
वरिष्ठ कथाकार रूपसिंह चन्देल हिन्दी के उन गिने-चुने कथाकारों में हैं जिनके कथा-साहित्य में विषय की मौलिकता के साथ शिल्प की विशिष्टता हमें प्राप्त होती है. हिन्दी में खलनायक प्रधान उपन्यासों की परम्परा का प्रारंभ उनसे माना जाता है. इस दृष्टि से उनका उपन्यास ’पाथरटीला’ बहुचर्चित हुआ था. इसके पश्चात ’नटसार’ और अब ’शहर गवाह है’ में भी हमें उनकी इस विशेषता के दर्शन होते हैं. किस्सागोई शैली उनके शिल्प को और अधिक महत्वपूर्ण बनाती है. कथा की अन्य विशेषताओं के साथ यदि रचना में पठनीयता का अभाव है तो पाठक उसे भुलाने में संकोच नहीं करता. महान रूसी लेखक लेव तोल्स्तोय आलोचकों के महत्व को खारिज करते थे और पाठकों की सत्ता को ही महत्व देते थे. उनके अनुसार बहुसंख्य पाठकों द्वारा पसंद की गई रचना को आलोचकों की सिफारिश की आवश्यकता नहीं होती. रूपसिंह चन्देल के उपन्यास इस कसौटी पर खरे उतरते हैं.
चन्देल जी के साहित्य पर अब तक दो छात्रों को पी-एच.डी. की उपाधि प्राप्त हो चुकी है (कानपुर विश्वविद्यालय (उत्तर प्रदेश ) और औरंगाबाद विश्वविद्यालय ( महाराष्ट्र) और औरगांबाद विश्वविद्यालय से ही एक अन्य छात्र उन पर पी-एच.डी. कर रहा है. कथाकार चन्देल के कथा साहित्य पर मेरे अतिरिक्त (मेरठ विश्वविद्याल) चार और छात्रों ने (एक कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय और तीन दिल्ली विश्वविद्यालय) एम.फिल. की उपाधियां प्राप्त की हैं. प्रस्तुत है साहित्य और साहित्येतर विषयों पर उनसे हुई बातचीत के कुछ अंश.
अमित कुमार राणा: साहित्य के प्रति आप कैसे उन्मुख हुए ? बाह्य प्रेरणा थी या आंतरिक ? आपने किन कारणों से कथाकार बनने का निर्णय किया ?
रूपसिंह चन्देल : मेरे मां-पिता बिल्कुल निरक्षर थे. पिता ने कोलकता में लगभग चालीस वर्षों तक रेलवे में नौकरी की थी. उनका संग-साथ सदैव भद्र बंगाली समाज के साथ रहा था. उन्हें शायद स्वयं के अशिक्षित रह जाने की पीड़ा थी. वे हमें --- भाई - बहनों को -- पढ़ाना चाहते थे. वह उन्होंने किया भी . भद्र समाज की संगत का ही यह परिणाम रहा होगा. वे प्रति सुबह कुछ न कुछ तरन्नुम में गाते रहते जो वे स्वयं मन में बनाते थे. यदि वे पढ़े -लिखे होते तो शायद कवि रहे होते. मैं उन्हें सुनता और मन में एक भाव पैदा होता. आगे चलकर शायद उसी का परिणाम रहा होगा कि मैंने कविताएं लिखीं. लेकिन किशोरावस्था तक की मेरे जीवन की कठोर स्थितियों और हाशिये पर पड़े गांव के लोगों की पीड़ा कहीं अंदर तक मुझे परेशान करती रही थी और मुझे लगता रहा था कि मैं कविता में अपने को सही रूप में अभिव्यक्त नहीं कर पा रहा हूं. और इस प्रकार कथा साहित्य की ओर प्रवृत्त हुआ. कुछ अन्य कारण भी थे. अतः साहित्य की ओर उन्मुख होने के पीछे अंतः और बाह्य - -- दोनों ही कारण रहे.
अमित कुमार राणा : आपकी पहली रचना क्या थी ?
रूपसिंह चन्देल : प्रकाशित रूप में या अप्रकाशित ?
अमित कुमार राणा : प्रकाशित.
रूपसिंह चन्देल : पटना की एक पत्रिका में नशाबन्दी पर पहला आलेख छपा था. पहली प्रकाशित कहानी १९७९ में मार्क्सवादी अखबार ’जनयुग’ में ’रसोइया’ शीर्षक से प्रकाशित हुई थी.
