पिता जी ने कहा- “देख बेटे, हिन्दी की रत्न परीक्षा तो तूने अच्छे अंकों से पास उत्तीर्ण कर ली अब लगे हाँथों प्रभाकर भी कर ले। यह ले सौ रूपये और नालंदा कोलेज के प्रिंसिपल से पूछ कर सभी पुस्तकें खरीद ले। हिंदी की अच्छी शिक्षा पायेगा तो विद्वान बनेगा, पता है क्या तुझे कि कभी महात्मा गाँधी ने कहा था; भारत के असली शत्रु वे लोग हैं जो भारतीय होते हुए भी व्यवहारिकता में अंग्रेज हैं, उन लोगों की कृपा से आज समूचा भारतीय समाज अंग्रेजी की जंजीरों में जकडा नज़र आ रहा है। नगर-नगर में अब अंग्रेजी के पब्लिक स्कूलों की भरमार हो रही है। उनका जाल फ़ैल रहा है। सरकारी दफ्तरों और संस्थानों में अंग्रेजी का ही बोलबाला हो रहा है। हिन्दी और प्रादेशिक भाषाओं की अस्मिता पर घिर रहे संकट से आक्रान्त अनेक निष्टावान और कर्मठ विद्वान् लोग जूझ रहे हैं। तुझे प्रभाकर और हिन्दी में एम.ए करके ऐसे हिन्दी के प्रतिबद्ध लोगों का अनुसरण करना है। बेटे, माँ के समान होती है अपनी भाषा-बोली, तभी तो वह मातृभाषा कहलाती है। तुझे व्यवहारिकता में भारतीय बनना है, अँगरेज़ नहीं। अँगरेज़ तो चले गए लेकिन अपनी ज़बान यहीं छोड़ गए, अंग्रेज़ी परस्त लोगों के संरक्षण में”।
पिता जी हिन्दी, संस्कृत और अंग्रेजी के विद्वान् थे। पंजाबी होते हुए भी वह घर घर में बनारस के पंडितों जैसी हिन्दी बोलते थे। उनके उच्चारण में .कुछ लोग उनको बनारसी पंडित समझते थे। उन्होंने कुछ इस अंदाज़ से उपदेश दिया कि उनके मुखारविंद से निकला हुआ एक-एक क्लिष्ट शब्द भी गुलाब की पंखुरी जैसा कोमल लगा। उनकी बातों से मैं इतना जियादा प्रभावित हुआ कि एक सौ रूपये मैंने अपनी जेब में डाले और दूसरे दिन सुबह सबसे पहला पहला काम नालंदा कॉलेज में प्रवेश पाने का किया। प्रिंसिपल श्री रामलाल से पुस्तकों की सूची ली और लाजपत नगर की मार्केट के पुस्तक-विक्रेता के पास पहुँच गया। सभी पुस्तकें खरीदने में देर नहीं लगी।
पिता जी अति प्रसन्न थे, क्योंकि उनकी आज्ञा का पालन मैं बखूबी कर रहा था। घर में उत्सव जैसा वातावरण हो गया था। नयी दिल्ली का एक बहुत ही सुंदर इलाका है--सुंदर नगर .उसकी मार्केट से रसगुल्ले मंगवाए गए। प्रभाकर में प्रवेश पाने से सबसे बड़ा लाभ यह हुआ कि मुझ को छंदशास्त्र पढने को मिला। कविता कहना सीखा। यूँ तो फिल्मी गीत गाते-गाते लय में कुछ न कुछ कहना मैंने पहले ही जान लिया था। जब भी छंद में कोई गीत ,कविता या ग़ज़ल कहता तो उसे गाते-गुनगुनाते हुए मुझे अच्छा लगता। उन्ही दिनों संयोग से नालंदा कोलेज में कविवर उदय भानु हंस के दर्शन हुए। वह अथिति अध्यापक के रूप में कुछ घंटों के लिए वहां आए थे। पता चला कि वे अच्छे कवि भी हैं। उनको सामने पाकर सुखद लगा.एकाध साल के बाद उनकी यह रूबाई पढ़ कर मैं झूम उठा था-
मैं साधू से आलाप भी कर लेता हूँ
