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प्रेमचंद: एक परिचय - [आलेख] अभिषेक सागर


उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद का जन्म लमही के डाकमुंशी धनपत राय श्रीवास्तव तथा आनन्दी देवी के घर 31 जुलाई 1880 को हुआ। उन्हें मुंशी प्रेमचंद, नवाब राय व धनपत राय नाम से भी जाना जाता है। मुंशी प्रेमचंद नाम से उन्हें सर्वप्रथम बंगाल के विख्यात उपन्यासकार शरतचंद्र चट्टोपाध्याय ने संबोधित किया था। पाँच साल की उम्र से आपकी पढाई उर्दू, फारसी से शुरू हुई। आठ साल की उम्र मे माँ की मृत्यु होने के बाद पिता ने दूसरी शादी की पर उन्हे माँ का प्यार कभी मिल न सका। उस समय वे पिता के साथ जमीनपुर मे थे। तेरह साल की उम्र मे पिता का तबादला गोरखपुर हो जाने के बाद गोरखपुर के मिशन हाई स्कूल मे छठे क्लास मे गये। वहाँ से उन्हे पिता के साथ तबादला होने पर जमनिया जाना पडा। पन्द्रह साल की उम्र मे वे बनारस आ गये जब वे नवीं कक्षा मे पढते थे। विवाह बस्ती ज़िले के मेंहदावह तहसील के रामपुर गाँव के ज़मींदार घर मे हुआ जो सफल न हो सका। पिता की मृत्यु होने के बाद वे चुनारगढ के स्कूल मे 18 रूपये प्रतिमाह पर शिक्षक हो गये। उन्ही दिनों इलाहाबाद में आकर प्रेमचंद नें ‘कृष्णा’ नामक छोटा सा उपन्यास लिखा और इंडियन प्रेस मे छपवाया।


रचनाकार परिचय:-


अभिषेक सागर का जन्म 26.11.1978 को हुआ। अपनी साहित्यिक अभिरुचि तथा अध्ययन शील प्रवृत्ति के कारन आप लेखन से जुडे।

आप साहित्य शिल्पी के संचालक सदस्यों में हैं।

1904 मे प्रेमचंद कानपूर आ गये। 1905 मे विधवा विवाह का समर्थन करते हुए दूसरा विवाह प्रेमचंद नें प्रगतिशील परंपरा के अनुरूप बाल विधवा शिवरानी देवी से किया। उनकी तीन संताने हुईं- श्रीपत राय, अमृतराय और कमला देवी श्रीवास्तव। उन्ही दिनों वे सब-डिप्टी इंस्पेक्टर हो गये। कुछ दिनो कानपुर रहने के बाद प्रेमचंद महोबा आ गये। 1905 तक इनका दूसरा उपन्यास ‘प्रेमा’ निकला जिसका आगे नाम ‘विभव’ हुआ। अपूर्ण उपन्यास असरारे मआबिद के बाद देशभक्ति से परिपूर्ण कथाओं का संग्रह सोज़े-वतन उनकी दूसरी कृति थी, जो 1908 में प्रकाशित हुई। ‘सोजे वतन’ (राष्ट्र का विलाप) के लिए हमीरपुर के जिला कलेक्टर ने तलब किया और उनपर भड़काने का आरोप लगाया। सोजे-वतन की सभी प्रतियां जब्त कर नष्ट कर दी गई। कलेक्टर ने नवाबराय को हिदायत दी कि अब वे कुछ भी नहीं लिखेंगे, यदि लिखा तो जेल भेज दिया जाएगा। इस समय तक प्रेमचंद, धनपत राय नाम से लिखते थे। उर्दू में प्रकाशित होने वाली ज़माना पत्रिका के सम्पादक मुंशी दयानारायण निगम ने उन्हें प्रेमचंद नाम से लिखने की सलाह दी 1913 से प्रेमचंद नें हिन्दी में कहानी लिखना शुरू किया। इन्ही दिनों इनकी दूसरी पत्नी शिवरानी देवी की पहली कहानी ‘साहस’ चाँद मे छपी। 1914 मे प्रेमचंद बस्ती चले आये और यही से प्राइवेट एफ. ए. भी पास किया। पर यहाँ तबियत बराबर खराब रहने के कारण फिर गोरखपुर आ गये। यही पर 1918 मे बी. ए. पास की और एम.ए. की तैयारी शुरू कर दी थी। 1920 में जब गाँधी जी गोरखपुर आये तो गाँधी जी के भाषण से आप बहुत प्रभावित हुए। आपका कहना था कि साहित्यकार देशभक्ति और राजनीति के पीछे चलने वाली सच्चाई नहीं बल्कि उसके आगे मशाल दिखाती हुई चलने वाली सच्चाई है। यह बात उनके साहित्य में उजागर हुई है।

