
दाढ़ी की शान में बट्टा लगा रहे हैं आतंकवादी। चेहरे पर दाढ़ी का होना आतंकवादी होने का पर्याय बन गया है। दाढ़ी के साथ मूँछ हो तो नवोदित आतंकवादी और सिर्फ दाढ़ी हो तो स्थापित आतंकवादी। दाढ़ी के विभिन्न आकार प्रकार उसकी कट्टरता और पशुता का सार्वजनिक प्रदर्शन करते प्रतीत होने लगे हैं। दाढ़ी दहशत देने लगी है।
दाढ़ी पहले चिंतन का प्रतीक हुआ करती थी। विचारक को यह ख्या़ल ही नहीं रहता था कि कब विचारमग्नता के कारण उसकी दाढ़ी बढ़ गई है क्योंकि अपने चेहरे की दाढ़ी का या तो आभास ही किया जा सकता है या फिर छूकर, सहलाकर उसका होना महसूसा जाता है। अपनी आँखों से अपनी दाढ़ी देखना इम्पॉसीबल है। हां, बुद्धिमान व्यक्ति आईने के जरिये यह कार्य संपन्न कर लेते हैं। पर सीधे अपनी दाढ़ी को देखना न तो संभव हुआ है और न ही हो सकेगा। जिस प्रकार किसी को अपने चारित्रिक दोष नजर नहीं आते, जबकि भरपूर होते हैं। उसी प्रकार दाढ़ी होते हुए भी नजर न आकर मुगालते के गुल खिलाती रहती है। दाढ़ी व्यक्तित्व को निखारती भी है और उजाड़ती भी है। ऐसे ऐसे शौकीन मौजूद हैं जो दाढ़ी का रखरखाव किसी पालतू जानवर से भी अधिक सावधानी और सतर्कता से करते हैं और उसको सलीके से रखते हैं।
लोग तो फिजूलखर्ची से बचने के लिए भी दाढ़ी नहीं कटवाते हैं कि क्यों इसे रोज कटवा कर खर्चे में वृद्धि करें। ऐसों की भी कमी नहीं हैं जो इसकी साज संभाल पर कटवाने से अधिक खर्च कर देते हैं। इतना तो तय है कि दाढ़ी वाले नायक बहुत कम पाये जाते हैं जबकि खलनायकत्व के लिए दाढ़ी एक अनिवार्यता बन चुकी है। क्षेत्रीय फिल्मों में इनके अपवाद भी हैं। नायिकाओं को भी बिना दाढ़ी मूंछ के नौजवान ही पसंद आते हैं।
दाढ़ी की जड़ें दाढ़ में नहीं होती हैं। चेहरे की त्वचा ही उपजाऊ होती है। इतनी पतली सी परत में बालों की बेशुमार खेती, गंजों के भी खूब होती है। सर से गंजे होते हैं पर गाल इतने अधिक उपजाऊ कि रोज ही कुतरनी पड़ती है। जो इसको रोज कुतरने से आलस करते हैं, उन आलसियों के नाम भी दाढ़ी की लंबाई के कारण गिन्नीज बुक आफ रिकार्ड में दर्ज मिलते हैं। दाढ़ी के कारनामों में दाढ़ी से बांधकर गाड़ी खींचना भी हैं। दाढ़ी जैसी काली रातें और उजले दिन भी मुहावरों में प्रयोग किये जा रहे हैं।
इस बारे में एक किए गए एक काल्पानिक शोध में यह रोचक खुलासा हुआ है कि साड़ी पहनने वालियों के दाढ़ी नहीं हुआ करती जबकि इनकी तुक आपस में खूब मिलती है। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि साड़ी नारी द्वारा पहनी जाती है और उसकी तुक अनाड़ी से भी मिलती है। अब अगर अनाड़ी दाढ़ी बनायेगा तो अपने गाल का खून ही बहायेगा। दाढ़ी बनाना भी एक कला है, अगर दाढ़ी बनाने में हाथ न सधा हुआ हो तो गला भी कट सकता है। अब अगर यह माँग उठने लगे तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिये कि दाढ़ी बनाने को भी कलाओं में शुमार किया जाये।
