
अभिषेक सागर का जन्म 26.11.1978 को हुआ। अपनी साहित्यिक अभिरुचि तथा अध्ययन शील प्रवृत्ति के कारन आप लेखन से जुडे।
आप साहित्य शिल्पी के संचालक सदस्यों में हैं।
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मीना कुमारी अपने आधा दर्जन नामों से जानी जाती थी- महजबीं आरा (माता-पिता), चीनी (परिवार वालो ने- क्योंकि इनकी आखें छोटी थी), बेबी मीना (बतौर बाल-कलाकार), मीना कुमारी (होमी वाडिया की फिल्म “बच्चों का खेल” में बेबी मीना ने पहली बार हीरोइन का रोल किया। वे इस फिल्म में मीना कुमारी बन गई और फिर इसी नाम से आखिरी फिल्म “गोमती के किनारे” तक लगातार काम करती रहीं।), नाज़ (शायरी के लिए उपनाम) और मंजू (कमाल अमरोही द्वारा दिया गया नाम)।
मीना कुमारी ने 'हिन्दी सिनेमा' जगत में जिस मुकाम को हासिल किया वो आज भी अस्पर्शनीय है। वे जितनी उच्चकोटि की अदाकारा थीं, उतनी ही उच्चकोटि की शायरा भी। अपने जज्बात को उन्होंने जिस तरह कलमबंद किया, उन्हें पढ़ कर ऐसा लगता है कि मानो कोई नसों में चुपके -चुपके हजारों सुईयाँ चुभो रहा हो। गम के रिश्तों को उन्होंने जो जज्बाती शक्ल अपनी शायरी में दी, वह बहुत कम कलमकारों के बूते की बात होती है. ये तो शायद 'अल्लाह ताला' की वदीयत थी उन्हें। तभी तो कहा उन्होंने -
कहाँ अब मैं इस गम से घबरा के जाऊँ
कि यह ग़म तुम्हारी वदीयत है मुझको
मीनाकुमारी की ज़िंदगी अपने पति के शोषण से प्रताड़ित रही है। मीना कुमारी अपनी जिंदगी का फैसला खुद नहीं कर सकी। वह अपने परिवार के लिए आमदनी का एक साधन बनकर रह गई। वह दूसरों की उँगलियों के इशारे पर अंत तक नाचती रही। वह ज्यादतियाँ बर्दाश्त करती रही परंतु उनका सामना करने की अपने में ताकत नहीं सँजो सकी।
मीना कुमारी ने अपने हक की लडाई को शराब की प्यालियों में पी जाना बेहतर समझा बजाय सिर उठाने के। अंदर की चोटों से तिलमिला कर उन्होंने अपनी तन्हाइयों में शायरी का दामन थाम कर खुद को बचाये रखा। उसकी शायरी में ग़म है, आग नहीं, बगावत नहीं। वे कहतीं थीं, “आपको अपने बाजुओं की ताकत पर नाज़ है तो हमें अपनी सहनशक्ति और रूहानी ताकत पर।“
अंदर के अँधेरों की छटपटाहट से बेबस होकर वह शराब की प्यालियों में अपने को डुबोती गईं और जब कभी तन्हा दर्द पिघल उठा, तब उससे शायरी फूट पडी। मीना आमदनी का जरिया बनकर भी दिल की, मुहब्बत की, आशिकी की और ईमान की बेशुमार ताकत थीं। वह अपने से जिंदा रहने के लिए नहीं, मरने के लिए लडी थीं। उस मरने के लिए जिसके आगे मौत अपने को यतीम महसूस करती है।
और जाते जाते सचमुच सारे जहाँ को तन्हां कर गयीं। जब जिन्दा रहीं सरापा दिल की तरह जिन्दा रहीं। दर्द चुनती रहीं, संजोती रहीं और कहती रहीं -
टुकडे -टुकडे दिन बिता, धज्जी -धज्जी रात मिली
जितना -जितना आँचल था, उतनी हीं सौगात मिली
जब चाहा दिल को समझे, हंसने की आवाज़ सुनी
जैसा कोई कहता हो, ले फ़िर तुझको मात मिली
होंठों तक आते -आते, जाने कितने रूप भरे
जलती -बुझती आंखों में, सादा-सी जो बात मिली
एक बार गुलज़ार साहब ने उन पर एक नज़्म लिखी थी :
शहतूत की शाख़ पे बैठी मीना
बुनती है रेशम के धागे
लम्हा -लम्हा खोल रही है
पत्ता -पत्ता बीन रही है
एक एक सांस बजाकर सुनती है सौदायन
एक -एक सांस को खोल कर
अपने तन पर लिपटाती जाती है
अपने ही तागों की कैदी
रेशम की यह शायरा एक दिन
अपने ही तागों में घुट कर मर जायेगी
