
'तुझे कई मर्तबा बोला है, मुझे बाबू जी मत कहा कर।' सत्येन्द्र ने गुस्से में कहा।
'जी, सर जी! ध्यान रखेंगे' नरबदी सहमती हुई बोली।
नरबदी की घबराहट देखकर सत्येन्द्र का गुस्सा कम हुआ।
'मैं अफसरी नहीं झाड़ रहा नरबदी, लेकिन जब दो तीन बार पहले भी कह दिया है तो तुझे समझना चाहिये ना। ये ले चाय पी लेना।' कहते हुए सत्येन्द्र ने दस का नोट नरबदी को पकड़ाया, नरबदी मुस्कराई और चली गई।
ये सत्येन्द्र का स्वभाव है, बहुत जल्द खफा, बहुत जल्द शान्त। जब भी वह महसूस करता है कि उसने किसी का दिल दुखाया है, तब वह भरसक उसे खुश करने का प्रयास करता है और उसका मन तभी शान्त होता है जब वह उसके चेहरे पर मुस्कराहट देख लेता है। घर में भी बच्चों को डाँटने के तुरत बाद चॉकलेट लाने निकल पड़ता है।
नरबदी के जाने के बाद वह कुर्सी पर बैठा, फाइल को पलटा और बड़बड़ाया।
रचनाकार परिचय:-
30 जून, 1967 को रामपुर (उ०प्र०) में जन्मे और हाथरस में पले-बढ़े शक्ति प्रकाश वर्तमान में आगरा में रेलवे में अवर अभियंता के रूप में कार्यरत हैं। हास्य-व्यंग्य में आपकी विशेष रूचि है। दो व्यंग्य-संग्रह प्रकाशित भी करा चुके हैं। इसके अतिरिक्त कहानियाँ, कवितायें और गज़लें भी लिखते हैं।
'साला भूल ही गया, उसे बुलाया किस लिये था!'
'पहले डाँटने फिर चाय पिलाने के लिये' बाजू की सीट पर बैठा राजसिंह हँसता हुआ बोला।
'अरे यार, कई बार समझाया है उसे कि मुझे बाबू जी न कहा करे।'
'आप भी सत्य भाई! बाबूजी में बुरा क्या है?'
'मैं बाबू नहीं हूँ। बाबूजी बाबुओं से कहा जाता है। ठीक है, मैं दफतर में बैठा हूँ, लेकिन टैक्नीकल एम्पलाई हूँ। दफतर में सारे लोग बाबू तो नहीं होते।' सत्येन्द्र ने बेजान सा तर्क दिया।
'ठीक है मैं बाबू हूँ। बताइये क्या बुरा है बाबू में?'
'होता तो बहुत कुछ बुरा है। पर अपनी बात छोड़ राज! काबुल में क्या गधे नहीं होते?' सत्येन्द्र हँसा।
'सत्य भाई! आप घुमा रहे हैं, व्यर्थ तर्क कर रहे हैं। आप झूठ नहीं बोल पाते। छ: महीने से आपके साथ हूँ, आपका एडमायरर हूँ। बड़े ध्यान से आपके व्यवहार को देखता हूँ। मैंने नोट किया है कि आपको बाबूजी से एलर्जी कतई नहीं है। आपको एलर्जी सिर्फ तभी होती है जब नरबदी आपको बाबूजी बोलती है।'
'तुम कहना क्या चाहते हो राज?' सत्येन्द्र उखड़ा।
'गुस्साओ मत बड़े भाई! फिर नाश्ता कराते फिरोगे। मैं ऐसा वैसा कुछ नहीं कह रहा। मेरा सबमिशन यही है कि दफतर के पुरूष चपरासी या बाहरी लोग आपको बाबूजी कहते हैं, तब आप कुछ नहीं कहते। सिर्फ नरबदी को डाँटते हैं क्यों?'
'सिर्फ नरबदी नहीं, कोई भी स्त्री।' सत्येन्द्र ने नीचे मुँह करते हुए सत्य को स्वीकारा।
'कोई भी स्त्री क्यों?' राजसिंह का कौतूहल बढ़ा।
'वो मुझे बाबूजी ही कहती थी।' सत्येन्द्र के मुँह अनायास निकला।
'वो कौन?'
