रचनाकार परिचय:-
राजीव रंजन प्रसाद
राजीव रंजन प्रसाद ने स्नात्कोत्तर (भूविज्ञान), एम.टेक (सुदूर संवेदन), पर्यावरण प्रबन्धन एवं सतत विकास में स्नात्कोत्तर डिप्लोमा की डिग्रियाँ हासिल की हैं। वर्तमान में वे एनएचडीसी की इन्दिरासागर परियोजना में प्रबन्धक (पर्यवरण) के पद पर कार्य कर रहे हैं व www.sahityashilpi.com के सम्पादक मंडली के सदस्य है।
राजीव, 1982 से लेखनरत हैं। इन्होंने कविता, कहानी, निबन्ध, रिपोर्ताज, यात्रावृतांत, समालोचना के अलावा नाटक लेखन भी किया है साथ ही अनेकों तकनीकी तथा साहित्यिक संग्रहों में रचना सहयोग प्रदान किया है। राजीव की रचनायें अनेकों पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं तथा आकाशवाणी जगदलपुर से प्रसारित हुई हैं। इन्होंने अव्यावसायिक लघु-पत्रिका "प्रतिध्वनि" का 1991 तक सम्पादन किया था। लेखक ने 1989-1992 तक ईप्टा से जुड कर बैलाडिला क्षेत्र में अनेकों नाटकों में अभिनय किया है। 1995 - 2001 के दौरान उनके निर्देशित चर्चित नाटकों में किसके हाँथ लगाम, खबरदार-एक दिन, और सुबह हो गयी, अश्वत्थामाओं के युग में आदि प्रमुख हैं।
राजीव की अब तक प्रकाशित पुस्तकें हैं - आमचो बस्तर (उपन्यास), ढोलकल (उपन्यास), बस्तर – 1857 (उपन्यास), बस्तर के जननायक (शोध आलेखों का संकलन), बस्तरनामा (शोध आलेखों का संकलन), मौन मगध में (यात्रा वृतांत), तू मछली को नहीं जानती (कविता संग्रह), प्रगतिशील कृषि के स्वर्णाक्षर (कृषि विषयक)। राजीव को महामहिम राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी द्वारा कृति “मौन मगध में” के लिये इन्दिरागाँधी राजभाषा पुरस्कार (वर्ष 2014) प्राप्त हुआ है। अन्य पुरस्कारों/सम्मानों में संगवारी सम्मान (2013), प्रवक्ता सम्मान (2014), साहित्य सेवी सम्मान (2015), द्वितीय मिनीमाता सम्मान (2016) प्रमुख हैं।
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राजीव रंजन प्रसाद ने स्नात्कोत्तर (भूविज्ञान), एम.टेक (सुदूर संवेदन), पर्यावरण प्रबन्धन एवं सतत विकास में स्नात्कोत्तर डिप्लोमा की डिग्रियाँ हासिल की हैं। वर्तमान में वे एनएचडीसी की इन्दिरासागर परियोजना में प्रबन्धक (पर्यवरण) के पद पर कार्य कर रहे हैं व www.sahityashilpi.com के सम्पादक मंडली के सदस्य है।
राजीव, 1982 से लेखनरत हैं। इन्होंने कविता, कहानी, निबन्ध, रिपोर्ताज, यात्रावृतांत, समालोचना के अलावा नाटक लेखन भी किया है साथ ही अनेकों तकनीकी तथा साहित्यिक संग्रहों में रचना सहयोग प्रदान किया है। राजीव की रचनायें अनेकों पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं तथा आकाशवाणी जगदलपुर से प्रसारित हुई हैं। इन्होंने अव्यावसायिक लघु-पत्रिका "प्रतिध्वनि" का 1991 तक सम्पादन किया था। लेखक ने 1989-1992 तक ईप्टा से जुड कर बैलाडिला क्षेत्र में अनेकों नाटकों में अभिनय किया है। 1995 - 2001 के दौरान उनके निर्देशित चर्चित नाटकों में किसके हाँथ लगाम, खबरदार-एक दिन, और सुबह हो गयी, अश्वत्थामाओं के युग में आदि प्रमुख हैं।