अमित कुमार राणा : आपकी रचनाओं में अधिकांशतया निम्न वर्ग -- दलित-शोषित वर्ग - केन्द्र में है ?
रूपसिंह चन्देल : लेखक वही लिखता है या उसे वही लिखना चाहिए, जिसे उसने भोगा हो या गहनता से अनुभव किया हो. मैंने स्वयं घोर संघर्षपूर्ण जीवन जिया है और अपने इर्द-गिर्द अनेकों को संघर्ष करते देखा है. उनमें प्रायः वे लोग थे जो हाशिये पर पड़े हुए थे. दलित-महिलाएं और सवर्णों में भी वे जो अपने समाज में रहकर भी आर्थिक कारणॊं से उससे उपेक्षित थे. स्वाभाविक है कि मुझे वही लिखना था. वही लिखा --- लिख रहा हूं.
अमित कुमार राणा : दलितों की बात की आपने ---- आजकल दलित साहित्य की पर्याप्त चर्चा है. दलित साहित्य से क्या आभिप्राय है ?
रूपसिंह चन्देल : पिछले लगभग बीस वर्षों से दलित साहित्य लेखन की ओर दलित रचनाकारों का ध्यान आकर्षित हुआ. इससे पूर्व भी वे लिख रहे थे , लेकिन चर्चा के केन्द्र में न थे. मैं इसमें स्व. प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह की भूमिका अहम मानता हूं. मण्डल प्रकरण से दलितों में चेतना उत्पन्न हुई. लोगों को लगा कि साहित्य के क्षेत्र में भी उन्हें सक्रिय होना चाहिए . और आज अनेक दलित रचनाकार सक्रियता से लिख रहे हैं. लेकिन मैं इस बात से सहमत नहीं हूं कि वही साहित्य ’दलित साहित्य’ की श्रेणी में आता है जिसे किसी दलित रचनाकार ने लिखा है. एक भ्रामक स्थिति बनी हुई है. इस भ्रामकता को हंस के सम्पादक राजेन्द्र यादव ने पर्याप्त हवा दी . उहोंने ऎसे अनेक दलित रचनाकारों और उनकी रचनाओं को महिमा मण्डित किया जो उसके हकदार नहीं थे और जो हकदार थे उनकी उपेक्षा की. सस्ती लोकप्रियता प्राप्त करने के लिए रमणिका गुप्ता ने भी इस दिशा में बहुत घाल मेल किया है. मेरा मानना है कि साहित्य -- साहित्य होता है. न वह दलित होता है न सवर्ण. उसका इस रूप में वर्गीकरण उचित नहीं है. ’धरती धन न अपना’, ’नरक कुण्ड में बास’, और ’यह जमीन तो अपनी थी’ (ट्रिलॉजी - जगदीश चन्द्र), ’नाच्यो बहुत गोपाल (अमृत लाल नागर), ’एक टुकड़ा इतिहास’ (गोपाल उपाध्याय), ’मोरी की ईंट’ (मदन दीक्षित), ’परिशिष्ट’ (गिरिराज किशोर) आदि ऎसे उपन्यास हैं कि यदि उनके रचनाकारों के नाम उन उपन्यासों से हटा दिये जायें तो यह कहना कठिन होगा कि उनके लेखक गैर दलित लोग हैं. प्रेमचन्द के ’रंगभूमि’ का सूरदास क्या है ? एक दलित, जिसे उपन्यास में अनेक बार चमार लिखने के कारण प्रेमचन्द की भर्त्सना करते हुए ’दलित अकादमी’ के लोगों ने ३१ जुलाई, २००४ को ’रंगभूमि’ की प्रतियां जलायीं. विरोध का यह भर्तसनीय तरीका था. वे साहित्य की तात्कालिक स्थितियों को भूल गये थे. लेखक अपने समय के आचार-विचार-व्यवहार की उपेक्षा नहीं कर सकता. प्रेमचन्द ने वही किया था और उपन्यास का प्रमुख पात्र होने के कारण उन्होंने सूरदास को जिस रुप में चित्रित किया है, मैं समझता हूं कि वह विश्व-साहित्य में उच्चतम स्थान पर विराजमान है. वह एक अद्भुत पात्र है. मेरि दृष्टि में प्रेमचन्द का ’रंगभूमि’ हिन्दी का पहला ’दलित उपन्यास’ सिद्ध होता है. मुझे आश्चर्य होता है कि मुद्राराक्षस जैसे वरिष्ठ लेखक दलितों के मसीहा बनने का नाटक करते हुए ’रंगभूमि’को जलाए जाने की तरफदारी कर रहे थे. इस प्रकार की भ्रष्ट साहित्यिक राजनीति से साहित्य को बचाने की आवश्यकता है.
