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प्यार को प्यार ही रहने दो ना यार... इसका मजमा क्यों बना रहे हो...? [वेलेंटाईन डे के प्रचलन पर एक विमर्श] - योगेश समदर्शी

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आज कल भारतीय संस्कृति के बचाने और उजाडने के सालाना जश्न का टाईम चल रहा है. एक तबका प्रत्येक वर्ष की भांति भारतीय संस्कृति को पाश्चात्य कीचड से गंदा करने की तरफ बढ रहा है और दूसरा तबका हाथ में डंडा, थप्पड, हवन कुंड और राखी लिये भारतीय संस्कृति को बचाने के लिये घूम रहे हैं. पार्कों में जो कुछ १४ फरवरी को होना है वह कोई उसी दिन किये जाने वाली बात तो रह नहीं गई है जनाब. आप चाहो तो कभी भी दिल्ली के पार्कों मे चक्कर काट कर आ जाओं वहां हमेशा ही चोंच लडाते जोडे देखे जा सकते है. तो कोई वैलेंटाईन डे को ही देश की इज्जत अचानक खतरे में पडने वाली हो ऐसा नहीं है. जो लोग प्यार और प्रेम की वकालत करते हुए इस सब को सही ठहराते हैं क्या वह यह बता सकते है कि इस दिन विशेष रूप से दुगने दामों पर खरीद कर दिये जाने वाले गुलाब क्या वास्तव में कोई असर दिखा पाये हैं. आंकडे बताते हैं कि ७० से अधिक फीसदी प्रेम असफल होते हैं... या तो लडका बींच में ही भाग जाता है या फिर उसका पहला प्यार रातों रात बदल जाता है. इतना ही प्रतिशत ऐसी लडक़ियों का भी है जो किसी न किसी रूप से प्यार का झांसा और सच्चे प्यार का वादा देकर ठगी जाती हैं. इस तरह बाली या कम उमर में अपनी अस्मत तक गंवा चुकी लडकियों का सच्चे और स्वच्छ जीवन में विश्वास कम हो जाता है. भारत सहित दुनिया में जिस अनुपात में परिवार नामक संस्था का ह्रास हो रहा है उसमें प्रेम और प्यार के नाम पर ठगा जाना भी एक महत्वपूर्ण कारण है.

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लेखक परिचय:-

योगेश समदर्शी का जन्म १ जुलाई १९७४ को हुआ।

बारहवी कक्षा की पढाई के बाद आजादी बचाओ आंदोलन में सक्रिय भागीदारी के कारण औपचारिक शिक्षा बींच में ही छोड दी. आपकी रचनायें अब तक कई समाचार पत्र और पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं।

आपकी पुस्तक “आई मुझको याद गाँव की” शीघ्र प्रकाशित होगी।

एक बार प्यार के चक्कर में पडने वाले लोग यदि ठगी का शिकार होते हैं तो वह दुबारा चाह कर भी अपना वैवाहिक जीवन मधुरता से बिताने में कठिनाई महसूस करते हैं. प्यार एक हसीन और दिवा स्वप्न है. मीठा फल भी इसे कहा जा सकता है. परंतु कोई कैसे इसे अपने स्वार्थ के लिये भुना रहा है इस बात का आकलन भी किया जाना चाहिये. प्यार कोई एक दिन में किये या निपटा लिये जाने वाल काम और खेल नहीं है. यह स्वत: उपजने वाली संवेद्ना है. प्यार एक पेड है जो जीवन के एक पडाव पर सब के दिल में अंकुरित होता है और धीरे धीरे सुध और समझ के साथ सींचे जाने पर पल्लवित भी होता है.. संस्कार की अमरबेल इसी प्यार के पेड पर चढती है. परंतु जिस तरह से समय से पहले तोडा गया फल कभी मीठा और पोष्टिक नहीं होता इसी तरह समय से पूर्व प्यार के नाम पर देह का शोषण और कामुकता वश किये जाने वाले व्यवहार भी सुंदर समाज को कोई लाभ नहीं पहुंचा सकते हैं. यहां इस बात से भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण बात यह है कि यदि बीज किसी भी प्रजाति का खराब होता है. तो वह फसल हो या जंतुओं की प्रजाति उसका विनाश निकट होता है. भारतीय संस्कृति की रक्षा का बीडा उठाने वाले डंडे धारी लोग अपने आप में कितने नैतिक और सुसंस्कृत हैं यह सवाल भी पहले उठाया जाना चाहिये. जो युवक खुद में नैतिक और चरित्रवान नहीं उसे किसी दूसरो को चरित्र का प्रमाण पत्र देने की आवश्यकता भी नहीं. भारतीय संसकृति की दुहाई देकर कोई यह भी न समझ ले कि यह संस्कृति किसी भी रूप में स्त्री पुरुषों के संबंध को नकारती है. सनातनी परंमपरा में शायद अनूठी बात है जो किसी अन्य धर्म और परंपरा मे शायद ही हो... शादी के फेरों के वक्त गुप्त ज्ञान की परंपरा यानि की जीवन मे काम का महत्व है. और उसका अपना अलग विज्ञान भी है. पर हर संस्कार की अपनी उचित आयु है, समय है...

