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मृत्यु [कविता] - विजय कुमार सपत्ति

ये कैसी अनजानी सी आहट आई है;
मेरे आसपास.....
ये कौन नितांत अजनबी आया है मेरे द्वारे...
मुझसे मिलने,
मेरे जीवन की , इस सूनी संध्या में;
ये कौन आया है...

रचनाकार परिचय:-

विजय कुमार सपत्ति के लिये कविता उनका प्रेम है। विजय अंतर्जाल पर सक्रिय हैं तथा हिन्दी को नेट पर स्थापित करने के अभियान में सक्रिय हैं। आप वर्तमान में हैदराबाद में अवस्थित हैं व एक कंपनी में वरिष्ठ महाप्रबंधक के पद पर कार्य कर रहे हैं।

अरे ..तुम हो मित्र;
मैं तो तुम्हे भूल ही गया था,
जीवन की आपाधापी में!!!

आओ प्रिय,
आओ!!!
मेरे ह्रदय के द्वार पधारो,
मेरी मृत्यु...
आओ स्वागत है तुम्हारा !!!

लेकिन ;
मैं तुम्हे बताना चाहूँगा कि,
मैंने कभी प्रतीक्षा नहीं की तुम्हारी;
न ही कभी तुम्हे देखना चाहा है!

लेकिन सच तो ये है कि,
तुम्हारे आलिंगन से मधुर कुछ नहीं
तुम्हारे आगोश के जेरे-साया ही;
ये ज़िन्दगी तमाम होती है.....

मैं तुम्हारा शुक्रगुजार हूँ,
कि;
तुम मुझे बंधन मुक्त करने चले आये;

यहाँ...कौन अपना,कौन पराया,
इन्ही सच्चे-झूठे रिश्तो,
की भीड़ में,
मैं हमेशा अपनी परछाई खोजता था!

साँसे कब जीवन निभाने में बीत गयी,
पता ही न चला;
अब तुम सामने हो;
तो लगता है कि,
मैंने तो जीवन को जाना ही नहीं…..

पर हाँ , मैं शायद खुश हूँ,
कि; मैंने अपने जीवन में सबको स्थान दिया!
सारे नाते ,रिश्ते, दोस्ती, प्रेम..
सब कुछ निभाया मैंने..
यहाँ तक कि;
कभी कभी ईश्वर को भी पूजा मैंने;
पर तुम ही बताओ मित्र,
क्या उन सबने भी मुझे स्थान दिया है!!!

पर,
अब सब कुछ भूल जाओ प्रिये,
आओ मुझे गले लगाओ;
मैं शांत होना चाहता हूँ!
ज़िन्दगी ने थका दिया है मुझे;
तुम्हारी गोद में अंतिम विश्राम तो कर लूं!

तुम तो सब से ही प्रेम करते हो,
मुझसे भी कर लो;
हाँ……मेरी मृत्यु
मेरा आलिंगन कर लो!!!

बस एक बार तुझसे मिल जाऊं ...
फिर मैं भी इतिहास के पन्नो में;
नाम और तारीख बन जाऊँगा!!
फिर
ज़माना, अक्सर कहा करेंगा कि
वो भला आदमी था,
पर उसे जीना नहीं आया..... !!!

कितने ही स्वपन अधूरे से रह गए है;
कितने ही शब्दों को,
मैंने कविता का रूप नहीं दिया है;
कितने ही चित्रों में,
मैंने रंग भरे ही नहीं;
कितने ही दृश्य है,
जिन्हें मैंने देखा ही नहीं;
सच तो ये है कि,
अब लग रहा है कि मैंने जीवन जिया ही नहीं

पर स्वप्न कभी भी तो पूरे नहीं हो पाते है
हाँ एक स्वपन,
जो मैंने ज़िन्दगी भर जिया है;
इंसानियत का ख्वाब;
उसे मैं छोडे जा रहा हूँ...

मैं अपना वो स्वप्न इस धरा को देता हूँ......

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8 टिप्पणियाँ

  1. भाव भरी कविता... जीते जी मौत को याद रखना कहां आसान है.. हालांकि हर पल हम कहीं न कहीं उसकी आहट सुनते रहते हैं.

    जवाब देंहटाएं
  2. ACHCHHEE KAVITA KE LIYE SHREE
    VIJAY KUMAR SAPATTI KO BADHAAEE.

    जवाब देंहटाएं
  3. पर स्वप्न कभी भी तो पूरे नहीं हो पाते है
    हाँ एक स्वपन,
    जो मैंने ज़िन्दगी भर जिया है;
    इंसानियत का ख्वाब;
    उसे मैं छोडे जा रहा हूँ...
    मैं अपना वो स्वप्न इस धरा को देता हूँ......

    बहुत अच्छे सपत्ति जी।

    जवाब देंहटाएं
  4. मृत्यु सत्य है लेकिन जीवन सुन्दर। मुझे लगता है कि जब तक जीवन है उसकी सुन्दरता से उदासीन नहीं होना चाहिये।

    जवाब देंहटाएं
  5. कविता मे भाव इतने गम्भीर है कि कविता पढ्ते पढ्ते बार बार आप का न रहना दुखी कर रहा था फिर मन को समझाता कि ये तो उनकी कविता के भाव है मन से कविता में और कविताओं के मन से भावो के निकलने का शायद यही फर्क हो मुझ अज्ञानी को क्या मालूम इस सनातन सत्य पर कुछ शोध चल रहा था जिसमें आपने गति दी है धन्यवाद स्वीकारें !

    जवाब देंहटाएं
  6. बस एक बार तुझसे मिल जाऊं ...
    फिर मैं भी इतिहास के पन्नो में;
    नाम और तारीख बन जाऊँगा!!
    फिर
    ज़माना, अक्सर कहा करेंगा कि
    वो भला आदमी था,
    पर उसे जीना नहीं आया..... !!!
    -- इन्सान की मोह की कड़ी अंत तक नहीं टूटती की उसे मरने के बाद भी याद किया जाए..बहुत सादगी से आपने इन भावो को सुंदर शब्दों में पिरो दिया.

    हाँ एक स्वपन,
    जो मैंने ज़िन्दगी भर जिया है;
    इंसानियत का ख्वाब;
    उसे मैं छोडे जा रहा हूँ...
    मैं अपना वो स्वप्न इस धरा को देता हूँ......
    अंतिम पंक्तिया मानो मृत्यु को भी शर्मिंदा कर गयी. बहुत सुंदर रचना क लिए बधाई.

    जवाब देंहटाएं

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