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चुनाव की नाव और नोट की गांठ [व्यंग्य] - अविनाश वाचस्पति

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मूर्खता और चुनाव का चोली दामन का साथ है। चुनाव की नाव जब तक गतिमान रहती है; वोटर के चारों ओर उसे लुभाने के अंदाज में मंडराती रहती है। चुनाव की नाव के मोहपाश से वोटर बच नहीं पाता है। कहा भी गया है चुनाव में मूर्ख ही वोट देते हैं और जिन्हें वोट दिया जाता है, वे राज करते हैं। उसी वोट के बल पर राज करते हैं और जिसने वोट दिया उसका तो बल वोट देते ही गया। वोटर की बलहीनता वोट डालते ही शुरू हो जाती है। बलहीनता मूर्खता का पर्याय बन जाती है। अब पहले मूर्ख दिवस यानी फर्स्ट अप्रैल को है और चुनाव दिवस उसके कुछ दिन बाद ही। पर चुनाव का बाद में होना भी मूर्खता दिवस के प्रभाव में कमी नहीं ला सकता है। बल्कि चुनावदिन तक मूर्खता में तेजी से बढोतरी ही नजर आती जाएगी। मूर्खता वो सेंसेक्स की तेजी है जो साल भर पहले तक काफी तेजी से चढ़ रही थी। जब वो उतार पर है तब भी मूर्खता शिखर की ओर नए आयाम स्थापित कर रही है। वोट हथियाने के लिए नोट लुटाने (बांटने) का सिलसिला चालू हो चुका है। होली पर मुलायम ने नोट बांटे हैं, गोविंदा ने भी बांटे हैं। दोनों सुर्खियों की चर्खियों पर लिपटे हुए हैं। यह सुर्खियां जमीन गड़े लंबे बांस के उपरी छोरों पर बंधा पतला सा तार है, इसी तार पर मुलायम और गोविंदा सवार हो चुके हैं। अब अगर तार पर अपना संतुलन कायम रखने की जद्दोजहद में कुछ नोट छूटकर नीचे बिखर जाते हैं तो इसमें आचार संहिता का उल्लंघन कहां से हो गया, यह हमारी समझ से तो नितांत परे है।

रचनाकार परिचय:-


अविनाश वाचस्पति का जन्म 14 दिसंबर 1958 को हुआ। आप दिल्ली विश्वविद्यालय से कला स्नातक हैं। आप सभी साहित्यिक विधाओं में समान रूप से लेखन कर रहे हैं। आपके व्यंग्य, कविता एवं फ़िल्म पत्रकारिता विषयक आलेख प्रमुखता से पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं। आपने हरियाणवी फ़ीचर फ़िल्मों 'गुलाबो', 'छोटी साली' और 'ज़र, जोरू और ज़मीन' में प्रचार और जन-संपर्क तथा नेत्रदान पर बनी हिंदी टेली फ़िल्म 'ज्योति संकल्प' में सहायक निर्देशक के तौर पर भी कार्य किया है। वर्तमान में आप फ़िल्म समारोह निदेशालय, सूचना और प्रसारण मंत्रालय, नई दिल्ली से संबद्ध हैं।

