
“दिल्ली चलो” और “तुम मुझे खून दो मै तुम्हे आजादी दूँगा.. खून भी एक दो बुंद नहीं इतना कि खून का एक महासागर तैयार हो जाये और उसमे मै ब्रिटिश सम्राज्य को डूबो दूँ” का नारा देकर स्वाधीनता संग्राम मे नई जान फूँकने वाले सुभाष चन्द्र बोस का जन्म ख्याति प्राप्त समृद्धशाली और आदालत मे शीर्ष स्थान वाले पिता जानकीनाथ बसु तथा माता प्रभावती के घर मे 23 जनवरी सन 1897 मे हुआ था। 1902 मे अपने अन्य भाई बहनो की तरह सुभाष चन्द्र बोस जी की पढाई बैप्टिस्ट मिशन स्कूल से शुरू हुई। सुभाष 1909 मे रॉवेंशॉ मिशनरी स्कूल मे आकर सुभाष अपने शिक्षक बेनीमाधव दास से प्रभावित हुए । बाद में इनकी दाखिला प्रेसीडेंसी कालेज मे हो गया जहा उन्होने दर्शन शास्त्र मे बी.ए. करने की ठान ली। सब ठीक चलते हुए जनवरी 1916 मे हुए ‘ओटेन काण्ड’ ने इनकी जीवन मे महत्वपूर्ण बदलाव किया। ओटेन नामक शिक्षक ने कुछ छात्रो को पीट दिया था विरोध स्वरूप छात्रो ने भी उन्हे पीट दिया। कक्षा प्रतिनिधि होने के कारण सुभाष जी नें विरोध स्वरूप हडताल करवा दी, इसपर सरकार ने कॉलेज ही बंद कर दिया। मार्च 1916 से जुलाई 1917 तक सुभाष कटक मे रहे, बाद में पिता और भाई के प्रयासों से जुलाई 1917 को उन्होंने स्कॉटिस चर्च कॉलेज मे बी.ए. तृतीय वर्ष मे दाखिला लिया।
सुभाष नें 1919 मे प्रथम श्रेणी मे बी.ए. उत्तीर्ण किया फिर वे लंदन चले गये और कैम्ब्रिज मे प्रवेश लिया। भारतीय सिविल सेवा की परिक्षा दे कर 22 सितम्बर 1920 को वे चौथे स्थान से चयनित हुए। लेकिन जिस परीक्षा में वे उत्तीर्ण हुए थे उसमें वे केवल पिता की आज्ञा से बैठे थे और उन्हे केवल अपनी काबीलियत सिद्ध करने की ललक भर थी। उखे पराधीन देश आवाज दे रहा था जिसे वे अनसुना न कर सके। 22 सितम्बर 1920 को ही अपने भाई शरतचन्द्र को उन्होने पत्र लिखा कि आई.सी.एस की परीक्षा पास कर क्या ठोस उपलब्धि हुई? इस जीवन का अथ और इति क्या केवल सर्विस है? सुभाष की कश्मकश जारी थी। पुन: 26 जनवरी 1921 मे उन्होंने अपने भाई को लिखा कि या तो मैं इस रद्दी सर्विस को छोड कर देश कल्याण के लिए स्वंय को अर्पित कर दू या अपने सारे महत्वकाक्षा और आदर्शो को अलविदा कह दूँ। 23 फरवरी को उन्होंने पुन: लिखा कि देश मे इतना आन्दोलन हो रहा है पर किसी सिविल सेवा आफिसर ने इसमे भाग लेने के लिए पद त्याग नही किया। 16 जनवरी 1921 को देशबंधु चितरंजन दास को सुभाष नें लिखा कि इनका इरादा आई.सी.एस. से त्यागपत्र देने का है। 22 अप्रैल 1921 को आखिरकार आई.सी.एस पद से त्यागपत्र देकर वे देश के लिये अपनी भावनाओं को समर्पित हो गये।
