
अपनी रचना प्रक्रिया पर प्रकाश डालते हुए बताइए, आपकी आलोचना के क्षेत्र में रुचि कैसे जागृत हुई ? आप कब से यह कार्य कर रहे हैं ? इस क्षेत्र को आपने क्यों चुना ? क्या, आपने दूसरी विधाओं में भी लिखा है ?
कुंवर नारायण : पढ़ने का शौक शुरु से ही रहा, लिखना बाद में शुरु किया । आलोचना का सीधा और पहला ताल्लुक पढ़ने से है । स्वयं के लेखन से उसका संबंध बाद में बनता है । कभी-कभी नहीं भी बनता है । एक पुस्तक पढ़ना मेरे लिए हमेशा उससे एक बातचीत की तरह रहा है जो उस पुस्तक को केवल एक औसत पाठक की तरह मात्र ``ग्रहण`` करने से भिन्न बात है । एक रचनाकार जिस तरह एक साहित्यिक कृति को `पढ़ता` है, और जिस तरह एक शुद्ध आलोचक या अध्येता उसे पढ़ता है उसमें बुनियादी अन्तर है । एक रचनाकार की दृष्टि स्वभावत: एक कृति की जीवन-वस्तु और रचना-कौशल पर केन्द्रित होगी, जबकि आलोचक के मूल्यांकन में गैर साहित्यिक आग्रहों का होना आम बात है । ऐसा नहीं कि रचनाकार की मानसिकता के निर्माण में भी अन्य विषयों का योग नहीं होता । जैसे, मेरे अपने लेखन में इतिहास, मिथक, नीति शास्त्र, विज्ञान, सामाजिक-आर्थिक यथार्थ, राजनीतिक मसलों, संगीत, दर्शन, सिनेमा आदि अनेक विषयों से संबंधित एक मिली-जुली दुनिया भी रहती है जो मेरी जीवन दृष्टि और विश्व दृष्टि में अतिरिक्त कुछ जोड़ती है । मैं इस मानसिक आयाम को भी जीवन-यथार्थ का ही एक हिस्सा और विस्तार मानता हूं । अपने लेखन की युक्तियों से मैं अपनी इस साहित्यिक-संस्कृति को अलग नहीं कर सकता।। मैंने अपने लिए अपनी रचना और आलोचना के बीच जटिल संबंधों को कुछ इसी तरह समझा और बरता है । पढ़ना भी मेरे लिए अन्य अनुभवों की तरह एक खास तरह का जीवनानुभव ही है जो हमारे अन्दर की रचनाशीलता को भी कई तरह और अनेक स्तरों पर उकसा सकता है ।
मेरे विधिवत आलोचना लिखने की शुरुआत १९५५-५६ मानी जा सकती है जब मैं ``युगचेतना`` के संपादक-मण्डल में शामिल हुआ । इसके पहले कुछ निजी ढंग की टिप्पणियां और प्रतिक्रियाएं इधर-उधर लिखता रहा था । आलोचना लिखना मेरा प्रमुख कार्य क्षेत्र नहीं रहा । जब किसी कृति ने खासतौर पर मुझे आकृष्ट किया या मुझे लगा कि किसी कृति के जरिये मैं कोई अपनी बात भी कहना चाहता हूं, तब कुछ कहा । इसीलिए, आप देखेंगे कि ``आज और आज से पहले`` मेरे समीक्षा-संग्रह में कई तरह के लेख हैं लेकिन इतिहास या काल-क्रमानुसार उनमें तारतम्यता और एकाग्रता नहीं है । अन्य रचनाओं के साथ एक खुली बातचीत का सा रंग-ढंग है । इसी तरीके से अन्य विषयों पर भी लिखता रहा हूं, जैसे सिनेमा, नाटक, संगीत, विचार-साहित्य आदि जिनकी एक बानगी आपको यतीन्द्र मिश्र द्वारा संपादित मुझ पर केन्द्रित पुस्तक के खण्ड-१ में देखने को मिल सकती है, या ``मेरे साक्षात्कार`` (सं. विनोद भारद्वाज) में भी ।
अधिकांश रचनाकार ऐसा मानते हैं कि, आजकल हिन्दी आलोचना का क्षितिज बड़ा संकीर्ण हो गया है । आलोचक अपने मित्रों की रचनाओं पर ही अधिक बहस करते हैं । समग्र रूप से मूल्यांकन कोई नहीं करता ?
कुंवर नारायण : काफी हद तक सही होते हुए भी यह बात पूरी तरह सही नहीं है । बहुत अच्छी समीक्षा भी लिखी जा रही है । उस पर ज्यादा ध्यान रखना चाहिए।। साहित्य के भाषाई, शास्त्रीय, वैचारिक और अध्ययनशील तत्वों पर कम चिन्तन हो रहा है जिसकी वजह से अखबारी और उथले ढंग की समीक्षा ही गंभीर समीक्षा का पर्याय-सा बनती जा रही है । श्रेष्ठ और जिम्मेदार आलोचना का मतलब है कि उसमें अपने समय के विशिष्ट लेखन को अलग से पहचान सकने की योग्यता, धैर्य और पैशन हो ।
आप मानक आलोचना किसे मानते हैं, मानक आलोचना का मानदंड क्या होना चाहिए ?
अपने पूर्वाग्रह अपनी जगह लेकिन समीक्षा की जाँच पड़ताल में अगर भरसक निष्पक्षता और तटस्थता हो तो शायद वह मानक समीक्षा के आदर्श के ज्यादा नजदीक मानी जा सकती है। रचना जीवन-सापेक्ष होती है। वह जीवन की सच्चाइयों से हमारा सामना कराती है। आज कबीर या तुलसी को हम उन्हीं सच्चाइयों के लिए पढ़ते हैं। उस भावनात्मक उद्रेक के लिए पढ़ते हैं जो एक स्थायी मानवीय यथार्थ है, भले ही उनके रहस्यवाद या भक्ति को लेकर हम आज भिन्न तरह सोचते हों। `क्लासिक्स` और `समकालीन` लेखन को लेकर भी दोहरे मानदण्ड नहीं होने चाहिए कि एक को तो हम मानवीय गुणों के कारण स्वीकृति दें और दूसरे को वैचारिक मतभेद के आधार पर खारिज कर दें।
कुंवर नारायण : आलोचना संबधी कुछ शब्दों और `पदों` पर गहराई से विचार करना चाहिए, जैसे `आलोचना`, `समीक्षा', `विवेचना', `मूल्यांकन`, 'अध्ययन`, `व्याख्या`, `आकलन', `विश्लेषण', `रिव्यू` आदि जो एक कृति या रचना पर सोच विचार से जुड़े पद हैं । इनके अभिप्राय और आशय एक से लगते हुए भी एक से नहीं हैं। एक कृति के गुण-दोष निर्धारण में इन पदों के बीच फर्क का आभास मिलते रहना चाहिए । `पदों` को लेकर असावधानी और थोकपन की वजह से भी अनेक भ्रांतियां उत्पन्न होती है । किसी भी कृति को केवल एक ही दृष्टि से और एक ही तरफ से देखना भी पर्याप्त नहीं है, क्योंकि एक रचना के स्वभाव में ही बहुलता और अनेकता होती है । उसे कई तरह से जांचना परखना जरुरी होता है । अपने पूर्वाग्रह अपनी जगह लेकिन समीक्षा की जाँच पड़ताल में अगर भरसक निष्पक्षता और तटस्थता हो तो शायद वह मानक समीक्षा के आदर्श के ज्यादा नजदीक मानी जा सकती है। रचना जीवन-सापेक्ष होती है। वह जीवन की सच्चाइयों से हमारा सामना कराती है। आज कबीर या तुलसी को हम उन्हीं सच्चाइयों के लिए पढ़ते हैं। उस भावनात्मक उद्रेक के लिए पढ़ते हैं जो एक स्थायी मानवीय यथार्थ है, भले ही उनके रहस्यवाद या भक्ति को लेकर हम आज भिन्न तरह सोचते हों। `क्लासिक्स` और `समकालीन` लेखन को लेकर भी दोहरे मानदण्ड नहीं होने चाहिए कि एक को तो हम मानवीय गुणों के कारण स्वीकृति दें और दूसरे को वैचारिक मतभेद के आधार पर खारिज कर दें। एक कृति पर विचार विमर्श जरुरी है, मतभेद भी संभव है, लेकिन जब हम एक कृति को गवाह बना कर अपना पक्ष पुष्ट करना चाहते हैं उस समय यह सावधानी जरुरी है कि कृति के अपने पक्ष को कमजोर करके या विकृत करके न पेश किया जाय । एक कृति विशेष के मन्तव्यों में भी कमियां और चूकें हो सकती है । ऐसी अनेक रचनाएं ध्यान में आती हैं जिन्हें हमारे प्रचलित नैतिक और सामाजिक मूल्य अकसर स्वीकार नहीं कर पाते फिर भी एक क्लासिक की हैसियत से साहित्य में उनकी जगह बनी हुई है क्योंकि उनका आकलन हम पूरे जैविक संदर्भ में रख कर करते हैं न कि किसी खास विचार, समय या स्थान की सापेक्षता में ही ।
रचनाकार की आलोचक से शिकायत है कि, वे बिना पढ़े समीक्षाएं लिखते हैं जबकि आलोचक कहते हैं रचनाकार समीक्षाओं को पढ़े बिना रचनाएं लिखते हैं । एक ओर रचनाकार मानते हैं कि आलोचक भटक गए हैं वे सहायता करने में असमर्थ हैं वहीं दूसरी ओर आलोचक की शिकायत है - रचनाओं में ताजगी और दमखम की कमी है। आलोचक रचना को निरस्त कर अजेय होने का द्य्ढ़ प्रतिज्ञ हैं, ऐसी स्थिति में रचना के विकास में आलोचना की क्या भूमिका है ? और भविष्य में क्या होगी ?
कुंवर नारायण : रचना के विकास में आलोचना की भूमिका रही है और रहेगी ।
क्या, आलोचना में सिद्धान्त से अधिक महत्व व्याख्या का है?