राजीव की अब तक प्रकाशित पुस्तकें हैं - आमचो बस्तर (उपन्यास), ढोलकल (उपन्यास), बस्तर – 1857 (उपन्यास), बस्तर के जननायक (शोध आलेखों का संकलन), बस्तरनामा (शोध आलेखों का संकलन), मौन मगध में (यात्रा वृतांत), तू मछली को नहीं जानती (कविता संग्रह), प्रगतिशील कृषि के स्वर्णाक्षर (कृषि विषयक)। राजीव को महामहिम राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी द्वारा कृति “मौन मगध में” के लिये इन्दिरागाँधी राजभाषा पुरस्कार (वर्ष 2014) प्राप्त हुआ है। अन्य पुरस्कारों/सम्मानों में संगवारी सम्मान (2013), प्रवक्ता सम्मान (2014), साहित्य सेवी सम्मान (2015), द्वितीय मिनीमाता सम्मान (2016) प्रमुख हैं।
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राष्ट्रीय राजनीति से प्रभावित बस्तर के चुनाव
बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ (भाग – 147)
प्रस्तुत विवेचना सत्तर के दशक से छत्तीसगढ राज्य निर्माण के कालखण्ड की है। वृहद मध्यप्रदेश का हिस्सा रहा बस्तर जिला उपेक्षित था, तथापि आश्चर्य होता है कि सत्तर के दशक के पश्चात छत्तीसगढ राज्य निर्माण तक हुए सभी चुनाव किसी न किसी तरह राष्ट्रीय मुद्दों से प्रभावित थे। आपातकाल के बाद देश भर में जनता पार्टी के उत्थान का समय था; कई विचारधाराओं और छोटे-बड़े दलों को जोड़कर यह पार्टी बनी थी। वर्ष 1977 के चुनाव में बस्तर की जनता ने राष्ट्रीय राजनीति के नायक जयप्रकाश नारायण के साथ अपनी सहभागिता दर्शाई। कोण्डागाँव को छोड़ कर शेष बस्तर की सभी सीटे जनता पार्टी के हिस्से में आयी थीं। बहुत अल्प समय में ही जनता पार्टी से देशभर का मोह भंग हो गया। वर्ष 1980 के चुनाव परिणाम पहली बार बस्तर में खिचड़ी सिद्ध हुए। एक ओर नारायणपुर से जनता पार्टी का उम्मीदवार विजयी रहा तो कांकेर और कोण्टा से निर्दलीय प्रत्याशियों को विजय हासिल हुई। पांच सीटें कॉग्रेस की झोली में गयीं जबकि तीन सीट भारतीय जनता पार्टी के हिस्से में आयी। साथ ही मार्क्सवादी कम्युनिष्ट पार्टी की टिकट से महेन्द्र कर्मा दंतेवाड़ा सीट से विजयी रहे थे।
अस्सी के दशक में पंजाब का आतंकवाद चरम पर था, इन्दिरागाँधी की राजनैतिक साख चुनाव में दाँव पर थी। इसी बीच वह दुर्भाग्यपूर्ण घटना घटी जिसने पूरे देश को आक्रोशित कर दिया; 31 अक्टूबर 1984 को इन्दिरा गाँधी की हत्या कर दी गयी। वर्ष 1985 में हुए विधानसभा चुनावों में सहानुभूति की वह लहर चली कि बस्तर क्षेत्र में जनता पार्टी ने वर्ष 1977 के चुनावों में जो करिश्मा कर दिखाया था वह कॉग्रेस ने दोहरा दिया। भानपुरी की विधानसभा सीट जो कि भारतीय जनता पार्टी ने जीती इसे छोड़ कर शेष सभी ग्यारह सीटों पर कॉग्रेस का कब्जा हो गया। कॉग्रेस ने बस्तर क्षेत्र में पहली बार ऐसा वर्चस्व कायम किया था। नब्बे के दशक में राम मंदिर आन्दोलन बहुत तेजी से देश भर को प्रभावित