकांत मिश्रा



रचनाकार परिचय:-


डॉ. सूर्यकांत मिश्रा
जूनी हटरी, राजनांदगांव (छत्तीसगढ़)
मो. नंबर 94255-59291
email- sk201642@gmail.com



सिसकते दीपों और रोती बातियों का दर्द मिटाना ही-दीपोत्सव
० विकृत मानसिकता का दमन जरूरी


 

एक बार फिर हम और हमारा देश दीपों के त्योहार दीपावली को उत्सव पूर्वक मना रहा है। प्रत्येक हिन्दू धर्मावलंबी अपने घरों पर मां महालक्ष्मी की प्रतिष्ठा कर वैभव की कामना कर रहा है। महालक्ष्मी पूजन अथवा लक्ष्मी जी की प्रतिष्ठा का अर्थ ही संपन्नता को प्रतिष्ठित करना है। प्रत्येक व्यक्ति अपनी समृद्धि एवं ऐश्वर्य, धन और साधन की सुमंगल कामना के साथ मां लक्ष्मी के समक्ष दीप प्रज्ज्वलित कर साधना में लीन होता है। भारत वर्ष के प्रत्येक घर मे हम झांके तो दृश्य इसी तरह का न होकर रोशनी के अभाव में अंधकार की दुनिया में खोया दिखाई पड़ता है। दीपावली की रात रोशन किये गए हजारों-लाखों दीप भी मिलकर उक्त अंधियारे को दूर नहीं कर पा रहे हैं। इसलिए हमें यह स्वीकार करने में तनिक भी संकोच नहीं होना चाहिए कि हम राष्ट्रीय स्तर पर मां महालक्ष्मी की सम्यक प्रतिष्ठा करने में असफल हो रहे हैं। हम अपने घरों पर स्वयं अथवा विद्वान पंडितों द्वारा लक्ष्मी जी के आव्हान हेतु भले ही महामंत्रों का उचित और उच्च स्वरों में उच्चारण क्यों न कर रहे हो, इन मंत्रों का राष्ट्रीय स्तर पर अन्वेषण अब तक शेष ही है। हमारा अपने देश को गरीबी के अंधियारे से मुक्त कराने का अभियान न तो पूरा हो पाया है और न ही संकल्प शक्ति ऐसा कुछ दृश्य दिखा पा रही है।

मनुष्य जीवन की मांग है कि उसे अपार खुशी मिले, उसे पुष्टता चाहिए, प्रकाश, सहानुभूति तथा स्नेह चाहिए। दीपावली ऐसा पर्व है जो स्नेह का निमित्त उत्पन्न करती है। प्रकाश और पुष्टि का निमित्त भी हमें इस पर्व में दिखाई पड़ता है। जिस तरह अमावश्या के अंधकार में दीप प्रज्ज्वलित किये जाते हैं, ठीक उसी तरह मनुष्य का प्रारब्ध चाहे कैसा भी रहा हो, ज्ञानरूपी प्रकाश और पुरुषार्थ के द्वारा वह अपने अंधकारमय जीवन मे प्रकाश का संचार कर सकता है। इसीलिए कहा गया है-

असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय। मृत्योर्मा अमृतमगमय।।

अर्थात हम असत्य से सत्य की ओर चले। अंधकार से प्रकाश की ओर जाने का पुरषार्थ करें। मृत्यु से अमरता की ओर चलें। जन्मने मरने वाली देह को सत्य मानने की भूल त्याग दें। असत्य से ऊपर उठकर अपने सत्य, साक्षी स्वरूप में आएं। जिस प्रकार दीपावली के दिन संपूर्ण वातावरण प्रकाशमय हो जाता है, ठीक उसी प्रकार आपका कैरियर भी दैदीप्यमान हो सकता है, बस जरूरत है पहल करने की।

दीपावली अर्थात आलोक का विस्तार घोर अंधकार का पलायन तथा आलोक सुरसरी का धरती पर अवतरण। अंधकार पर प्रकाश की विजय का आनंद ही है दीवाली। इसे हम आत्म साक्षात्कार का पर्व भी कह सकते हैं। दीपावली पर तेल से भरा हुआ छोटा सा दीपक अपने प्रकाश से यही संदेश दे रहा होता है कि तिल-तिल कर जलना और प्रकाश बिखेरना जिस तरह मेरा धर्म है, उसी प्रकार उत्सर्ग मानव धर्म है। उत्सव का उद्देश्य होता है आपस में खुशियां बांटना, किसी अकेले को अपने साथ लेकर उल्लसित होना ही इस पर्व का मानवीय पहलू है। समाज में जहां भी निराशा का अंधेरा नजर आए, वहां दीपक जलाकर उत्साह का प्रकाश बिखेरना ही दीपोत्सव का संदेश है। आज की परिस्थिति ठीक इसके विपरीत है। चारों ओर घोर निराशा का साम्राज्य है, अंधकार स्थापित हो चुका है। प्रकाश की किरणों को किस सूरज में ढूंढा जाए? सर्वत्र निराशा का माहौल है। निराशा के इस दौर में आस्था को कहां और कैसे पाएं? इन्हीं सवालों में मानवीय समाज उलझा हुआ है। आज दीए सिसक रहे हैं और बाती अपनी बेबसी पर रो रही है। गोदामों में मां अन्नपूर्णा कराह रही है, लेकिन भूख से मौतों का तांडव जारी है। व्यसनों की आग में देश के भविष्य को उजाला दिखाया जा रहा है ।इन अंधेरों के दलालों और सौदगरों को यह ज्ञान नहीं की उनकी मुनाफाखोरी, कालाबाजारी और मिलावटखोरी ने कितने घरों के चिरागों को बुझा दिया है। इस प्रकार की मानसिकता का दमन ही दीवाली उत्सव है।