सेक्स में संयम के महत्त्व को प्रमाणिक बनाने के बजाय बिंदास कंडोम बोलने की नई उत्तराधुनिक संस्कृति का निरवाह करने वाले समाज का एक बर्ग ऐसा है जो अपनी आयु के १८ वर्ष पूरा होने से पहले ही अपना कंवारा पन गंवा चुका होता है. अधिक और असंयत सेक्स जिन भयानक रोगों को उत्पन्न करता है उनसे बचने का सीधा सरल सा उपाय होना चाहिये कि ऐसी प्रवृति का विरोध होना चाहिये, ऐसे रास्ते पर चलना मनाही होना चाहिये, जिससे समाज एक असाध्य रोग से ग्रसित हो रहा है. पर संयम का सबक देने के बजाय हम बिंदास कंडोम की बात करते हैं और वह कंडोम भी साहब आलग अलग स्वाद और लज्जत में बाजार को सजाता है. पहले पहल सरकारी बजट से खरीदे जाने वाली यह निहायत आनाव्श्यक वस्तु अब उत्पादक कंपनियों द्वारा १० से २० रुपये तक की कीमत पर सरे आम खुले बाजार में बेची जा रही हैं. और करोडों रुपये की सरकारी खरीद भी जारी है. क्या यह स्वस्थ परंपरा हो सकती है. आप कहेंगे कि मैं अतिवादी हो रहा हूं प्रेम दिवस को सीधे तोर पर व्याभिचार दिवस कह रहा हूं. नहीं मैं ऐसा नहीं कहना चाहता पर मैं जो कहना चाहता हूं आप उसे मेरे जैसे सीधे सरल ह्र्दय बन कर समझें क्या यह तथ्य इस बनावटी और भुनाऊ प्रेम दिवस का हिस्सा नहीं है किसी भी मायने में?

जो लोग इस पाश्चात्य सभ्यता के प्रेम दिवस की तरफदारी करते हैं वह ईमानदारी से बताएं कि क्या वह वास्तव में इस दिन को दिल से मनाते है या कि एक रिवाज या फैशन की तरह. इस वर्ष जिसको फूल देंगे या चोंच लडाई करेंगे क्या पिछले वर्ष भी उसी के साथ थे. या साल गया और गाल गया, या साल नया और गाल नया का सिद्धांत अपनाएंगे. सवाल और भी कई हो सकते हैं और विरोध के तर्क भी परंतु प्रेम गलत तब हो जाता है जब उसमें समर्पण और त्याग खतम हो जाये. हममें एक दूसरे के लिये आजीवन जीने मरने की कसम खाने के आलावा प्रेम के रास्ते मे आने वाली परेशानियों और अपने द्वारा किये गये कमिटमेंट को निभाने की ताकत भी होनी चाहिये. जो लोग डंडे मारकर प्रेमियों को ठिकाने पर लाना चाह्ते है वह भी विचार करें कि क्या यह सही कदम होगा या कोई और समझपूर्ण रास्ता अपनाया जाना चाहिये.

पुरानी कहावत है कि जेल तो अभी सूखी नहीं चले मजनू बनने. यानि कि दसवी से नीचे की कक्षाओं मे पढ रहे बच्चे बच्चियां भी यदि वैलेंटाईन बाबा का जन्म दिन किसी पार्क में एंज्वाय करने लगे तों क्या यह किसी भी सभ्यता के लिये सही है. इस प्रेम पर्व का एक दूसरा पहलू भी है कि इस दिन की प्लानिंग किसी प्यार के भला चाहने वाले या लोगों को मन का प्रेमी दिलवाने के इच्छुक किसी देव ने नहीं की है वास्तव में इसका प्रचार हुआ है वस्तुओं की खपत के लिये. विशेष रूप से इस दिन के लिए बाजार और बाजार में सामान उप्लब्ध कराने वाली शक्तियां खासी मेहनत करती हैं. करोडों रुपये तो कार्ड के आदान प्रदान में खर्च हो जाते है. और बडे बडे रेस्टोरेंट भी अब इस दिन को भुनाने के लिये विशेष तैयारी करते है. यदि यह वास्तव में प्रेम दिवस ही है तो फिर आडंबर क्यों.. प्यार को प्यार ही रहने दो ना यार... इसका मजमा क्यों बना रहे हो...