कुंवर नारायण : आलोचना के `सिद्धान्त' और `व्याख्या` पक्ष का इतिहास लम्बा और खासा पेचीदा रहा है । उस सारे विचार विमर्श, वाद विवाद को एक उत्तर की सीमा में समेटना लगभग असंभव है, और बिना विस्तार में जाए उस पर बातचीत अधूरी और भ्रामक भी हो सकती है । बहुत सांकेतिक ढंग से ही यहां कुछ बातों का जिक्र भर ही हो पायेगा । बात को `व्याख्या` की ओर से उठाना चाहिए क्योंकि साहित्य के सिद्धांत-पक्ष पर जो भी बहसें होती रही है उनमें व्याख्या की प्रमुख भूमिका रही है । अमरीकी ``नयी समीक्षा`` (१९४०) के बाद से ही `व्याख्या` पद बराबर ही समीक्षात्मक छानबीन का ही हिस्सा रहा है । कुछ इस तरह के सवालों के ईद-गिर्द- क्या किसी कृति की कोई एक ही निर्णायक या प्रामाणिक व्याख्या मानी जा सकती है? या, उसकी कई व्याख्याएं हो सकती हैं, और वे सभी अपनी-अपनी तरह जायज मानी जा सकती हैं? यदि प्रामाणिक व्याख्या उसे माने जैसा उसे उसके लेखक या कवि ने माना होगा, तो उसके न रहने पर उसकी कृति की क्या स्थिति बनती है ? उसकी एक स्वतंत्र सत्ता मान कर उसका `पाठ` किया जाना चाहिए ? या उसके पाठ के अन्य तरीके भी हो सकते हैं? भाषाई और विखण्डनवादी दृष्टियों से एक रचना अस्तित्व में आने के बाद लेखक से मुक्त अपना आजाद व्यक्तित्व पा जाती है । उसके द्वारा संप्रेषित संकेत चिन्हों को हम कई तरह पढ़ सकते हैं : यह `पाठ` लेखक के इरादों से भिन्न भी हो सकता है । दरअसल, इस तरह की बहसों से किसी अंतिम नतीजे या फैसले तक पहुंचना दुश्वार होता है, लेकिन पैनी बहसों के दौरान जिन तमाम विचारों और धारणाओं का उत्खनन होता है वही इन बहसों का सब से मूल्यवान हिस्सा होता है। एक बात मन में आती है कि अगर `बहसों` का भी स्वतंत्र पाठ या अध्ययन किया जाए तो वह शायद उन्हें साधन बना कर किसी खास नतीजे पर पहुंचने से ज्यादा उपयोगी काम हो सकता है ।
कुँवर नारायण जी का जन्म १९ सितम्बर, १९२७ को फैजाबाद, उत्तरप्रदेश में हुआ। आपने लखनऊ विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य में एम.ए. किया है। आपके प्रमुख काव्य संग्रह हैं:- चक्रव्यूह, तीसरा सप्तक, परिवेश हम तुम, अपने सामने, कोई दूसरा नहीं, इन दिनों तथा आपका खण्ड काव्य है - आत्मजयी (कठोपनिषद के नचिकेता पर आधारित)। आपके प्रमुख कहानी संग्रह हैं:- आकारों के आसपास, लघु कथाओं का एक संकलन। इस के अलावा आपके द्वारा की गयी साहित्यिक आलोचना के संग्रह:- आज और आज से पहले, आलोचनात्मक लेखन का एक संग्रह आदि प्रमुख हैं।
आपने साक्षात्कार, साहित्य के कुछ तर- विषयक सन्दर्भ, संवत्सर व्याख्यान एवं अन्य लेखन का अनेक भारतीय एवं विदेशी भाषाओं में अनुवाद भी प्रमुखता से किया है।
ज्ञानपीठ सम्मान के अलावा आपको प्राप्त प्रमुख सम्मानों में हिन्दुस्तानी एकेडमी पुरस्कार (आत्मजयी), प्रेमचन्द पुरस्कार सम्मान (आकारों के आसपास), कुमारन आशान पुरस्कार (अपने सामने), तुलसी पुरस्कार (अपने सामने), हिन्दी संस्थान पुरस्कार (हिन्दी में उत्कृष्ट लेखन), व्यास सम्मान (कोई दूसरा नहीं), भवानी प्रसाद मिश्र पुरस्कार (कोई दूसरा नहीं), शतदल पुरस्कार (कोई दूसरा नहीं), साहित्य अकादेमी पुरस्कार (कोई दूसरा नहीं), लोहिया पुरस्कार (हिन्दी साहित्य में समग्र योगदान हेतु), कबीर सम्मान (भारतीय कविता में उत्कृष्ट योगदान हेतु), डी. लिट्. मानद उपाधि (राजर्षि पुरुषोत्तम दास टण्डन मुक्त विश्वविद्यालय, इलाहाबाद) प्रमुख हैं।
परम्परा का मूल्यांकन करते हुए परम्परा के प्रति आलोचक का द्यिष्टकोण कैसा होना चाहिए? मूल्यांकन के बाद पुनर्मूल्यांकन की आवश्यकता क्यों और कब पड़ती है ?
कुंवर नारायण : जिसे हम वर्तमान कहते हैं उसमें अतीत का भी बहुत बड़ा हिस्सा वर्तमान रहता है । हमारी भाषाओं, यादों, मनोविज्ञान, मनोरथों, यकीनों, आदतों आदि में । इसीलिए किसी भी बड़े बुनियादी परिवर्तन को सहसा स्वीकार कर लेना मुश्किल होता है । नए के प्रति सशंकिता होना उतना ही स्वाभाविक है जितना उसे न त्याग पाना जिसके हम लम्बे समय से अभ्यस्त हैं । नए और पुराने के बीच लगातार तनाव का यही मूल कारण जान पड़ता है । पारंपरिक मूल्य हमें अधिक आश्वस्त करते हैं क्योंकि समय उन्हें परख चुका होता है, लेकिन उन पर पुनर्विचार की जरुरत तब महसूस होती है जब कोई नया विचार, खोज या आविष्कार एक नई चुनौती पेश करता है । पिछली सदी में हम देख चुके हैं कि डारविन, मार्क्स, फ्रायड, आइन्स्टाइन आदि के विचारों ने इस प्रकार की चुनौतियां हमारे सामने रखीं कि हमारे लिए अपने पारंपरिक मूल्यों को नये सिरे से सोचना जरुरी हो गया इससे पहले मानवतावादी और विज्ञानवादी विचारों ने मध्यकालीन धर्म-भावना को एक बड़ी चुनौती दी थी । आज ऐसा नहीं लगता कि हमारे सामने ऐसे किसी बड़े विचार या विचारधारा की चुनौती है, लेकिन इधर ऐसे कई तथ्य हमारे जीवन में आए हैं जो मिल जुलकर हमारे रहन-सहन, आपसी संबंधों और सोचने विचारने के तौर तरीकों पर बुनियादी असर डाल रहे हैं । दबाव केवल विचारों का ही होता हो यह जरुरी नहीं । दो बातों की ओर खासतौर पर ध्यान जाता है : एक तो यह कि विज्ञान और तकनीक, उद्योग, वाणिज्य और बाजारवाद, संचार सूचना और यातायात आदि की सुविधाओं में असाधारण वृद्धि का सीधा असर हमारे जीवन पर पड़ रहा है - मानो एक विचारहीन उपभोक्तावाद से विचारशीलता को ही पीछे ढकेलता हुआ । दूसरी बात, इस उत्तर उपनिवेशवादी समय में `जातीय` पहचान अस्मिता और राष्ट्रीयता आदि का सवाल कुछ इस तरह उठा या उठाया जा रहा कि परंपरा की अपेक्षा हमारा ध्यान हमारे सुदूर अतीत और इतिहास की व्याख्या पर ज्यादा केन्द्रित हो रहा है। इससे परंपरा का वह अर्थ नष्ट होता है जिसमें विभिन्नताओं के बावजूद हमें आपस में जोड़े रहने की शक्ति है । परंपरा एक सतत गतिशील अवधारणा है, उसके प्रवाह को हम उलटा लौटा कर कहीं दूर अतीत में नहीं ले जा सकते ।
क्या, आलोचना का रचनाकार और समाज पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है ? किसी भी देश के सांस्कृतिक विकास में आलोचक और आलोचना की क्या भूमिका होती है ?
आलोचना यदि हठधर्मी, पक्षपाती, एकतरफा और अधकचरी है तो वह या तो उपेक्षित रह जायेगी, या फिर उसका नकारात्मक असर भी पड़ सकता है। अच्छी आलोचना न केवल एक रचना के बारे में हमारी सोच समझ को विस्तृत करती है बल्कि रचना के माध्यम से हमारे जीवन को भी। अच्छी आलोचना का काम केवल अपनी स्थापनाएं घोषित करना नहीं होता, हमें इस योग्य बनाना भी होता है कि हम खुद भी अच्छे बुरे के बीच सही फर्क कर सकें।
कुंवर नारायण : किसी भी क्षेत्र में उत्कृष्ट और संतुलित आलोचना का सकारात्मक प्रभाव पड़ता है । उत्कृट से मेरा मतलब ऐसी आलोचना से है जिसमें भरोसेमंद जानकारियां, तर्क की ईमानदारी और उच्चतम जीवन मूल्यों के प्रति आदर हो । आलोचना यदि हठधर्मी, पक्षपाती, एकतरफा और अधकचरी है तो वह या तो उपेक्षित रह जायेगी, या फिर उसका नकारात्मक असर भी पड़ सकता है। अच्छी आलोचना न केवल एक रचना के बारे में हमारी सोच समझ को विस्तृत करती है बल्कि रचना के माध्यम से हमारे जीवन को भी। अच्छी आलोचना का काम केवल अपनी स्थापनाएं घोषित करना नहीं होता, हमें इस योग्य बनाना भी होता है कि हम खुद भी अच्छे बुरे के बीच सही फर्क कर सकें। बहुत से ऐसे शब्द और पद होते हैं जिनके रुढ़ अर्थों को हम संदेह से परे मान चुके होते हैं । उनको लेकर हमारे अंदर नए सवाल उठते ही नहीं। श्रेष्ठ आलोचना जहां हमें इस तरह की रूढ़ियों के विरुद्ध निडर सवाल उठाने के लिए प्रेरित करती है वहीं इस ओर भी सावधान रहती है कि अपनी मान्यताओं को लेकर भी वह इस तरह के रूढ़िवादी चिन्तन प्रवृत्तियों की नयी लीक न बनने दे। खुलापन और उदारता आलोचना की संस्कृति का सबसे महत्वपूर्ण गुण है ।
कहा जाता है, रचना की तुलना में आलोचना का काम द्वितीयक है क्या, यह सही है ? अगर नहीं तो, रचना और आलोचना में समानता का आधार क्या है ?
