
प्रश्न 1: कहानी व लघुकथा के तत्वों के बीच क्या हम कोई विभाजन रेखा खींच सकते हैं? यदि हाँ, तो कौन-सी?
लघुकथा-विधा पर शोधरत बिजनौर निवासी जितेन्द्र ‘जीतू’ द्वारा ई-मेल के जरिये बलराम अग्रवाल से पूछे गए तीन प्रश्न और उनके उत्तर
उत्तर: साहित्य में कुछ रचना-प्रकार समान-धर्मा होते हैं। काव्य-साहित्य में क्षणिका और कविता तथा कथा-साहित्य में लघ्वाकारीय कहानी (हिन्दी कहानी के वर्तमान में— लम्बी कहानी, कहानी एवं छोटी कहानी—आकार के अनुरूप ये तीन पद प्रचलित हैं। 1000 शब्दों से 1500 शब्दों तक की कथा-रचना को छोटी कहानी तथा उससे ऊपर 3000-4000 शब्दों तक की कथा-रचना को कहानी माना जा रहा है।) और लघुकथा ऐसे रचना-प्रकार हैं जिनके बीच किसी भी प्रकार की स्पष्ट विभाजन रेखा सामान्यत: नहीं खिंच पाती है। सामान्य पाठक के लिए छोटी कहानी और लघुकथा दोनों ही ‘कहानी’ हैं, लेकिन अध्ययन, शोध और विश्लेषण में रुचि रखने वालों के लिए ये दो अलग प्रकार की रचनाएँ हैं। आकार-विशेष अथवा शब्द-संख्या-विशेष तक सीमित रहने या सप्रयास रखे जाने के बावजूद कुछ कथा-रचनाओं को नि:संदेह ‘लघुकथा’ नहीं कहा जा सकता, जबकि आकार-विशेष और शब्द-संख्या-विशेष की वर्जनाओं को तोड़ डालने वाली अनेक कथा-रचनाएँ स्तरीय लघुकथा की श्रेणी में आती हैं। स्पष्ट है कि इन दोनों के बीच विभाजन के बिन्दु मात्र आकार अथवा शब्द-संख्या न होकर कुछ और भी हैं। ‘मुण्डे मुण्डे मतिर्भिन्ना’ वाली कहावत का मान रखते हुए यह कहना उचित ही होगा कि विभाजन के वे बिन्दु अनेक हो सकते हैं। उनमें से एक को राजेन्द्र यादव के शब्दों में स्वयं की बात को कहने का प्रयास करूँ तो यों कहा जा सकता है कि —‘समकालीन लघुकथाकार ने अपने कथा-चिंतन को ‘यहाँ और इसी क्षण’ पर केन्द्रित कर दिया है, उसका अपना ‘यही क्षण’, उसका कथ्य है, तथ्य है और उसका जीवन-मूल्य भी है।’ तात्पर्य यह कि ‘लघुकथा’ संवेदनात्मक-क्षण को पाठक के समक्ष प्रस्तुत करने वाली वह कथा-रचना है जो संदर्भित तथ्यों को निबन्धात्मक, विवरणात्मक रूप में प्रकटत: प्रस्तुत करने की बजाय सावधानीपूर्वक इस प्रकार रचना के नेपथ्य में सुरक्षित पहुँचा देती है कि आवश्यकता पड़ने पर पर सुधी पाठक जब चाहे तब लम्बी कहानी की तरह उसका आस्वादन ले सकता है।
प्रश्न 2: क्या लघुकथा के अन्त का विस्फोटक होना या विरोधाभासी होना लघुकथा का आवश्यक गुण है?