कर रहा था। आश्चर्य यह कि राष्ट्र की मुख्यधारा का यही मुद्दा बस्तर में भी वोटरों को प्रभावित कर रहा था। बलीराम कश्यप जैसे आदिवासी नेताओं ने बस्तर में भारतीय जनता पार्टी के लिये जमीन तैयार की और वर्ष 1990 के चुनाव में इस दल ने बारह में से आठ सीटो पर अपना कब्जा कर लिया। कॉग्रेस को केवल एक सीट हासिल हुई जबकि भानुप्रतापपुर से निर्दलीय उम्मीदवार झाडूराम रावटे ने जीत हासिल की।
आंकड़े यह भी तस्दीक करते हैं कि वर्ष 1980 से ही बस्तर के विधानसभा चुनावों में मुख्य मुकाबला कॉग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के बीच होने लगा था। वर्ष 1993, एक स्थिर राजनीति और लगभग मुद्दाविहीन चुनाव का दौर था। बस्तर में कॉग्रेस तथा भारतीय जनता पार्टी ने पाँच पाँच सीटों पर जीत हासिल की जबकि दो सीटें भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी के हिस्से गयीं। छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण के आश्वासनों के बीच वर्ष 1998 के चुनाव हुए। कॉग्रेस ने वर्ष 1985 के चुनाव परिणामों वाला अपना करिश्मा दोहरा दिया। भारतीय जनता पार्टी को केवल कांकेर सीट से ही संतोष करना पड़ा जबकि शेष सभी ग्यारह सीटे कॉग्रेस के हिस्से में गयीं। 1 नवम्बर 2000 को मध्यप्रदेश से पृथक हो कर छत्तीसगढ़ राज्य अस्तित्व में आया इसके पश्चात का पहला विधान सभा का चुनाव वर्ष 2003 में हुआ जिसमे भारतीय जनता पार्टी ने अब तक का अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन दिखाते हुए नौ सीटों पर जीत हासिल कर ली, कॉग्रेस को केवल तीन सीटों से संतोष करना पड़ा जो कि दक्षिण बस्तर में अवस्थित थीं।
- राजीव रंजन प्रसाद
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ह्वेनसांग के यात्रावृतांत में बस्तर
बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ (भाग – 148)
बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ (भाग – 148)
चीनी यात्री ह्वेनसांग की भारत यात्रा समय 629 से ले कर 645 ई तक ठहरता है। यात्रावृतांत का सूक्षमता से अध्ययन करने पर इसमें तत्कालीन बस्तर का इतिहास भी मिलता है साथ ही ह्वेनसांग ने अनेक निकटवर्ती शासनों के क्षेत्रफल, भूगोल, जनश्रुतियों, मिथकों आदि को उल्लेखित किया है। बस्तर के लिये पो-लो-मो-लो-कि-ली; कलिंग के लिये कई-लिंग-किया; कोशल क्षेत्र के लिये क्यि-वस-लो तथा आन्ध्र के लिये अन-त-लो नाम का प्रयोग ह्वेनसांग द्वारा किया गया है। एस एन राजगुरु (आई ओ, खण्ड-4 भुवनेश्वर, 1966) के अनुसार पो-लो-मो-लो-कि-ली बस्तर के अभिलेखों में वर्णित भ्रमरकोट्य मण्डल है। उनके अनुसार यह पर्वत कालाहाण्डी तथा बस्तर की सीमा पर अवस्थित है। एन के साहू अपनी पुस्तक बुद्धिज्म इन ओडिशा में पो-लो-मो-लो-कि-ली को परिमल गिरि मानते हुए इसे सम्बलपुर एवं बालंगीर की सीमा पर स्थित गंधमर्दन पर्वत निरूपित करते हैं। इन सभी क्षेत्रों की जानकारियों को सामूहिक रूप में देखने पर ही प्राचीन बस्तर की तत्कालीन अवस्था का अनुमान लगाया जा सकता है।
