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आर्थिक महामंदी - लोन लो न [व्यंग्य] - अविनाश वाचस्पति

कर्ज लोन ऋण जरूरी हैं। जरूरी बना दिए गए हैं। आफत गले पड़ रही है निभानी पड़ रही है। कर्ज मर्ज बन गया है। मर्ज कैंसर भी हो सकता है। कैंसर सि‍र में हो यह भी जरूरी नहीं है जैसे मर्ज शरीर में हो यह तय नहीं है। दिमाग में भी हो सकता है और दिल में भी। आप कहेंगे कि ये भी तो शरीर के ही प्रत्‍यंग हैं। पर शरीर से अधिक भावनाएं पाई जाती हैं इनमें। विचार पनपते हैं। कैंसर और कर्ज 'क' राशि के हैं तो एक जैसा असर ही करेंगे। कैंसर शरीर को गलाता है तो कर्ज गीले गले को सुखाता है। चाहे कितनी ही बाढ़ आ रही हो पर गला सूख सूख जाता है। उस सूखने से सारा सुख भी सूख जाता है। बाढ़ भी आती है यहां पर लेकिन भरपूर दुखों की और दुख ही दुख से लबालब अहसास होता है। मेरा ही नहीं, हर कर्जदार का यही असली गीलिया अनुभव है। आप भी इससे अलग नहीं हैं। अपने मन में ताक झांक कर लो।

मर्ज मन का हो, तन का हो या धन का हो। मर्ज तो मर्ज ही है। इंसान को चाहिए कि उसे स्‍वयं में मर्ज (घुलने) न होने दे। उसके मर्ज होने से चिंता पैदा होती है। 'ज' साइलेंट हो जाता है और 'मर' बच कर चिंतामुक्‍त हो जाता है। वही चिंता बाद में 'बिन्‍दु' के हटने से चिता बनती है। चिता खूब दहकती है। चिंता असर करती है पर चिता असर नहीं करती। बेअसर रहती है। जो देख भोग रहे होते हैं, वे भी बेअसर ही रहते हैं। तब भी मोबाइल बज जाए तो उसी में मगन हो जाते हैं। त्रस्‍त होते हुए भी मस्‍त हो जाते हैं पर पस्‍त नहीं होते।

उर्दू शब्‍द कर्ज के साथ अंग्रेजी लोन जब जुड़ जाता है तो कर्ज लोन हो जाता है कर्ज लो न। पर जिसे कर्ज मिल रहा हो वो इस लो न को नहीं सुन पाता है या सुन कर भी अनसुना कर जाता है। जिसका खामियाजा उसे भुगतना ही पड़ता है। कर्ज उधार ही है। जिसकी धार खूब पैनी होती है। बिना नसैनी के चढ़े हुए को उतार देती है और जो उतरा हुआ होता है उसे चढ़ा देती है पर चढ़ाती चिता पर ही है। पर खुमारी नहीं हटती। बीमारी सट सट जाती है। पलट पलट कर संकट लाती है।

कर्ज चाहे सस्‍ता हो पर उसे न लेने (लो न) में ही भलाई है। जो ले लेते हैं उनकी जब तक चुके न, तब तक छूटती मलाई है और फूटती रुलाई है। कर्ज लो न, से सब इसी मुगालते में घिरे रहते हैं कि आपको बुला बुलाकर कर्ज लेने के लिए आमंत्रित किया जा रहा है। विपरीत इसके विवेकशील इसका सही अर्थ ग्रहण करते हैं और कर्ज लो न, कर्ज न लेने पर ही कायम रहते हैं। इस कर्ज के न लेने से उन्‍हें मिलने वाली सूखी रोटी भी चुपड़ी से अधिक का आनंद देती है। गला तर रहता है इसलिए सूखी रोटी भी सरलता से हलक से उतर जाती है जबकि गला सूखने से चुपड़ी रोटी भी चिकनाई से लबालब होने पर भी गले में अटक अटक जाती है। इस अटकन के कारण कई तो खुदखुशी से खुदकुशी का रास्‍ता अपनाते हैं। कई पंखे में लटक लटक प्राण गंवाते हैं। लटकने के लिए कभी साड़ी तो कभी चुन्‍नी तो अधिकतर रस्‍सी गले का सांप बनकर प्राण हरती है। कई बार अधिक बोझ के कारण पंखे का भी प्राणांत होते देखा गया है। जबकि इसमें पंखे का कोई दोष आज तक सिद्ध नहीं हो सका है।

ऋण को अगर उच्‍चारण दोष के कारण रिन पढ़ें तो वो कर्ज की कालिमा को तो साफ नहीं करता परन्‍तु कर्जदार को अवश्‍य साफ कर देता है। इतना साफ कि उसका बोरिया बिस्‍तर सब पृथ्‍वी की तरह गोल गुम्‍बद हो जाता है। बची रह जाती है राख। जो चिता के बाद बचती है या बचा ली जाती है। बचाने के बाद भी पाप धोने और मुक्ति दिलाने के नाम पर गंगा, यमुना इत्‍यादि में बहा दी जाती है।