उत्तर: समकालीन लघुकथा-लेखन के प्रारम्भिक दौर में, विशेषत: 1970 से 1975 तक की अवधि में, एक ही पात्र की दो विपरीत मानसिकताओं को चित्रित करने का चलन लघुकथा में रहा। समाज में सम्मान-प्राप्त एवं अनुकरणीय समझे जाने वाले व्यक्तियों के असंगत व्यवहारों अर्थात् उनकी कथनी और करनी के भेद को चित्रित को, नेताओं व धार्मिकों के चरित्रों को उनके द्वारा व्याख्यायित होने वाले सामाजिक मूल्यों से इतर होने को, परिवार में बड़ी उम्र के लोगों द्वारा स्वयं से छोटों अर्थात् माता-पिता द्वारा बच्चों व सास-ससुर-जेठ-जेठानी-पति आदि द्वारा बहू-पत्नी के प्रति किए जाने वाले दमनपूर्ण व्यवहार को एक झटके में बता देने की अधीर प्रवृत्ति ने उक्त प्रकार के कथा-लेखन को पैदा किया होगा। उच्च-सामाजिकों की चरित्रहीनता व दायित्वहीनता से 1965-66 के आसपास से ही सामान्य नागरिक स्वयं को वस्तुत: अत्याधिक त्रस्त महसूस करता दिखाई देता है। उक्त त्रास को सुनने वाला उसे जब कोई भी कहीं नजर नहीं आया, तब ‘गल्प’, जिसे आम बोलचाल में ‘गप्प’ कहा जाता है, ने उसका हाथ पकड़ा। दमनकारी स्थितियाँ जब भी आम आदमी पर इस हद तक भारी पड़ती हैं, सबसे पहले वह यही मार्ग चुनता है और अपनी त्रासद स्थितियों को अपने गली-मुहल्ले, ऑफिस और चौपाल के संगी-साथियों के सामने सुनाना प्रारम्भ करता है। मैं समझता हूँ कि कथा-साहित्य को परोक्ष-अपरोक्ष कच्चा-माल ‘गल्प’ कह पाने की क्षमता से लैस यह आम आदमी ही सप्लाई करता है। कथित काल में ‘कथाकार’ कहलाने की क्षुधा से पीड़ित कुछ आकांक्षियों को ऐसा लगता रहा होगा कि यह कच्चा माल ज्यों कात्यों भी समाज की पीड़ा को स्वर देने में सक्षम है और यही ‘लघुकथा’ है जिसे लिख डालना बहुत आसान काम है। ‘सारिका’ जैसी तत्कालीन स्तरीय कथा-पत्रिका में ऐसे लेखक वैसी रचनाओं के साथ लगातार जगह पाते रहे। इस प्रवृत्ति ने ‘लघुकथा’ को जहाँ बहु-प्रचारित करने का महत्वपूर्ण काम किया, वहीं लगातार कच्चा और एक ही तरह का माल परोसे जाने के कारण इस विधा का अहित भी बहुत किया। वास्तविकता यह है कि लघुकथा एक ही व्यक्ति अथवा व्यक्ति-समूह के दो विपरीत कार्य-व्यवहारों का चित्रण-मात्र नहीं है—इस तथ्य को समर्थ लघुकथा-लेखकों ने तभी से लगातार सिद्ध किया है।
मेरा मानना है कि ‘लघुकथा’ में शीर्षक, कथ्य-प्रस्तुतिकरण की शैली, भाषा की प्रवहमण्यता आदि अनेक अवयव ऐसे हैं जो उसमें प्रभावशीलता को उत्पन्न करते हैं। कथा का प्रारम्भ, मध्य और अन्त कैसा हो; इसका निर्धारण अलग-अलग रचनाओं में अलग-अलग ही होता है। इस दृष्टि से लघुकथा के अन्त का अनिवार्यत: विस्फोटक होना स्वीकारणीय नहीं प्रतीत होता है। कुछ लोग लघुकथा के अन्त को ‘चौंकाने वाला’ मानते व प्रचारित करते हैं और इस ‘चौंक’ को लघुकथा का प्रधान तत्व तक घोषित करते हैं। सबसे पहली बात तो यह है कि ‘लघुकथा’ में तत्व-निर्धारण मेरी समझ से बाहर का उद्योग है। शास्त्रीयता का सहारा लेना आलोचक का धर्म तो हो सकता है, कथाकार का नहीं। कथाकार अगर 5-5 ग्राम सारे तत्व रचना में डालने की जिद पकड़े बैठा रहेगा तो जिन्दगीभर तोलता ही रह जाएगा, लिख कुछ नहीं पाएगा।
प्रश्न 3: क्या लघुकथा के शीर्षक पर इतराया जाना जरूरी है?