पढ़ कर मीना जी हंस पड़ी। कहने लगी -"जानते हो न, वे तागे क्या हैं? उन्हें प्यार कहते हैं। मुझे तो प्यार से प्यार है। प्यार के एहसास से प्यार है, प्यार के नाम से प्यार है। इतना प्यार कोई अपने तन से लिपटा कर मर सके तो और क्या चाहिए?" महजबीं से मीना कुमारी बनने तक (निर्देशक विजय भट्ट ने उन्हें ये नाम दिया), और मीना कुमारी से मंजू (ये नामकरण कमाल अमरोही ने उनसे निकाह के बाद किया ) तक उनका व्यक्तिगत जीवन भी हजारों रंग समेटे एक ग़ज़ल की मानिंद ही रहा। "बैजू बावरा","परिणीता", "एक ही रास्ता", 'शारदा". "मिस मेरी", "चार दिल चार राहें", "दिल अपना और प्रीत पराई", "आरती", "भाभी की चूडियाँ", "मैं चुप रहूंगी", "साहब बीबी और गुलाम", "दिल एक मंदिर", "चित्रलेखा", "काजल", "फूल और पत्थर", "मँझली दीदी", 'मेरे अपने", "पाकीजा" जैसी फिल्में उनकी "लम्बी दर्द भरी कविता" सरीखे जीवन का एक विस्तार भर है जिसका एक सिरा उनकी कविताओं पर आके रुकता है -
थका थका सा बदन,
आह! रूह बोझिल बोझिल,
कहाँ पे हाथ से,
कुछ छूट गया याद नहीं....
गीतकार और शायर गुलजार से एक बार मीना कुमारी ने कहा था, “ये जो एक्टिग मैं करती हूं उसमें एक कमी है। ये फन, ये आर्ट मुझसे नही जन्मा है। ख्याल दूसरे का, किरदार किसी का और निर्देशन किसी का। मेरे अंदर से जो जन्मा है, वह लिखती हूं। जो मैं कहना चाहती हूं, वह लिखती हूं।“
मीना कुमारी ने अपनी वसीयत में अपनी कविताएं छपवाने का जिम्मा गुलजार को दिया, जिसे उन्होंने नाज उपनाम से छपवाया। सदा तन्हा रहने वाली मीना कुमारी ने अपनी रचित एक गजल के जरिए अपनी जिंदगी का नजरिया पेश किया है-
चांद तन्हा है
आसमां तन्हा
दिल मिला है
कहां-कहां तन्हा
राह देखा करेगा सदियों तक
छोड़ जाएंगे
ये जहां तन्हा
लगभग तीन दशक तक अपने संजीदा अभिनय से दर्शकों के दिल पर राज करने वाली हिंदी सिने जगत की महान अभिनेत्री मीना कुमारी 31 मार्च 1972 को इस दुनिया से सदा के लिए रुखसत हो गई।
8 टिप्पणियाँ
बढिया जानकारी पूर्ण आलेख है। आभार।
जवाब देंहटाएंek bahut he sanzeeda abhinetree thee baat kartee thee to aisa lagta tha ki ghazal bol rahee ho..
जवाब देंहटाएंये तो हद हो गई भाई...अभिषेक जी, श्रद्धांजलि ही देनी थी तो अपने शब्दों में देते...पूरा का पूरा लेख ही टीप दिया....
जवाब देंहटाएंhttp://podcast.hindyugm.com/2009/03/remembering-meena-kumari-on-her-death.html
पढिए और बताइए कितना पानी मिलाया है इस ओरिजिनल लेख में.....
कम से कम साभार ही लगा दते भाई...
अच्छी जानकारी है |
जवाब देंहटाएंमीना कुमारी वास्तव में एक कलाकार थी |
अवनीश तिवारी
...Meena kumari ki yad taji karne ke liye abhar !!
जवाब देंहटाएंअभिषेक जी का इस सुन्दर जानकारी पूर्ण लेख के लिये आभार.
जवाब देंहटाएंvery good.keep it on.
जवाब देंहटाएंसाहित्याशिल्पी पर मीना-कुमारी जी पर आलेख बहुत अच्छा लगा | इनके बारे में मैंने टुकडों में पढ़ रखा था और इसी तरह के आलेख का इंतज़ार था |
जवाब देंहटाएंआपकी वेबसाइट पर छपे आलेख अक्सर पढ़ती हूँ और वे बेहद अच्छे और सूचनात्मक होते हैं | एक बात यहाँ ज़रूर कहना चाहूंगी के ऐसे अच्छे दर्जे के आलेखों से वेबसाइट की गुणवत्ता भी बढती है |
ढेरो बधाइयाँ एवं शुभकामनाओं सहित
RC
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