जब जान पर बनी हो तो झूठ बोलकर भी जान बचाना सबसे बड़ा धर्म माना जाता है। चाहे किसी की भी जान हो और जब अपनी जान पर बनी हो तो कुछ भी कुरबान किया जा सकता है। अभी तो सिर्फ नोट ही कुरबान किए हैं। दलों की कुरबानी तो खूब होती रही है। चुनाव के दिनों में इस कुरबानी में काफी तेजी दिखलाई पड़ती है। नजर एक जगह टिक भी नहीं पाती है कि पता चलता है कि दल बदल गया है। चाहे इससे निकल कर दलदल में ही क्यों न गिरना हो, पर कोई भी दलदल में फंसने के लिए नहीं बदलता है दल; यदि यह सत्ता की दलदल न हो। सत्ता की दलदल में सब प्राण गंवाने को आतुर बैठे हैं। उस दलदल का रास्ता् शक्ति और नोटों तक जाता है और नोट भी शक्तिरूपा ही हैं। नोटों की भक्ति करके कितने ही तर गए बल्कि सत्ता् में तरबतर भए, कहना अधिक समीचीन है। एक उंगली ही बहुत ताकतवर होती है। जब वो मिलकर हथेली और मुक्का, फिर मुक्का से सत्ता बनती है। आप हाथ की सत्ता देख ही रहे हैं। उंगली की ताकत मैं आपको बतलाता चलता हूं। पार्टी की बैठक चल रही थी। एक सुंदरी ने एक सरदार को उंगली से आने का इशारा किया। सरदार तुरंत सुंदरी की ओर लपका। अगर उंगली की जगह खड़ी हथेली या दिखाया होता मुक्का, तो क्या सरदार सुंदरी की ओर लपकता। नहीं, बिल्कुल नहीं। तो उंगली की ताकत गली गली में और नुक्कड़ नुक्कड़ तक देखी जा सकती है। बल्कि जहां से भी उंगली दिखाने वाला दिखाई दे, उंगली की ताकत नमूदार हो जाती है। तिगनी का नाच वाला मुहावरा भी उंगली की करामात को बखूबी बयां करता है। उंगली करना, उंगली घुसेड़ना, उंगली टेढ़ी करना बल्कि सीधी उंगली से चाहे घी न निकले पर घी वाला उंगली के एक इशारे भर से भागा चला आता है। फिर घी उसी से निकलवाया जा सकता है। अब वो चाहे अपनी उंगली टेढ़ी करके घी निकाले अथवा टीन ही टेढ़ा कर दे। घी तो निकल आया न, वो भी सीधी उंगली से और उंगली वसा के कुप्रभाव से भी बची रही। 

नोट की चोट सदियों से वोट को इसी प्रकार सम्मोहित करती रही है। नोट की चाहना वोट और वोट पाने के बाद नोट बांटने वाले की चाहना नोट – यह साफ करती चलती है कि नोट से महत्वपपूर्ण चीजें इस संसार में। लेकिन हैरतअंगेज बात यह है कि उन्हें भी नोट से ही खरीदा जा सकता है। अभी तो मैंने एक ही मिसाल दी है। अभी तो मूर्खता दिवस का साल एक अप्रैल से शुरू होना है पर मूर्खता किसी एक खास दिन का इंतजार नहीं करती है। जिस प्रकार मुलायम और गोविंदा ने नोट बांटकर मूर्खता की है और उसके लिए मूर्ख दिवस का इंतजार भी नहीं किया है। बकौल बिग बी इन दीवार यह वो लाईन है जो वहीं से शुरू हो जाती है, जहां से भी आप शुरू करना चाहें। 

अब सियासत यानी राजनीति में न तो सीता यानी सिया है और न सत यानी सच। सीता पर माया का रूतबा कायम हो रहा है और सच पर राजू का। तो जो भी है राजू की माया है। राजू का सत्यम् है। सत्यम् की माया को माया ही जाने और जाने राजू दीवाना। पर सियासत के मोह से बेगाना शायद ही कोई होगा बल्कि अब तो सियासत के जुनूनी लोगों का दायरा बढ़ रहा है। पहले तो अनपढ़ ही आते थे सियासत के धंधे में। फिर अपराधी भी आने लगे, डाकू भी समाने लगे। अभिनेता तो वैसे भी नहीं लजाते। अगर लजाते तो क्या ऐसे वैसे कैसे कैसे रोल कर पाते। इसलिए जो लजाता है वो सब कुछ तो हो सकता है पर अभिनेता नहीं हो सकता। 

कमाने के लिए लजाने को छोड़ना ही होगा। इससे मुक्ति पाए बिना जमाने से नहीं जुड़ा जा सकता और जमाने से जुड़ गए तो नोट जमाने में भी देर नहीं लगेगी। जिसने नोट जमा लिए, समझ लो उसने सब कुछ जमा लिया, वोट जमा लिए, जुगाड़ जमा लिए। चमचे जुटा लिए। 