कुंवर नारायण : आलोचना के केन्द्र में रचना होती है । रचना के केन्द्र में जीवन होता है । इस तरह दोनों का काम अलग अलग है, फिर भी दोनों के बीच जीवन का एक व्यापक संदर्भ तो रहता ही जिससे उनके सरोकारों की एक बड़ी बिरादरी बनती है । मेरी समझ में उनकी जगहों को यदि दरबारी ढंग से ऊपर-नीचे न रख कर अगल बगल रखा जाय तो हम उनके कामों को एक दूसरे की अपेक्षा भी, और एक दूसरे के बावजूद भी, बेहतर समझ सकेंगे । दूसरी बात जिस तरह एक बड़ी रचना जीवन पर आधारित भी हो सकती है और उसकी आलोचना भी, उसी तरह एक श्रेष्ठ आलोचना भी रचना सापेक्ष होते हुए भी उस जीवन पर भी अलग विचार हो सकती है जिसे आलोच्य रचना प्रस्तुत करती है । इस तरह रचना-जीवन-आलोचना के बीच एक त्रिकोणात्मक संबंध बनता है । `रचना` के अर्थ को यदि बहुत व्यापक करके देखें तो जरुर कह सकते हैं कि आलोचना भी एक खास तरह की रचना ही है लेकिन इस तरह का सामान्यीकरण मुझे जरुरी नहीं लगता । दोनों काम अलग-अलग है यह मानकर चलने में दोनों की विशिष्टता बनी रहती है ।
एक रचनाकार और आलोचक द्वारा की गई आलोचना में मुख्य फर्क क्या होता है ?
एक बड़ा रचनाकार अपने समय से आगे सोचता और देखता है, इसलिए आलोचना के बने बनाये पिछले नियम अकसर उसके लिए दिक्कतें पैदा करते हैं। रचनात्मकता की मांग के आगे उन्हें तोड़ना भी पड़ सकता है। अगर वह सचमुच कोई महान रचना दे पाता है तो आलोचना को उसके अनुरुप अपने नियमों को बदलना भी पड़ सकता है।
कुंवर नारायण : रचनाकार की आलोचना उसकी रचना-प्रक्रिया की भीतरी जरुरतों और अनुभवों से निकलती हैं । आलोचक द्वारा की गई आलोचना साहित्य के शास्त्र, इतिहास, सिद्धांतों, विचारधाराओं आदि को अपना आधार बनाती है । साहित्य के विकास में दोनों जरुरी है । लेकिन मौलिक रचनात्मक प्रतिभाएं अकसर स्वयत्तताधर्मी रही हैं । वे स्थापित पद्धतियों को तोड़ कर भी आगे बढ़ती रही है और जरुरी हो तो शास्त्रीय आलोचना के नियमों के खिलाफ भी । आधुनिकतावाद के साथ हम रचनात्मक और आलोचनात्मक दृष्टियों में इस तरह के द्वन्द्वात्मक रिश्ते को आसानी से पहचान सकते हैं । एक बड़ा रचनाकार अपने समय से आगे सोचता और देखता है, इसलिए आलोचना के बने बनाये पिछले नियम अकसर उसके लिए दिक्कतें पैदा करते हैं। रचनात्मकता की मांग के आगे उन्हें तोड़ना भी पड़ सकता है। अगर वह सचमुच कोई महान रचना दे पाता है तो आलोचना को उसके अनुरुप अपने नियमों को बदलना भी पड़ सकता है। कुछ-कुछ भाषा की गति की तरह है रचनाक्रम का विकास भी । भाषा पहले व्यवहार में बनती है फिर भी उसका व्याकरण बनता है । लेकिन यदि व्याकरण के अनुसार ही भाषा को बरतने की जिद हो तो भाषा का विकास रुक जाएगा । रचनात्मक ऊर्जा भी जैविक ऊर्जा का ही एक रुपान्तरण है । यह रुपान्तरण कभी-कभी बिल्कुल अप्रत्याशित और अनोखा रास्ता अपना सकता है । हम इस तथ्य का बारीक अध्ययन तो कर सकते हैं जैसा कि आलोचना करती है- लेकिन इस अध्ययन से निकले निष्कर्षों को आधार बना कर तो रचना प्रक्रिया को निर्देशित कर सकते हैं न ही उनको लागू करके मनचाही रचना का निर्माण ही कर सकते हैं।
आपकी दृष्टि में समकालीन लेखन की बुनियादी पहचान क्या हो सकती है ?
कुंवर नारायण : बहुत कुछ तो वह `समकालीन` शब्द में ही ध्वनित है कि वह मूलत: अपने समय से जुड़ा हुआ लेखन हो । लेखक का जन्म किसी भी स्थान, देश या भाषा में हो सकता है, लेकिन अपनी पहुंच में उसका लेखन अपने समय की महत्वपूर्ण जानकारियों और विचारों से अवगत होता है । इस अर्थ में वह स्थानीय भी होता है और सार्वभौमिक भी । इस समय दुनिया में जो लिखा-पढ़ा और सोचा जा रहा है उसके प्रति परहेजी रवैया नहीं होना चाहिए । उसे आत्मशिक्षा और आत्म-संस्कृति का जरुरी हिस्सा माना जाना चाहिए । समकालीन लेखन का एक दूसरा पहलू भी है कि उस पर आज किस तरह के स्थानीय और बाहरी यथार्थ का दबाव पड़ रहा है । किताबों का नया बाजार और मीडिया समकालीन लेखन पर किस तरह का प्रभाव डाल रहे हैं । भारतीय मूल के अनेक ऐसे लेखक हैं जो अंग्रेजी में लिख रहे हैं और इन दिनों चर्चा के केन्द्र में हैं । विश्व साहित्य का एक खासा बड़ा हिस्सा अंग्रेजी अनुवादों के जरिये साहित्य जगत में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करा रहा है । अनेक छोटी भाषाओं के बड़े लेखक अपने ही देश में तब जाने पहचाने गए जब उनका लेखन अंग्रेजी अनुवादों के द्वारा दुनिया के सामने आया । तो क्या इस तथ्य का समकालीन लेखन पर कोई गुणात्मक असर पड़ रहा है ? इसका उत्तर विस्तृत विवेचन मांगता है जो यहां संभव नहीं, लेकिन यह जरुर लगता है कि अब समकालीन लेखन की जो पहचान बन रही है वह केवल पाश्चात्य देशों का मामला नहीं है । उसमें तीसरी दुनिया से आ रहे लेखन की सक्रिय हिस्सेदारी है, चाहे वह अंग्रेजी अनुवादों द्वारा आ रहा हो, चाहे सीधे अंग्रेजी में लिखा जा रहा हो । कविता की स्थिति गद्य लेखन से भिन्न है । उसकी जड़ें एक भाषा-विशेष की प्रकृति, इतिहास, संस्कृति, मुहावरों आदि में गहरी प्रविष्ट होती है । इसीलिए किसी अन्य भाषा में उनका स्थानान्तरण बहुत मुश्किल होता है लेकिन सर्वथा असंभव नहीं होता । अच्छे काव्यानुवादों की भी एक सुद्य्ढ़ परंपरा है और इधर दुनिया की तमाम श्रेष्ठ कविताओं ने उत्कृष्ट अनुवादों द्वारा ही विश्व साहित्य में अपनी जगह बनायी है । मुझे विश्वास है कि इस ओर यदि पूरा ध्यान दिया जाय तो भारतीय और हिन्दी कविता की भी एक विश्व स्तरीय छवि उभरेगी ।
रचना के कथ्य और शिल्प में आप किसे प्रमुख मानते हैं ? और क्यों ?
कुंवर नारायण : यह एक थकी हुई पुरानी बहस है । संस्कृति काव्यशास्त्र में `शब्द` और `अर्थ` की प्रमुखता को लेकर यह बहस सदियों चली जिसे १७ वीं सदी में दोनों के महत्व को सहयोगी ठहरा कर पंडितराज जगन्नाथ ने एक निष्कर्ष तक पहुंचाया।। बीसवीं सदी में मार्क्सवाद को लेकर उसी तरह की बहस `कथ्य` और 'रूप` को लेकर उठी और अब भी जारी है । स्वयं मार्क्स का मानना था कि `कथ्य रुप का ही स्वरूप होता है।` यानी दोनों अविभाज्य होते हैं । (फॉर्म इज द फॉर्म ऑफ इट्स कन्टेस्ट- मार्क्स) चलिए, इसे ही ठीक मान लें और इस बहस को जारी रख फिर सदियां बरबाद न करें ।
क्या, आप रामचन्द्र शुक्ल को आलोचना के सिद्धान्तों और मूल्यांकन के मानदण्डों के प्रवर्तक/जनक मानते हैं या यह कार्य किसी दूसरे आलोचक ने किया है ?आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की आलोचना पद्धति क्या आज भी प्रासंगिक है ? क्या, आप मानते हैं कि, रामचन्द्र शुक्ल के बाद आलोचना का विकास होता जा रहा है । वह किस रूप में हुआ है ? उसे आगे बढ़ाने में किन किन का योगदान आपकी द्यिष्ट से रेखांकित करने योग्य है ?