अमित कुमार राणा : साहित्य में राजनीति को आप किस रुप में देखते हैं ?
रूपसिंह चन्देल : आज साहित्य में राजनीति निकृष्टतम रूप में विद्यमान है. अपनों को स्थापित करने के लिए किसी दूसरे सक्षम-सक्रिय रचनाकार को उखाड़ना, या उसकी कृति पर चुप्पी साध लेना या किसी रचनाकार की पुस्तक के प्रकाशित होने में बाधा उत्पन्न करना आदि अनेक ढंग अपनाए जाते हैं. लेकिन जो रचनाकार इस सबसे घबड़ाये बिना निरतंर सृजनरत रहते हैं राजनीति करने वाले उनके लिए बौने सिद्ध होते हैं. वैसे बौने और कुण्ठित लोग ही ऎसा करते हैं. लेखन की निरंतरता उनके सारे हथियारों को भोंथरा कर देती है.
अमित कुमार राणा : ’नटसार’ उपन्यास की प्रेरणा आपको कैसे प्राप्त हुई ?
रूपसिंह चन्देल : इस उपन्यास का मुख्य पात्र श्यामल राय जिसे लोग खलनायक के रुप में देखते हैं, वही उपन्यास का नायक है. मेरे उपन्यास ’पाथर टीला’ , जो बहुचर्चित रहा था, का खलनायक गजेन्द्र सिंह उस उपन्यास का नायक था. हालांकि हिन्दी में ऎसे उपन्यासों की परम्परा नहीं रही, पर हमारे समाज में ऎसे पात्रों को खूब खोज सकते हैं आप. अंग्रेजी में यह परम्परा ’गॉड फादर’ से शुरू मानी जाती है. तो शायमल राय एक वास्तविक पात्र है. वैसे यहां प्रसंगतः बता दूं कि मेरे उपन्यास हों या कहानियां उनके सभी प्रमुख पात्र वास्तविक ही हैं. श्यामल राय से मेरी पहली मुलाकात २७ जून, १९७९ में हुई थी. उसके हाव-भाव, बात-चीत, गतिविधि ने उसमें मेरी रुचि जागृत कर दी थी. मुझे लगा था कि जैसा यह दिखता है वैसा है नहीं. मैंने उसका अध्ययन करना प्रारंभ किया. निरंतर उसका पीछा करता रहा. उसकी गतिविधियों के विवध पहलू उजागर होते गये. लेकिन एक पहलू उभरता तो लगता अभी कुछ और है जो उभरने को शेष है. और १९७९ से २००० तक मैं उस चरित्र का अध्ययन करता रहा, उसे जीता रहा. अंततः मुझे लगा कि लिखना चाहिए और ’नटसार’ लिखा गया. लेकिन लिखे जाने के पश्चात उसके अवसरवादी व्यक्तित्व का एक और स्वरुप उजागर हुआ. यही पात्र भिन्न रूप में मेरे ’शहर गवाह है’ में उपस्थित है.
अमित कुमार राणा : ’नटसार’ शीर्षक से तात्पर्य क्या है ?
रूपसिंह चन्देल ; इसका शाब्दिक अर्थ है ’खुला रंगमंच’ -- ’ओपेन थियेटर’. उपन्यास का एक पात्र तरुण इस विषय में टिप्पणी करके एक स्थान पर इसका संकेत भी देता है. इसका एक अन्य तात्पर्य भी आप ले सकते हैं -- ’नाट्य-तत्व’ . पूरे उपन्यास में श्यामल और उसके साथी नाटक ही तो करते हैं---- .
अमित कुमार राणा : ’नटसार’ में स्त्री-विमर्श एक व्यक्तिगत विरोध बनकर रह गया है,ऎसा क्यों ?
रूपसिंह चन्देल : ’नटसार’ का मूल कथातत्व महिला-विमर्श नहीं है. निश्चित ही आज हिन्दी लेखिकाएं महिलाओं की उन समस्याओं पर खुलकर लिख रहीं हैं कल तक जिनसे हमारी लेखिकाएं बचती रहती थीं. लेकिन वे केवल महिलाओं की समस्याओं के प्रति गंभीर हैं जब कि ’नटसार’ की मूल चिन्ता श्यामल राय जैसे छद्म लोगों की गतिविधियों के माध्यम से तमाम विद्रूपताओं को चित्रित करना रहा है. वन्दना, सविता कविता, सांत्वना की जो भूमिका है उससे उसे महिला विमर्श की केवल कृति नहीं कहा जाना चाहिए. हां, अन्य तत्वों की भांति महिला-विमर्श भी वहां उपस्थित है अपने पूरे संदर्भॊं के साथ. निश्चित ही उसका अंत सविता के विरोध - बल्कि विद्रोह में होता है, लेकिन यह विद्रोह स्वाभाविक है. यहां आज की कुछ चर्चित लेखिकाओं द्वारा अपने नारी पात्रों द्वारा करवाये गये नकली विद्रोह की भांति नहीं है वह.