16 जुलाई 1921 को सुभाष बम्बई पहुच कर महात्मा गाँधी से मिले। सुभाष को गांधी जी की क्रियात्मक योजना द्वारा शत्रु पक्ष को सुधारने की कामना करना अपने को धोखा देना प्रतीत हुआ और यही से दोनो अलग अलग रास्ते पर चलने और एक लक्ष्य प्राप्त करने को अग्रसर हुए और वो था “भारत की स्वतंत्रता”। गाधी जी ने इन्हे चितरंजन दास से मिलने की सलाह दी जिन्होने इन्हे काग्रेस का सदस्य बनाया और उन्हे बंगाल मे आदोलन जारी रखने का भार सौप दिया। इसपर स्टेट्समैन समाचार पत्र ने टिप्पणी दी “कांग्रेस को एक योग्य व्यक्ति मिल गया और सरकार ने एक लायक अफसर गंवा दिया।“ 10 दिसम्बर 1921 को गैर कानूनी परेड के जुर्म मे सुभाष को गिरफ्तार कर लिया गया। 7 फरवरी 1922 मे छ: महीनों की सजा सुनाने पर बोस ने मैजिस्ट्रेट से हँस कर कहा – “सजा केवल 6 महीने! मैने क्या चूजे चुराये है” यह उनकी पहली कैद थी। 4 फरवरी 1922 के चौरी चौरा कांड के बाद जब गाँधी जी ने असहयोग आंदोलन निलम्बित कर दिया तो राष्टवादियो मे फूट पड गयी तथा सुभाष के मन मे गाँधीवादी नीति पर अब तक पूरी तरह निर्भर रहने की रणनीति पर प्रश्न चिंह लग गया।
दिसम्बर 1922 को कांग्रेस की आपसी कलह के कारण चितरंजन दास, मोतिलाल नेहरू तथा सुभाष ने स्वराज पार्टी का गठन 1 जनवरी 1923 को किया। फिर सुभाष ने अखिल बंगाल युवा लीग की स्थापना की। 1818 के अधिनियम III के अंतर्गत बोस को गिरफ्तार कर 25 जनवरी 1925 को मांडले जेल, वर्मा भेजा गया जहाँ वे वर्मी राजनीतिक, गुरिल्ला युद्ध, विदेशी सरकार के विरोध आदि के आलावा वर्मा और भारत संस्कृति एकता से परिचित हुए। वहाँ ब्रॉंन्कों निमोनिया के वजह से उन्हे इन्सेन जेल मे भेज दिया गया पर हालत न सुधरने की वजह से इन्हे सरकार नें अपने खर्चे पर स्विटजर्लैड भेजना चाहा तो इन्होने मना कर दि या। पुन: 16 मई 1927 मे अलमोडा जेल के रास्ते से इन्हे रिहा कर दिया गया।
3 फरवरी 1928 को साइमन आयोग के पहुचने पर सारे देश मे हडताले व बॉयकॉट हुआ जिसके विरोध प्रर्दशन मे लाला लाजपत राय की मृत्यु हो गई। 30 मार्च 1929 मे उन्होने रंगपूर राजनीतिक कॉफ्रेस मे कहा “यह तैयारी का वर्ष है यदि इमानदारी से काम करोगे तो अगले वर्ष “सविनय अवज्ञा आन्दोलन” शुरू कर सकते है।“ 1 दिसम्बर 1928 मे कलकता काग्रेस अधिवेशन मे गाँधी व बोस के विचार, चिंतन तथा कार्यप्रणाली के प्रभेद खुलकर सामने आये। बोस ने सैन्य प्रशिक्षित वालिंयंटरो का एक दस्ता तैयार किया और उनके अधिवेशन मे वे जनरल कमाडिग आफिसर की हैसियत से युनिफार्म से सज्जित थे। बोस महिला वर्ग के प्रति भी जागरूक थे इसलिए 1921 मे उन्होनें नारियो को राष्टीय सेवा प्रशिक्षण देने के लिए नारी कर्म मंदिर शुरू किया गया था जो बाद मे बंद हो गया। राजनीतिक हल्फों मे गाँधी जी और बोस के विचारो के टकराव की वजह से 31 दिसंबर 1929 को बोस तथा पूरे वामपंथी वर्ग को काग्रेस से हटा दिया गया। पुन: 2 जनवरी 1930 को बोस नें जंगी राजनीतिक प्रोग्राम हेतु कांग्रेस डेमोक्रेटिव पार्टी का गठन किया। 23 जनवरी 1930 को पुन: बोस गिरफ्तार हो गये। अप्रैल 1930 मे कुछ कैदियों मे झगडा हो गया जिसमे जेल अधिकारियो ने कैदियो पर हमला बोल दिया जिसमे बोस भी थे। इन्हे इतनी मार पडी कि वे 1 घंटे के लिए बेहोश हो गये तथा इनकी मृत्यु की अफवाह फैल गयी, जिससे जनता ने जेल के बाहर भीड लगा दी।
