
होली का हिलियाना मौसम है। ब्लॉगर्स जूता जूता खेल रहे हैं। वे इसका खेल नहीं खेल रहे। वे जूते और इससे जुड़े मसलों पर विचार कर रहे हैं। जिस प्रकार जूतों की गुणवत्ताव उनकी कीमत से पता चलती है उसी प्रकार विचारों की महत्ता उनके लेखकों के नामों से जाहिर होती है। अब यह विचारक पर निर्भर है कि वो किस प्रकार के विचार शैली का पोषण करता है। जूतों के साथ जुड़ी हुई कहानियां जूतों से भी प्राचीन हैं। पर आजकल नई कहानियां बहुत अधिक चर्चित हो रही हैं।
अविनाश वाचस्पति का जन्म 14 दिसंबर 1958 को हुआ। आप दिल्ली विश्वविद्यालय से कला स्नातक हैं। आप सभी साहित्यिक विधाओं में समान रूप से लेखन कर रहे हैं। आपके व्यंग्य, कविता एवं फ़िल्म पत्रकारिता विषयक आलेख प्रमुखता से पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं। आपने हरियाणवी फ़ीचर फ़िल्मों 'गुलाबो', 'छोटी साली' और 'ज़र, जोरू और ज़मीन' में प्रचार और जन-संपर्क तथा नेत्रदान पर बनी हिंदी टेली फ़िल्म 'ज्योति संकल्प' में सहायक निर्देशक के तौर पर भी कार्य किया है। वर्तमान में आप फ़िल्म समारोह निदेशालय, सूचना और प्रसारण मंत्रालय, नई दिल्ली से संबद्ध हैं।
कवि सम्मेलनों में तो जूतों का कवि सम्मेलनों के आरंभ से ही प्रयोग होता रहा है। यह प्रथा बाद में परिष्कृत श्रोताओं अथवा सब्जी बेचने वालों के कवि सम्मेलनी श्रोता बनने के कारण सड़े गले टमाटरों के फेंकने में बदल गई। यह शोध का विषय है। पर पहले जूतों पर हो रहे शोध तो अंजाम तक पहुंचें फिर इस शोध में डॉक्टरेट करने वालों की भीड़ अवश्य उमड़ पड़ेगी। मांसाहारी श्रोताओं ने थोड़ा और बेफिक्री से काम लिया और उन्होंने कवि-सम्मेलनों में अंडे फेंकने की शुरूआत की। टमाटर और अंडे कविताओं पर दाद के रूप में नहीं, दाद बीमारी के रूप में फेंके जाते रहे हैं। जिस कवि की कविता पसंद नहीं आई तो श्रोताओं ने सड़े गले टमाटरों और अंडों को उन कवियों पर फेंकना शुरू कर दिया।
हालात जो भी रहे हों पर जूते पड़ने से जितनी छिछालेदारी होती थी वो टमाटर और अंडों के मेल से छिछालेथन में बदल गई। कविता की हंसी के स्थान पर कवि की रोनी सूरत पर हंसने वालों की तादाद बढ़ गई। हंसना भी दाद का एक बेहतर रूप है जो कि तादाद में बदलकर कवि पर कहर ढाता है। कवि चिल्लाता है पर संयोजक उसे पारिश्रमिक थमाने से पहले ही भगाता है। यह कवि का हिलना होता है और संयोजक का जमना।
बुश तो कवि भी नहीं थे। फिर भी जूता खा गए बल्कि यूं कहना चाहिए कि खाने से बचे फिर भी खा गए। होली से पूर्व हिलियाने का चमत्कार उन्हें बचा गया। वरना उनका जो हश्र होता वो मूर्ख दिवस पर जूतों की माला धारण करने से भी नहीं हो सकता था। बुश खुश की जूता नहीं लगा। मारने वाला खुश कि मार दिया। पब्लिसिटी दोनों ने अथाह बटोरी। किसी को कटोरी भर के मिली और किसी की पब्लिसिटी कटोरी के बाहर बहती रही। अब भी बह रही है। पब्लिक अभी तक सिटी में रह रही है।