अमित कुमार राणा : नायक केन्द्रित होने के कारण क्या उपन्यास में एकांगिकता नहीं आ गयी है ?
रूपसिंह चन्देल : ऎसा बिल्कुल नहीं है. उपन्यासों में कोई न कोई पात्र प्रमुख होता ही है. ऎसी स्थिति में नायक से संबन्धित स्थितियां विशेष महत्व पाती ही हैं. मीडिया, साहित्य आदि की व्यापक धरातल पर चर्चा करने का अर्थ होता उपन्यास का विस्तार और श्यामल की गतिविधियों से कथा का भटकाव. आप इसे चरित्र प्रधान मान सकते हैं, जिसके माध्यम से शिक्षण जगत, साहित्य, मीडिया, महिला-विमर्श आदि उभरकर आते हैं.
अमित कुमार राणा : समकालीन समाजिक विद्रूपताओं, पुरुष की स्त्री के प्रति मानसिकता, विश्वविद्यालयी शिक्षण व्यवस्था के चित्रण में मुझे लगता है कुछ अतिरंजना आ गयी है ?
रूपसिंह चन्देल : अतिरंजना बिल्कुल नहीं है. बल्कि स्थितियां इससे कहीं अधिक विद्रूप और घातक हैं.. दिल्ली के एक विश्वविद्यालय में हाल के वर्षों में कई प्राध्यापकों को केवल इसलिए त्यागपत्र देना पड़ा या अनुशासनात्मक कार्यवाई का सामना करना पड़ा, क्योंकि उन्होंने अपनी शिष्याओं के साथ या तो बलात्कार किया था या करने का प्रयास किया था. यह सब इसलिए हुआ क्योंकि किसी कारण मामले प्रकाश में आ गये थे. अन्यथा------अभी कुछ दिनों पहले समाचार पत्रों में आपने पढ़ा होगा दिल्ली विश्वविद्यालय के एक हिन्दी प्रोफेसर के बारे में जो अपनी एक एम.फिल. की छात्रा को मोबाइल पर अश्लील एस.एम.एस. भेजता था. गांधी प्रतिष्ठान के विभागाध्यक्ष का मामला है . रामजस कालेज के उप-प्राचार्य का मामला है----- कितने ही मामले हैं . यहां आर्थिक भ्रष्ट्राचार, नियुक्तियों में भ्रष्ट्राचार , कहने का आभिप्राय यह कि भ्रष्ट्राचार का कौन-सा स्वरूप ऎसा है जिनका देश के भावी कर्णधार तैयार करने वाले ये शिक्षण संस्थाएं शिकार नहीं हैं. उपन्यास में डी.एस.पी. अरविन्द कुमार की टिप्पणी ध्यान देने योग्य है. सामाजिक या स्त्री के प्रति पुरुष दृष्टिकोण में किंचित भी अतिरंजना नहीं है.
अमित कुमार राणा : आप मूलतः ग्रामीण परिवेश के लेखक माने जाते हैं, लेकिन आपने ’नटसार’ में शहरी परिवेश उठाया है. क्या इससे यह माना जाये कि आप अपने को गांव से शिफ्ट कर रहे हैं?
रूपसिंह चन्देल : लेखक के पास जब अनुभवों का विपुल संसार हो तो वह उसका उपयोग करेगा ही. गांव से शहर आये रचनाकारों के साथ यही विशेषता है. मेरे पास गांव के अनुभव भी हैं और शहर के भी. तीन उपन्यासों , ’रुकेगा नहीं सवेरा’, ’रमला बहू’, और ’पाथर टीला’ में पूर्णतया गांव चित्रित हुआ है. लगभग सत्तर प्रतिशत कहानियां भी मेरी ग्रामीण जीवन की व्याख्या करती हैं. लेकिन शहर के अनुभवों को भी चित्रित करना चाहिए . इसलिए इसे शिफ्ट करना नहीं कहूंगा. लेकिन एक बात सच है कि ’पाथर टीला’ में गांव को जहां छोड़ा था, उसके बाद का गांव अर्थात आज का गांव अधिक जटिल हो गया है. मैं वातानुकूलित कमरे बैठकर गांव पर लिखने वाला लेखक नहीं बनना चाहता जैसाकि इन दिनों कुछ रचनाकार कर रहे हैं - खासकर महिला रचनाकार और अपने साधनों का दुरुपयोग कर चर्चा में बने हुए हैं. मेरे ’शहर गवाह है’ उपन्यास में भी गांव मौजूद है दिलीप सिंह और बाबू राधिकारमण सिंह के गांव के रूप में लेकिन ये गांव आजादी से पहले के गांव हैं.