इसी बीच जलियाँवाला बाग की घटना हुई और आपने अपनी पत्नी से सलाह कर नौकरी छोड दी और महावीर प्रसाद पोद्दार के घर गये और वही रहकर उनके साथ शहर मे चर्खे की दूकान साझे मे खोली। इसके बाद गणेशशंकर विद्यार्थी के मित्र श्री काशीनाथ जो मारवाड़ी स्कूल के मैनेजर थे के कहने पर वहा हेडमास्टर की नौकरी कर ली और कानपूर आ गये। वहीं पर ‘जमाना’ पत्रिका के सम्पादक मुंशी दयानारायण निगम से उसकी मित्रता हुई और पहली कहानी "बड़े घर की बेटी" ज़माना पत्रिका के दिसंबर 1910 के अंक में प्रकाशित हुई जो धारावाहिक रूप मे छपी। प्रेमचंद की पहली हिन्दी कहानी सरस्वती पत्रिका के दिसंबर अंक में 1915 में सौत नाम से प्रकाशित हुई और 1936 में अंतिम कहानी कफन नाम से।

प्रेमचंद ने हिंदी में यथार्थवाद की शुरूआत की। आपनें काशी के ‘मर्यादा’ नामक पत्रिका के सम्पादक बाबू सम्पूर्णानन्द के कहने पर स्कूल की नौकरी छोड़ मर्यादा के सम्पादक बन काशी आ गये। बाद मे माधूरी पत्रिका के भी सम्पादक रहे। डेढ़ साल सम्पादक रहने के बाद ‘विद्यापीठ’ मे हेडमास्टर बन गये। साथ ही साथ प्रेमचंद नें सरस्वती प्रेस शुरू की। 1922 मे मुंशी दयानन्द निगम के प्रयत्न से आपनें ‘हिन्दुस्तान एकेडेमी’ संस्था खुलवाया। प्रेमचंद लेखकों के लिए सचिंत रहते थे। आपने सत्यजीत वर्मा के सहयोग से ‘लेखक संघ’ नाम की संस्था खोली। जिसपर बाद मे 1935 मे ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ की स्थापना हुई। जिसके सभापति भी आप ही थे। प्रगतिशील लेखक संघ के पहले सम्मेलन की अध्यक्षता करते हुए उन्होंने कहा कि लेखक स्वभाव से प्रगतिशील होता है और जो ऐसा नहीं है वह लेखक नहीं है। प्रेमचंद हिन्दी साहित्य के युग प्रवर्तक हैं। उन्होंने हिन्दी कहानी में आदर्शोन्मुख यथार्थवाद की एक नई परंपरी शुरू की।

1924 मे जब रंगभूमि छप रही थी तभी अलवर के राजा ने, जो उपन्यास और कहानियों के शौकीन थे आपको अपने प्राइवेट सेकेटरी के कार्य के लिए आमंत्रण दिया जिसे आपने ठुकरा दिया। 1926 मे प्रेमचंद और कृष्णबिहारी मिश्र माधूरी का सम्पादन करते थे जिसमे आपने मोटेराम शास्त्री नाम की कहानी लिखी जिसपर एक शास्त्री जी ने केस किया जिसके लिए आप दोनो ने 500-500 रू जमानत दी और बाद मे केस से बरी हो गये।