नौकरशाही नौ नौ करों के साथ उसके चारों ओर मटकने लगती है। अभी तो आपने सिर्फ एक मटुकनाथ का ही कमाल देखा था। दूसरा मटुकनाथ चांद मियां बनकर फिजा में जहर घोल रहा है। फिजा की अपनी अलग प्रजा है। लेकिन सब में मजा है। हर कोई अलग अलग रोमांटिक रोल प्ले कर रहा है। अब न हो अभिनेता, तो भी चलेगा। सियासत में भी राज नीति का ही चलता है। अब नीति अभिनय की हो या जिंदगी की या सिनेमा की। सुसंगत यही रहती है और रंगत भी यही देती है। गत भी यही बनाती है। दुर्गति भी कभी कभी जल्दी आ जाती है।

सत्ता प्राप्ति में भी यही हो रहा है। सिर्फ उंगली की करामात ही, हाथ तक को मात देने में सक्षम हो रही है। दो उंगलियां जब एक नोट पकड़ कर लहरा देती हैं तो हरा हरा वोट जीत के सारे समीकरण अपने पक्ष में मोड़ लेता है। कहा भी गया है कि नाक में उंगली, कान में तिनका मत कर, मत कर, मत कर लेकिन प्यारे आंख में अंजन, दांत में मंजन नित कर, नित कर, नित कर। दो उंगलियों में नोट पकड़कर लहराना वोटर की आंखों पर अंजन और दांतों पर मंजन करने के समान ही है। फिर उसकी अंजनयुक्तो आंखों और मंजनयुक्तं बत्तीसी को चुनाव का कोई और जुगराफिया समझ नहीं आता है।

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11 टिप्पणियाँ

  1. "मूर्खता और चुनाव का चोली दामन का साथ है।" हा.. हा.. हा...
    ढंग की पार्टियाँ भी हमें, जिस तरह के निठल्ले ठलुओं को वोट डालने को कहती हैं, उससे तो यही लगता है कि वोट डालने वालों की मूर्खता पर भी केवल संदेह भर ही किया जा सकता है.

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  2. कहा आपने ठीक ही मूर्ख करे मतदान।
    प्रत्याशी कम ही बचे है जिसको ईमान।।

    सादर
    श्यामल सुमन
    09955373288
    मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
    कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
    www.manoramsuman.blogspot.com
    shyamalsuman@gmail.com

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  3. बढिया व्‍यंग्‍य है ... वास्‍तव मे आज लोगों को वोट डालने में कोई रूचि नहीं दिखाई पडती।

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  4. आज की सियासत का व्यंग्य के माध्यम से रहस्योदघाटन है।

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  5. वोट की चॊट और नॊट की महिमा से लेकर मूर्ख पुराण तक सब कुछ शामिल है अविनाश जी ... मित्र बड़ा ही आंख खोलाऊ लेख है.. अब वोटर भैया ... बूझॆ तो समझो बेड़ा पार. -आभार

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  6. इसका मतलब समझदार से समझदार आदमी भी यह नहीं कह सकता कि उसने जिन्दगी में कोई मूर्खता नहीं की है... अगर उसने मतदान किया है... हा हा..
    कम से कम मतदान कर के हम यह तो कह सकते हैं कि हम ने ठीक किया या गलत :)

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  7. 'अगर आप वोट नहीं कर रहे हैं तो आप सो रहे हैं'-जैसे चालाकीभरे जुमलों के माध्यय से अब वोट पर डाका डाला जा रहा है। यह बिल्कुल वैसा ब्राह्मणवादी जुमला है जिसमें कहा जाता रहा है कि अगर आप 'गोदान' नहीं कर रहे हैं तो आप नरक में जाने का रास्ता प्रशस्त कर रहे हैं। किसी एम पी/एम एल ए से यह क्यों नहीं कहा जाता कि अगर आप सदन में कम से कम इतनी उपस्थिति और इतने प्रश्न दर्ज नहीं करा रहे हैं तो अपने क्षेत्र के मतदाता और देश की जनता के साथ आप गद्दारी कर रहे हैं।

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  8. वोट की खातिर जिए ...ये वोट की खातिर मरेंगे
    ये लड़ा के हमको...... खून की होली करेंगे

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  9. अब अगर नोट बाँटने से किसी का(खुद अपना भी) भला होता है तो उसमें भी आपको बुराई लगती है?...

    अब उनका अपना खीस्सा है और अपने हैँ नोट...जो चाहें...सो करें...
    आपका क्या जाता है?...

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