ह्वेनसांग प्राचीन बस्तर क्षेत्र का वर्णन करते हुए लिखते हैं कि “हम एक भारी निर्जन वन में पहुँचे जिसके चारो ओर ऊँचे-ऊँचे वृक्ष सूर्य की आड़ लिये हुए आकाश से बातें करते थे”। कलिंग और उसके सीमांत क्षेत्रों जिसमें स्वाभाविकत: बस्तर का क्षेत्र भी सम्मिलित हो जाता है के विषय में ह्वेनसांग बताते हैं कि “जंगल-झाडी सैंकडो कोस तक लगातार चली गयी है। यहाँ पर कुछ हरापन लिये हुए नीले हाँथी मिलते हैं जो निकटवर्ती सूबों में बडे दाम पर बिकते हैं। मनुष्य का स्वभाव उग्र है परंतु वे अपने वचन का पालन करने वाले विश्वसनीय लोग हैं। बहुत थोडे लोग बुद्ध धर्म पर विश्वास करते हैं, अधिकतम लोग विरुद्ध धर्मावलम्बी हैं। कलिंग से जोड कर ह्वेनसांग नें एक मिथक कथा को उल्लेखित किया है जिसके अनुसार “एक समय यह क्षेत्र बहुत घना बसा हुआ था। इतना घना कि रथो के पहियों के धुरे एक दूसरे से रगड खाते थे। एक महात्मा जिन्हें पाँचों सिद्धियाँ प्राप्त थी वे एक उँचे पर्वत पर निवास करते थे। किसी कारण उनकी शक्तियों का ह्रास हो गया तथा लज्जित हो कर उन्होंने श्राप दे दिया जिससे वृद्ध-युवा, मूर्ख-विद्वान, सब के सब समान रूप से मरने लगे, यहाँ तक कि सम्पूर्ण जनपद का नाश हो गया”। इस कथा का सम्बन्ध मैने कलिंग के एतिहासिक परिप्रेक्ष्य में ह्वेनसांग पूर्व की घटनाओं, उद्धरणों और जनश्रुतियों आदि से करने की कोशिश की किंतु हर बार मेरा ध्यान राजा दण्ड की उस कथा की ओर ही गया जहाँ शुक्राचार्य के अभिशाप से पूरा दण्डकारण्य जनपद नष्ट हो गया था। उल्लेखनीय है कि कलिंगारण्य तथा दण्डकारण्य समानांतर हैं एवं इन दोनों ही क्षेत्रों के इतिहास को जुडवा भाईयों की कहानी की तरह ही देखना उचित प्रतीत होता है।
प्राचीन बस्तर की जानकारी सीमांत आन्ध्र की उपलब्ध जानकारियों के विश्लेषण के बिना पूरी नहीं होती। ह्वेनसांग लिखते हैं कि दक्षिण दिशा में एक घने जंगल मे जा कर कोई 900 मील चल कर हम ‘अन-त-लो’ (आन्ध्र) देश में पहुँचे। यहाँ की प्रकृति गर्म तथा मनुष्य साहसी होते हैं। भाषा मध्य भारत से भिन्न है। यह स्थान भी आंशिक रूप से भगवान बुद्ध के प्रभाव में आया एवं एक शून्य पहाड का जिक्र ह्वेनसांग करते हैं जिस स्थान पर जिन-बोधिसत्व नाम के विद्वान द्वारा हेतुविद्या शास्त्र की निर्मिति का उल्लेख मिलता है। उपरोक्त विवरणों से ह्वेनसांग की दक्षिणापथ यात्रा के दौरान बस्तर भी आने का स्पष्ट उल्लेख है तथा कई राज्यों के मध्य की कडी के रूप में एक घना वन प्रदेश भी यह जान पडता है।
- राजीव रंजन प्रसाद
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3 टिप्पणियाँ
बस्तर के बारे में अच्छी जानकारी है...
जवाब देंहटाएंबस्तर के बारे में बहुत अच्छी बातें पढ़ने को मिली।
जवाब देंहटाएंबस्तर के बारे में बहुत अच्छी बातें पढ़ने को मिली।
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