1931 मे बोस “नौजवान भारत सभा” के अध्यक्ष चुने गये जिसमे करांची काग्रेस अधिवेशन के दौरान खुलकर गाँधी नीति का विरोध तथा “गाँधी इरविन पैक्ट” जी निन्दा की गई। 27 मार्च 1931 को बोस ने कहा “ मै भारत मे समाजवादी गणतंत्र चाहता हूँ”। 1 जनवरी 1932 के सविनय अवज्ञा आन्दोलन शुरू होते ही सभी काग्रेसी नेताओं के साथ बोस भी जेल मे बंद कर दिये गये तथा जेल मे लगातार गिरती हुई सेहत की वजह से 23 फरवरी 1933 मे एस.एस. गैज जहाज से उन्हे यूरोप भेज दिया गया। 8 मार्च 1933 को बोस वियना (स्विटजरलैड) के डॉ फर्थ के सैनिटोरियम मे दाखिल हुए जहाँ भारतीय विधान मंडल के भूतपूर्व अध्यक्ष विठ्ठल भाई पटेल से मिले तथा सक्रिय क्रांति के बारे मे जाना। बोस 23 फरवरी 1933 से अप्रैल 1936 तक युरोप मे रहकर जो सीखा वह 1934 के एक आलेख मे लिखा “ भारत मे हमे एक ऐसी पार्टी की जरूरत है जो सिर्फ भारत की आजादी के लिये ही प्रयत्नशील न हो, बल्कि संविधान भी बनाये, आजाद होने पर राष्ट्रीय पुनरचना की योजना क्रियांवित भी करे”। नवम्बर 1934 मे बोस का “द इंडियन स्ट्रगल” प्रकाशित हुआ। इसी समय पिताजी के बीमार होने की सूचना पर जब वापस भारत आए तो उन्हे नजरबन्द कर दिया गया।
8 जनवरी 1938 मे वे ब्रिटेन गये जहाँ कई अंतर्राष्ट्रीय नेताओं से मिले, कई सम्मान और स्वागत भोज भी दिए गये। 29 जनवरी 1939 के त्रिपुरी अधिवेशन के पश्चात बोस ने काँग्रेस अधयक्ष पद से त्यागपत्र देकर बिदेश जाकर भारत की स्वतंत्रता के लिए सशस्त्र संघर्षकरने का मन बना लिया। 1 सितम्बर 1939 को जब जर्मनी ने पोलैड पर आक्रमण कर दिया तब नेताजी ने “पंजाब कीर्ति किसान सभा” के सदस्यों के माध्यम से रूस जाना चाहा जिसकी भनक अंग्रेजी सरकार को लग गयी। शीघ्र ही वे बंदी बना लिये गये पर पुन: स्वास्थ बिगडने की वजह से 5 दिसम्बर 1940 को उन्हें घर मे नजरबंद कर दिया गया। वे वहाँ से भागने के लिये योजना बनाने लगे तथा लोगो से मिलना जुलना छोड दिया और दाढी बढाने लगे। 16 जनवरी 1941 को अपने भतीजे शिशिर बोस को योजना बताई और उसे कलकता से गोमो कार से पहुचाने के लिए बोला। 17 जनवरी 1941 को जब घर के सदस्य सो गये तो रात के 11 बजे शिशिर ने घर के पिछले दरवाजे पर कार लगाई। नेताजी जियाउद्दीन पठान के वेश मे उतरे और गुपचुप गोमो पहुचे जहा से नेताजी ने दिल्ली कालका डाक गाडी पकडी। गोमो से दिल्ली वे प्रथम श्रेणी मे यात्रा की और दिल्ली से फ्रंटियर मेल पकड 19 जनवरी 1941 को पेशावर छावनी पहुचे और तांगा से ताजमहल होटल पहुच वहाँ जियाउद्दीन नाम से कमरा लिया। इनके पेशावर पहुचने से पहले भगतराम तलवार, अकबर शाह, मियो मुहम्म्द शाह और अबदुल मजीद खान ने काबुल तक की सुरक्षित यात्रा की रूप रेखा बनाई। 