आपने नाईन तो खूब देखी होंगी पर वे भी दाढ़ी मूँढने का कार्य नहीं करती हैं और तो और फिल्मों में भी ऐसे दृश्य नहीं दिखलाई दिये हैं और न ही इस बारे में कल्प़ना के घोड़े दौड़ाये गये हैं क्योंकि इसमें अनहोनी की आशंका बलवती नजर आती है। नाईनों से भी वर-वधू के हल्दी, मेंहदी लगवाने या गीत गवाने के शगुन ही पूरे करवाये जाते रहे हैं।
शायद इसीलिए दाढ़ी मूँछे होना मर्दानगी की पहचान भी बन चुकी है। वैसे समाज में ऐसे नामर्दो की भी कमी नहीं है जो दाढ़ी मूँछ वाले हैं। मैं तो आतंकवादियों को भी नामर्द ही मानता हूं जो छिप-छिप बेकसूरों पर कायराना हमले करते हैं और अनलिमिटेड दाढ़ी मूंछों से अपने गालों को ढक कर रखते हैं, जिससे सभी एक जैसे ही लगें क्योंकि दिमाग तो सबके एक जैसे फितूर से ही सराबोर होते हैं। जैसी जिसकी पसंद वैसी ही दाढ़ी रखता है हर हुनरमंद।
वैसे मेरे पास सिर के गंजों के लिए एक नायाब नुस्खा है कि वे अपने गाल की त्वचा का प्रत्यांरोपण यदि अपने सिर पर करवायें तो अवश्य ही उनके सिर पर बालों की खेती खूब फलेगी फूलेगी। बस इसके लिए उन्हें किसी त्वचा-विशेषज्ञ से संपर्क करके अपने ख्यालों को अमली जामा पहनाना होगा। वैसे मैं सोच रहा हूं कि क्यों न इस नुस्खे का पेटेंट करवा लिया जाये। प्रसिद्ध चिकित्सक और ख्यातनाम व्यंग्यकार डॉ. ज्ञान चतुर्वेदी से मेरा आग्रह है कि इस परियोजना पर कार्य आरंभ करके सहयोग करें। वे दिल के डॉक्टर हैं तो क्या हुआ, आखिर सिर पर बालों का उगना भी दिल से ही संबंध रखता है और इस मिलीभगत से अवश्य ही हमारा नाम भविष्य के खरबपतियों में शुमार हो जायेगा। विश्व में बढ़ता गंजापन और उससे निदान के उत्सुकों तथा इस पर बेपनाह खर्च करने वालों की कोई कमी नहीं है। पर जैसा कि मान्यता है कि गंजापन धनोबल का प्रतीक है तो चतुर्वेदी जी को भी गंजेपन के लिए तैयार रहना होगा। वो बात दीगर है कि फिर अपने सिर पर गालत्वचारोपण के लिए हम तैयार रहें।
वैसे गालत्वचारोपण सिर पर न करवायें तो भी चलेगा क्योंकि जैसे चेहरे की दाढ़ी नजर नहीं आती उसी प्रकार सिर का गंजापन भी दिखाई नहीं देता है और इसका आभास भी सिर पर हथेली फेरकर ही किया जाता है। इस धंधे में अपार संभावनाओं के मद्देनजर अग्रिम बुकिंग करवाने के इच्छुकों को भारी छूट दिए जाने और दाढ़ी फ्री में स्क्रैच करवाने की सुविधा दी जाएगी।
16 टिप्पणियाँ
रोचक लगा आपका दाढी पुराण।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन व्यंग्य।