मन्दिर में में कभी जप भी कर लेता हूँ
मानव से कहीं देव न बन जायुं मैं
यह सोच के कुछ पाप भी कर लेता हूँ
प्रभाकर में लगे काव्य -संकलन की कुछ काव्य-पंक्तियों --
बुंदेलों हरबोलों के मुंह हमने सूनी कहानी थी
खूब लदी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी
-सुभद्रा कुमारी चौहान
वह आता
दो टूक कलेजे के करता
पछताता
पथ पर आता
-सूर्य कान्त त्रिपाठी निराला
इस पार प्रिये तुम हो मधु है
उस पार न जाने क्या होगा
-हरिवंश राय बच्चन
कवि कुछ ऐसी तान सुनाओ
जिस से उथल-पुथल मच जाए
-बालकृष्ण शर्मा नवीन
और नरेन्द्र शर्मा की एक कविता जो याद नहीं आ रही है,में मेरा मन डूबा ही हुआ था कि एक दिन पिता जी बड़े-बड़े विद्वानों की समझ में न आने वाली निराला जी की क्लिष्ट कविता "राम की शक्तिपूजा" कहीं से ले ले आए, मेरा शब्द-सामर्थ्य बढ़ाने के लिए। कविता की प्रारंभिक पंक्तिओं---
आज की तीक्ष्ण शर विधृत क्षिप्र कर वेग प्रखर
शत शेल संवरण शील नील नभ गर्जित स्वर
प्रति पल परिवर्तित व्यूह भेद कौशल समूह
राक्षस विरुद्ध प्रत्यूह क्रुद्ध कपि विषम हूह
ही पढ़ कर मेरा अपरिपक्व मस्तिष्क चक्कर खाने लगा, पसीने तो छूटने ही थे। मैंने पिता जी से विनम्रता से कहा कि अभी मैं इतना समर्थ नहीं हूँ कि ऐसे क्लिष्ट शब्दों को आत्मसात कर सकूं। वह नहीं माने और जबरन मुझ को अपने पास बिठा लेते और राम की शक्तिपूजा की पंक्तिओं के क्लिष्ट शब्दों के अर्थ समझाने लगते। उनके बार - बार समझाने पर भी मेरी अल्प बुद्धि उन्हें पचा नहीं पाती। मैं दूसरी पंक्ति के शब्दों के अर्थ समझता और उसकी पहली पंक्ति के शब्दों के अर्थ भूल जाता।
चूँकि पिता जी को मेरा शब्द-सामर्थ्य बढाना और मुझको विद्वान् बनाना था इसलिए वह डटे रहे। यह सिलसिला कई दिनों तक चला। एक दिन मैं विद्धांग शब्द का अर्थ भूल गया। नर्म दिल के पिता का धैर्य टूट गया। देखते ही देखते वह लाल-पीले हो गए। सिंहनाद कर उठे-"तेरा ध्यान कहाँ रहता है?" फिर धमाकेदार तमंचे शुरू हो गए उनके। कभी मेरी एक गाल पर और कभी दूसरी गाल पर, मेरी आंखों में आंसुओं की झड़ी लग गयी। अपने सत्रह-अठारह वर्ष के पूत को केवल एक शब्द के लिए बुरी तरह मार खाता देख कर मेरी माँ कराह उठी। छोटा भाई उसकी पीठ के के पीछे लुक गया। पड़ोसी वाली मेरी हम उम्र निशि जो सरसों का साग और मक्की की रोटियां देने आयी थी, उस कारुणिक दृश्य से सुबक उठी और अपनी गीली आंखों को दुपट्टे के कोने से छिपा कर अपने घर में भाग गयी। मैं उस पीड़ा को अपने मन में में लिए कई दिनों तक तड़पता रहा। सपनो में महाकवि निराला जी से मैं घायल मन से कई बार मिला और उनसे मुखातिब हुआ - निराला जी, "राम की शक्तिपूजा लिख आप तो क्लासिकल पोएट बन गए हैं लेकिन आपकी उस क्लिष्ट कविता ने मेरी कितनी दुर्गति करवाई है,आप क्या जाने?
