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सरल-कठिन व्यतिरेक है [काव्य का रचनाशास्त्र : १८] - आचार्य संजीव वर्मा ’सलिल’

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हिंदी गीति काव्य का वैशिष्ट्य अलंकार हैं. विश्व की किसी अन्य भाषा में अलंकारों के इतने प्रकार नहीं हैं जितने हिंदी में हैं.

आज हम जिस अलंकार की चर्चा करने जा रहे हैं वह उपमा से सादृश्य रखता है इसलिए सरल है. उसमें उपमा के चारों तत्व उपमेय, उपमान, साधारण धर्म व वाचक शब्द होते हैं.

उपमा में सामान्यतः उपमेय (जिसकी समानता स्थापित की जाये) से उपमान (जिससे समानता स्थापित की जाये) श्रेष्ठ होता है किन्तु व्यतिरेक में इससे सर्वथा
विपरीत उपमेय को उपमान से भी श्रेष्ठ बताया जाता है.

श्रेष्ठ जहाँ उपमेय हो, याकि हीन उपमान.
अलंकार व्यतिरेक वह, कहते हैं विद्वान..

तुलना करते श्रेष्ठ की, जहाँ हीन से आप.
रचना में व्यतिरेक तब, चुपके जाता व्याप..

करें न्यून की श्रेष्ठ से, तुलना सहित विवेक.
अलंकार तब जानिए, सरल-कठिन व्यतिरेक..

साहित्य शिल्पीरचनाकार परिचय:-

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' नें नागरिक अभियंत्रण में त्रिवर्षीय डिप्लोमा. बी.ई.., एम. आई.ई., अर्थशास्त्र तथा दर्शनशास्त्र में एम. ऐ.., एल-एल. बी., विशारद,, पत्रकारिता में डिप्लोमा, कंप्युटर ऍप्लिकेशन में डिप्लोमा किया है।

आपकी प्रथम प्रकाशित कृति 'कलम के देव' भक्ति गीत संग्रह है। 'लोकतंत्र का मकबरा' तथा 'मीत मेरे' आपकी छंद मुक्त कविताओं के संग्रह हैं। आपकी चौथी प्रकाशित कृति है 'भूकंप के साथ जीना सीखें'। आपनें निर्माण के नूपुर, नींव के पत्थर, राम नम सुखदाई, तिनका-तिनका नीड़, सौरभ:, यदा-कदा, द्वार खड़े इतिहास के, काव्य मन्दाकिनी २००८ आदि पुस्तकों के साथ साथ अनेक पत्रिकाओं व स्मारिकाओं का भी संपादन किया है।

आपको देश-विदेश में १२ राज्यों की ५० सस्थाओं ने ७० सम्मानों से सम्मानित किया जिनमें प्रमुख हैं : आचार्य, २०वीन शताब्दी रत्न, सरस्वती रत्न, संपादक रत्न, विज्ञानं रत्न, शारदा सुत, श्रेष्ठ गीतकार, भाषा भूषण, चित्रांश गौरव, साहित्य गौरव, साहित्य वारिधि, साहित्य शिरोमणि, काव्य श्री, मानसरोवर साहित्य सम्मान, पाथेय सम्मान, वृक्ष मित्र सम्मान, आदि।

वर्तमान में आप म.प्र. सड़क विकास निगम में उप महाप्रबंधक के रूप में कार्यरत हैं।


उदाहरण:

संत ह्रदय नवनीत समाना,
कहौं कविन पर कहै न जाना.
निज परताप द्रवै नवनीता,
पर दुःख द्रवै सुसंत पुनीता..
. - तुलसीदास


यहाँ संतों (उपमेय) को नवनीत (उपमान) से श्रेष्ठ प्रतिपादित किया गया है. अतः, व्यतिरेक अलंकार है.

तुलसी पावस देखि कै,
कोयल साधे मौन.
अब तो दादुर बोलिहैं,
हमें पूछिहैं कौन..


यहाँ श्रेष्ठ (कोयल) के तुलना हीन (मेंढक) से होने के कारण व्यतिरेक है.

संत सैल सम उच्च हैं, किन्तु प्रकृति सुकुमार..


यहाँ संत तथा पर्वत में उच्चता का गुण सामान्य है किन्तु संत में कोमलता भी है. अतः, श्रेष्ठ की हीन से तुलना होने के कारण व्यतिरेक है.