अमित कुमार राणा : मीडिया के बढ़ते प्रभाव के कारण साहित्य को आप किस रूप में देखते हैं.
रूपसिंह चन्देल : वर्षों पहले आम चर्चा थी कि इलेक्ट्रानिक मीडिया के कारण साहित्य हाशिये पर चला जायेगा. पाठक न रहेगें. लेकिन तब भी मेरा मानना था और आज भी है कि मीडिया से साहित्य को चिन्ता करने की कोई आवश्यकता नहीं है. इलेक्ट्रानिक मीडिया मजोरंजन का साधन है. वह बौद्धिक खूराक पूरी नहीं कर सकता. आज भी हिन्दी ही नहीं दुनिया की सभी भाषाओं में उपन्यास सर्वाधिक पढ़े जाते हैं. पिछले दस वर्षों में हिन्दी में अनेक महत्वपूर्ण उपन्यास प्रकाशित हुए.मैं केवल महत्वपूर्ण की बात कर रहा हूं. छपने के लिए तो पचासों छपे . यदि पाठक नहीं हैं तो प्रकाशकों ने इन्हें क्यों प्रकाशित किया. इसलिए मीडिया का हौवा अब पुराना पड़ गया है.
अमित कुमार राणा : हिन्दी में पुरस्कारों की क्या स्थिति है ?
रूपसिंह चन्देल : अच्छी नहीं है. हिन्दी में ’पहल’ सम्मान जैसी पारदर्शिता कहीं देखने को नहीं मिलती. बड़े पुरस्कारों में भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार ने अपनी प्रतिष्ठा बचाये रखा है. इसके समकक्ष और भी पुरस्कार हैं, नाम लेना आवश्यक नहीं है, लेकिन उनकी प्रतिष्ठा घटी है. ऎसी संस्थाओं में जुगाड़ुओं को महत्व दिया जाता है. आप ताज्जुब नहीं करेंगें--- कुछ संस्थाओं के पुरस्कारों में पैसों के लेन-देन की बात भी सुनी गयी है और निजी पुरस्कारों की स्थिति तो यह है कि जिसे पुरस्कृत किया जाता है उसीसे पुरस्कृत राशि लेकर उसे लौटा दी जाती है (कुछ संस्थाओं के विषय में ऎसी जानकारी मिली है). सरकारी - गैर सरकारी संस्थाओं ---- सभी की स्थिति अच्छी नहीं है इस मामले में. चर्चा आयी तो एक प्रकरण बताना आवश्यक लग रहा है. बात १९८८ के आसपस की है. मैं स्व. डॉ. लक्ष्मीनारायण लाल ( वे मेरे एक रिश्तेदार के बचपन के मित्र थे और इसी नाते मैं उनके पास कभी कभी जाता था ) के यहां बैठा था. एक फोन आया. लाल साहब बहुत ही चिड़चिड़े स्वर में उत्तर दे रहे थे. बात समाप्त कर उन्होंने उत्तेजित स्वर में कहा -’’अमुक (मेरे एक समकालीन लेखक) का फोन था. चौथी बार आया था. " कुछ देर चुप रहकर बोले, "मैं अमुक संस्था के पुरस्कार निर्णायक मण्डल का अध्यक्ष हूं. कहानी संग्रह पर पुरस्कार देना है. ये चाहते हैं कि इस बार इन्हें दिला दूं. दस हजार का पुरस्कार है.----- ऎसे लेखक हिन्दी साहित्य का क्या भला करने वाले हैं !" मैं चुप था. उस लेखक की फितरत जानता था जिसके विषय में डॉक्टर लाल बोल रहे थे. उस वर्ष तो उस लेखक को वह पुरस्कार नहीं मिला, लेकिन अगले वर्ष वह सफल रहे थे. उन्हें मुम्बई का भी एक दस हजारी पुरस्कार अंतिम दशक में मिला था------- तो हिन्दी में पुरस्कार दिए नहीं जाते झटके जाते हैं और संस्थाएं इस बात के लिए तैयार रहती हैं.