26 टिप्पणियाँ
अब समझ आया, ये उम्दा स्वरुप हमारे प्राण भाई का पिता की मार का असर है. देखिये तो, कितना निखरा हुआ है. काश, हम आपकी जगह मार खा गये होते..कहीं आपके आस पास तो होते.
जवाब देंहटाएंबेटे, माँ के समान होती है अपनी भाषा-बोली, तभी तो वह मातृभाषा कहलाती है।
-कितनी उत्कृष्ट बात है.
आभार इस संस्मरण को बांटने का. आनन्द आ गया.
अब ऐसे पिता कहाँ ? और श्रेध्धेय निराला जी की कविता को अपने पुत्र तक लानेवाले इन्सान कहाँ मिलेँगेँ ?
जवाब देंहटाएंआपका सँस्मरण हमेँ भी आपके अतीत तक खीँच कर ले आया - और आपके पिताजी को श्रध्धापूर्वक नमन
ही कह पा रही हूँ ..बहुत अच्छा लगा इसे पढना --
- लावण्या
अब न एसे विचारक पिता रहे न एसे विद्वान कवि और न ही आप जैसे पुत्र शायद इसी लिए साहित्य भी वैसा नहीं रहा। संस्मरण को पढ कर बहुत अच्छा लगा।
जवाब देंहटाएंनिराला जयंति पर यह प्रस्तुति एक प्रेरक प्रसंग की तरह है। सार्थक संस्मरण।
जवाब देंहटाएंकृपया मेरी टिप्पणी में जयंति को पुण्यतिथि पढें।
जवाब देंहटाएंआपकी भाषा से जाहिर होता है कि आपने कितनी गहराई से महाकवि निराला को आत्मसात किया है।
जवाब देंहटाएं"निराला जी, "राम की शक्तिपूजा लिख आप तो क्लासिकल पोएट बन गए हैं लेकिन आपकी उस क्लिष्ट कविता ने मेरी कितनी दुर्गति करवाई है,आप क्या जाने?"
जवाब देंहटाएंthis pain has been established in the "sansmaran". Very nice prose.
-Alok Kataria
महाकवि निराला से आप जिस तरह से मुखातिब हुए वह वास्तव में न केवल आपके जीवन की महत्वपूर्ण घटना है साथ ही इस संस्मरण के पाठको के लिये भी गहरा अनुभव।
जवाब देंहटाएंभाषा, शिल्प .. सभी बहुत अच्छा।
जवाब देंहटाएंपढ़ा और आनंद भी लिया...
लिखते रहें।
शुभकामनाएं
रिपुदमन
आदरणीय प्राण शर्मा जी नें निराला जी की पुण्यतिथि पर यह संस्मरण प्रस्तुत कर इस दिवस को सार्थकता दी है, हम जैसे नये कलमकारों के लिये प्रेरणा है यह संस्मरण, कि लेखन एसे निखरता है जैसे चंदन घिस कर सुरभित होता है।
जवाब देंहटाएंनिराला जी को भी पुण्यस्मरण करते हुए नमन।
***राजीव रंजन प्रसाद
बहुत सुंदर संस्मरण...
जवाब देंहटाएंआनंद आ गया सुबह-सुबह...
निराला जी को नमन........
आपको बधाई..
इतनी अच्छी संस्मरण के लिये बहुत बहुत धन्यवाद...
जवाब देंहटाएंnirala ji ne hindi sahitya ki dhara badal di. Pran sharma ji ne bahut hi achcha sansmaran likha hai nirala ji ki punyatithi par.
जवाब देंहटाएंबहुत उम्दा लहजे में कहा गया संस्मरण | नाम पढ़ कर ऐसा लगा नही की संस्मरण ये दिशा अख्तियार करेगा |
जवाब देंहटाएंनिराला जी ने "राम की शक्तिपूजा " लिखते वक्त ये नही सोचा होगा की कविता की वजह से प्राण जी की पूजा हो जाएगी | सुंदर भाषा के लिए बधाई | :-)
मुझे लगता है कि इस संस्मरण को और बड़ा किया जा सकता था। निराला जी की बात जैसे हीं शुरू हुई , आलेख खत्म हो गया।
जवाब देंहटाएंवैसे जितना भी लिखा है, अच्छा लगा।
बधाई स्वीकारें।
आदरणीय प्राण शर्मा जी, प्रेरक प्रस्तुति के लिये बधाई स्वीकारें। निराला को उनकी पुण्य तिथि पर याद करना अपनी समृद्ध भारतीय साहित्य परम्परा से गहरे तक जुड़ना ही है।आभार।-सुशील कुमार।(email- sk.dumka@gmail.com)
जवाब देंहटाएंवाह! बहुत सुंदर. संस्मरण पढ़कर अच्छा लगा.