प्यार है तो ज़िन्दगी महका
हुआ इक फूल है !
अन्यथा; हर क्षण, हृदय में
तीव्र चुभता शूल है ! -महेंद्र भटनागर


यहाँ प्यार (श्रेष्ठ) की तुलना ज़िन्दगी के फूल या शूल से है जो, हीन हैं. अतः, व्यतिरेक है.

धरणी यौवन की
सुगन्ध से भरा हवा का झौंका -राजा भाई कौशिक


तारा सी तरुनि तामें ठाढी झिलमिल होति.
मोतिन को ज्योति मिल्यो मल्लिका को मकरंद.
आरसी से अम्बर में आभा सी उजारी लगे
प्यारी राधिका को प्रतिबिम्ब सो लागत चंद..--देव


आप अपनी रचनाओं में व्यतिरेक की खोज कर हमें भी बताएं, न मिले तो व्यतिरेक का प्रयोग करें और हमें भेजें.

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15 टिप्पणियाँ

  1. जानकारीपूर्ण आलेख। बहुत बधाई।

    जवाब देंहटाएं
  2. साहित्य शिल्पी का प्रस्तुतिकरण प्रतिदिन बेहतर होता जा रहा है। आचार्य जी का आलेख हमेशा ही म प्रस्तुति रही है।

    जवाब देंहटाएं
  3. श्रेष्ठ जहाँ उपमेय हो, याकि हीन उपमान.
    अलंकार व्यतिरेक वह, कहते हैं विद्वान..

    तुलना करते श्रेष्ठ की, जहाँ हीन से आप.
    रचना में व्यतिरेक तब, चुपके जाता व्याप..

    इतना सुन्दर विश्लेषण अन्यत्र नहीं मिलेगा।

    जवाब देंहटाएं
  4. पर्वत मुझ सा बौना और
    मैं सागर सा वाचाल हुआ।

    क्या यह सही उदाहरण है?

    जवाब देंहटाएं
  5. उपमा के सभी तत्वों की मौजूदगी और तुलना के बाद भी इसे उपमा का ही अंग क्यों नहीं माना जाता?

    जवाब देंहटाएं
  6. जो कुछ सीखने को मिल रहा है वह बहुमूल्य है।

    जवाब देंहटाएं
  7. आचार्य जी आपके अलंकार की चर्चा से अनमोल ज्ञान प्राप्त हुआ...आभार

    जवाब देंहटाएं
  8. आत्मीय!

    इस लेखमाला में रूचि लेने के लिए आप सभी का आभार.

    निधिजी!

    पर्वत मुझ सा बौना

    यह तकनीकी दृष्टि से ठीक है पर श्रेष्ठ की उपमा हीन से अर्थात पर्वत मुझ इंसान से श्रेष्ट..., जड़ चेतन से श्रेष्ठ...यह अवधारणा मुझे. सही नहीं लगी,

    मैं सागर सा वाचाल हुआ।

    यहाँ भी जड़ सागर को चेतन मनुष्य से श्रेष्ठ मन गया है. अस्तु...

    नितेशजी!

    आपके प्रश्न का उत्तर आलेख में ही है.

    उपमा में के श्रेष्ठ की तुलना अधिक श्रेष्ठ से की जाती है, इससे उपमेय का गौरव बढ़ता है.

    व्यतिरेक में अधिक श्रेष्ठ की तुलना कम श्रेष्ठ से की जाती है.

    दोनों में चार तत्व सामान्य होने पर भी, प्रक्रिया बिलकुल उलटी है.

    उपमा में दिए को सूर्य के समान बताकर दिएका गौरव बढाया जायेगा जबकि व्यतिरेक में सूर्य को दिए के समान कहने से सूर्य का गौरव घटेगा.

    जवाब देंहटाएं
  9. उदाहरणों से सज्जित आपके लेख संग्रहणीय सामाग्री हैं.. आभार

    जवाब देंहटाएं
  10. यह लेख भी सुन्दर है |
    आचार्यजी अलंकार की विशेषताओं को अपने दोहों में सूत्रबद्ध करने में बड़े कुशल हैं |

    धन्यवाद |

    अवनीश तिवारी

    जवाब देंहटाएं
  11. आभार ....


    श्रेष्ठ जहाँ उपमेय हो, याकि हीन उपमान.
    अलंकार व्यतिरेक वह, कहते हैं विद्वान..

    तुलना करते श्रेष्ठ की, जहाँ हीन से आप.
    रचना में व्यतिरेक तब, चुपके जाता व्याप..



    सुन्दर.....

    जवाब देंहटाएं

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