कुंवर नारायण : शुक्ल जी ने हिन्दी में शास्त्रीय आलोचना और साहित्य के इतिहास लेखन का एक नया कीर्तिमान स्थापित किया । साहित्य के विकासक्रम में उसका एक बड़ा योगदान है, लेकिन उसे पहला या अन्तिम मानना ठीक नहीं । उनकी आलोचना द्यिष्ट का सब से प्रासंगिक पक्ष है - एक ओर तो संस्कृत काव्य शास्त्र पर उनकी पक्की पकड़, दूसरी ओर पाश्चात्य समीक्षा सिद्धांतों पर भी एक सतर्क द्यिष्ट।। उनके बाद हिन्दी साहित्य और समीक्षा दोनों ही आगे बढ़े हैं - और अनेक दिशाओं में । ``छायावाद`` को लेकर शुक्ल जी की द्यिष्ट कम उदार रही है । ``छायावाद`` एक बड़ा काव्य आंदोलन था, उस पर निराला और प्रसाद जैसे कवियों ने जो विचार प्रकट किये हैं वे आज ज्यादा महत्व रखते हैं । बाद की आलोचना को हिन्दी में ही नहीं विश्व साहित्य में भी हम दो प्रमुख धाराओं और उनकी उप-धाराओं में विभाजित होते देखते हैं । आधुनिकतावादी और मार्क्सवादी । उनके पीछे मार्क्स, फ्रायड, युंग, डारविन, आइन्स्टाइन आदि के विचारों का कभी स्पष्ट, कभी मिला जुला प्रभाव रहा है । आधुनिकता हो चाहे मार्क्सवाद उनकी वैश्विक उपस्थिति ने न केवल हिन्दी बल्कि अनेक देशों के साहित्य-चिन्तन पर गहरा असर डाला है । ``न्यू क्रिटिसिज्म``, संरचनावाद, विखण्डनवाद, उत्तर आधुनिकतावाद वगैरह में हम भाषा और मीडिया संबंधी तमाम ऐसी चिन्ताओं को साहित्य में आते देखते हैं जो किसी भी साहित्य के लिए आज प्राथमिक महत्व रखती हैं । समीक्षा का यह ज्यादा बड़ा और जटिलतर परिप्रेक्ष्य आज एक नई चुनौती भी है और अवसर भी ।
अपने समकालीन आलोचकों से आप किस सीमा तक प्रभावित हैं । आलोचना के क्षेत्र में अपना सहयात्री आप किन आलोचकों को मानते हैं ?
कुंवर नारायण : जीवन के साथ एक खुला, उदार और मैत्रीपूर्ण संबंध बनाना मेरे स्वभाव के अनुकूल पड़ता है । अपने लेखन में भी और दूसरों के लेखन में भी, इस बात पर खास ध्यान रहता है कि साहित्य मूलत: एक सांस्कृतिक चेष्टा है, फौजी कार्रवाई नहीं । इस आग्रह की नैतिक शक्ति हमारी भाषा में भी प्रकट होनी चाहिए और हमारी जीवन द्यिष्टयों में भी । रोष का प्रदर्शन शक्ति की नहीं असंयम की निशानी है।। अच्छी आलोचना अपनी बात को ईमानदारी, द्य्ढ़ता और सलीके से कहती है । इन गुणों को मैंने पसंद किया है । आलोचना का एक विस्तृत परिद्य्श्य बनता है जिसमें देशी और विदेशी दोनों समीक्षक शामिल है । कुछेक का ही नाम लेना इस परिद्य्श्य को संकुचित करना भी हो सकता है । दूसरे, यह परिद्य्श्य समय के साथ तेजी से बदलता रहा है । स्वभावत: मैंने ऐसी आलोचना को पसंद किया है जो इस बदलाव को लेकर जागरुक रही है । आलोचना में ठहराव की स्थिति रचनात्मकता के लिए किसी हद तक नकारात्मक माहौल बनाती है ।
आप प्रगतिशील विचारधारा के साथ-साथ सौंदर्यपरक मूल्यों और उदारता उदात्तता से युक्त रचना को अधिक महत्वपूर्ण मानते हैं या वैसी रचना को जो प्रगतिशील विचारधारा से न होते हुए भी सौंदर्यपरक मूल्यों, उदात्तता और यथार्थ को रेखांकित करने वाली होती है ?
कुंवर नारायण : आपके सवाल को जरा कम घुमा फिरा कर रखना जरुरी लगता है । आप शायद प्रगतिशील विचारों और कुछ जाने माने साहित्यिक गुणों के बीच कोई अनिवार्य द्वन्द्व या विरोध देख रहे हैं । प्रगतिशील दृष्टिकोण या विचारकोण से भी जीवन और साहित्य के रिश्तों को देखा जा सकता है, लेकिन यदि उसी दृष्टि से देखने का आग्रह हो तो वह जीवन और साहित्य दोनों की प्रगित में बाधक हो सकता है। इस विरोधाभास पर भी नजर रखनी चाहिए कि `प्रगति` के नाम पर भी `अ-प्रगतिशील` मानसिकता का पोषण संभव है।
नए आलोचकों में आपको जिन आलोचकों में कुछ संभावनाएँ नजर आती है, उनके बारे में कुछ बताइए ।
कुंवर नारायण : एक बात मन में आती है कि इस समय किसी बड़ी विचारधारा का सीधा दबाव आलोचना पर उस तरह नहीं पड़ रहा है जैसा अभी दो दशक पहले तक पड़ रहा था । बड़े विचारों का प्रभाव छन कर हमारी साहित्यिक-चेतना से विचार-बैंक में जमा हो गया है जिसका सूद हमें मिल रहा है । यह एक अच्छा मौका है कि नयी आलोचना की आज रचे जा रहे साहित्य से सीधी और संवेदनशील संवाद की स्थिति बने न कि टकराहट की । बड़े-बड़े विचारों और विचारधाराओं की मार्फत तो काफी बातचीत हो चुकी है। समीक्षा यह जानने की कोशिश करे कि इस समय महत्वपूर्ण जो लिखा जा रहा है वह किस तरह अपने चारों तरफ के यथार्थ को देख और सोच रहा है । आलोचना उसमें किस तरह का सकारात्मक हस्ताक्षेपी दायित्व निभा सकती है । अपनी बात को रचना से ऊपर रख कर नहीं, रचना की बात को धीरज से सोचते समझते हुए। आज हम जीवन के लग भग हर पक्ष को राजनीति की भाषा में सोचने के आदी हो गए हैं जबकि जरुरत है कि साहित्य और विचारशीलता की जमीन को और विस्तृत और पक्का किया जाये ताकि राजनीति पर भी उसका एक कारगर नैतिक और मानवीय प्रभाव पड़े । नयी आलोचना में यह फर्क अब साफ नजर आता है कि वह अधिक उदार और समावेशी हुई है ।
पुरस्कारों का रचनाकारों और आलोचकों पर क्या प्रभाव पड़ता है ?
कुंवर नारायण : आमतौर पर पुरस्कारों की राशि इतनी बड़ी नहीं होती कि रचनाकारों या आलोचकों के निर्णयों पर दूर तक असर डाल सके । मुख्य बात है एक विशिष्ट कृति के रूप में उसका मान्यता पाना । इस मान्यता से साहित्य को बढ़ावा मिल सकता है, बशर्ते कि पुरस्कार की खुद की एक प्रतिष्ठा हो । उसके निर्णायकों में ऐसे लोग हों जिनकी योग्यता, ईमानदारी, सोच समझ और न्याय बुद्धि संदेह से परे हो । इस माने में `भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार`, `देवीशंकर अवस्थी` जैसे पुरस्कारों ने अपनी एक खास जगह बनायी है । इसके बरअक्स बड़े पुरस्कारों के पीछे अक्सर जो खींचतान और राजनीति रहती है उससे चिन्ता भी होती है । लेकिन साहित्य की दुनिया पुरस्कारों की दुनिया से कहीं ज्यादा बड़ी है । यह सच्चाई आश्वस्त करती है कि नोबेल जैसे पुरस्कारों को भी देने में अगर चूकें हुई तो उससे साहित्य के फैसलों पर कोई खास फर्क नहीं पड़ा है ।
रचना और आलोचना के क्षेत्र में सकारात्मक भूमिका अदा करने में लघु-पत्रिकाओं की भूमिका आप किस रूप में मानते हैं? कौन-कौन सी लघु-पत्रिकाओं ने इस दिशा मे बेहतर काम किया है?