'गुड्डी.. गुड्डी बाई!' सत्येन्द्र सिर ऊँचाकर शून्य में ताकने लगा। राजसिंह ध्यान से उसके चेहरे पर आ रहे भावों का अध्ययन कर रहा था। उसे इस समय सत्येन्द्र चित्र बनाने में मगन कोई कुशल चित्रकार लगा। लेकिन राजसिंह के कौतूहल ने सत्येन्द्र की साधना में विघ्न डाल दिया।
'कौन गुड्डी?' राजसिंह ने पूछा।
'जी, सर जी! ध्यान रखेंगे' नरबदी सहमती हुई बोली।
नरबदी की घबराहट देखकर सत्येन्द्र का गुस्सा कम हुआ।
'मैं अफसरी नहीं झाड़ रहा नरबदी, लेकिन जब दो तीन बार पहले भी कह दिया है तो तुझे समझना चाहिये ना। ये ले चाय पी लेना।' कहते हुए सत्येन्द्र ने दस का नोट नरबदी को पकड़ाया, नरबदी मुस्कराई और चली गई।
ये सत्येन्द्र का स्वभाव है, बहुत जल्द खफा, बहुत जल्द शान्त। जब भी वह महसूस करता है कि उसने किसी का दिल दुखाया है, तब वह भरसक उसे खुश करने का प्रयास करता है और उसका मन तभी शान्त होता है जब वह उसके चेहरे पर मुस्कराहट देख लेता है। घर में भी बच्चों को डाँटने के तुरत बाद चॉकलेट लाने निकल पड़ता है।
नरबदी के जाने के बाद वह कुर्सी पर बैठा, फाइल को पलटा और बड़बड़ाया।
30 जून, 1967 को रामपुर (उ०प्र०) में जन्मे और हाथरस में पले-बढ़े शक्ति प्रकाश वर्तमान में आगरा में रेलवे में अवर अभियंता के रूप में कार्यरत हैं। हास्य-व्यंग्य में आपकी विशेष रूचि है। दो व्यंग्य-संग्रह प्रकाशित भी करा चुके हैं। इसके अतिरिक्त कहानियाँ, कवितायें और गज़लें भी लिखते हैं।
'साला भूल ही गया, उसे बुलाया किस लिये था!'
'पहले डाँटने फिर चाय पिलाने के लिये' बाजू की सीट पर बैठा राजसिंह हँसता हुआ बोला।
'अरे यार, कई बार समझाया है उसे कि मुझे बाबू जी न कहा करे।'
'आप भी सत्य भाई! बाबूजी में बुरा क्या है?'
'मैं बाबू नहीं हूँ। बाबूजी बाबुओं से कहा जाता है। ठीक है, मैं दफतर में बैठा हूँ, लेकिन टैक्नीकल एम्पलाई हूँ। दफतर में सारे लोग बाबू तो नहीं होते।' सत्येन्द्र ने बेजान सा तर्क दिया।
'ठीक है मैं बाबू हूँ। बताइये क्या बुरा है बाबू में?'
'होता तो बहुत कुछ बुरा है। पर अपनी बात छोड़ राज! काबुल में क्या गधे नहीं होते?' सत्येन्द्र हँसा।
'सत्य भाई! आप घुमा रहे हैं, व्यर्थ तर्क कर रहे हैं। आप झूठ नहीं बोल पाते। छ: महीने से आपके साथ हूँ, आपका एडमायरर हूँ। बड़े ध्यान से आपके व्यवहार को देखता हूँ। मैंने नोट किया है कि आपको बाबूजी से एलर्जी कतई नहीं है। आपको एलर्जी सिर्फ तभी होती है जब नरबदी आपको बाबूजी बोलती है।'
'तुम कहना क्या चाहते हो राज?' सत्येन्द्र उखड़ा।
'गुस्साओ मत बड़े भाई! फिर नाश्ता कराते फिरोगे। मैं ऐसा वैसा कुछ नहीं कह रहा। मेरा सबमिशन यही है कि दफतर के पुरूष चपरासी या बाहरी लोग आपको बाबूजी कहते हैं, तब आप कुछ नहीं कहते। सिर्फ नरबदी को डाँटते हैं क्यों?'
'सिर्फ नरबदी नहीं, कोई भी स्त्री।' सत्येन्द्र ने नीचे मुँह करते हुए सत्य को स्वीकारा।
'कोई भी स्त्री क्यों?' राजसिंह का कौतूहल बढ़ा।
'वो मुझे बाबूजी ही कहती थी।' सत्येन्द्र के मुँह अनायास निकला।
'वो कौन?'
'गुड्डी.. गुड्डी बाई!' सत्येन्द्र सिर ऊँचाकर शून्य में ताकने लगा। राजसिंह ध्यान से उसके चेहरे पर आ रहे भावों का अध्ययन कर रहा था। उसे इस समय सत्येन्द्र चित्र बनाने में मगन कोई कुशल चित्रकार लगा। लेकिन राजसिंह के कौतूहल ने सत्येन्द्र की साधना में विघ्न डाल दिया।
'कौन गुड्डी?' राजसिंह ने पूछा।
'हूँ!' सत्येन्द्र नीद से जागा। फिर मुस्कराते हुए बोला;
'ब्रेक के बाद। अभी सरकार की बजा लें, राज!'