प्रेमचंद इतने साधारण रहते थे कि जब 1928 मे कालाकांकर के राजा अवधेश सिह आये तो उन्हे अपने साथ जमीन पर ही बैठाया जिसपर गुस्सा होकर आपकी पत्नी ने बाद मे कई फर्नीचर भी मगाये पर आप इसका इस्तेमाल नही करते थे। 1928 मे ही प्रयाग मे जब हिन्दुस्तानी एकेडेमी की मीटिंग ठीक उसी समय महात्मा गाँधी प्रयाग आने वाले थे। प्रेमचंद तब तक महात्मा गाँधी जी से नही मिले थे। परंतु बहुत प्रयास के बाद भी वह वहाँ पर भी नहीं मिल पाये 1935 मे हिन्दी परिषद की मीटिग के समय महात्मा गाँधी ने जब खुद उन्हें बुलाया तब दोनों महान विभूतियों की मुलाकात संभव हुई। 1928 मे प्रेमचंद नें अपनी बेटी की शादी वासुदेव प्रसाद से की। 1929 मे जब हेली गवर्नर होकर आये तो वे प्रेमचंद को रायसाहबी देना चाहते थे पर उन्होने मना कर दिया। 1930 में बनारस से अपना मासिक पत्र हंस शुरू किया और 1932 के आरंभ में जागरण नामक एक साप्ताहिक और निकाला। परंतु वे हमेशा धनाभाव से ग्रस्त रहे। इनके अनुसार सभी प्रांतिय भाषा एक माला की तरह गुथी रहे इसलिए इन्होने साहित्य परिषद को हंस दिया जो बाद मे इनके जीवनकाल मे ही साहित्य परिषद ने बंद करवा दी तो प्रेमचंद ने पुन: खुद जमानत देकर हंस को दुबारा शुरू कराया। 1930 के नमक कानून तोडो आन्दोलन में जमकर अपनी पत्नी के साथ हिस्सा लिया। 1931 के ‘सी क्लास’ आन्दोलन में भी उनकी पत्नी की महत्वपूर्ण भूमिका रही। फरवरी 1933 मे प्रेस हडताल में इन्हे बहुत दुख हुआ। 1934 मे बम्बई मं उन्होंने मोहन दयाराम भवनानी की अजंता सिनेटोन कंपनी में कहानी-लेखक की नौकरी भी की। जहाँ पर बाद मे उनकी पत्नी भी अपने दोनो बच्चों का नाम कायस्थ स्कूल, इलहाबाद मे कराकर उन्हे बोर्डिग हाउस मे रख गयी। 1934 में प्रदर्शित मजदूर नामक फिल्म की कथा लिखी और कंट्रेक्ट की साल भर की अवधि पूरी किये बिना ही दो महीने का वेतन छोड़कर बनारस भाग आये क्योंकि बंबई (आधुनिक मुंबई) का और उससे भी ज़्यादा वहाँ की फिल्मी दुनिया का हवा-पानी उन्हें रास नहीं आया। 1935 मे जैनेन्द्र कुमार की माँ की मृत्यु का सदमा पूरी जिन्दगी इन्होने ढोया। 16 जून 1936 तक इनकी तबियत फिर खराब हो गयी। अगस्त 1936 को गोर्की की मौत का पुन: सदमा लगा तब तक उनकी तबियत काफी खराब हो गयी थी। अपने अंतिम दिनो मे एक बार इन्होने कहा, “शिव प्रसाद गुप्त ने एक मातृ मंदिर बनवाया है, जिसका महात्मा जी उद्घाटन करेंगे। मै भी जाऊँगा।“ पर उनकी यह इच्छा इच्छा ही रह गयी और हिन्दी साहित्य जगत के साथ साथ इस दुनिया को छोड 8 अक्टूबर 1936 को वे भगवान को प्यारे हो गये।