कुंवर नारायण : पत्रिकाओं का जीवन बहुत लम्बा नहीं होता । लघु पत्रिकाओं का जीवन तो और भी लघु होता है । वे बहुधा एक सीमित उद्देश्य को लेकर निकलती है - उस उद्देश्य की पूर्ति तक ही उनकी सार्थकता रहती है । उ द्देश्य पूरा न भी हो तो भी वे अपना संदेश तो दे ही जाती है । साहित्यिक गतिविधियों को सक्रिय रखने में उनकी ऐतिहासिक भूमिका होती है । उनमें हम समय की मांगों को, एक समय विशेष की साहित्यिक हलचलों को, ज्यादा नजदीक से महसूस कर सकते हैं । उनका दीर्घायु होना बड़ी बात नहीं है । ``सरस्वती`` जैसी पत्रिकाओं के बाल और युवाकाल को ही हम महत्वपूर्ण पाते हैं । उनका लम्बा बुढ़ापा साहित्य पर कोई खास प्रभाव नहीं डाल सका । कुछ पत्रिकाओं का पुनर्जन्म होता है, जैसे प्रेमचंद का ``हंस`` और फिर बाद में राजेन्द्र यादव का ``हंस`` लेकिन दोनों में हम उस बुनियादी अन्तर को आसानी से पहचान सकते हैं जो प्रेमचंद और उनके समय तथा राजेन्द्र यादव और उनके समय के बीच है । एक ही नाम की वे दोनों नितान्त भिन्न प्रकार की पत्रिकाएं हैं । इसी तरह अज्ञेय का ``प्रतीक`` और बाद में ``नया प्रतीक`` एक ही संपादक के बावजूद दो भिन्न प्रकार की पत्रिकाएं थीं ।``नया प्रतीक`` के संपादक मंडल में मैं और फणीश्वर नाथ रेणु भी थे, और हम दोनों ही इस बात को महसूस कर रहे थे कि ``नया प्रतीक`` शायद समय की मांग को सही तरह पूरा नहीं कर पा रहा था । इसी तरह ``युगचेतना`` जिसके साथ मैं लम्बे अरसे तक जुड़ा रहा, जब डॉ. देवराज के अकेले संपादन में पुन: निकली तो अलग अप्रभावी रही । ``आलोचना``, यद्यपि वह लघु पत्रिकाओं की श्रेणी में नहीं आती, उसके कई अवतारों की कथा दिलचस्प है । जो आलोचना के बदलते मिजाज का अच्छा खासा आईना है ।
अल्पकालिक पत्रिकाओं में हम ``नयापथ``, ``कृति`` (श्रीकांत वर्मा और नरेश मेहता), ``वसुधा`` (हरिशंकर परसाई) तथा ``पहचान`` (अशोक वाजपेयी) को खासतौर पर याद कर सकते हैं जिन्होंने न केवल नये रचे जा रहे साहित्य को प्रस्तुत करने में बल्कि उसके अनुकूल एक आलोचनात्मक माहौल बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई । आजकल हिन्दी में इतनी पत्रिकाएं निकल रही हैं जितनी शायद पहले कभी नहीं निकली होंगी । आसान छापा-तकनीक, कम्प्यूटर की सुविधाएं और विज्ञापन व्यवसाय का इस विपुल पत्रिका-उत्पादन में प्रमुख हाथ है । कुटीर-उद्योग की तरह ढेरों पत्रिकाएं छप रही है और ज्यादातर पत्रिकाएं एक ही तरह की लगती है । पत्रिकाओं की इस बहुलता के बावजूद काफी कुछ नया लेखन अखबारों और उनके रविवारीय पत्रिका परिशिष्टों द्वारा आ रहा है । सहज उत्सुकता होती है कि उच्च कोटि का साहित्य क्या इतना लिखा जा रहा है जो मीडिया की प्रतिदिन बढ़ती मांग को पूरा कर सके? या बहुत कुछ ऐसा लिखा जा रहा है जो गंभीर साहित्य की अपेक्षा पत्रकारिता की ओर ज्यादा खिसकता जा रहा है ? लघु पत्रिकाओं में काफी कुछ भरती का साहित्य छप रहा है । गंभीर साहित्य जितना अध्ययन, समय और धीरज मांगता है क्या मीडिया के पास उतना समय और ``स्थान`` है ? आपके प्रश्नों का उत्तर देते समय मेरा ध्यान इस ओर भी जाता है कि इस समय ``बातचीत`` (इन्टरव्यूज) और पत्रिकाओं तथा अखबारों में सीमित ``जगह`` को देखते हुए छोटे और चलताऊ किस्म की पुस्तक-समीक्षाओं की जो मांग बढ़ी है उससे साहित्य के विज्ञापनी ढंग के प्रचार-प्रसार में भले ही कुछ मदद मिली हो पर साहित्य के गुणात्मक पक्ष पर उसका कितना सकारात्मक असर पड़ रहा है इस पर ठीक से सोच विचार की जरुरत है । कहीं ऐसा तो नहीं कि श्रेष्ठ लेखन का एक बहुत बड़ा हिस्सा इसीलिए उपेक्षित रह जाता हो क्योंकि हर पत्रिका-अखबार हर पुस्तक को एक सीमित जगह और सीमित समय में निबटा देने की जल्दी में है।। लघु पत्रिकाओं पर आज एक बिल्कुल दूसरे तरह की जिम्मेदारी भी है । श्रेष्ठ साहित्य की उस गरिमा और विशिष्टता पर नजर रखना जो आज व्यावसायिक मीडिया तंत्र द्वारा बनायी जा रही मनोरंजन प्रधान लोकरुचि के चपेट में है । फिर भी समय अनेक बहुत अच्छी पत्रिकाएं भी निकल रही है जो साहित्य के प्रति अपने इस गंभीर दायित्व को लेकर सचेत हैं । सब के नाम गिनाना तो यहां संभव न होगा, पर उनके माध्यम से स्तरीय लेखन सामने आ रहा है ।
साहित्य संगठनों, दलों आदि में विशेष रूचि कभी नहीं रही। धीरे-धीरे उनमें साहित्य की अपेक्षा उनकी राजनीतियां अधिक मुखर हो जाती है। मुझे बड़े विचारों नें अधिक आकृष्ट किया है - साहित्यिक दृष्टि से भी और अपने आप में भी, जिनमें मेरे साहित्य सोच और जीवनदृष्टि को विस्तार और गहराई मिली।
अल्पकालिक पत्रिकाओं में हम ``नयापथ``, ``कृति`` (श्रीकांत वर्मा और नरेश मेहता), ``वसुधा`` (हरिशंकर परसाई) तथा ``पहचान`` (अशोक वाजपेयी) को खासतौर पर याद कर सकते हैं जिन्होंने न केवल नये रचे जा रहे साहित्य को प्रस्तुत करने में बल्कि उसके अनुकूल एक आलोचनात्मक माहौल बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई । आजकल हिन्दी में इतनी पत्रिकाएं निकल रही हैं जितनी शायद पहले कभी नहीं निकली होंगी । आसान छापा-तकनीक, कम्प्यूटर की सुविधाएं और विज्ञापन व्यवसाय का इस विपुल पत्रिका-उत्पादन में प्रमुख हाथ है । कुटीर-उद्योग की तरह ढेरों पत्रिकाएं छप रही है और ज्यादातर पत्रिकाएं एक ही तरह की लगती है । पत्रिकाओं की इस बहुलता के बावजूद काफी कुछ नया लेखन अखबारों और उनके रविवारीय पत्रिका परिशिष्टों द्वारा आ रहा है । सहज उत्सुकता होती है कि उच्च कोटि का साहित्य क्या इतना लिखा जा रहा है जो मीडिया की प्रतिदिन बढ़ती मांग को पूरा कर सके? या बहुत कुछ ऐसा लिखा जा रहा है जो गंभीर साहित्य की अपेक्षा पत्रकारिता की ओर ज्यादा खिसकता जा रहा है ? लघु पत्रिकाओं में काफी कुछ भरती का साहित्य छप रहा है । गंभीर साहित्य जितना अध्ययन, समय और धीरज मांगता है क्या मीडिया के पास उतना समय और ``स्थान`` है ? आपके प्रश्नों का उत्तर देते समय मेरा ध्यान इस ओर भी जाता है कि इस समय ``बातचीत`` (इन्टरव्यूज) और पत्रिकाओं तथा अखबारों में सीमित ``जगह`` को देखते हुए छोटे और चलताऊ किस्म की पुस्तक-समीक्षाओं की जो मांग बढ़ी है उससे साहित्य के विज्ञापनी ढंग के प्रचार-प्रसार में भले ही कुछ मदद मिली हो पर साहित्य के गुणात्मक पक्ष पर उसका कितना सकारात्मक असर पड़ रहा है इस पर ठीक से सोच विचार की जरुरत है । कहीं ऐसा तो नहीं कि श्रेष्ठ लेखन का एक बहुत बड़ा हिस्सा इसीलिए उपेक्षित रह जाता हो क्योंकि हर पत्रिका-अखबार हर पुस्तक को एक सीमित जगह और सीमित समय में निबटा देने की जल्दी में है।। लघु पत्रिकाओं पर आज एक बिल्कुल दूसरे तरह की जिम्मेदारी भी है । श्रेष्ठ साहित्य की उस गरिमा और विशिष्टता पर नजर रखना जो आज व्यावसायिक मीडिया तंत्र द्वारा बनायी जा रही मनोरंजन प्रधान लोकरुचि के चपेट में है । फिर भी समय अनेक बहुत अच्छी पत्रिकाएं भी निकल रही है जो साहित्य के प्रति अपने इस गंभीर दायित्व को लेकर सचेत हैं । सब के नाम गिनाना तो यहां संभव न होगा, पर उनके माध्यम से स्तरीय लेखन सामने आ रहा है ।
प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ और जनसंस्कृति मंच सहित दूसरे साहित्यिक संगठन एक-दूसरे पर अक्सर आरोप प्रत्यारोप लगाते रहते हैं, इससे प्रगतिशील आंदोलन को नुकसान हो रहा है । आपके विचार से यह विभाजन समाप्त कर इन्हें एकता के सूत्र मे साथ-साथ कैसे आगे बढ़ाया जा सकता है ?
कुंवर नारायण : साहित्य संगठनों, दलों आदि में विशेष रूचि कभी नहीं रही। धीरे-धीरे उनमें साहित्य की अपेक्षा उनकी राजनीतियां अधिक मुखर हो जाती है। मुझे बड़े विचारों नें अधिक आकृष्ट किया है - साहित्यिक दृष्टि से भी और अपने आप में भी, जिनमें मेरे साहित्य सोच और जीवनदृष्टि को विस्तार और गहराई मिली।
नई पीढ़ी के रचनाकारों के विषय में आपकी क्या राय है ? कुछ संभावनाशील रचनाकारों के नाम और काम पर अपने विचार बताइए ।
कुंवर नारायण : इस समय अच्छा जो भी लिखा जा रहा है उस पर सतर्क दृष्टि रखनी चाहिए । उसे पीढ़ियों में बांट कर देखना सिफारिशी ढंग से साहित्यांकलन को प्रोत्साहित कर सकता है । अगर इतर कारणों से हम साहित्यांकलन के मानदण्डों में गिरावट आने देंगे तो साहित्य पर इसका बहुत हितकर असर नहीं पड़ेगा। संभावनाशील रचनाओं और रचनाकारों का अच्छे और जिम्मेदार संकलनों द्वारा समय-समय पर सामने लाया जाना बहुत जरुरी है । नये संचयनों और संकलनों पर विशेष ध्यान देने का मतलब है नये लेखन को सही ढंग से पेश करना ।
हिन्दी रचना और आलोचना की विश्व साहित्य में क्या स्थिति है ?
