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धन धर्म और धंधा : धांसू हो गए हैं सब [व्यंग्य] - अविनाश वाचस्‍पति

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धन धर्म और धंधा तीनों तो परस्‍पर विरोधी नहीं हैं जैसे धन और धंधा तो एक दूसरे के पूरक हैं। धर्म और धन विरोधी प्रवृत्ति के हैं। धर्म और धंधा के गुण बिल्‍कुट उलट ही समझे जाते हैं। गौर कीजिएगा, समझे जाते हैं, इसे समझाये जाते कहना भी समीचीन जान पड़ता है। धर्म भीरू इंसान के मन में यह बात प्रबल रूप से तहें जमा जमा कर जमा दी गई है कि उसे लगता है धर्म और धन का तो बैर है। पर असलियत में ऐसा है नहीं। हालिया हालात यह दिखाई दे रहे हैं कि धन, धर्म और धंधा तीनों एक दूसरे तीसरे के घनघोर पूरक हो गए हैं।

आप जिधर भी नजरें इनायत फरमाएंगे चहुं दिशि बल्कि छहुं दिशि (आकाश भूमि को भी दिशा स्‍वीकारने पर) यही पाएंगे। यह मैं आपको भरमा नहीं रहा हूं बल्कि आपके भ्रम को बाहर भर कर रहा हूं। आप अपने भौतिक चक्षु खूब अच्‍छी तरह से चौड़ा लें तो असलियत का इशारा भर ही काफी होगा। एक नहीं अनेक बाबाओं का धंधा उन्‍नति पर है। पत्रिकाओं से लेकर दवाईयों तक का कितना बाजार तो इसी से फूल फूल कर फल रहा है। पर फल सिर्फ बाबाओं की तिजोरी की ओर बढ़ रहा है। उस फलरूपी धन का स्‍वाद सिर्फ वे ही ले पा रहे हैं।

रचनाकार परिचय:-


अविनाश वाचस्पति का जन्म 14 दिसंबर 1958 को हुआ। आप दिल्ली विश्वविद्यालय से कला स्नातक हैं। आप सभी साहित्यिक विधाओं में समान रूप से लेखन कर रहे हैं। आपके व्यंग्य, कविता एवं फ़िल्म पत्रकारिता विषयक आलेख प्रमुखता से पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं। आपने हरियाणवी फ़ीचर फ़िल्मों 'गुलाबो', 'छोटी साली' और 'ज़र, जोरू और ज़मीन' में प्रचार और जन-संपर्क तथा नेत्रदान पर बनी हिंदी टेली फ़िल्म 'ज्योति संकल्प' में सहायक निर्देशक के तौर पर भी कार्य किया है। वर्तमान में आप फ़िल्म समारोह निदेशालय, सूचना और प्रसारण मंत्रालय, नई दिल्ली से संबद्ध हैं।

धंधा धन की प्राप्ति के लिए किया जाता है। धंधे में जायज नाजायज वे देखते हैं जो महाईमानदार कहे जाते हैं पर होते कितने हैं या महाबेईमान होते हैं या सिर्फ इतना जतलाना भर चाहते हैं जिससे धनप्राप्ति के धंधे में धड़ल्‍ले से मशगूल रह सकें, इस बारे में व्‍यापक संधान की जरूरत है। जानते सब हैं बस आंकड़े एक जगह पर नहीं हैं, मौजूद हैं पर सब जगह बिखरे हुए हैं।

एक झलक पेश करता हूं जिसे एक चैनल ने भरपूर दिखाया था। अपनी शैली में कहूं तो भुनाया था। इससे कृपालु जी पर कृपा की बरसात हुई और चैनल की टीआरपी चांद को छोड़ सूरज की ओर बढ़ी। बाबाओं की भीड़ में एक बाबा इतने श्रद्धेय बतलाए गए हैं कि उनके चरण स्‍पर्श के लिए एक लाख रुपये चढ़ाने पड़ते हैं वो बात अलग है कि इस प्रक्रिया में कृपा किस पर कितनी और कैसी होती है। बाबा जी का मंदिर वृंदावन में निर्माण की प्रक्रिया में है। इनके उपर 50 करोड़ रुपये से अधिक की करचोरी का मामला दर्ज हुआ है। जरूर बाबा जी के कारिन्‍दों से फर्ज निबाही में कुछ चूक हो गई होगी, नहीं तो न तो चैनल वाले और न कर वाले ऐसा अचूक कर पाते ... न कोई आकार ग्रहण कर पाते, निराकार ही रहते, चाहे कार में सवार भीड़ भरी लबालब सड़कों पर बहते। गर दिल करता खाली स्‍पेस में विचरने का तो हो जाते वायुयान पर सवार और वायु में स्विमिंग करते मदमस्‍त रहते।

जबकि असली स्विमिंग तो अंधे श्रद्धालु कर रहे हैं। बाबा जी के पैर धन धूसरित हो रहे हैं। माफ कीजिएगा, इन्‍हें पैर तो कहा ही नहीं जा सकता, पैर तो हमारे आपके हुए, इनके तो चरण हुए जो आर्थिक मंदी के इस भयानक और दीर्घतम दौर में कंपनियों से भी अधिक द्रुत गति से रज, चरण रज, जो कि पैरों की मिट्टी है, के एक एक कण को एक एक लाख में कन्‍वर्ट करने का कारक बन रहे हैं। राष्‍ट्रों की बढ़ती आर्थिक मंदी को बाबाओं की चरण रज की बदौलत दौलतमंद (तेज) किया जा सकता है, मंद तो पहले से ही है। उसी से तो छुटकारा पाना है। कर विभाग तो लाभिया रहा है, 50 करोड़ से अधिक करचोरी का मामला बनाया है, तो उसे कम करने में सहायक कितने ही तर जाएंगे, कितने ही तरबतर हो जाएंगे फिर भी तीस चालीस करोड़ तो सरकार के खजाने में पहुंचेंगे ही।