पानी की कमी के मद्देनजर अब उसी बहती पब्लिसिटी में रंग मिलाना होगा। रंगेतिलक की जगह रंगेकीचड़ का गुल खिलाना होगा। उन्ही गुलगुलों की करामात से इस होली पर हंसी के गुलगपाड़े खिलखिलाएंगे। जो होली पर हंसने की गंगा बहायेंगे। जबकि इस हंसने की गंगा यानी गजोधर भैया को जान से मारने की धमकी देकर पाकिस्तान ने अपनी करतूत दिखलानी शुरू कर दी है। पर हमारे राजू श्रीवास्तव इससे घबराने वाले नहीं हैं। ऐसा लगता है कि पाकिस्तान को राजू श्रीवास्तव की आतंक विरोधिया कॉमेडी से आतंक का भविष्य खतरे में नजर आ रहा है। इसलिए वो राजू पर चिल्ला रहा है। पर राजू भी कमाल है। वो ऐसा जतला रहा है जैसे पाकिस्तान उसकी कॉमेडी पर हंसता नजर आ रहा है।
हमारी कॉमेडी हमारे सभी त्योहारो में शामिल रहती है। विनोदप्रियता होली के मौसम में पुरजोर बहती है। होली त्योहार है हंसी ठिठोली का। पर पाक चेत जाए वो ये न समझे कि हंसी ठिठोली करने वाले कमजोर होते हैं। बल्कि वे हंसा हंसा कर अपने दुश्मंन का सर्वनाश कर देते हैं। उसके मुंह पर ऐसी कालिख पोतते हैं कि जब दुश्मन हंसता है तो खिसियाता नजर आता है। खिसियाने के बाद नोंचने की हरकत पर उतर उतर आता है और खिसियानी बिल्ली खंबा नोचे का मुहावरा अमल में आता है। आप सब जानते ही हैं कि बिल्ली का इलाज चूहे नहीं, क्योंकि चूहे तो खुराक हैं, इलाज कुत्ता होता है और जिसे हम बिल्ली बतला रहे हैं वो कुत्ता भी है। पाकिस्तान की कुछ हरकतें कुत्तो जैसी भी हैं। सारी नहीं, अगर सारी होतीं तो स्वामिभक्ति उसमें कूट कूट कर भरी होती है। उसकी दुम टेढ़ी रखने की आदत कुत्ते वाली ही है।
इसकी मिसाल आप श्रीलंका के क्रिकेट खिलाडि़यों पर हमले के रूप में सब देख चुके हैं और अब निंदा कर्म में मशगूल हैं जबकि होली से पहले ऐसी घिनौनी हरकत का होना जूते से भी अधिक हिला गया है। श्रीलंका और उसके खिलाड़ी ही नहीं, पूरा क्रिकेट खेल ही हिल चुका है और उससे भी अधिक जब फिक्सिंग का मामला उजागर हुआ था। वो थम गया। पब्लिक दोबारा से क्रिकेट की मुरीद बनती गई। परन्तु आतंक का आना दर्दनाक है सिर्फ खेल में ही नहीं, पूरी सृष्टि में हो रहा आंतकी गेम अब बंद होना ही चाहिए। इसके लिए जो जिम्मेदार हैं उन्हें बाहर कर देना ही एकमात्र विकल्प है।
16 टिप्पणियाँ
हा हा!! बुश बिना भाव ब्याज में खा गये-इससे अच्छा तो कविता ही सुना लेते. :)
जवाब देंहटाएंबढ़िया व्यंग्य!!
होली पर बढिया जूता पुराण है।
जवाब देंहटाएंGood satire.
जवाब देंहटाएंAlok Kataria
अच्छा व्यंग्य है अविनाश जी। बधाई।
जवाब देंहटाएंअच्छी होली मना रहे हैं आप अविनाश जी वह भी जूते के साथ। जमाये रखिये रंग। हुडदंग में हम आपके साथ हैं।
जवाब देंहटाएंअच्छा व्यंग्य है।
जवाब देंहटाएंशोध से पता चला है कि कवि लोग जूते से अधिक सब्जी को पसंद करने लगे क्योंकि उनके अगली सुबह के सालन का तो प्रबंध हो जाता:)
जवाब देंहटाएं:)
जवाब देंहटाएं"बेगर्स आर नोट चूजर्स" जो मिले जाये ले लेना चाहिये.. मुश्किल तो तब है जब कुछ देना पडे :)
जवाब देंहटाएंआपके चिरपरिचित अंदाज में बहुत अच्छा व्यंग्य आपको बधाई.. पर लिखने से पहले सोच लिया करो.. कहीं कोई आपको भी धमकी वमकी न दे डाले..
जवाब देंहटाएंजूता पुराण से बात शुरु कर आपने जो आतंकवाद पुराण
जवाब देंहटाएंको खत्म होने बात कही ,वो मन को छू गई |
होली के सुरूर में हैं अविनाश जी।
जवाब देंहटाएंजूते पर कमाल का रिसर्च किया है आपनें।
जवाब देंहटाएंअच्छा व्यंग्य
जवाब देंहटाएंजूतानामा तो जोरदार लगा. बढ़िया
जवाब देंहटाएंसुंदर रचना....
जवाब देंहटाएंआपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.