कुंवर नारायण : हिन्दी में भी विश्व स्तरीय साहित्य रचा जा रहा है लेकिन अच्छे अनुवादों खासकर अंग्रेजी अनुवादों के अभाव में उसकी वाजिब विश्व स्तरीय पहचान नहीं बन पा रही है । यह एक दुखद स्थिति है कि अपने ही देश में शिक्षितों के बीच हिन्दी भाषा और साहित्य उपेक्षित से हैं । एक बहुत बड़े क्षेत्र में बोली जाने वाली भाषा होने के बावजूद हिन्दी वह आदर नहीं पा रही जो उसका हक है । विदेशों में आज हिन्दी की अपेक्षा उर्दू की स्थिति बेहतर है क्योंकि पाकिस्तान में वह पूरी तरह सम्मानित उनकी अपनी भाषा है । हिन्दी की राष्ट्रीय तो क्या क्षेत्रीय हैसियत ही डांवाडोल है । इस समय भारत में अंग्रेजी और हिन्दी दोनों ही भाषाओं में उच्च कोटि का लेखन हो रहा है पर दोनों भाषाओं के बीच एक अजीब सी दूरी और परायापन नजर आता है । हिन्दी भाषा का अपनी ही धरती पर असम्मानित रहना दूर तक उसके विकास को कुंठित कर रहा है । आज की हिन्दी आलोचना ने अपने स्वतंत्र कोई नियम कानून (कैनन्स) विकसित नहीं किये हैं । अधिकांश समीक्षा किसी न किसी राजनीति का अजेन्डा जान पड़ती है, गोया साहित्य उसके तहत कोई कार्यक्रम हो । उसका विकास, मोटे तौर पर पश्चिमी साहित्यकारों और विचारधाराओं से ज्यादा प्रभावित रहा- भारतीय काव्य-शास्त्र की सम्पन्न परम्परा से लगभग कटा हुआ । आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी तक तो हम अवश्य उसके जीवन्त स्पर्श को अनुभव कर पाते हैं, लेकिन उसके बाद वह संदर्भ या तो बिल्कुल औपचारिक या बेजान होकर रह गया । पाश्चात्य आलोचना ने बहुत यत्न से अपने को अपने प्राचीन और मध्यकालीन क्लासिक्स के अवलोकन और आकलन से जोड़े रखा । प्राचीनों को बराबर जीवन्त चर्चा की परिधि में रखा । प्राचीन यूनानी और लाटिन काव्यशास्त्र की ही तरह भारतीय काव्यशास्त्र भी अत्यन्त समृद्ध है तथा उच्च कोटि के पांडित्यपूर्ण चिन्तन की संसार में एक अद्वितीय मिसाल है । खास कर भाषा और व्याकरण के क्षेत्रों में । इस सच्चाई को हम से अधिक शायद पाश्चात्य विद्वानों ने आत्मसात किया है और इसीलिए उनके शोध कार्यक्रमों में भारत के भी प्राचीन और मध्यकालीन साहित्य चिन्तकों पर अध्ययनों का विशेष स्थान रहता है । इस सदी में भाषा, शब्द, अर्थ सम्प्रेषण के माध्यमों आदि पर जो गहरी छानबीन हुई है उसका क्रांतिकारी असर न केवल साहित्य बल्कि हमारे सोचने समझने के तरीकों पर भी पड़ा है । मुझे लगता है यह वक्त आलोचना के भी गहरे आत्मालोचना का वक्त है ।
मीडिया की लोकप्रियता और उसके सकारात्मक उपयोग की दिशा में आप क्या सोचते हैं ? क्या, दूरदर्शन अपने दायित्व का निर्वाह कर पा रहा है ?
कुंवर नारायण : साहित्य के संदर्भ में दूरदर्शन की, फिलहाल न तो कोई विचारणीय भूमिका है, न ही निकट भविष्य में बनती नजर आ रही है । उसे विज्ञापन उद्योग और सस्ते मनोरंजन की बहुलता ने बुरी तरह जकड़ लिया है । कलाओं से अधिक वह व्यवसाय तंत्र का हिस्सा बन गया है । साहित्य का अस्तित्व उसके लिए उतना ही है जितना वह इस उद्योग धंधे में सहायक हो । हिन्दी भाषा को लेकर दूरदर्शन की नीति विकृत और गैरजिम्मेदाराना है । फर्क साफ नजर आता है जब हम पाकिस्तान में प्रसारित होने वाली उर्दू को सुनते हैं। यह खासतौर पर ध्यान देने की बात है कि आजादी के बाद से जिस तरह ``आकाशवाणी`` की नीतियों से हिन्दी को ही नहीं, अच्छे शास्त्रीय संगीत को भी ठोस बढ़ावा मिला था उसकी अपेक्षा आज दूरदर्शन की भूमिका लगभग नकारात्मक साबित हो रही है । आज दूरदर्शन आकाशवाणी की अपेक्षा कहीं अधिक लोकप्रिय माध्यम है, इसलिए भी लोकरूचि को बनाने बिगाड़ने में दूरदर्शन का बहुत बड़ा दायित्व है । वह आज व्यवसाय, मनोरंजन और राजनीति को लेकर तो भरपूर मुत्विला है, लेकिन गंभीर विचारों, साहित्यों और कलाओं का कोई सार्थक प्रसारण उसके द्वारा लगभग नहीं के बराबर है ।
पुस्तकों के मूल्य बहुत अधिक रखे जा रहे हैं, वे पाठक और आम जनता कर कैसे पहुँचाई जा सकती हैं ?
रचनाकार परिचय:-
[परिचय] महावीर अग्रवाल का जन्म ५ मई १९४६ छत्तीसगढ़ के धमतरी जिले का गाँव `कुरुद' में हुआ। आपने एम.काम., पीएच.डी तक की शिक्षा प्राप्त की है। आपकी प्रकाशित कृतियाँ हैं :- लाल बत्ती जल रही है : व्यंग्य संग्रह , गधे पर सवार इक्कीसवीं सदी : व्यंग्य संग्रह, श्वेत कपोत की वसीयत : पंडित नेहरू पर, कुष्ठ और सामाजिक चेतना, न्याय के लिए लड़ता हुआ जटायु , आखिर कब तक : सात नाटकों का संकलन, काशी का जुलाहा : कबीर पर एक पूर्ण नाटक, छत्तीसगढ़ी लोक नाट्य : नाचा (शोधग्रंथ), तीजन की कहानी : नव साक्षरों के लिए , पंडवानी की खुशबू : ऋतु वर्मा , हबीब तनवीर का रंग संसार। आपके द्वारा सम्पादित पुस्तकें हैं:- शमशेर : कवि से बड़े आदमी, नागार्जुन : विचार सेतु , त्रिलोचन :किंवदंती पुरुष, मुकुटधर पाण्डेय : व्यक्ति एवं रचना, कबीर तेरे रुप अनेक, संवेदना के धरातल, निरक्षर व्यक्ति क्यों पढ़ें, सूत्रधार : बीस नाटकों का संकलन , लोक संस्कृति : आयाम एवं परिप्रेक्ष्य, श्री व्यंग्य सप्तक : दो खण्डों में।
कुंवर नारायण : यह बात कई बार और कई तरह उठती रही है कि प्रकाशक की रोजगारी व्यवस्था में आज लाइब्रेरियां प्रमुख खरीददार हैंं, पाठक नहीं । पुस्तकों के मूल्य इस प्रकार रखे जाते हैं कि लाइब्रेरियों की खरीद से ही किताबों की लागत और लाभ दोनों ही निकल आये । जाहिर है कि यह सौदा पाठक के लिए महंगा पड़ता है । पेपरबैक यानी सस्ते संस्करणों का नम्बर तो तब आता है जब कम से कम एक लाइब्रेरी संस्करण हार्डकवर में बिक चुका होता है । लेकिन इससे भी बड़ी समस्या है प्रकाशित हिन्दी पुस्तकों की वितरण व्यवस्था । उन्हें बेचने वाले पुस्तक केन्द्रों का सर्वथा अभाव है । दिल्ली जैसे शहर में भी, जहां अधिकांश बड़े प्रकाशक स्थित हैं, मुश्किल से चार-पांच केन्द्र होंगे जहां हिन्दी की पुस्तकें भी मिल सके । इन `केन्द्रो या `दुकानों` को अगर आप ढूंढ भी लें तो कतई जरुरी नहीं कि उनमें आप उस पुस्तक या उन पुस्तकों को भी ढूंढ लें जिसे या जिन्हें आप ढूंढ रहे हों । हिन्दी के पाठक की समस्याओं को हम भले ही हिन्दी लेखन में खोजते रहें, पर सच बात तो यह है कि हिन्दी पाठक वर्ग की बहुत बड़ी-बड़ी समस्याएं बिल्कुल व्यावहारिक स्तर की है । छापा तकनीक में उन्नति से पुस्तक की बाहरी चमक-दमक, माल की पैकिंग में तो अच्छा-खासा फर्क आ गया है लेकिन अंदर हिन्दी भाषा शुद्ध छपे, पुस्तक के अंत में अक्षर-क्रम से इन्डेक्स आदि हों, इस तरह के श्रम और व्यय को लेकर प्रकाशक ज्यादातर कंजूसी बरतते हैं । इधर भारतीय ज्ञानपीठ ने कीमतों को लेकर खास ध्यान दिया है । हार्ड-कवर में छपने वाली पुस्तकों के दाम भी अपेक्षाकृत कम रखे गए हैं । यह कैसे संभव हो पा रहा है ? खरीद फरोख्त के तंत्र पर भी जरा और गहराई से गौर किया जाना चाहिए ।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सरकार की नीतियों के संबंध में आपकी क्या धारणा है ?