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24 टिप्पणियाँ

  1. आपने तो सबकुछ लिख दिया...अब उसके आगे कुछ कहने की कोई आवश्यकता ही कहाँ बचती है.लगता है अक्षरशः अपने ही मन की बात पढ़ रही हूँ.......
    विचारणीय,सुंदर और सार्थक आलेख हेतु कोटिशः आभार.

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  2. बिना किसी तर्क का पक्ष लिये निष्पक्षता से आपने अपना पक्ष रखा है।

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  3. कहीं प्यार के लम्बरदार हैं कहीं समाज के ठेकेदार हैं, यकीन मानिये किसी को भी संस्कृति से कुछ लेना देना नहीं हैं।

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  4. मजमा ही है योगेश भाई। सटीक लेख है।

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  5. आलेख निश्चय ही सारगर्भित है.
    इस तेजी से बदलते युग में यह तय कर पाना बहुत मुश्किल हो गया है की लक्ष्मन-रेखा कहाँ हो?

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  6. बहुत बेहतरीन सधा हुआ आलेख योगेश भाई. आपसे ऐसे ही लेखन की उम्मीद है, बधाई.

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  7. प्‍यार के लिए एक दिन यानी वेलेंटाइन डे....इसका मतलब साल के बाकी 364 दिन नफरत या बगैर प्‍यार के साथ साथ...या अलग अलग। बेवकूफ हैं वे जो कहते हैं यह प्‍यार का दिन है। प्‍यार के नाम पर आज हम अपने आसपास जो खुले आम अश्‍लील हरकतें देख रहे हैं वह सभ्‍य समाज के लिए ठीक नहीं है। आप अपने छोटे छोटे बच्‍चों को पार्क में ले जाएं...या किसी सिनेमा हाल में या किसी समुद्र तट या कहीं भी घूमाने...सेक्‍स के निशाचर आपको हर कहीं मिल जाएंगे। बच्‍चों पर इनका असर तेजी से होता है। आप कुछ कह नहीं सकते बच्‍चों से। उनकी भी जिज्ञासाएं होती हैं और मन मस्तिषक पर गहरा प्रभाव पड़ता है। प्‍यार और सेक्‍स करना है तो निजी जगह पर करों...लेकिन जिस तरह हर जगह खुले आम अब यही हो रहा है उसे देखकर लगता है मानव और कुत्तों में कोई फर्क नहीं रहा जो गली के हर नुक्‍कड या चौराहें पर सहवास करते हुए दिख जाते हैं।

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  8. YOGESH JEE NE APNE VICHARON KO
    BADEE SUNDARTA SE PRASTUT KIYAA
    HAI.DARASL YE UNKE HEE VICHAAR
    NAHIN HAIN,DESH KEE ADHIKAANSH
    JANTAA KE VICHAAR HAI.