वैसे इतना दुखदायी होने पर भी कर्ज या लोन अथवा ऋण न जाने कितनों का पेट भरता है। चौंकिये मत, जो लोन बांटते हैं, वे लोन बांटने के लिए कन्‍याओं को फोन पर मुस्‍तैद करते हैं। उनके फोन आने पर न चाहने वाला भी बेजरूरत लोन ले लेता है। इससे उनकी नौकरी बनी रहती है। पेट पलता रहता है। कर्ज देने वालों का भरता है। पर इस अधिक भरने में ही बदहजमी होती है। वही बदहजमी अपना भयावह असर तब दिखलाती है जब कर्जदार चुका नहीं पाते हैं तो बैंक या देनदार दिवालिया हो जाते हैं। हालिया अमरीका के बैंक हुए हैं। हमारे भी होने की कतार में थे, पर बेल आउट पैकेज का तार बांध कर रार से बचा गया है। फिर भी तलवार तो लटक ही रही है, न जाने कब किस बैंक के खातेदारों पर गिर पड़े और हालत खस्‍ता (कचौड़ी नहीं पस्‍त) हो जाए उससे देश ग्रस्‍त ही होगा। न जाने कहां कहां का सूर्य दिन में भी अस्‍त होगा।

रचनाकार परिचय:-

अविनाश वाचस्पति का जन्म 14 दिसंबर 1958 को हुआ। आप दिल्ली विश्वविद्यालय से कला स्नातक हैं। आप सभी साहित्यिक विधाओं में समान रूप से लेखन कर रहे हैं। आपके व्यंग्य, कविता एवं फ़िल्म पत्रकारिता विषयक आलेख प्रमुखता से पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं।

आपने हरियाणवी फ़ीचर फ़िल्मों 'गुलाबो', 'छोटी साली' और 'ज़र, जोरू और ज़मीन' में प्रचार और जन-संपर्क तथा नेत्रदान पर बनी हिंदी टेली फ़िल्म 'ज्योति संकल्प' में सहायक निर्देशक के तौर पर भी कार्य किया है।

वर्तमान में आप फ़िल्म समारोह निदेशालय, सूचना और प्रसारण मंत्रालय, नई दिल्ली से संबद्ध हैं।

बुला बुलाकर लोन देने के कारण अमरीकी इकॉनामी का बंटाढार हुआ और वो दुनिया भर को ले डूबी। चल रही आर्थिक महामंदी इसकी ताजा मिसाल है। वहां बैंक डूब रहे हैं। यहां लोन बांटने वाले फोन कर करके ऊब रहे हैं, लोन लेने वाले बामुश्किल फंसते हैं। वहां लोन लेकर मुकर जाते हैं। न चुकाना भी मुकरना ही होता है। उस मुकरने के कारण बैंक के साथ देश भी दिवालिया हो जाता है। यह न समझिए कि दिवाली मनाता है। दिवाली को लोन लेने वाले की होती है, उसे फिर लिया हुआ चुकाना ही नहीं होता। अगर वो लिया हुआ ही चुकाता तो फिर कोई भी दिवालिया क्‍यों होता। अगर बैंक दिवालिया न होता तो कर्ज लेने वाले की दिवाली कैसे मनती। दिवाली तो दिलवाने वालों की होती है। जो दिलवाने के नाम पर फर्जी अर्जियां लगवा लगवा कर सब धान बाईस पसेरी की दर पर हड़पते जाते हैं। खुद भी खाते हैं, दूसरे भी खाते हैं और जो असली खातेदार हैं वे अपने मूल खाते से भी वंचित हो जाते हैं।

किसी का दिवाला किसी की दिवाली। दिवाली स्‍त्रीलिंग है इसलिए मोहक है। दिवाला कर्ज लेने वाले के लिए मोदक है। लड्डू है पर तब तक ही जब तक मोतीचूर का है। पर कर्ज देने वाले के लिए जब पत्‍थरचट्टा का बनता है तो पत्‍थर हो जाता है और माथा फोड़ता है। माथा फूटने से बच गया तो बुश नहीं तो फोड़ने वाला खुश। कुछ फूटे या न फूटे पर बूट के भाग खुल खुल जाते हैं। वो दस नंबरी जूता कुछ सौ से बढ़कर कई करोड़ तक की डिमांड में आ जाता है। शेयर बाजार का कोई शेयर भी क्या खा पीकर इस जीवट वाले जूते के मुकाबले में ठहरेगा। यहां पर ऑपरेटर सॉपरेटर सब फेल हैं। बुश और बूट का ऐसा मेल है। जमाना ही मेल ई मेल और फी मेल का है।