अमित कुमार राणा : आलोचना के विषय में बताएंगे?
रूपसिंह चन्देल : स्थिति अच्छी नहीं है.
अमित कुमार राणा : आजकल आप क्या लिख रहे हैं ?
रूपसिंह चन्देल : हाल में मेरा सातवां उपन्यास ’गुलाम बादशाह’ प्रवीण प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित हुआ है. एक उपन्यास पर काम कर रहा हूं, लेकिन उसे स्थगित करना पड़ा क्यों मुझे -लियो तोल्स्तोय का अंतरंग संसार’ (उन पर उनके रिश्तेदारों, मित्रों और लेखकों के संस्मरण) पर काम समाप्त करके प्रकाशक (संवाद प्रकाशन) को देना है.
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प्रस्तुति:-
अमित कुमार राणा
द्वारा : श्री तेजपाल सिंह
एकता नगर, डारौली -रुकड़ी रोड,
मेरठ : २५० १०५
24 टिप्पणियाँ
प्रभावी साक्षात्कार है। साहित्य जिस दिन गुटबाजी से बाहर आ जाये बडा बदलाव दिखेगा। अच्छे साहित्यकारों का अभाव नहीं है, उन्हे मिल रहे अवसरों का अभाव है।
जवाब देंहटाएंरूपसिंह जी निर्भीक लेखक हैं और यह उनके साक्षात्कार से भी उजागर होता है।
जवाब देंहटाएंA Good Interview.
जवाब देंहटाएंAlok Kataria
बहुत अच्छे प्रश्न हैं और उत्तर भी अनुरूप। अच्छे साक्षात्कार के लिये बधाई।
जवाब देंहटाएंलेकिन मैं इस बात से सहमत नहीं हूं कि वही साहित्य ’दलित साहित्य’ की श्रेणी में आता है जिसे किसी दलित रचनाकार ने लिखा है. एक भ्रामक स्थिति बनी हुई है. इस भ्रामकता को हंस के सम्पादक राजेन्द्र यादव ने पर्याप्त हवा दी . उहोंने ऎसे अनेक दलित रचनाकारों और उनकी रचनाओं को महिमा मण्डित किया जो उसके हकदार नहीं थे और जो हकदार थे उनकी उपेक्षा की. सस्ती लोकप्रियता प्राप्त करने के लिए रमणिका गुप्ता ने भी इस दिशा में बहुत घाल मेल किया है. मेरा मानना है कि साहित्य -- साहित्य होता है. न वह दलित होता है न सवर्ण. उसका इस रूप में वर्गीकरण उचित नहीं है.
जवाब देंहटाएंचंदेल जी आपका उपरोक्त कथन स्वागतयोग्य है।
बहुत अच्छा साक्षात्कार है, बधाई।
जवाब देंहटाएंरूपसिंह जी को साहित्य शिल्पी पर कई बार पढा है और यह कहूंगी कि वे सधा हुआ लिखते हैं और लेखन में समझौता करने वाले नहीं लगते। साक्षात्कार रूपसिंह जी को प्रस्तुत करने में सफल है। धन्यवाद अमित जी।
जवाब देंहटाएंबहुत से छुपे हुये रहस्यों को उजागर करता एक सार्थक साक्षात्कार. राणा जी का आभार
जवाब देंहटाएंपुरस्कारों को ले कर आपकी बात सोलह आना सही है। जब आज कल के लेखकों की प्रोफाईल पढता हूँ तो निराला और पंत भी फेल हो जाते हैं लेकिन उनकी रचनायें पढो तो भगवान ही उनका मालिक होता है।
जवाब देंहटाएं......साहित्य -- साहित्य होता है. न वह दलित होता है न सवर्ण. उसका इस रूप में वर्गीकरण उचित नहीं है.
जवाब देंहटाएंरूपसिंह जी का साक्षात्कार वर्तमान में रचना संसार की कई विसंगतिओं पर प्रकाश डालता है.