लाखों-करोड़ों दीप शिखाएं चुपचाप हमे आवाज दे रही है। खुशहाली में डूबा दीपमालिका का पर्व लाखों आंसुओं में डुबा हुआ है यह वह देश है, जहां सैकड़ों की संख्या में बहुओं को पहली ही दीपावली में दहेज के नाम पटाखों की आवाजों में गुमनामी के हवाले कर दिया जाता है। सबसे बड़ी बिडंबना यह कि किसी घर से मिठाई की डिब्बे बासी होने पर कूड़े पर फेंक दिए जाते हैं तो कई-कई परिवार इस उत्सवी पर्व पर भी कई रातों की भूख समेटे यूं ही सो जाया करते हैं। किसी के घर में बच्चे कई-कई जोड़े कपड़े बदलते देखे जाते है तो किसी के तन पर चिथड़े भी नहीं हुआ करते हैं। अमीरों की दीवाली पर पालतू कुत्तों की झोपड़ियों को भी महल की तरह सजावट मिलती है तो गरीब की बरसों पुरानी टूटी-फूटी झोपड़ी में दीपावली में भी रोशनी नहीं हो पाती है। इन सारी दुखद तस्वीरों के साथ मेरा मानना है कि त्योहार हमे त्याग सिखाते हैं। समाज मे दूसरों के प्रति संवेदनशीलता और सह-अस्तित्व से जीना सिखाये हैं। अपनी अतृप्त लालसा पूर्ति की जगह जरूरतमंदों को गले लगाने का संदेश भी हमारे पर्व देते हैं। मंै यह तो नहीं जानता की मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीराम के वनवास समाप्त होने के बाद अयोध्यावासियों ने किस तरह दीवाली मनाई, किन्तु मैं खेतों में रखे दीपक की रोशनी को देखते हुए बड़ा हुआ हूँ और यही कारण है की उस मिट्टी के दीपक के प्रति सहज अपनापन पैदा हो गया। मैंने अपने अब तक के जीवन मे इसी अपनेपन को ध्यान में रखते हुए मिट्टी के दीपकों को ही रोशन किया है, न कि मोमबत्ती को।

आज हमारी युवा पीढ़ी को यह समझने की जरूरत है कि घर के आँगन में दीपक इसलिए नहीं जलाए जाते की पड़ोसी से प्रतियोगिता की जा सके। आसपास हर घर में दीपक जले इस तरह की एक अघोषित चिंता और व्यवस्था का संस्कार हमारे बच्चों के मन मे पले और बढ़े। हम देख रहे हैं कि इस तरह का संस्कारित जीवन पश्चमीकरण की आंधी में शिथिल हो रहा है, इसे हमें खत्म नहीं होने देना है। हमें उम्मीद है कि जो नव-सृजन में लगे हैं उन्हें अंधकार दबा नहीं सकता। वे अंधकार को चीरकर बाहर जरूर आएंगे और पूरे वातावरण को आलोकित कर दिखाएंगे। जीवन में मानवीय मूल्यों की स्थापना करना और प्रकाश भरना ही वक्त की जरूरत है। सदाचार बनाम भ्रष्टाचार, सच्चरित्रता बनाम चरित्रहीनता, साक्षरता बनाम निरक्षरता, मूल्य बनाम अवमूल्यन आदि की परिस्थिति से गुजरते हुए हमारा जीवन व्यतीत हो रहा है। हम सभी की यह नैतिक जिम्मेदारी है कि हम सभी वर्गों को साथ लेकर जनमानस के चारों ओर छाए अंधकार को दूर करने संघर्ष करें और आलोक पर्व मनाएं तभी..तमसो माँ ज्योतिर्गमय सार्थक सिद्ध होगा। ज्योति से ज्योति जले एदीपोत्सव की आभा असंख्य आलोक पुष्पों में खिले। दीपावली कोई एक दिन का त्योहार नहीं। इसे संकल्प दिवस के रूप में प्रतिदिन सच्ची निष्ठा और ईमान से आलोकित करने की जरूरत है।


प्रस्तुतकर्ता
डा. सूर्यकांत मिश्रा
न्यू खंडेलवाल कालोनी
प्रिंसेस प्लेटिनम, हाऊस नंबर-5
वार्ड क्रमांक-19, राजनांदगांव (छ.ग.)
मो. नं.-9425559291


sk201642@gmail.com



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