कुंवर नारायण : लोकोक्ति प्रसद्धि है कि `कथनी और करनी के बीच की खाई कभी पटती नहीं है।' अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर घोषित सरकारी नीति जो भी हो लेकिन व्यवहार में कोई भी सरकार उसे पूरी छूट नहीं दे पाती । अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ही नहीं संविधान में अनेक एसे प्रावधान गिनाये गये हैं जिनका हर नागरिक बराबर के हकदार है लेकिन व्यवहार में वह तंत्र लचर साबित होता है जो ये हक के फायदे आम नागरिक को दिला सके । अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का न होना जनता से अधिक अकसर सरकारों के लिए खतरनाक साबित हुआ है । जनता कब क्या सोच रही है इस ओर से अगर एक सरकार अंधेरे में रहती है तो यह उसके लिए भी घातक सिद्ध हो सकता है । हमारे सामने ऐसी अनेक तानाशाह सरकारों के उदाहरण हैं जिनके पतन में जबरदस्ती चुप करा दी गई, जनता के रोष का निर्णायक हाथ रहा है । यह अ-सहमति को जबरदस्ती चुप करा देने की नीति, अब तानाशाही रवैये की लगभग एक प्रमुख पहचान बन चुकी है ।
हिन्दी आलोचना के उत्तरोत्तर विकास के संबंध में अपने विचार बताते हुए अपने प्रिय आलोचकों के बारे में बताइए ।
हिन्दी की सैद्धांतिक समीक्षा का पक्ष कमजोर है। अगर वह संस्कृत के वृहद काव्य शास्त्र से भी जुड़े तो नई समीक्षा को भी नया वजन दिया जा सकता है। भारतीय काव्यशास्त्र की अपनी पदावली और परम्परा समृद्ध और पक्की है। नई हिन्दी समीक्षा का सिद्धांत पक्ष उस परम्परा से भी बहुत कुछ पा सकता है।
कुंवर नारायण : एक बड़ी रचनात्मक कृति को कई तरह से सोचा जा सकता हैष। उसे किसी एक ही दृष्टि या कुछेक दृष्टियों से भी सोचा जा सकता है, लेकिन बड़ी समीक्षा, बड़ी रचना की ही तरह अपने साहित्य बोध को खुला और उदात्त रखना पसंद करती है । पिछले ५०-६० वर्षों की हिन्दी समीक्षा पर एक उड़ती नजर डालें तो कुछ प्रवृत्तियां साफ दिखाई देती है । कवि समीक्षकों में अज्ञेय, मुक्तिबोध, शमशेर, विजयदेवनारायण साही, नेमिचन्द्र जैन, धर्मवीर भारती, अशोक बाजपेई, रघुवीर सहाय, विष्णु खरे, विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, रमेशचंद्र शाह, मलयज, जगदीश गुप्त अजीत कुमार आदि खासतौर पर याद आते हैं । दूसरे वर्ग में शास्त्रीय यानी अकादमिक समीक्षा को महत्व देने वालों में देवीशंकर अवस्थी, निर्मला जैन, मदन सोनी, कृष्णदत्त पालीवाल, नित्यानंद तिवारी आदि के नाम तत्काल सामने आते हैं । दोनों से अलग मार्क्सवादी समीक्षकों में रामविलास शर्मा, नामवर सिंह, मैनेजर पाण्डेय, विश्वनाथ त्रिपाठी, नंदकिशोर नवल आदि की समीक्षाओं पर खास तौर से ध्यान जाता है । उपरोक्त दिए गए नाम ऐसे हैं जो तत्काल मुझे याद आ रहे हैं । यह सूची कतई पूरी नहीं है । नए लोग भी बहुत अच्छी समीक्षा लिख रहे हैं और आज की समीक्षा मुझे पहले से अधिक संश्लिष्ट प्रतीत होती है । सीमित द्यिष्टकोण एक बड़ी रचना के मूल्यांकन के लिए काफी नहीं होता । उसे कई तरह से देखने, सोचने और परखने का गहरा धीरज समीक्षा में होना चाहिए । कविता की जिस भीतरी जटिल रचना प्रक्रिया को एक कवि समीक्षक बेहतर समझ पाता है इसीलिए मेरे लिए विभिन्न समीक्षा द्यिष्टयों का महत्व रहा है न कि किसी एक ही द्यिष्ट का । हिन्दी की सैद्धांतिक समीक्षा का पक्ष कमजोर है। अगर वह संस्कृत के वृहद काव्य शास्त्र से भी जुड़े तो नई समीक्षा को भी नया वजन दिया जा सकता है। भारतीय काव्यशास्त्र की अपनी पदावली और परम्परा समृद्ध और पक्की है। नई हिन्दी समीक्षा का सिद्धांत पक्ष उस परम्परा से भी बहुत कुछ पा सकता है।
समकालीन आलोचना की रचनात्मक चुनौतियाँ क्या है ?
कुंवर नारायण : श्रेष्ठ रचनात्मक लेखन पूरे जीवन से बापस्तगी का नतीजा होता है । किसी एक ही द्यिष्ट या विचार का प्रतिनिधित्व नहीं । न उस तरह से उसका विभाजन, विश्लेषण और विवेचन ही पर्याप्त है । कई समीक्षा द्यिष्टयों को मिला जुलाकर ही एक बड़ी रचना को उसकी समर्थता में ठीक से समझा जा सकता है । अच्छी समीक्षा, कठिन अध्यन, अनुसंधान और मेहनत का फल होती है । पत्र-पत्रिकाओं और अखबारों में रिव्यूज द्वारा जो समीक्षाएं आ रही है, उनमें पुस्तकों के बारे में एक संक्षिप्त जानकारी जरूर मिल जाती है - यह भी आवश्यक और प्रशंसनीय काम है- पर यह किसी कृति की गंभीर और तात्विक विवेचना का विकल्प नहीं हो सकता । पिछले कुछ वर्षों में हिन्दी भाषा और साहित्य का वैश्विक संदर्भ तेजी से बदला और विस्तृत हुआ है । भारतीय मूल के अंग्रेजी लेखकों ने अपनी एक वैश्विक जगह बनाई है । हिन्दी समीक्षा के लिए यह एक चुनौती ही है और अवसर भी । भूमण्डलीकरण का एक अर्थ बाजारवाद और बढ़ते उपभोक्तावाद की विकृतियाँ हैं । साहित्य के लिए यह एक अत्यंत संवेदनशील समय भी है । हिन्दी साहित्य की एक विश्व स्तरीय छवि प्रक्षिप्त करने में समीक्षा एक बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है । भारतीय साहित्य और संस्कृति ज्यादा बड़ी दुनिया में प्रवेश कर रही है, किन्तु अच्छे अनुवादों के अभाव में उत्कृष्ट भारतीय साहित्य देश के बाहर नहीं पहुंच पा रहा है । वर्तमान हिन्दी समीक्षा का सिद्धांत पक्ष कमजोर है, जबकि पाश्चात्य समीक्षा (और प्राचीन संस्कृत समीक्षा का भी) चिंतन पक्ष गंभीर, अध्ययनशील और अनुसंधान परक रहा है । आज ऐसी विचार सम्पन्न समीक्षा कम ही पढ़ने को मिलती है, जिसमें एक समर्पित अध्येता का पैशन नजर आए । भारतीय समीक्षात्मक जानकारियों को लेकर एक संशलिस्ट द्यिष्ट बने, यह जरूरी लगता है । तभी समीक्षा का अर्थ एक नई रचनात्मक ऊर्जा पा सकेगा, जो रचनात्मक साहित्य के लिए भी उत्प्रेरक हो सकता है । एक कबीर, निराला, प्रेमचंद, मुक्तिबोध, अज्ञेय या शमशेर का साहित्य जगत जीवन की ही तरह जटिल और विविध है । उसी क्रम में ही उसे स्वीकार करते हुए लिखी गई संवेदनशील समीक्षा हमें न केवल कृति और साहित्य के बारे में बल्कि जीवन के बारे में भी नई समझें दे सकती हैं । यह एक बड़ा काम है, जिसके लिए हम समीक्षा की ओर देखते हैं ।
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16 टिप्पणियाँ
Nice article-interview in ALOCHANA. Thanks.