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  9. प्रमोद मुतालिक और गुलाबी चड्डी अभियान चला रही (Consortium of Pubgoing, Loose and Forward Women) निशा (०९८११८९३७३३), रत्ना (०९८९९४२२५१३), विवेक (०९८४५५९१७९८), नितिन (०९८८६०८१२९) और दिव्या (०९८४५५३५४०६) को नमन. जो श्री राम सेना की गुंडागर्दी के ख़िलाफ़ होने के नाम पर देश में वेलेंटाइन दिवस के पर्व को चड्डी दिवस में बदलने पर तूली हैं. अपनी चड्डी मुतालिक को पहनाकर वह क्या साबित करना चाहती है? अमनेसिया पब में जो श्री राम सेना ने किया वह क्षमा के काबिल नहीं है. लेकिन चड्डी वाले मामले में श्री राम सेना का बयान अधिक संतुलित नजर आता है कि 'जो महिलाएं चड्डी के साथ आएंगी उन्हें हम साडी भेंट करेंगे.'
    तो निशा-रत्ना-विवेक-नितिन-दिव्या अपनी-अपनी चड्डी देकर मुतालिक की साडी ले सकते हैं. खैर इस आन्दोलन के समर्थकों को एक बार अवश्य सोचना चाहिए कि इससे मीडिया-मुतालिक-पब और चड्डी क्वीन बनी निशा सूसन को फायदा होने वाला है. आम आदमी को इसका क्या लाभ? मीडिया को टी आर पी मिल रही है. मुतालिक का गली छाप श्री राम सेना आज मीडिया और चड्डी वालियों की कृपा से अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त सेना बन चुकी है. अब इस नाम की बदौलत उनके दूसरे धंधे खूब चमकेंगे और हो सकता है- इस (अ) लोकप्रियता की वजह से कल वह आम सभा चुनाव में चुन भी लिया जाए. चड्डी वालियों को समझना चाहिए की वह नाम कमाने के चक्कर में इस अभियान से मुतालिक का नुक्सान नहीं फायदा कर रहीं हैं. लेकिन इस अभियान से सबसे अधिक फायदा पब को होने वाला है. देखिएगा इस बार बेवकूफों की जमात भेड चाल में शामिल होकर सिर्फ़ अपनी मर्दानगी साबित कराने के लिए पब जाएगी. हो सकता है पब कल्चर का जन-जन से परिचय कराने वाले भाई प्रमोद मुतालिक को अंदरखाने से पब वालों की तरफ़ से ही एक मोटी रकम मिल जाए तो बड़े आश्चर्य की बात नहीं होगी. भैया चड्डी वाली हों या चड्डे वाले सभी इस अभियान में अपना-अपना लाभ देख रहे हैं। बेवकूफ बन रही है सिर्फ़ इस देश की आम जनता.

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  10. सटीक सारगर्भित और बहूत कुछ सोचने समझने पर मजबुर करता है आपका लेख... सुंदर

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  11. मजमा बनाने वालों को खूब लपेटा है आपनें।

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  12. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  13. ऐसा लग रहा है जैसे कि ये लेख मै लिख रहा हूँ
    बहुत खूब लिखा है आपने.....!

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  14. बाजारवाद के इस दौर में लगभग हर चीज का बाजारीकरण हो चुका है। प्रेम भी इसी प्रवृति का शिकार हुआ है।
    प्रेम के नाम पर अश्लीलता और ओछेपन का प्रदर्शन कभी भी सही नहीं माना जा सकता।

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  15. मैं आपके विचारों का समर्थन करता हूँ |
    मैं इसके विरोध में नहीं हूँ लेकिन इसे जिस तरह से मनाया जाता है उसके पीछे के मन:स्थिति का विरोध करता हूँ |

    काम - वासना ( सेक्स ) नियंत्रित होना चाहिए नहीं तो नाश ही होगा |

    वैसे - बसंत में प्रेम करना वो भी धर्म के अनुसार ऐसा हमारे यहाँ तो प्राचीन काल से होता आ रहा है , यह वेलेंतैने डे तो अब पैदा हुया है |

    जो मित्र वलेंतैने दे मानते है उनसे अनुरोध है कि - बसंत के इन दिनों में बचंत पंचमी भी मनाये | इसे सब भूल रहे है |
    सही तरीके से प्रेम करने वालों को शुभकामनाएं |



    लेख के लिए धन्यवाद |
    -- अवनीश तिवारी

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  16. विरोधियों को और हिमायतियों को एक समान दृष्टि से देखने के लिए योगेश समदर्शी जी को बहुत-बहुत बधाई...

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  17. aapne itna kuch likh diya aur har baat satya

    bhaut achhe se rakha hai aapne paksh
    vichra bahut achhe lage padhna aur
    sahamat hoon

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  18. किसी भी वस्तु का राजनीतिकरण या व्यवसायिकरण होने पर उसका मूल रूप बदल ही जाता है. यदि आजकल प्यार के साथ हो रहा है..
    आपके लेख का शीर्षक पढ कर फ़िल्म खामोशी का गीत याद आ गया...
    "हमने देखी हैं इन आंखों की महकती खुशबू.. प्यार से छू के इसे रिश्तों का इल्जाम न दो,
    सिर्फ़ अहसास है, रुह से इसे महसूस करो, प्यार को प्यार ही रहने दो और कोई नाम न दो"

    सार्थक विचारणीय लेख के लिये आभार

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  19. bahut hi achchha ewam sandeshatmak lekh likha hai aapne
    sachmuch adbhut

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