जिस घटना के प्रसारण से चैनल की टीआरपी के नलों में बहते द्रव्‍य में खूब तरलता आ गई है। उससे न जाने कितने टनाटन हो जाएंगे, टनकदार बन कर छाएंगे। बाबाजी से पूछा गया तो वे सफाई दे सकते हैं कि काले का जमाना है, कारगुजारियों का समाज दीवाना है, अमेरिका में काले का रौब है, पर यह काला ऐसा काला नहीं है, जो देखने में बाधक हो, यह काला तो बुराईयों पर ग्रहण सरीखा है, आतंकवाद घबरा रहा है, चिल्‍ला रहा है पाक। वैसे भी कन्‍हैया जी भी कारे थे, माखन की चोरी से मशहूर हो गए, या कन्‍हैया के चोरी करने से माखन मशहूर हो गया। उस मशहूरियत को अमूल मूल धन में बदलने में लगा हुआ है। लगे तो अब और भी बहुत सारे हैं, पर अमूल के वारे न्‍यारे हैं।

बाबाजी सफाई दे सकते हैं, पर देंगे नहीं, कि मैं अपने इस स्‍वरूप में अब घर घर माखन की चोरी करने तो जाने से रहा, और वहां मक्‍खन मिलेगा भी नहीं। मक्‍खन अब धन है, बिना चुराए जब कुछेक चरणरजकण लेने की अनुमति देने भर से लखटकिया हुआ जा सकता है तो इसमें कैसा जुर्म, समझिए मर्म, मर्म समझना ही है धर्म। इसे मत कहिए काला कर्म, यह तो कृष्‍ण कर्म हुआ। कृष्‍ण भगवान हैं तो इस नाते चौर्य कर्म भी तो भगवदकर्म हुआ वैसे इसमें चोरी कहीं नहीं है। यह तो धंधा है जिसका दीवाना बंदा है।

तो इस झलक को देखने के लक से आप वंचित तो नहीं रहे हैं। रह गए होंगे तो बेलकी तो चैनल वाले भी रहे, उनकी टीआरपी और भी अधिक बढ़ती पर अगर सारी चैनल की बढ़ जाती तो इस साइट और इस व्‍यंग्‍य की टीआरपी का क्‍या होता? इसलिए जो भी होता है अच्‍छे के लिए और अच्‍छा ही होता है। आपका लक मेरे लक के साथ मिल कर साहित्‍य शिल्‍पी का लक चमका रहा है। चमकना ठीक है, चौंधियाना नहीं। चैनल वाले चौंधियाते हैं पर साहित्‍य शिल्‍पी वाले चमकाते हैं। रचनाओं की असली सूरत भी यही दिखलाते हैं। तभी तो आप भी यहां बार बार आते हैं। आपका आना लक है, यही तो असली झलक है। गुडलक।

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12 टिप्पणियाँ

  1. इस बार अविनाश बाबू की कृपा दृष्टि पड़ने से बाबाओं की शामत आई है

    अच्छा व्यंग्य

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  2. आज धर्म सबसे सफल कारोबार है..
    जो कर गया वो तर गया..
    प्यार ही नहीं श्रद्धा भी अंधी होती है..
    तभी तो घर की माया बाहर ढोती है...

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  3. बात तो सही है लेकिन व्यंग्य नहीं है।

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  4. हलके-फुलके अन्दाज़ में गम्भीर कथ्य।
    बधाई।

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  5. दृष्टिकोण जी

    कोण बदलिए तो दिखेगा

    उपर शीर्षक के साथ

    ब्रेकिट में बंद हूं मैं

    - व्‍यंग्‍य।

    हुई मुलाकात।

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  6. एक झलक पेश करता हूं जिसे एक चैनल ने भरपूर दिखाया था। अपनी शैली में कहूं तो भुनाया था। इससे कृपालु जी पर कृपा की बरसात हुई और चैनल की टीआरपी चांद को छोड़ सूरज की ओर बढ़ी। बाबाओं की भीड़ में एक बाबा इतने श्रद्धेय बतलाए गए हैं कि उनके चरण स्‍पर्श के लिए एक लाख रुपये चढ़ाने पड़ते हैं वो बात अलग है कि इस प्रक्रिया में कृपा किस पर कितनी और कैसी होती है। बाबा जी का मंदिर वृंदावन में निर्माण की प्रक्रिया में है। इनके उपर 50 करोड़ रुपये से अधिक की करचोरी का मामला दर्ज हुआ है। जरूर बाबा जी के कारिन्‍दों से फर्ज निबाही में कुछ चूक हो गई होगी, नहीं तो न तो चैनल वाले और न कर वाले ऐसा अचूक कर पाते ...

    अच्छा है अविनाश जी।

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  7. बहुत खूब लिखा भाई अविनाश जी
    ऐसी ही रहती है हमको तुमसे आश जी
    देते रहें अपने व्यंग्यों में कुछ हटकर नया
    जो हो अनूठा और खासमखास जी !!

    बधाई !

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  8. बस इसी धंदे को रिसेशन के नज़र नहीं लगी है... अपना लिया जाए तो फायेदेमंद ही रहेगा :)

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