उन्हें अपने जीवन काल में ही ‘उपन्यास सम्राट’ की पदवी मिल गयी थी। उन्होंने कुल 15 उपन्यास, 300 से कुछ अधिक कहानियाँ, 3 नाटक, 10 अनुवाद, 7 बाल पुस्तकें तथा हजारों पृष्ठों के लेख, सम्पादकीय, भाषण, भूमिका, पत्र आदि की रचना की लेकिन जो यश और प्रतिष्ठा उन्हें उपन्यास और कहानियों से प्राप्त हुई, वह अन्य विधाओं से प्राप्त न हो सकी। यह स्थिति हिन्दी और उर्दू भाषा दोनों में समान रूप से दिखायी देती है। उन्होंने ‘रंगभूमि’ तक के सभी उपन्यास पहले उर्दू भाषा में लिखे थे और कायाकल्प से लेकर अपूर्ण उपन्यास ‘मंगलसूत्र’ तक सभी उपन्यास मूलतः हिन्दी में लिखे। प्रेमचन्द कथा-साहित्य में उनके उपन्याकार का आरम्भ पहले होता है। उनका पहला उर्दू उपन्यास अपूर्ण ‘असरारे मआबिद उर्फ़ देवस्थान रहस्य’ उर्दू साप्ताहिक ‘'आवाज-ए-खल्क़'’ में 8 अक्टूबर 1903 से 1 फरवरी 1905 तक धारावाहिक रूप में प्रकाशित हुआ। उनकी पहली उर्दू कहानी दुनिया का सबसे अनमोल रतन कानपुर से प्रकाशित होने वाली ज़माना नामक पत्रिका में 1908 में छपी। उनके कुल 15 उपन्यास है, जिनमें 2 अपूर्ण है। बाद में इन्हें अनूदित या रूपान्तरित किया गया। प्रेम चन्द की मृत्यु के बाद भी उनकी कहानियों के कई सम्पादित संस्करण निकले जिनमें कफन और शेष रचनाएँ 1937 में तथा नारी जीवन की कहानियाँ 1938 में बनारस से प्रकाशित हुए। इसके बाद प्रेमचंद की ऐतिहासिक कहानियाँ तथा प्रेमचंद की प्रेम संबंधी कहानियाँ भी काफी लोकप्रिय साबित हुईं।। वे सांप्रदायिकता, भ्रष्टाचार, जमींदारी, कर्जखोरी, गरीबी, उपनिवेशवाद पर आजीवन लिखते रहे। प्रेमचन्द की ज्यादातर रचनाएं उनकी ही गरीबी और दैन्यता की कहानी कहती है। ये भी गलत नहीं है कि वे आम भारतीय के रचनाकार थे। प्रेमचंद हिन्दी सिनेमा के सबसे अधिक लोकप्रिय साहित्यकारों में से हैं। सत्यजित राय ने उनकी दो कहानियों पर यादगार फ़िल्में बनाईं। 1977 में शतरंज के खिलाड़ी और 1981 में सद्गति। उनके देहांत के दो वर्षों बाद के सुब्रमण्यम ने 1938 में सेवासदन उपन्यास पर फ़िल्म बनाई जिसमें सुब्बालक्ष्मी ने मुख्य भूमिका निभाई थी।1977 में मृणाल सेन ने प्रेमचंद की कहानी कफ़न पर आधारित ओका ऊरी कथा नाम से एक तेलुगू फ़िल्म बनाई जिसको सर्वश्रेष्ठ तेलुगू फ़िल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला। 1963 में गोदान और 1966 में गबन उपन्यास पर लोकप्रिय फ़िल्में बनीं। 1980 में उनके उपन्यास पर बना टीवी धारावाहिक निर्मला भी बहुत लोकप्रिय हुआ था।

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7 टिप्पणियाँ

  1. Nice and complete article.

    Alok Kataria

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  2. जीवन पर शोधपरक प्रकाश डाला गया है। धन्यवाद अभिषेक जी।

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  3. जानकारी का धन्यवाद। प्रेमचंद कथा-साहित्य का एक पूरा युग थे।

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  4. aaj ki badalti /bhagti sahitya ki duniyan men aapki patrika ek misal-aur mashal hai.dhanyavad

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