होम लोन सस्‍ते किए जा रहे हैं। जिससे लोन लेकर होम (फना) होने में सुविधा बनी रहे। अगर होम ही नहीं लिया जाएगा तो फिर लोन को जूतियों में दाल की तरह बांटने वालों की दुकानदारी कैसे चलेगी। वो बात दीगर है कि भले ही न फले, पर कुछ होता हुआ तो दिखाई देगा ही। होम चाहे खूब महंगे हों, पर होम लेने के लिए होम लोन सस्‍ते मिलने चाहिए। महंगे होम बिकने के धंधे के विकास के लिए, होम लोन सस्‍ते ही होने चाहिए। तो वो हो ही रहे हैं। महंगा मकान सस्‍ता कर्ज, बन गया न एक और मर्ज। मर्ज की मार से मरने वाला तो पुकार भी नहीं सकता। पुकारेगा भी तो कोई सुनेगा भी नहीं। होम में कैद करके रख दिया गया है।

होम लोन वाले भी कह तो यही रहे हैं कि होम लो न। किराए पर रहें और उसे कब्‍जाएं। किराया न चुकाएं और बाद में भारी भरकम मुआवजा भी हथियाएं। पर लोग होम लोन ले लेते हैं और बैंकों को दिवालिया करने में मददगार बनते हैं। जबकि किराए पर रहना एक लाभकारी धंधा बनता जा रहा था कि न्‍यायपालिका ने मकानमालिकों के हित में कानून बना बनाकर लोगों को होम लोन की तरफ ढकेलने में खासी भूमिका निभाई है। होम लोन भी समाज की एक बढ़ती जाती कैंसरी बीमारी है।

अब समय आ गया है कि हमें शब्‍दों में छिपे शब्‍दों के असली अर्थ या पुकार को सुनना होगा, गुनना होगा और करना होगा अमल। अन्‍यथा कर्ज लो न, होम लो न के सही अर्थ समझने में हम भूल करते रहेंगे और अपना ही नुकसान करते रहेंगे।

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13 टिप्पणियाँ

  1. मैने तो यह अर्थ लगाया है कि डूबते कर्ज देने वाले ही हैं... लेने वाले के तो पों बारह हैं यदि वह दिमाग से ज्यादा काम न ले... खाये पीये तो जब कोई कर्ज वापस मांगने आये तो कह दे... कुछ दिखता हो तो ले जा भाई :)

    सटीक व्यंग्य .. बधाई

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  2. अब समय आ गया है कि हमें शब्‍दों में छिपे शब्‍दों के असली अर्थ या पुकार को सुनना होगा, गुनना होगा और करना होगा अमल। अन्‍यथा कर्ज लो न, होम लो न के सही अर्थ समझने में हम भूल करते रहेंगे और अपना ही नुकसान करते रहेंगे।

    सही है।

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  3. लोन लो, न और लोन लो न को मजेदार तरीके से प्रस्तुत किया है आपने अविनाश जी।

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  4. "ऋण को अगर उच्‍चारण दोष के कारण रिन पढ़ें तो वो कर्ज की कालिमा को तो साफ नहीं करता परन्‍तु कर्जदार को अवश्‍य साफ कर देता है। इतना साफ कि उसका बोरिया बिस्‍तर सब पृथ्‍वी की तरह गोल गुम्‍बद हो जाता है। बची रह जाती है राख। जो चिता के बाद बचती है या बचा ली जाती है। बचाने के बाद भी पाप धोने और मुक्ति दिलाने के नाम पर गंगा, यमुना इत्‍यादि में बहा दी जाती है।"

    बढियाँ है :)

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  5. avinashji,
    bahut khoob.sach ko bahut hi khoobsoorti se ukera hai vyangya ke roop mein.

    badhai sahityashilpi ko aur aabhar avinashji ka ki loan ke itne baareek arth,parinaam bataye. tauba loan se.

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  6. इस व्यंगय को पढ कर तो अशोक चक्रधर जी की कविता याद आ गई... लोन का मतलब है "लो ना " अच्छा लिखा है आपने भी लोन देने वालों की तो वैसे ही लगी पडी है मंदी में आपने भी बेचारों की क्लास लगा दी...

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  7. अच्छा व्यंग्य....

    अविनाश जी,
    बधाई...

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  8. बैंको की बखिया उधेड़ता एक बढिया व्यंग्य प्रस्तुत करने के लिए साहित्य शिल्पी तथा अविनाश जी का बहुत-बहुत धन्यवाद

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  9. कर्ज़ ,फ़र्ज़ और मर्ज़ एक ही सिक्के के तीन पहलू हैं । हमारे यहां तो वैसे भी कर्ज़ लेकर घी पीने का मशविरा देने वालों की कमी नहीं ...। आज सब कुछ पालो ,जो है समां कल हो ना हो ।

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  10. अविनाश भाई, कमाल कर रहे हो। बहुत खूब !

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