जवाब देंहटाएंAlok Kataria
आलोचना और आलोचना के सिद्धांतों पर बहुत विस्तार से कुँवर नारायण जी नें चर्चा की है। आज की आलोचना विधा कहलाने लायक नहीं रह गयी है एसे में इस प्रकार की परिचर्चायें आँख खोलने का कार्य करती हैं कि आलोचना दी क्या दिशा होनी चाहिये। साहित्य शिल्पी को इस प्रस्तुति का धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंमहावीर जी को प्रणाम। आपके प्रश्न ही इतने अच्छी तरह बुने हुए थे कि आलोचना पर गंभीर जानकारी प्राप्त होनी ही थी। कई विन्दु आँख खोलने वाले थे। आलोचना का मतलब केवल आलोचक द्वारा अपना विचार रखना ही नहीं होता। आलोचना बायस्ड भी नहीं होनी चाहिये और आलोचना की कोई विचारधारा नहीं होती। मैं कुँवर नारायण जी के इस कथन से सहमत हूँ कि "साहित्य के भाषाई, शास्त्रीय, वैचारिक और अध्ययनशील तत्वों पर कम चिन्तन हो रहा है जिसकी वजह से अखबारी और उथले ढंग की समीक्षा ही गंभीर समीक्षा का पर्याय-सा बनती जा रही है"। साहित्य शिल्पी को भी इस प्रस्तुति के लिये आभार।
जवाब देंहटाएंआलोचना पर संग्रह कर रखने वाला साक्षात्कार है।
जवाब देंहटाएंअपने पूर्वाग्रह अपनी जगह लेकिन समीक्षा की जाँच पड़ताल में अगर भरसक निष्पक्षता और तटस्थता हो तो शायद वह मानक समीक्षा के आदर्श के ज्यादा नजदीक मानी जा सकती है। रचना जीवन-सापेक्ष होती है। वह जीवन की सच्चाइयों से हमारा सामना कराती है। आज कबीर या तुलसी को हम उन्हीं सच्चाइयों के लिए पढ़ते हैं। उस भावनात्मक उद्रेक के लिए पढ़ते हैं जो एक स्थायी मानवीय यथार्थ है, भले ही उनके रहस्यवाद या भक्ति को लेकर हम आज भिन्न तरह सोचते हों। `क्लासिक्स` और `समकालीन` लेखन को लेकर भी दोहरे मानदण्ड नहीं होने चाहिए कि एक को तो हम मानवीय गुणों के कारण स्वीकृति दें और दूसरे को वैचारिक मतभेद के आधार पर खारिज कर दें।
जवाब देंहटाएं- आलोचना के वर्तमान स्वरूप को आप नें आईना दिखाने का कार्य किया है। कुँअर नारायण जी को धन्यवाद। कुँवर जी को ज्ञानपीठ की बधाई।
इस साक्षात्कार की जितनी प्रशंसा की जाये कम होगी। आलोचना जैसी विधा के तत्वों पर बारीक विश्लेषण या कहें विशेषज्ञ विचार जान कर बहुत अच्छा लगा।
जवाब देंहटाएंअनुज कुमार सिन्हा
भागलपुर
बहुत अच्छा साक्षात्कार है। प्रस्तुत करने के लिये धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंसंतुलित आलोचना पर विस्तार से चर्चा के लिये कुंवर नारायन जी व महावीर अग्रवाल जी का आभार. निश्चय ही किसी भी विषय भी पर आलोचन के लिये उसके बारे में गहन अध्यन की आवश्यकता होती है साथ ही. आलोचना में आलोचक का तटस्थ रह कर कार्य करना आवस्यक है
जवाब देंहटाएंएसी सामग्री नेट पर आयेगी तो वह दिन दूर नहीं जब साहित्यिकों का वह पूर्वाग्रह टूटेगा कि नेट पर गंभीर साहित्य नहीं प्रस्तुत होता। साहित्यशिल्पी की पूरी टीम को बधाई।
जवाब देंहटाएंमैने काव्यालोचना के पिछले अंक में व्यथित हो कर कुछ प्रश्न रखे थे जिनके उत्तर कुँवर जी के साक्षात्कार से मिले। आभारी हूँ महावीर जी का। उन्हे सापेक्ष के लिये भी साधुवाद देना चाहता हूँ ।
जवाब देंहटाएंमेरे प्रश्न दोहराये जाने आवश्यक हैं -
अ) कविता को किसी वाद की क्यों आवश्यकता है?
ब) कविता को कौन सी संस्था मानकीकृत करती है? किन पत्रिकाओं से छपने वाले कवि कहलाते हैं?
स) एसे कौन कौन से कवि हैं जिनकी कवितायें आम आदमी तक पहुँचती हैं। (आम आदमी पर लिखी गयी जटिल कवितायें नहीं)।
द) मुख्यधारा क्या है और इसे कौन निर्धारित करता है? मुख्यधारा में कौन कौन से कवि आते हैं और क्यों?
सुशील जी की आलोचना में उनका अपना वाद व विचार प्रमुख होता इस लिये वह आलोचना मेरी दृष्टि में संपूर्ण नहीं है। कुवर जी यहाँ मुझे संतुष्ट करते हैं कि - "`क्लासिक्स` और `समकालीन` लेखन को लेकर भी दोहरे मानदण्ड नहीं होने चाहिए कि एक को तो हम मानवीय गुणों के कारण स्वीकृति दें और दूसरे को वैचारिक मतभेद के आधार पर खारिज कर दें।"
इस साक्षात्कार को मैं इस लिये भी महत्वपूर्ण पाता हूँ कि आलोचना के वर्तमान के उथलेपन को भी सामने लाया गया है। कुअर जी का यह उत्तर देखें कि ' "आलोचना यदि हठधर्मी, पक्षपाती, एकतरफा और अधकचरी है तो वह या तो उपेक्षित रह जायेगी, या फिर उसका नकारात्मक असर भी पड़ सकता है। अच्छी आलोचना न केवल एक रचना के बारे में हमारी सोच समझ को विस्तृत करती है बल्कि रचना के माध्यम से हमारे जीवन को भी। अच्छी आलोचना का काम केवल अपनी स्थापनाएं घोषित करना नहीं होता, हमें इस योग्य बनाना भी होता है कि हम खुद भी अच्छे बुरे के बीच सही फर्क कर सकें।"
आपने साहित्य संगठनों को जिस तरह आडे हाँथों लिया है इससे यह साफ हो जाता है कि आप साहित्य को कितने समर्पित हैं "साहित्य संगठनों, दलों आदि में विशेष रूचि कभी नहीं रही। धीरे-धीरे उनमें साहित्य की अपेक्षा उनकी राजनीतियां अधिक मुखर हो जाती है। मुझे बड़े विचारों नें अधिक आकृष्ट किया है - साहित्यिक दृष्टि से भी और अपने आप में भी, जिनमें मेरे साहित्य सोच और जीवनदृष्टि को विस्तार और गहराई मिली।"
यह भी मैं उद्धरित करना चाहोंगा कि "हिन्दी की सैद्धांतिक समीक्षा का पक्ष कमजोर है। अगर वह संस्कृत के वृहद काव्य शास्त्र से भी जुड़े तो नई समीक्षा को भी नया वजन दिया जा सकता है। भारतीय काव्यशास्त्र की अपनी पदावली और परम्परा समृद्ध और पक्की है। नई हिन्दी समीक्षा का सिद्धांत पक्ष उस परम्परा से भी बहुत कुछ पा सकता है।" और यह भी " आज ऐसी विचार सम्पन्न समीक्षा कम ही पढ़ने को मिलती है, जिसमें एक समर्पित अध्येता का पैशन नजर आए । भारतीय समीक्षात्मक जानकारियों को लेकर एक संशलिस्ट द्यिष्ट बने, यह जरूरी लगता है । तभी समीक्षा का अर्थ एक नई रचनात्मक ऊर्जा पा सकेगा, जो रचनात्मक साहित्य के लिए भी उत्प्रेरक हो सकता है ।"
धन्यवाद दूंगा इस साक्षात्कार के लिये साहित्य शिल्पी को।
संस्कृति काव्यशास्त्र में `शब्द` और `अर्थ` की प्रमुखता को लेकर यह बहस सदियों चली जिसे १७ वीं सदी में दोनों के महत्व को सहयोगी ठहरा कर पंडितराज जगन्नाथ ने एक निष्कर्ष तक पहुंचाया।। बीसवीं सदी में मार्क्सवाद को लेकर उसी तरह की बहस `कथ्य` और 'रूप` को लेकर उठी और अब भी जारी है । स्वयं मार्क्स का मानना था कि `कथ्य रुप का ही स्वरूप होता है।` यानी दोनों अविभाज्य होते हैं <<
जवाब देंहटाएंsahi kaha kunvar ji ne ranjan ji ki mihnat ko salaam hai jinhone is site ko sahitya ke liye samarpit kiya hai.
SAHITYA AUR SAMEEKSHA SE JUDE
जवाब देंहटाएंSABHEE PRASHNON KE UTTAR KAVIVAR
KUNVAR NARAIN NE BAKHOOBEE DIYE
HAIN.MAHAVIR AGGARWAAL KO BADHAAEE
IS BHAVYA PRASTUTI KE LIYE.
jआलोचना पर वृहत दृष्टिकोण प्रस्तुत हुआ है। बहुत अच्छी प्रस्तुति है।
जवाब देंहटाएंमेरे लिये यह नया अनुभव था। किसी विषय वस्तु पर केन्द्रित इस तरह का साक्षात्कार मेरी निगाह से नहीं गुजरा था। आलोचना और उससे जुडी भ्रांतियों पर अच्छी बात हुई है। महावीर जी को धन्यवाद। सापेक्ष के कुछ पुराने अंक मेरे संग्रह में हैं, इस तरह की पत्रिकायें हिन्दी में अब कम ही रह गयी हैं।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति ...
जवाब देंहटाएंमहावीर जी को धन्यवाद....
साहित्य शिल्पी को भी
इस साक्षात्कार के लिये
आभार।
महावीर अग्रवाल जी के साहित्य और समीक्षा से संबंधित विचारपूर्ण प्रश्नों का कुंवर नारायण जी के उत्तरों में आलोचना और आलोचना के सिद्धांतों पर विस्तार से चर्चा की है। आलोचकों को इस
जवाब देंहटाएंसाक्षातकार से सही दिशा भी मिलती है जिससे वे हठधर्मी,पक्षपाती, एकतरफा और अधकचरी
आलोचना से बचे रहेंगे।
“किसी भी कृति को केवल एक ही दृष्टि से और एक ही तरफ से देखना भी पर्याप्त नहीं है, क्योंकि एक रचना के स्वभाव में ही बहुलता और अनेकता होती है । उसे कई तरह से जांचना परखना जरुरी होता है । अपने पूर्वाग्रह अपनी जगह लेकिन समीक्षा की जाँच पड़ताल में अगर भरसक निष्पक्षता और तटस्थता हो तो शायद वह मानक समीक्षा के आदर्श के ज्यादा नजदीक मानी जा सकती है।“
“श्रेष्ठ और जिम्मेदार आलोचना का मतलब है कि उसमें अपने समय के विशिष्ट लेखन को अलग से पहचान सकने की योग्यता, धैर्य और पैशन हो।“
आज अपने ही देश में हिंदी पर यह शब्द कितने सार्थक हैं-
“एक बहुत बड़े क्षेत्र में बोली जाने वाली भाषा होने के बावजूद हिन्दी वह आदर नहीं पा रही जो उसका हक है । विदेशों में आज हिन्दी की अपेक्षा उर्दू की स्थिति बेहतर है क्योंकि पाकिस्तान में वह पूरी तरह सम्मानित उनकी अपनी भाषा है ।
हिन्दी भाषा का अपनी ही धरती पर असम्मानित रहना दूर तक उसके विकास को कुंठित कर रहा है ।“
इस संतुलित और महत्वपूर्ण साक्षातकार के लिए साहत्य शिल्पी को धन्यवाद।
आपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.