जवाब देंहटाएंप्राण जी मेरे प्रिय लेखक और वरिष्ठ मित्र हैं.उनकी कही बातें मन को छू गयीं कि काश ऐसे पिता सबको मिलें जो भाषा और साहित्य अपनी अगली पीढ़ी को भी सौंपने की बात सोचें और प्राण जैसी संतान भी जो इसे पूरा करके दिखाये
जवाब देंहटाएंसूरज
सुंदर संस्मरण!
जवाब देंहटाएंमहाकवि को उनकी पुण्य-तिथि पर शत-शत नमन!
प्राण शर्मा जी का यह संस्मरण अनेक लेखकों और कवियों के लिए बहुत ही प्रेरक प्रसंग है जिससे हिन्दी-साहित्य-सरिता को निर्मल बनाए रख
जवाब देंहटाएंसकेंगे।
"एक दिन मैं विद्धांग शब्द का अर्थ भूल गया। नर्म दिल के पिता का धैर्य टूट गया।" - हिन्दी के प्रति ऐसी असाधारण भावावेश को व्यक्त करने वाले लोग, ऐसे पिता आज कहाँ मिलते हैं!
आपके पिता जी को श्रद्धापूर्वक नमन और आपको इस संस्मरण के लिए बधाई।
Wah
जवाब देंहटाएंutkrisht v jhanjhawati sansmaran
रोचक संस्मरण.
जवाब देंहटाएंपिताश्री का साहित्य के प्रति प्रेम ही इस रोचक संस्मरण की जननी है.. और उनका दिया प्रसाद ही आज आपकी साहित्य रुची और उत्थान का कारण भी...
आभार
प्राण जी का संस्मरण स्मरणीय बन पड़ा है. प्राण जी की समृद्ध भाषा का रहस्य आज समझ आया. आप और प्राण जी को बधाई.
जवाब देंहटाएंरूपसिंह चन्देल
निराला जी, "राम की शक्तिपूजा लिख आप तो क्लासिकल पोएट बन गए हैं लेकिन आपकी उस क्लिष्ट कविता ने मेरी कितनी दुर्गति करवाई है,आप क्या जाने?
जवाब देंहटाएंप्राण जी का संस्मण बहुत अदभुत और रोचक है आपका | सूरज प्रकाश की लघुकथा भी अच्छी लगी |
धन्य हैं दोनों -पिता -पुत्र ,पर | अब कौन पिता कहने की सिथ्ति में है ,फ़िर भी बीते दिनों में लौटना अच्छा लगा |मैं स्वयं फोटोग्राफर बनाना चाहता था पर घर में एक अकाल मृत्यु के बाद पिताजी ने कहा घर में एक डाक्टर होना आवश्यक है,मैं ही बच्चा था उस उम्र का सो बना,फ़िर प्रक्टिस शुरू कराने के वक़्त पिता की हिदायत ,कोई मरीज़ इसलिए बिना इलाज़ वापिस न जाए की उसके पास पैसे नहीं हैं ने जिंदगी में जो आनंद दिया ,उसके लिए माँ
जवाब देंहटाएंएवं पिताजी का सदैव आभारी|मुझे हर जन्म वही माता -पिता मिलें इस प्रार्थना के साथ सिमटने से पहले बधाई प्राण भाई ,धन्यवाद भी ऐसे माहोल में ले आने का -श्याम सखा श्याम
मैं उस पीड़ा को अपने मन में में लिए कई दिनों तक तड़पता रहा। सपनो में महाकवि निराला जी से मैं घायल मन से कई बार मिला और उनसे मुखातिब हुआ
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर. संस्मरण ,निराला जी की पुण्यतिथि पर यह संस्मरण बांटने का आभार
आपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.