22 जनवरी 1941 को पेशावर से कार से गाइड के साथ काबुल के लिए निकले। गाइड को रास्ते मे छोड वे जनवरी 1941 को काबुल पहुचे। पश्तो भाषा नही जानने की वजह से नेताजी ने गूँगे बहरे का नाटक किया। वे कमीज सलवार, पिशोरी चप्पल, चमडे की जैकेट, कुला और लूँगी की पग़डीमे अपने गौर वर्ण और सुंदर चेहरे से पूरे पठान लगते थे। 27 जनवरी 1941 को 11 बजे काबुल पहुच एक सराय मे कमरा किराए पर लिया। 2 फरवरी 1941 को जर्मन दूतावास के अन्दर जाकर एक अधिकारी से बात की जो इन्हे शीघ्रातिशीघ्र जर्मनी भेजने का वचन दिया। इसी बीच काबुल पुलिस का एक सिपाही इनके पीछे पडा जिससे पीछा छुडा उन्होंने एक जानकार उतमचंद मलहोत्रा के यहाँ शरण ली। दोनो उनके घर मे रहते हुए इटालियन और जर्मन दूतावास से सम्पर्क मे रहे। इटालियन दूतावास ने उनका पासपोर्ट ओरनाल्डो मोज़ाटा नाम से बनाया। आखिर 17 मार्च 1941 मे समाचार मिला कि इटले और जर्मनी से उन्हें लेने तीन आदमी आए है। 18 मर्च 1941 को काबुल से सुबह 9 बजे 2 जर्मन और 1 इटालियन की कार से रूस की सीमा के लिए रवाना हो गये। रात मुहम्मद खुमारी मे गुजार 19 जनवरी को समरकंद पहुचे। वहाँ से 20 मार्च 1941 को मास्को के लिए रवाना हुए और 27 मार्च 1941 मास्को पहुचे जहा से 28 मार्च 1941 को विमान द्वारा बर्लिन पहुचे जहाँ उनका भव्य स्वागत हुआ।
28 मार्च 1941 से 8 फरवरी 1943 तक युरोप मे रहे और इंडियन लीजन को गठित किया। युद्ध की दौरान उनसे कहा गया कि दक्षिण पूर्व एशिया पहुच सिंगापूर में आजाद हिंद फौज का नेतृत्व संभाले। 1-16 मार्च 1943 तक एक जोखिम भरी समुद्री यात्रा कर 2 जुलाई 1943 को नेताजी सिंगापुर पहुचे और आजाद हिंद फैज के गठन मे जुट गये। अंग्रेजो के नेतृत्व मे हिन्दुस्तानी फौज 19 फरवरी 1942 को जापान के फौज के सामने आत्मसमर्पण कर अपना मनोबल खो चूकी थी। नेताजी ने उस हारी हुई सेना को एक क्रांतिकारी और बलिदानी सेना मे बदल दिया। बोस ने सबसे पहले आजाद हिंद फौज का पुनर्गठन कर इसकी शाखाए दक्षिण पूर्व एशिया मे खोली और 30 लाख भारतीय मूल के लोगों को एक सूत्र मे बाँधा। एक अस्थायी आजाद हिंद सरकार का गठन 21 अक्टूबर 1943 को किया गया जिसे 9 राष्ट्रो से मान्यता प्राप्त हुई।
22 अक्टूबर 1943 को रानी झासी रेजिमेंट का गठन कर 23 अक्टूबर 1943 को इंगलैड और अमेरिका के बिरूद्ध युद्ध की घोषणा की गई। बाद मे नेताजी ने जापान, चीन, फिलिपिंस, वियतनाम आदि की यात्राए की। 19 दिसम्बर 1943 को आजाद हिन्द सरकार के मंत्रीमंडल की बैठक मे अनेक महत्वपूर्ण निर्णय लिए गये जैसे सैनिको की पेंशन, वीरता के लिए पदक, राष्ट्रीय गीत कदम कदम मिलाए जा..., हिन्दुस्तानी राष्ट्रीय भाषा, राष्ट्रीय उदघोष जय हिन्द, राषट्रीय तिरंगा ध्वज( जिसपर छलांग लगाता हुआ चीता चिन्हित था), मुद्रा डाक टिकट और राष्ट्रीय नारा” दिल्ली चलो” इत्यादि। फिर आजाद हिन्द का कार्यालय जापान से अंडमान व निकोबार लाया गया तथा जनरल लोकनायक को राज्यपाल नियुक्त किया गया। रंगून मे आजाद हिंद बैक की स्थापना की घोषणा की गई।