प्रभावी साक्षात्कार ... बधाई
आदरणीय रूपसिंह जी के इस साक्षात्कार के कई मायने हैं।
जवाब देंहटाएंअच्छा साहित्य और पुरस्कृत साहित्य एक दूसरे से अंतरसंबद्ध नहीं है। पाठकों और लेखक के बीच एक सीधा संबंध की आपने वकालत की है। आपको मैं एसा लेखक पाता हूँ जिसनें विचारों की कद्र की जा सके लेकिन जिसने विचारधारा विशेष का मुखौटा पहनने से परहेज किया। आपकी क्रांतिकारी कहानी इसका बडा उदाहरण है साथ ही जैसा कि साक्षात्कार में प्रस्तुत है आपके लेखन के केन्द्र में दलित हैं, शोषित हैं.....।
आप अपने उपन्यास और लेखन का स्वयं भी बारीक विश्लेषण करते हैं। 'नटसार' को ले कर आपनी विवेचना यह बताती है। साथ ही आप सामयिक विषयों पर अच्छी अंतर्दृष्टि रखते हैं।
पुरस्कारों की वर्तमान स्थिति से मैं आपके दृष्टिकोण से सहमत हूँ। स्थिति गंभीर है।
अमित कुमार राणा को इस साक्षात्कार के लिये धन्यवाद।
साक्षात्कार पढना अच्छा लगा। धन्यवाद साहित्य शिल्पी।
जवाब देंहटाएंप्रभावी साक्षात्कार है।
जवाब देंहटाएंअमित कुमार राणा को इस साक्षात्कार के लिये धन्यवाद।
भाई श्री रूप सिंह चंदेल ने अपने साक्षात्कार में बहुत खुल कर जवाब दिये हैं। किसी भी विषय पर अपने दिल की बात कहते समय उन्हें संकोच महसूस नहीं हुआ। साहित्य में राजनीति पर वे पूरी निर्भीक्ता से कहते हैं, "आज साहित्य में राजनीति निकृष्टतम रूप में विद्यमान है. अपनों को स्थापित करने के लिए किसी दूसरे सक्षम-सक्रिय रचनाकार को उखाड़ना, या उसकी कृति पर चुप्पी साध लेना या किसी रचनाकार की पुस्तक के प्रकाशित होने में बाधा उत्पन्न करना आदि अनेक ढंग अपनाए जाते हैं."
जवाब देंहटाएंपुरस्कारों पर अपनी टिप्पणी कहते हुए चंदेल जी कहते हैं, "हिन्दी में ’पहल’ सम्मान जैसी पारदर्शिता कहीं देखने को नहीं मिलती." सवाल यह है कि जो पत्रिका केवल वामपन्थी लेखकों को ही छापती थी, और जिसके संपादक कहते हों कि आप हमें रचना न भेजिये, हम ख़ुद संपर्क करके आपसे रचना मंगवा लेंगे उनके सम्मान के चयन का दायरा भी तो रचना चयन जैसा ही होता होगा। और फिर चंदेल भाई ज्ञानपीठ की तारीफ़ करते हुए बाकी सभी सम्मानों एवं पुरस्कारों को खारिज कर देते हैं। उनके अपने अनुभव हो सकते हैं। कथा यू.के. के लिये १५ वर्षों से काम करते हुए, जो अनुभव मुझे हुए हैं, मैं उनके साथ इत्तेफ़ाक नहीं रखता।
मुद्दा चाहे दलित साहित्य का हो या कोई भी सामाजिक या साहित्यिक सरोकार, भाई रूप सिंह चंदेल स्पष्टवादी रुख़ अपनाते हैं और सभी को प्रभावित करते हैं।
साहित्यशिल्पी को और अमित कुमार राणा को बधाई।
तेजेन्द्र शर्मा
कथा यू.के. (लंदन)
बातचीत कई गंभीर बातों से परिचित कराती है।
जवाब देंहटाएंअपनी बात भली प्रकार रूपजी नें रखी है।
जवाब देंहटाएंbahut hi impressive saakshatkaar hai ... roopsingh ji bahut hi shaandar lekhak hai aur unki baato ne kai baato par prakash daala hai ..
जवाब देंहटाएंsahitya sirf sahitya hota hai ..
maine recently "dalit" novelpadhi thi daya pawar ji ki ..ek shashakt rachna thi...
ANEK ULLEKHNIY PUSTPON KE RACHYITA
जवाब देंहटाएंROOP SINGH CHANDEL JEE GUTBAAZEE
SE DOOR RAHKAR APNAA RACHNAATMAK
KARYA BADEE KHAAMOSHEE KAR RAHE
HAIN.VE SHEERSH SAHITYAKAAR HAIN.
UNJAESA SAHITYAKAAR AGAR EUROPE MEIN HOTA TO N JAANEE KAHAN SE KAHAN TAK HOTE.VE KEWAL UCHSTARIY
SAHITYAKAAR HEE NAHIN HAI ,BADE
ITIHAASKAAR BHEE HAIN.ITIHAAS PAR
AADHARIT UNKEE KAEE SHRESHTH KRITIYAN HAIN.
