
विद्वानों का मानना है कि प्रार्थनाएं करते रहना चाहिए। विद्वानों का यह भी मानना है कि ऊपर वाला सबकी सुनता है। मेरी मां भी यही कहा करती थी। बचपन में इस पर मैंने आपत्ति यह की-कि ऊपर वाला सबकी क्यों सुनता है। ऊपर वाला पुलिस वाले की भी सुनता है, और चोर की भी। ऊपर वाला किडनैप्ड की सुनता है, और किडनैपर की भी। तो फिर ऊपर वाले को सुनाने का क्या फायदा। इस तरह के तर्कों का जवाब मेरी मां पांच-सात चांटों के साथ दिया करती थी। मैं गांधीजी का अहिंसावाद समझाने की कोशिश करता था, तो चार-छह और पड़ जाते थे। मैं गांधीवाद का यह आयाम तब ही समझ गया था कि गांधीगिरी करने के लिए बंदे का संजय दत्त टाइप टाइप टपोरी होना या बहुत तगड़ा होना बहुत जरुरी है। हर ऐरा-गैरा बंदा गांधीगिरी अफोर्ड नहीं कर सकता।
खैर जिस स्कूल में मुझे डाला गया वहां प्रार्थना थी-ऐसी शक्ति हमें देना दाता, मन का विश्वास कमजोर हो ना.........। प्रार्थना करते हुए तीन दिन बीते ही थे कि तीन लड़कों ने प्लान बनाया कि गुरुजी के पर्स से दस का नोट पार करके सिगरेट पी जायेगी। हमने यही प्रार्थना करते हुए ही चोरी के लिए प्रयाण किया-मन का विश्वास कमजोर हो ना। गुरुजी का पर्स उनके झोले में था, झोला टेबल पर था। सब बाहर थे, तीनों ने मुझे ही चुना गुरुजी का झोला खखोलने के लिए। वाया झोला,मैं पर्स तक पहुंचा ही था कि मेरे हाथ कांपने लगे,मन का विश्वास कमजोर होने लगा। पसीना आने लगा। जरा से काम में बहुत देर लगने लगी, तब तक गुरुजी आ गये। बहुत पिटाई हुई। स्कूल से निकाल दिया गया।
मुझे इस प्रार्थना की व्यर्थता समझ में आ गयी कि तीन दिनों तक प्रार्थना करने के बाद भी जरा से काम में मन का विश्वास कमजोर हो गया। मन का विश्वास कमजोर था, इसलिए सिर्फ लेखक बन गया। वरना तो स्मगलर, से लेकर नेता तक कुछ भी बन सकता था।
खैर साहब फिर मेरे घर वालों ने मुझे एक कानवेंट स्कूल में डाल दिया। वहां की रेगुलर प्रार्थना के कुछ अंश इस प्रकार थे कि हमें आज की रोटी दे, हमें बुराईयों से बचा और हमें परीक्षा में न डाल।
इस प्रार्थना को पढ़ने के बाद मैंने घरवालों को बताया कि ये बहुत बढ़िया प्रार्थना है, क्योंकि इसमें कहा गया है- हमें परीक्षा से बचा। यानी इस प्रार्थना के बाद हमें स्कूल की तिमाही, छमाही और सालाना परीक्षाओं में नहीं बैठना पड़ेगा। हमें परीक्षा से बचा-स्कूल के इतने बच्चे यही प्रार्थना करते हैं, तो ऊपर वाला तो हमें परीक्षाओं से बचा ही लेगा. ऊपर वाला हमें परीक्षाओं से बचा लेगा, ऐसे सहज विश्वास के कारण मैंने एक्स्ट्रा क्यूरिकुलर गतिविधियों में बढ़-चढ़कर भाग लेना शुरु कर दिया-जैसे स्कूल के पास वाले सिनेमा हाल में नियमित फिल्म देखना, सिगरेट के सुट्टों को तरह-तरह से खींचना। हमें बुराईयों से बचा-प्रार्थना के इस अंश का मैंने यह आशय लगाया कि जो आइटम, जो लोग हमें बुरे लगते हैं, हमें उनसे बचा। यानी हमें मैथ की टीचर से बचा। हमें संस्कृत के शास्त्रीजी से बचा। इन बुराईयों से मैंने बचने की कोशिश की और मैं सफल भी हुआ। क्लास से उड़ी मार कर मैंने जब भी सिनेमा हालों के टिकट के लिए ट्राई किया, हमेंशा टिकट मिली। यानी प्रार्थना के इस अंश पर मैंने जो कोशिशें की, वो रंग लायीं। पुरुषार्थ के नतीजे आते हैं, यह बात मुझे तब ही समझ में आ गयी थी, बारह वाले शो के लिए अगर बंदा सुबह नौ बजे से ही टिकट लाइन में खड़ा हो जाये, तो टिकट मिलेगा ही औऱ बुराईयों से भी छुटकारा मिलेगा।
खैर, मैं आश्वस्त था कि प्रार्थना में पहले ही कह दिया गया है-हमें परीक्षा से बचा। पर हाय, प्रार्थना ने मुझे परीक्षा से नहीं बचाया। तिमाही, छमाही परीक्षाएं आयीं, अपना सूपड़ा साफ था। घर वालों ने बहुत ठोंका, प्रार्थना ने इससे भी नहीं बचाया।
तब से अपना भरोसा प्रार्थनाओं पर उठ सा गया है। अपन से प्रार्थना नहीं होती जी।
8 टिप्पणियाँ
Similer story alok jee..Apna bhe prarthna se bharosa uth gaya hai :)
जवाब देंहटाएंAlok Kataria
एक और वोट्…अपन से भी नही…परम नास्तिक!!!1
जवाब देंहटाएंतभी तो कहते हैं की नेकी कर कुएं में डाल.. बस कर्म किए या फल इश्वर पर छोड़ दे मानव.. आस्तिकता का ढोंग न कर :)
जवाब देंहटाएंबढ़िया लेख के लिए आभार
बिलकुल विश्वास उठ गया है आलोक जी। करारा व्यंग्य है मज़ा आ गया पढ कर।
जवाब देंहटाएंलगता है हर आलोक का विश्वास उठ गया है प्रार्थना से!! यह क्या? यहीं भी अगडम-बगडम?
जवाब देंहटाएंपरार
जवाब देंहटाएंथना
न बाजे
घना।
बचपन के दिन भुला ना देना...आज हँसे..कल रुला ना देना...
जवाब देंहटाएंमज़ेदार...लज़्ज़तदार....असरदार....
अब और क्या कहें?....अपने आप समझ जाईए
alok ji , is vyangya mein jo baat chupi hai , wo bahut marm hai . bataye ki kya sahi hai ya nahi ...
जवाब देंहटाएंaapko bahut badhai ..
vijay
poemsofvijay.blogspot.com
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