4 फरवरी 1944 को अराकन युद्ध मे फौज ने सफलता प्राप्त की और कर्नल बिसरा और मेहर दास को “सरदारे जंग” पदक से सम्मानित किया गया। फरवरी और मार्च मे फौज ने अंग्रेजो के मेढ़्क पिकिट पर कब्जा कर लिया पुन: आजाद ब्रिग्रेड इम्फाल और कोहिमा के रास्ते आगे बढी जहाँ अंगेजो को आश्रय लेने पर विवश किया। मई 1944 को कोहिमा का आजाद का घेरा मजबूत किया गया पर मौसम खराब हो जाने की वजह से और खाद्य सामग्री और गोले बारूद की कमी से जवान मरने लगे तो विवश होकर फौज को पीछे हटने आ आदेश दिया गया। जिसमे बहुत से सैनिक वीरगति को प्राप्त हुए। पुन: जापान की नई टुकडी और आजाद हिंन्द फौज के नेहरू ब्रिग्रेड ने मध्य वर्मा मे अंग्रेजो की सेना को बहुत क्षति पहुचाई। अप्रेल 1945 की अंग्रेजी फौज आर्मी जनरल विलियम स्मिथ की कमान मे भारी हवाई हमले और भारी गोलीबारी के बीच इरावती नदी पार कर गई। अंतत: अप्रेल 1945 मे आजाद हिंद फौज हार गई।
नेताजी 24 अप्रैल 1945 को रंगून से सिंगापूर की ओर रवाना हुए जिसमे उनके साथ बाकी आजाद हिंद फौज के जवान और रानी झासी रेजिमेंट की वीरांगनाए थी। यद्यपि इम्फाल और कोहिमा मे आजाद हिन्द फौज की हार हुई पर जवानो ने प्राण नियोछावर करने मे अदभूत वीरता दिखाई और अंग्रेजी सेना के दिल पर अमिट छाप छोडी। इसी बीच 18 अगस्त 1945 को जापान ने वायुयान से बोस और उसके मंत्रीमंडल को स्पेशल जहाज से मनचुरिया पहुचाना था। बोस की योजना थी कि वह रूस पहुच स्वयं को रूसी सेना के हवाले कर रूसी सहायता से पुन: प्रयास करना चाहते थे। 17 अगस्त 1945 को वायुयान मे सीमित स्थान के वजह से बोस के साथ केवल हवीवुर्रहमान गये जो 18 अगस्त 1945 को तेइपई पहुचा पुन: जब 2 बजे दिन मे विमान तेइपई से उडा तो वायुयान मे विस्फोट हुआ और वायुयान जमीन पर आ गिरा। हविवुर्रहमान को छोटी मोटी चोटे आई। ले. जनरल शिदेई तथा विमान चालक ताकिजावा की मृत्यु हो चूकी थी तथा नेताजी के सिर के बाये हिस्से मे चार इंच लम्बा गहरा घाव था। अपने अंतिम समय में उन्होने रहमान से कहा “हबीब जब वापस जाओ, मेरे देशवासियो से कहना कि मै अपने देश के लिए अंत तक लड़ा और अब अपने देश के लिए प्राण दे रहा हूँ। अब कोई शक्ति हमारे देश को गुलाम नहीं रख सकेगी। भारत बहुत शीघ्र स्वतंत्र हो जायेगा” उनके अंतिम वाक्य जल्दी ही सत्य हुए। नेताजी को जपानी डाक्टरों के भरसक प्रयासो के बावजूद नहीं बचाया जा सका और 18 अगस्त 1945 को रात 8.30 बजे उन्होंने अंतिम स्वांस ली। नेताजी सुभाष का शव दहन 20 अगस्त 1945 के तेइपई मे किया गया और इनकी अस्थिया निशिहोनगाँजी मंदिर तेइपई मे रख दी गई। अंग्रेज सरकार को इनकी मौत का विश्वास नही हुआ क्योकि नेताजी कई बार फरार हो चुके थे, इसलिए आज भी देशवासी इनके मौत पर बिश्वास न कर इनके लौटने का इंतजार कर रहे है। एक सच यह भी है कि नेता जी सुभाष चंद्र बोस अमर हैं।