AMIT KUMAR RANA KA ROOP
SINGH CHANDEL SE SANVAAD PADHKAR
BAHUT ACHCHHA LAGAA HAI.BEBAAQ
BAATON KE LIYE CHANDEL JEE BADHAAEE
KE PAATR HAIN.
अमित कुमार राणा जी द्वारा श्रद्धेय रूप सिंह चंदेल जी का 'साक्षात्कार' के प्रकाशन के लिए हम साहित्य - शिल्पी के आभारी हैं. अमित जी द्वारा उठाए गए प्रश्नों का श्री चंदेल जी ने सिर्फ स्पष्टीकरण ही नहीं किया है बल्कि यह सोंचने पर बाध्य किया है कि आज का दूषित परिवेश क्या साहित्य एवं साहित्य से सम्बंधित पुरस्कारों की गरिमा को बनाए रखने में समर्थ है?
जवाब देंहटाएंकिरण सिन्धु.
priya bhai chandel tumhara sakchhatkar pada kaii sawalon ke achhe uttar diye hain aaj sahitya ki jo deyaniya isthiti bani huee hai uske liye ham sabhii jimmevar hain
जवाब देंहटाएंdekhten hain ki kab tak nakaratmak soch hamari sakaratmak soch ko dhamkati rhegii
meri or se badhai sweekar kren
ashok andrey
नि:संदेह रूपसिंह चन्देल अपनी बात खुल कर करते है और बोल्ड तरीके से रखते हैं। परन्तु, जिस तरह के चन्देल के उत्तर बोल्डनेस लिए हुए हैं, उस तरह के प्रश्न नहीं हैं। ये आम तरह के प्रश्न बहुत से इंटरव्यूज में रिपीट हुए हैं। जिस तरह का चन्देल का लेखन रहा है और जैसा उनका व्यक्तित्व है, उसको लेकर कुछ हटकर गम्भीर प्रश्न किए जाने चाहिए थे। इस तरह के प्रश्नों के उत्तर चन्देल अपने लेखों, अन्य इंटरव्यू आदि में पहले कई बार दे चुके हैं अत: कोई नई बात खुलकर सामने नहीं आई।
जवाब देंहटाएंरूप सिंह चंदेल जी का इंटरव्यू पढ़ा, वाह! क्या बेबाक और बेधड़क बातचीत है.रूप जी की कहानियाँ बहुत दिनों से पढ़ रही हूँ. और ''शहर गवाह है'' उपन्यास अभी -अभी समाप्त किया है और ''रमला बहू'' उपन्यास पढ़ना शुरू किया है.
जवाब देंहटाएंपृष्ट भूमि गाँव की हो या शहर की, पात्र दलित हों या सवर्ण उनकी किस्सागोई शैली उनके शिल्प को बहुत महत्त्वपूर्ण बनाती है. रूप भाई, साहित्यिक राजनीति से परे अपने कार्य
क्षेत्र को विस्तार देने वाले श्रेष्ठ लेखक हैं और उतने ही निर्भीक भी. साहित्य शिल्पी की आभारी हूँ ,जो उन्होंने इतना प्रभावी इंटरव्यू पढ़वाया.. बधाई!
रूप सिंह जी के बेबाकी से दिए उत्तर इस साक्षात्कार को पठनीय बनाते हैं।
जवाब देंहटाएंसाहित्य से जुड़े तमाम विषयों को समेटता यह साक्षात्कार सुधी पाठकों की जिज्ञासा शान्त करेगा,जिसके लिए अमित राणा जी बधाई के पात्र हैं।
साहित्य को साहित्य ही रहने दिया जाय तो सर्वोत्तम होगा , उसे खानों में बाँट कर देखना साहित्यिक गुटों के लिए शायद सुविधाजनक हो, पाठकॊ को इसकी कतई परवाह नहीं है। कटु सत्य यह है कि साहित्य पाठकों के बूते पर ही जीवित है। रूप सिंह जी पाठकों के साहित्यकार हैं इसीलिए अपनी बात इतने स्पष्ट तौर पर कह सकते हैं। उन्हें बधाई!
इला प्रसाद
एक सत्यवक्ता रचनाकार के साफ और सुलझे विचार "साहित्य शिल्पी " मँच द्वारा कई पाठकोँ तक पहुँचे हैँ - साक्षात्कार पसँद आया -
जवाब देंहटाएं- लावण्या
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