जवाब देंहटाएंठीक फ़रमाया रचना सागर जी ने। काफ़ी रोचक और मनोरंजक व्यंग्य है- “दहशतगर्दी में दाढ़ी का रोल” । गोया कि अभी अविनाश जी महाव्यस्त चल रहे हैं, फिर भी इतना अच्छा लिख रहे हैं! खाना खाने, यहाँ तक की पखाना जाने की फुर्सत उन्हें नहीं। बेचारे इफ्फी की विजिट पर गोवा ने उनके नाक़ में दम कर दिया है। तभी तो इतने उम्दा व्यंग्य का बिना वर्तनी सुधारे ही हड़बड़ा कर “सहित्य-शिल्पी” को भेज दिया। पर राजीव रंजन प्रसाद जी भी कम व्यस्त थोड़े हैं !! उन्होंने भी वर्तनी वगैरह में कोई सहयोग किये ही सीधे पोस्ट लगा दी। ख़ैर,मज़ाक कर रहा हूँ भाई जी,बुरा मत मानना। अविनाश जी तो वर्तनी पर इतने ध्यान देते हैं कि मै भी अपनी रचनायें उन्हें ठीक करने के लिये भेजता रहता हूँ। “सहित्यशिल्पी” में छपी मेरी कविता“ पहाड़ी लड़कियाँ” की वर्तनी अविनाश जी ने ही ठीक की थी।
जवाब देंहटाएंआलेख बहुत सुन्दर है,ऐसे व्यंग्यालेखों की एक पुस्तक उन्हें निकालने के लिये मैं बराबर उन्हें कह रहा हूं पर उनके कान पर जूँ नहीं रेंगती। कान ही खराब कर रखे हैं शायद !!!-
***सुशील कुमार ( बौत मूड हूं भाया।)
अविनाश जी कारारा व्यंग्य है, गोवा में क्या खा कर लिख रहे हैं, रेसेपी भेजियेगा :)
जवाब देंहटाएंसुशील जी एसे ही मूड में रहें तो बात बनें। हमारी खिंचाई होती रहनी चाहिये तभी हमारी सजगता रहेगी :)
***राजीव रंजन प्रसाद
दहश्तगर्दी सिर्फ़ पहले पैरा ग्राफ़ में ही थी... वाकी तो दाढी निकली अन्त तक :)
जवाब देंहटाएंअपने लिये तो डाढी मौसमी फ़सल है.. जब मन किया रख ली और जब मन भर गया... (अपना या देखने वालों का) कटवा दी.. कोई किसी से परमिशन थोडे ही चाहिये होती है इसके लिये...फ़िर कोई कुछ भी कहे... मेरी मर्जी..
'व्यंग्यधाम' से शुरू हुआ सफर 'हास्य जंक्शन'पे जा के कब खत्म हुआ...पता ही ना चला लेकिन सिर के बालों का बखान करते-करते दहशतगर्दों का किस्सा भी अचानक गायब हो गया...शायद अगले लेख में उस से फिर मुलाकात होगी....
जवाब देंहटाएंनिस्संदेह मजेदार।
जवाब देंहटाएंअब दाढी कटवानी ही पडेगी।
जवाब देंहटाएंmast hai ekdum....ab samajh aaya ki dadhi badhane par sab gussa kyu krte hain..!!
जवाब देंहटाएंNice satire.
जवाब देंहटाएंAlok Kataria
बापरे दाड़ी की अच्छी दहशतगर्दी मचाई है आपने, जब बच्चे थे तब भी डरते थे अब तो दाड़ी आतंक मचा रही है, वैसे आप कैसे-कैसे अजूबे टोपिक लाते है लिखने के लिये मानना पड़ेगा...
जवाब देंहटाएंअविनाश जी !
जवाब देंहटाएंवाह ...दाढी पर अच्छा व्यंग्य है..
दाढी पर अच्छा व्यंग्य है। बहुत बधाई।
जवाब देंहटाएंभाई बहुत खूब लिखा आपने ! अच्छा पकड़ा आपने दाढ़ी को।
जवाब देंहटाएंलेखन में बेहद निखार नजर आता है।
जवाब देंहटाएंशुभलक्षण है।
लिखिए और लिखिए
साथ में दिखिए और दिखिए
व्यंग्य की शुरूआत तो सही हुई थी, लेकिन आगे चलकर लेखनी भटक गई,ऎसा लगता है।
जवाब देंहटाएंदहशतगर्दी शब्द अगर शीर्षक में है, तो उस भाव को रचना में भी अच्छी तरह लाया जाना चाहिये था।
अगले व्यंग्य के इंतज़ार में-
विश्व दीपक ’तन्हा’
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