मेरा मानना है कि ‘लघुकथा’ में शीर्षक, कथ्य-प्रस्तुतिकरण की शैली, भाषा की प्रवहमण्यता आदि अनेक अवयव ऐसे हैं जो उसमें प्रभावशीलता को उत्पन्न करते हैं। कथा का प्रारम्भ, मध्य और अन्त कैसा हो; इसका निर्धारण अलग-अलग रचनाओं में अलग-अलग ही होता है। इस दृष्टि से लघुकथा के अन्त का अनिवार्यत: विस्फोटक होना स्वीकारणीय नहीं प्रतीत होता है। कुछ लोग लघुकथा के अन्त को ‘चौंकाने वाला’ मानते व प्रचारित करते हैं और इस ‘चौंक’ को लघुकथा का प्रधान तत्व तक घोषित करते हैं। सबसे पहली बात तो यह है कि ‘लघुकथा’ में तत्व-निर्धारण मेरी समझ से बाहर का उद्योग है। शास्त्रीयता का सहारा लेना आलोचक का धर्म तो हो सकता है, कथाकार का नहीं। कथाकार अगर 5-5 ग्राम सारे तत्व रचना में डालने की जिद पकड़े बैठा रहेगा तो जिन्दगीभर तोलता ही रह जाएगा, लिख कुछ नहीं पाएगा।
प्रश्न 3: क्या लघुकथा के शीर्षक पर इतराया जाना जरूरी है?
उत्तर: लघुकथा क्योंकि छोटे आकार की कथा-रचना है, अत: शीर्षक भी इसकी संवेदनशीलता व उद्देश्यपरकता का वाहक होता है; तथापि इतराने के लिए लघुकथा क्या किसी भी कथा-विधा के पास मात्र कोई एक ही अवयव होता हो, ऐसा नहीं है। किसी रचना का कथ्य इतराने लायक होता है तो किसी का प्रस्तुतिकरण। जहाँ तक शीर्षक का सवाल है, कथा-रचनाओं के शीर्षक सदैव ही व्यंजनापरक नहीं होते, कभी-कभी वे चरित्र-प्रधान भी होते हैं। ‘शीर्षकहीन’ शीर्षकों से भी कुछ कहानियाँ व लघुकथाएँ पढ़ने में आती रही हैं। से रा यात्री की एक कहानी का शीर्षक ‘कहानी नहीं’ है तो पृथ्वीराज अरोड़ा की एक अत्यन्त चर्चित लघुकथा का शीर्षक ‘कथा नहीं’ है। ऐसे शीर्षक कथ्य के सामान्यीकरण का सशक्त उदाहरण सिद्ध हुए हैं। कुछ शीर्षक काव्यगुण-सम्पन्न भी होते हैं अर्थात् संकेतात्मक अथवा यमक या श्लेष ध्वन्यात्मक। नि:संदेह, कुछ शीर्षक लघुकथा के समूचे कथानक को ‘कनक्ल्यूड’ करने की कलात्मकता से पूरित होते हैं, लेकिन कुछ प्रारम्भ में ही समूचे कथानक की पोल खोलकर रचना के प्रति पाठक की जिज्ञासा को समाप्त कर बैठने का भी काम करते हैं। ऐसे किसी भी शीर्षक पर कैसे इतराया जा सकता है? शीर्षक को रचना के प्रति जिज्ञासा जगाने वाला होना चाहिए। परन्तु, अगर किसी लघुकथा का शीर्षक कथ्य को उसकी सम्पूर्णता में अभिव्यक्त करने में सक्षम सिद्ध होता है; या फिर, अगर पाठक को वह कही हुई कथा के नेपथ्य में जाने को बाध्य करने की शक्ति से सम्पन्न सिद्ध होता है तो बेशक उस पर इतराया भी जा सकता है।
6 टिप्पणियाँ
बहुत अच्छे प्रश्न और उतने ही प्रभावी उत्तर। लघुकथा पर ज्ञानवर्धन का आभार।
जवाब देंहटाएंलघुकथा को तीनों ही उत्तर संपूर्ण रूप से प्रस्तुत करने में सक्षम हैं।
जवाब देंहटाएंThanks.
जवाब देंहटाएंAlok Kataria
कथा रचना के विभिन्न पहलुओं को बारीकी से समझाती हुई एक सफ़ल बातचीत के लिए आभार !
जवाब देंहटाएंलघुकथा विषयक जितेन्द्र जीतू जी के लाजवाब तीनों प्रश्नों के बलराम अग्रवाल भाई ने बड़े सुन्दर शब्दों में उत्तर प्रस्तुत किये हैं । लघुकथाकारों के बीच आज चक्कर लगाते छोटे - छोटे प्रश्नों को समेटकर , उन्हें बारीकी से समझाया है । आभार विषय के सुन्दर स्पष्टीकरण के लिये ।
जवाब देंहटाएंलघुकथा लेखको,पाठको/आलोचकों के ज्ञान में वृद्धि करते बलरामजी के विगतवार जवाब।
जवाब देंहटाएंआपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.