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जीवन के रंगमंच से [आलेख] - शेफ़ाली 'नायिका'


कठपुतलियों का खेल कितना प्यारा लगता है | नाचती, गाती, लड़ती, झगड़ती, बात करती हुई कठपुतलियाँ उनकी डोर को थामकर रखने वालों के हाथों का तिलस्मी खेल होता है | तिलस्मी इसलिए कहा क्योंकि देखने वालों को वो हाथ दिखाई नहीं देते, जिनके द्वारा कठपुतलियों में जान आ जाती है | हाँ कुछ पतली डोरियाँ ज़रूर दिखाई देती हैं, जो ऊपर की ओर जाती हैं, फिर पर्दे के पीछे गायब हो जाती हैं | ये एहसास भर बना रहता है कि कोई है जो उनको थामे हुए है, कौन है दर्शकों को नहीं पता | 

रचनाकार परिचय:-

शैफाली 'नायिका' माइक्रोबायोलॉजी में स्नातक हैं। आपनें वेबदुनिया डॉट कॉम में तीन वर्षों तक उप-सम्पादक के पद पर कार्य किया है। आपने आकाशवाणी एवं दूरदर्शन के विभिन्न कार्यक्रमों में संचालन भी किया है।

कुछ कठपुतलियों में जब सांसें आ जाती हैं, डोरियाँ और महीन हो जाती हैं, इतनी महीन कि दिखाई भी नहीं देती, तो कठपुतलियों को यह भ्रम होने लगता है कि उनके अंदर जो हरकत हो रही है वह उनके बस में हैं | वह उनकी डोरियों को थाम कर रखने वाले हाथों के अस्तित्व को भी इंकार करने लग जाती हैं | लेकिन सिर्फ़ ऐसा मान लेने से सच बदल तो नहीं जाता ना? डोरियाँ तो फिर भी उन्हीं हाथों में हैं ना? हम कितनी भी उठापटक कर लें, कितनी भी भागा-दौड़ी कर लें, कितना भी हम मान लें कि जो कुछ भी घट रहा है, वह हमारे ही द्वारा हो रहा है, तो इससे सच्चाई बदल तो नहीं जाती ना? हमें जाना तो वहीं होता है, जहाँ वो हाथ ले जाए, जिसके पास सारी डोरियों के सिरे खुलते हैं | हम कितना भी मान लें कि हम कर रहे हैं, लेकिन इससे उसकी योजना में कोई परिवर्तन नहीं आता | उसे तो वही खेल दिखाना होता है, जो उसने तय कर रखा है | 

यहाँ हर व्यक्ति की हालत उस पक्षी की तरह है, जिसको यह भविष्यवाणी सुनाई देती है कि 20 दिनों बाद उसकी मौत होने वाली है | तो वह पक्षी सोचता है कि मैं उड़ कर ऐसी दिशा में चला जाऊँ जहाँ पर मौत मुझे देख न सके, तो वह 20 दिनों का सफ़र तय कर एक ऊँचे पहाड़ की अंधेरी-सी गुफ़ा में जाकर छुप जाता है | गुफ़ा में जाते से ही उसे फिर वह आकाशवाणी सुनाई देती है कि आओ तुम्हारा ही इंतज़ार हो रहा था | मैं यही तो सोच रहा था कि तुम्हारी मौत तो इसी गुफ़ा में तय है, तुम अभी तक पहुँचे क्यों नहीं? 

इंसानी फ़ितरत भी ऐसी ही हो चुकी है | वह कोशिश करता है कि मैं ऐसा कुछ कर लूँ कि अपनी क़िस्मत अपने हिसाब से बना लूँ | वह नहीं जानता कि वह कितनी भी भागा-दौड़ी कर लें, कितनी भी जद्दोजहद कर के उस मकाम तक पहुँच जाए, लेकिन उसकी किस्मत में वही मकाम लिखा था, जहाँ तक वह पहुँचा है | अब चाहे तो इसका उत्तरदायित्व वह ख़ुद पर ले लें, या अपने अस्तित्व के प्रति अहोभाव से भर जाए | 

तभी तो ओशो ने कहा है - ख़ुद को सिर्फ़ उस बांस के टुकड़े की तरह कर लो, जिसमें से जब हवा गुज़रती है तो वह सिर्फ़ एक बांस का टुकड़ा नहीं रह जाता बल्कि बांसुरी हो जाता है | तो ख़ुद को बांसुरी बना लो और जीवन को उसमें हवा बनकर गुज़रने दो | तुम्हारा अस्तित्व ख़ुद तुम्हें तुम्हारा जीवन संगीत सुनाएगा | जीवन जैसा आ रहा है उसे वैसे जीते जाओ, उसका प्रतिकार न करो | तुम ख़ुद जानोगे कि तुम्हारे अंदर जो जीवन संगीत है उसके लिए तुम्हें प्रयास नहीं करना पड़ रहा, वह तो ख़ुद-ब-ख़ुद तुमसे निकल रहा है | 

