
ढूंढ रहा है कहां तिरंगा?
आह्! तिरंगा, वाह तिरंगा...
योगेश समदर्शी का जन्म १ जुलाई १९७४ को हुआ।
बारहवी कक्षा की पढाई के बाद आजादी बचाओ आंदोलन में सक्रिय भागीदारी के कारण औपचारिक शिक्षा बींच में ही छोड दी. आपकी रचनायें अब तक कई समाचार पत्र और पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं।
आपकी पुस्तक “आई मुझको याद गाँव की” शीघ्र प्रकाशित होगी।
नारंगी उस रंग का मतलब
जो था हमको गया बताया
भ्रष्ट हुआ ईमान घूमता
धन का रंग है सब पर छाया
देश प्रेम का भाव घट रहा,
चिंतन घूम रहा बेढंगा..
आह्! तिरंगा, वाह तिरंगा...
जो था हमको गया बताया
भ्रष्ट हुआ ईमान घूमता
धन का रंग है सब पर छाया
देश प्रेम का भाव घट रहा,
चिंतन घूम रहा बेढंगा..
आह्! तिरंगा, वाह तिरंगा...
ध्वल सफेदी का संदेश,
आज भला हम किस्से पूछें?
जिसको देखों अकड रहा है
और पनाता अपनी मूंछें
ज्ञान धूप में रिक्शा खींचे.
लूट का पैसा बढता चंगा..
आह्! तिरंगा, वाह तिरंगा...
आज भला हम किस्से पूछें?
जिसको देखों अकड रहा है
और पनाता अपनी मूंछें
ज्ञान धूप में रिक्शा खींचे.
लूट का पैसा बढता चंगा..
आह्! तिरंगा, वाह तिरंगा...
हरियाली पथरीली बनती
ताड सरीखी उगी इमारत
भाई चारा गया भाड में
खूनी होती गई इबादत
आजादी का मक्खन निकला
और विकास का रंग दुरंगा.
आह्! तिरंगा, वाह तिरंगा...
एक किनारा उधर बढा है
एक खाई नित होती गहरी
एक की मनचाही सब बातें
एक की जीवन रेखा ठहरी
एक के हाथों खूब कचौडी
और एक है घूमे नंगा.
आह्! तिरंगा, वाह तिरंगा...
ताड सरीखी उगी इमारत
भाई चारा गया भाड में
खूनी होती गई इबादत
आजादी का मक्खन निकला
और विकास का रंग दुरंगा.
आह्! तिरंगा, वाह तिरंगा...
एक किनारा उधर बढा है
एक खाई नित होती गहरी
एक की मनचाही सब बातें
एक की जीवन रेखा ठहरी
एक के हाथों खूब कचौडी
और एक है घूमे नंगा.
आह्! तिरंगा, वाह तिरंगा...
सच का मतलब शीना-जोरी
पछतावे के बंद रिवाज
स्वच्छंदता नित बढती ऐसे
जैसे बढे कोढ में खाज
आस्तीन जिनका घर होता
उनके शीने सजा तिरंगा.
आह्! तिरंगा, वाह तिरंगा...
पछतावे के बंद रिवाज
स्वच्छंदता नित बढती ऐसे
जैसे बढे कोढ में खाज
आस्तीन जिनका घर होता
उनके शीने सजा तिरंगा.
आह्! तिरंगा, वाह तिरंगा...
वह रंगों की बात करेगा
जो बेमेहनत धन पा जाए
उसको क्या रंगो से लेना
भूख में जो पत्थर खा जाए
खुशहाली के रंग अनेकों
पर दुख होता है बेरंगा
आह! तिरंगा, वाह तिरंगा...
जो बेमेहनत धन पा जाए
उसको क्या रंगो से लेना
भूख में जो पत्थर खा जाए
खुशहाली के रंग अनेकों
पर दुख होता है बेरंगा
आह! तिरंगा, वाह तिरंगा...
12 टिप्पणियाँ
वह रंगों की बात करेगा
जवाब देंहटाएंजो बेमेहनत धन पा जाए
उसको क्या रंगो से लेना
भूख में जो पत्थर खा जाए
खुशहाली के रंग अनेकों
पर दुख होता है बेरंगा
आह! तिरंगा, वाह तिरंगा...
कविता के तेवर सिहरन पैदा कर देते हैं।
BEEEHATTTAREEEEEEEN
जवाब देंहटाएंAlok Kataria
देश की दुर्दशा को ब्याँ करती एक सच्ची कविता
जवाब देंहटाएंदिल से लिखी हुई कविता।
जवाब देंहटाएंयोगेश समदर्शी अपने शब्दों को कागज में उतारने से पहले उन्हे जी लेते हैं। उनकी कविता के एक एक शब्द में आह्वाहन है और पंक्ति पंक्ति में तार्किकता है। कविता में अंतर्निहित व्यंग्य भी प्रहारक है -
जवाब देंहटाएं"असली भारत" आज अकेला
ढूंढ रहा है कहां तिरंगा?
आह्! तिरंगा, वाह तिरंगा...
बहुत बढ़िया है भाई.
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी कविता है योगेश जी, बधाई।
जवाब देंहटाएंसामयिक विसंगतियों को उद्घाटित करती रचना हेतु बधाई.
जवाब देंहटाएंवह रंगों की बात करेगा
जवाब देंहटाएंजो बेमेहनत धन पा जाए
उसको क्या रंगो से लेना
भूख में जो पत्थर खा जाए
खुशहाली के रंग अनेकों
पर दुख होता है बेरंगा
आह! तिरंगा, वाह तिरंगा..
darpan hai samaaj ka....
sundar kavita
WAH TIRANGA WAH TIRANGA
जवाब देंहटाएंKYA BAAT H JANAB
DIL KE HAR KONE KO CHHU GAYI KAVITA
RAMESH SACHDEVA
hpsdabwali07@gmail.com
WAH TIRANGA WAH TIRANGA
जवाब देंहटाएंKYA BAAT H JANAB
DIL KE HAR KONE KO CHHU GAYI KAVITA
RAMESH SACHDEVA
hpsdabwali07@gmail.com
बहुत सुन्दर मन को छूती हुई रचना... आभार
जवाब देंहटाएंआपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.