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बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ (भाग – 149 व 150)- [कहानियाँ]- राजीव रंजन प्रसाद


रचनाकार परिचय:-

राजीव रंजन प्रसाद

राजीव रंजन प्रसाद ने स्नात्कोत्तर (भूविज्ञान), एम.टेक (सुदूर संवेदन), पर्यावरण प्रबन्धन एवं सतत विकास में स्नात्कोत्तर डिप्लोमा की डिग्रियाँ हासिल की हैं। वर्तमान में वे एनएचडीसी की इन्दिरासागर परियोजना में प्रबन्धक (पर्यवरण) के पद पर कार्य कर रहे हैं व www.sahityashilpi.com के सम्पादक मंडली के सदस्य है।

राजीव, 1982 से लेखनरत हैं। इन्होंने कविता, कहानी, निबन्ध, रिपोर्ताज, यात्रावृतांत, समालोचना के अलावा नाटक लेखन भी किया है साथ ही अनेकों तकनीकी तथा साहित्यिक संग्रहों में रचना सहयोग प्रदान किया है। राजीव की रचनायें अनेकों पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं तथा आकाशवाणी जगदलपुर से प्रसारित हुई हैं। इन्होंने अव्यावसायिक लघु-पत्रिका "प्रतिध्वनि" का 1991 तक सम्पादन किया था। लेखक ने 1989-1992 तक ईप्टा से जुड कर बैलाडिला क्षेत्र में अनेकों नाटकों में अभिनय किया है। 1995 - 2001 के दौरान उनके निर्देशित चर्चित नाटकों में किसके हाँथ लगाम, खबरदार-एक दिन, और सुबह हो गयी, अश्वत्थामाओं के युग में आदि प्रमुख हैं।

राजीव की अब तक प्रकाशित पुस्तकें हैं - आमचो बस्तर (उपन्यास), ढोलकल (उपन्यास), बस्तर – 1857 (उपन्यास), बस्तर के जननायक (शोध आलेखों का संकलन), बस्तरनामा (शोध आलेखों का संकलन), मौन मगध में (यात्रा वृतांत), तू मछली को नहीं जानती (कविता संग्रह), प्रगतिशील कृषि के स्वर्णाक्षर (कृषि विषयक)। राजीव को महामहिम राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी द्वारा कृति “मौन मगध में” के लिये इन्दिरागाँधी राजभाषा पुरस्कार (वर्ष 2014) प्राप्त हुआ है। अन्य पुरस्कारों/सम्मानों में संगवारी सम्मान (2013), प्रवक्ता सम्मान (2014), साहित्य सेवी सम्मान (2015), द्वितीय मिनीमाता सम्मान (2016) प्रमुख हैं।

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नीबू को राजा मान चलाया गया शासन
बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ (भाग – 149)

कांकेर रियासत में सोमवंशी शासकों (1125 – 1344 ई) के विरुद्ध क्रांति का सूत्रपात कर बंसोड (कांड्रा) जनजाति के एक सरदार धरमन ने सत्ता हासिल कर ली तथा उन्होने धर्मदेव (1345 – 1367 ई) के नाम से शासन चलाया। धर्मदेव जन प्रिय राजा था तथा जमीन से उठ कर शिखर तक पहुँचने की अहमियत समझता था। धर्मदेव नें सिहावा और कांकेर में तालाबों का निर्माण करवाया था। मेचका (सिहावा) के शिखर पर धर्मकुण्ड सरोवर आज भी है जिसका पानी गरमी में भी नही सूखता। कांकेर के गढिया पहाड पर जो तालाब है उसके एक भाग को सोनई तथा दूसरे को रूपई कहा जाता है। इस नामकरण के पीछे भी एक कहानी है। कहते हैं कि हीरागढ के राजा ने अपनी सौन्दर्यवती पुत्री हीरादेही के लिये स्वयंवर करवाया था जिसमें धर्मदेव विजयी रहे। रानी हीरादेही से प्राप्त दो पुत्रियों का नाम सोनई तथा रूपई रखा गया था, जिसके नाम से युगल तालाब है। धर्मदेव ने ही गढिया पहाड की दुर्गमता व दुर्ग के योग्य स्थितियों को देख कर इस स्थल को कांकेर की राजधानी घोषित किया था।

राजा धर्मदेव के बारे में जो बात सबसे अधिक प्रभावित करती है वह यह कि राजा बन जाने के बाद भी वे बाँस की टोकनी, पिटारे, सूप आदि बना कर और उसे बेच कर अपना पोषण करते थे, उन्होंने जनता के धन का कभी दुरुपयोग नहीं किया। धर्मदेव के पश्चात उनका पुत्र छतरदेव सत्तासीन हुआ। अपने पिता की तरह पुत्र छतरदेव (1368-1385 ई) दूरदर्शी तथा मितव्ययी नहीं था। छतरदेव की मृत्यु के बाद कांकेर को स्थानीय जनजातियों के संघर्ष का दौर देखना पडा तथा लम्बे समय तक राजा विहीनता की स्थिति बनी रही। राजा की अनुपस्थिति में शासन कैसे चलाया जाये इसका निर्णय जिस तरह से प्रजा ने लिया वह किसी जनप्रिय नायक की लोकप्रियता प्रदर्शित करता है। जनजातियों में राजा धर्मदेव का इतना सम्मान था कि गढिया पहाड पर एक नीबू रख कर उसे ही राजा मान कर लम्बे समय तक शासन चलाया गया। इस नीबू राजा की सत्ता का अंत करते हुए चंद्रवंशीय शासक कांकेर पर काबिज हुए थे।