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13 टिप्पणियाँ

  1. ख़ुद को सिर्फ़ उस बांस के टुकड़े की तरह कर लो, जिसमें से जब हवा गुज़रती है तो वह सिर्फ़ एक बांस का टुकड़ा नहीं रह जाता बल्कि बांसुरी हो जाता है | तो ख़ुद को बांसुरी बना लो और जीवन को उसमें हवा बनकर गुज़रने दो | तुम्हारा अस्तित्व ख़ुद तुम्हें तुम्हारा जीवन संगीत सुनाएगा |

    आपका लिखने का तरीका सम्मोहित करता है। आपके लेख को आरंभ करने के बाद उसे आखिर तक पढना अनिवार्य हो जाता है।

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  2. अअलेख में आध्यात्मिकता है। संदेश अच्छी तरह अभिव्यक्त हुआ है। कठपुतली और पक्षी के बाध्यम से बात प्रभावी तरीके से कही गयी है और अंत में ओशो का उदाहरण सोने पर सुहागा है।

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  3. आलेख सोचने पर मजबूर करता है। जीवन के रंगमंच की सच्ची व्याख्या है।

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  4. शेफ़ाली जी के इस आलेख में अपने अंतरतम को तलाशने की राह है। पढ कर सुखद अनुभूति हुई।

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  5. बहुत अच्छा लिखा है आपने शेफ़ाली जी। इंसानी फ़ितरत भी ऐसी ही हो चुकी है | वह कोशिश करता है कि मैं ऐसा कुछ कर लूँ कि अपनी क़िस्मत अपने हिसाब से बना लूँ | वह नहीं जानता कि वह कितनी भी भागा-दौड़ी कर लें, कितनी भी जद्दोजहद कर के उस मकाम तक पहुँच जाए, लेकिन उसकी किस्मत में वही मकाम लिखा था, जहाँ तक वह पहुँचा है |

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  6. सधी हुई भाषा में एक अच्छा आलेख लिखने के लिए बधाई और शुक्रिया | आलेख इस दौर में सामयिक और तार्किक है जब हर कोई आतंरिक शान्ति की कीमत पर बाह्य साधनों को पा लेना चाहता है | हम कहाँ क्या खो देते हैं , नहीं जान पाते | ओशो रजनीश की उक्ति का प्रयोग आलेख को बल देता है |
    लेकिन इस आलेख में एक presumption भी है .. एक ऐसी शक्ति के अस्तित्व का, जो कि ब्रह्माण्ड को चला रही है ... इस पर और आलेख और चर्चा संभव है ..
    बहरहाल , इस आलेख के लिए फिर शुक्रिया | :-)

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  7. सुन्दर, अति सुन्दर. बहुत अच्छा आलेख...

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  8. बेहद सधी हुई सम्मोहक भाषा में लिखा गया यह आलेख पाठक को अन्त तक अपनी गिरफ़्त में लिए रहता है। शेफाली जी अपनी कलम की इस ताकत को बनाए रखिये।

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  9. शेफ़ाली जी,

    आपके आलेख की ताकत है उसकी तार्किकता, ओशो दर्शन की भी झलक मिलती है। बहुत प्रभावी आलेख है।

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  10. मुझे 'मैं' ने, तुझे 'तू' ने, हमेशा ही दिया झाँसा.

    खुदी ने खुद को मकडी की तरह जाले में है फांसा. .

    निकलना चाहते हैं हम नहीं, बस बात करते हैं.

    खुदी को दे रहे शह फिर खुदी की मात करते हैं.

    चहकते जो, महकते जो वही तो जिन्दगी जीते.

    बहकते जो 'सलिल' निज स्वार्थ में वे रह गए रीते.

    भरेगा उतना जीवन घट करोगे जितना तुम खाली.

    सिखाती सत्य जीवन का हमेशा खिलती शेफाली.

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  11. आप सब का प्यार और आशीर्वाद ही मेरे लेखन में जादू डालता है वरना चंद हरूफ का तानाबाना है ये तो सिर्फ.
    धन्यवाद
    शैफाली 'नायिका'
    http://shaifaly.mywebdunia.com

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