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12 टिप्पणियाँ
जीवन परिचय बहुत अच्छा बन पढा है। तिथियो से लेख भर गया है। बहुत सारी बाते आ गयी हैं इस लिये बहुत सी महत्वपूर्ण बातो पर भली प्रकार रौशनी नहीं पडी। लेकिन बहुत अच्छा प्रयास।
जवाब देंहटाएंVery Nice article. Good Compilation.
जवाब देंहटाएंAlok Kataria
नेता जी पर सूचना से परिपूर्ण इस आलेख के लिए धन्यवाद बन्धु | तकरीबन सभी घटनाएं कवर की हैं आप ने | किसी भी महापुरुष के जीवन से जुड़ी अधिकाँश घटनाओ को एक लेख में रखना आसान काम नही |
जवाब देंहटाएंआलेख का अंत पसंद आया .." आज भी देशवासी इनके मौत पर बिश्वास न कर इनके लौटने का इंतजार कर रहे है"...
आलेख के लिए पुनः शुक्रिया |:-)
सुभाष जी की जयंति की हार्दिक बधाई। बहुत अच्छा आलेख है।
जवाब देंहटाएंनेता जी ....... सुभाष चंद्र बोस ..... प्रातः स्मरणीय महानायक का स्मरण करते ही रोमांच भर उठता है ..
जवाब देंहटाएंजीवन परिचय को बारम्बार पढ़ कर भी मन नहीं भरता. वहीँ पर देश में नेता जी के नाम से कई राजनीतिक ऐसे लोग भी हैं जिन्हें नेता जी कहने से युग के इस महान व्यक्तित्व का निरादर ही होता है. यह देश का दुर्भाग्य ही है कि इस पर कोई भी आवाज नहीं उठती है
.. कोटिशः नमन.
अभिषेक जी,
जवाब देंहटाएंसुभाष जी पर जितना लिखा जाए कम है। आपने सुभाष के जीवन की सम्पूर्ण झलक प्रस्तुत की। आभार।
नेताजी सुभाष को याद कर साहित्य शिल्पी नें महत्वपूर्ण कार्य किया है। युग प्रवर्तक पर बहुत जानकारी जुटायी गयी है, अभिषेक जी नें।
जवाब देंहटाएंजानकारी से परिपूर्ण लेख के लिए अभेषेक जी को बहुत-बहुत बधाई
जवाब देंहटाएंabhishek ji ,
जवाब देंहटाएंitne acche lekh ke liye meri dil se badhai sweekar karen..
ye poora article ,maine save kar liya hai , mere baccho ke liye ye ek accha aur saccha gift honga ..
aapko badhai ..
vijay
netaji mere ideal hain
जवाब देंहटाएंmain all india forward block ka member bhi banna chahta hun aur shukriya ada karta hun jinhone itni mahatavpurn jankari muhaiya karai.
anandmcd@gmail.com
netaji mere ideal hain
जवाब देंहटाएंmain all india forward block ka member bhi banna chahta hun aur shukriya ada karta hun jinhone itni mahatavpurn jankari muhaiya karai.
anandmcd@gmail.com
अत्यंत प्रेरक एवं उपयोगी सूचनाओं से भरा आलेख । साधुवाद ।
जवाब देंहटाएंआपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.