- राजीव रंजन प्रसाद

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बदलते राज बदलती राजकाज की भाषा  
बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ (भाग – 150)

इतिहास पर गहरी दृष्टि डाले तो बस्तर की आम भाषा और राजकीय भाषा को अलग अलग कर के देखना होगा। इसके साथ ही यह रेखांकित करना भी आवश्यक है कि राजकीय भाषा ने आम भाषा-बोली पर और जन सामान्य की भाषा-बोलियों ने राजकीय भाषा पर अपनी गहरी छाप निरंतर छोडी है। बस्तर में नल शासन काल (600 ईसा पूर्व से 760 ई. तक) राजकार्यों तथा प्राप्त शिलालेखों में प्रयुक्त भाषा संस्कृत है जिसपर प्राकृत एवं स्थानीय प्रभाव भी दृष्टिगोचर होते हैं। डॉ. हीरालाल शुक्ल नें अपनी पुस्तक चक्रकोट के छिन्दक नाग में उल्लेख किया है कि उन्होंने नागयुगीन बस्तर (760 ई से 1324 ई तक) के कुल तैतीस अभिलेखों की खोज की है जिसमें से 16 अभिलेख तेलिगु में एवं 17 अभिलेख संस्कृत में हैं। डॉ. शुक्ल का मंतव्य है कि इन्द्रावती नदी एक स्पष्ट विभाज्य देखा है जिसके उत्तर का क्षेत्र संकर संस्कृत का तथा दक्षिण का अंचल संकर तेलुगु का रहा है। नागयुगीन राजा भाषा को ले कर स्पष्ट सोच रखते थे तथा समय समय पर उन्होंने एक भाषा नीति बनायी थी।

नागयुगीन बस्तर की प्रथम राजभाषा (925-1062 ई.) तेलुगु थी चूंकि तब नाग दक्षिण से बस्तर आ कर स्थापित हुए थे एवं स्वयं का विस्तार करने के लिये अपनी भाषा को माध्यम बनाना उन्हें उचित लगा होगा। मधुरांतक देव (1062-1069 ई.) नें भाषानीति को बदल कर संस्कृत को राजभाषा घोषित किया। संभवत: इसका कारण सोमवंशी, कलचुरी, ओडिशा तथा चोल शासकों से सहसम्बन्ध बढाना रहा होगा। इसके बाद तीसरी राजभाषा नीति का काल 1069-1218 के मध्य का है जहाँ तेलुगू एवं संस्कृत दोनो को ही राजभाषा का दर्जा प्राप्त था। सोमेश्वर देव (1069-1111ई.) नें कुल नौ आज्ञा पत्र जारी किये जिनमें से पाँच संस्कृत में तथा चार तेलुगु में थे। इस अवधि के विषय में डॉ. शुक्ल लिखते हैं कि भाषा-बोलियों का सम्मिश्रण जनजातियों में इसी प्रकार नागयुग में होता रहा। आन्ध्र के प्रभाव वाले क्षेत्रों में तेलुगु नें माड़िया तथा धुर्वी के साथ मिल कर द्विभाषिकता की स्थिति को निर्मित किया तथा हलबाओं के संपर्क में ओडिया भाषा आई। अबूझमाडिया कबीले तब शक्तिशाली थे तथा एकभाषीय बने रहे। कालांतर में द्विभाषी स्थिति तो यथावत बनी रही लेकिन एकलिपि (1218 -1224 ई.) का सिद्धांत प्रतिपादित किया गया। इस काल में संस्कृत तथा तेलुगु दोनो ही भाषाओं के अभिलेख नागरी लिपि में लिखे जाने लगे। शनै: शनै: तेलुगु भाषा की परम्परा समाप्त हो गयी तथा संकर संस्कृत (1224-1324 ई.) का विकास हुआ जिसमें स्थानीयता का तेजी से सम्मिश्रण भी होने लगा। एक एसी भाषा में संस्कृत बदलने लगी जिसके बहुत निकट आज की हलबी प्रतीत होती है। इस कारण को प्रमुखता से पहडना होगा कि क्यों हलबी सभी जनजातियों के बीच बोली जाती है जाहे वे गोंड हो या हलबा (हीरालाल शुक्ल, चित्रकोट के छिंदक नाग)।

यह उदाहरण स्पष्ट करता है कि भूगोल का भाषा के प्रसार में कितना और कैसा महत्व होता है। चालुक्य शासन समय (1324 -1947) में राजकाज की भाषा ने तेलुगू और संस्कृत से आरम्भ करने के पश्चात हलबी जैसी जनभाषा को राजकीय भाषा का दर्जा दिया जो कि स्वंत्रता प्राप्ति तक कायम था। चालुक्यों ने राजकीय भाषा हलबी को घोषित करते हुए वस्तुत: शासन में आमजन की सहभागिता को सुनिश्चित किया था। विषय के अंत में यह जोडना चाहूंगा कि बस्तर की भाषा-बोलियाँ तेजी से विलुप्ति की कगार पर हैं अंत: यह आवश्यक है कि उनके संरक्षण की दिशा प्रशस्त की जा सके।


- राजीव रंजन प्रसाद


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