'अरे सत्य भाई! बड़ी मुश्किल से आपको टटोलने का मौका मिला था।'
'चिन्ता मत कर। लंच में...' सत्येन्द्र ने आश्वासन दिया। तभी नरबदी ने दोनों के सामने चाय रखी।
'सर जी! चाय।'
'मगर पैसे तो तुझे दिये थे, चाय के लिये नरबदी?' सत्येन्द्र ने कहा।
'वाह! पइसा बारो चाय न पीये, नरबदी पी लेय। जे कोई बात भई बाबूजी!'
'नरबदी!!!' सत्येन्द्र ने अपना सर पकड़ा।
'माफी सरकार' कहती हुई नरबदी लगभग भागी। राजसिंह ने ठहाका लगाया।
'गुड्डी बाई... मतलब निचले तबके से रही होगी?' राजसिंह लंच में खाना खाते हुए बोला। उसे सब्र नहीं हो रहा था।
'हाँ।' सत्येन्द्र ने कहा।
'वो आपको बाबूजी कहती थी?'
'मजदूर थी.. कुली। वो मेरा नाम नहीं जानती थी.. फिर क्लास में भी फर्क था।'
'प्यार मुहब्बत का लफड़ा था?'
'शायद..'
'खूबसूरत थी?'
'खूबसूरत??? कोई स्थापित परिभाषा तो नहीं इसकी!'
'हाँ! लेकिन दुनियादारी के हिसाब से चार आदमी जिसे खूबसूरत कहें..'
'तब वो खूबसूरत नहीं थी।'
'आपसे प्रेम करती थी?'
'हाँ.. शायद!'
'आप?'
'शायद नहीं!'
'मतलब? आप अपनी भावना के बारे में अनिश्चित कैसे हो सकते हैं?'
'सब बताता हूँ।' सत्येन्द्र ने टिफिन बंद किया और वॉश-बेसिन की ओर चला गया। लौटकर वापस सीट पर बैठा और बोला,
'हाथ धो के आ जा राज!'
'नहीं आप सुनाओ। इंटरैस्टिंग स्टोरी है। फुल ऑफ सस्पेंस एन्ड थ्रिल... नायिका नायक का नाम नहीं जानती.. अ ग्रेट प्लेटोनिक लव.. वाह!' राजसिंह हँसा।
'हाँ, कहानी को इंटरैस्टिंग होना चाहिये। वैसे कहानी क्या होती है राज?'
'कहानी कहानी होती है!'
'नहीं, मेरे हिसाब से आदमी के जीवन की दूसरी बड़ी कमजोरी का नाम होता है कहानी!'
'दूसरी.. तो पहली कमजोरी?'
'आत्मश्लाघा, आत्म प्रशंसा या आत्म प्रवंचना!'
'माना, लेकिन कहानी इंसान की कमजोरी क्यों हुई?'
'इंसान की पहली कमजोरी आत्म प्रशंसा है तो दूसरी कमजोरी है दूसरे की जिन्दगी में झाँकना। उददेश्य सही हो या गलत या उदासीन भाव हो, इंसान दूसरे की जिन्दगी के बारे में बहुत कुछ जानना चाहता है। तभी वह कहानी लिखता, सुनता और पढ़ता है।'
'सब मान लिया। लेकिन फिलास्फी नहीं चाहिये भाई साब! आप तो कहानी ही सुनाओ।'
'ठीक है, बात बीस साल पुरानी है। उन दिनों की जब मैं गधा हम्माली करता था।'
'गधा हम्माली?'
'हाँ!' सत्येन्द्र ने जैसे किसी किताब के पन्ने पलटना शुरू किया।
प्राइवेट नौकरी, पद सुपरवाइजर, वेतन पंद्रह सौ, काम का वक्त कभी से कभी तक। वो कम्पनी एक कन्टेनर मैन्युफैक्चरर थी। हम कुछ लोग ही सिविल साइड से थे। सभी के सभी टैम्परेरी! काम भी बहुत ज्यादा दिन चलने वाला नहीं था। कम्पनी का एक नया यूनिट और कालोनी का निर्माण.. बस यही हमारा काम था। मजे की बात ये कि कन्सट्रक्शन वाले हम जितने भी इंजीनियर या सुपरवाइजर थे, सभी कुँवारे थे। ये सिर्फ संयोग नहीं था। मैनेजमेन्ट की दूरदर्शिता थी। चूँकि कन्सट्रक्शन का काम टारगेटेड था और विवाहित लोग चौबीस में से चौदह घंटे आठ घंटे की तनख्वाह में नहीं दे सकते.. इसीलिये जानबूझ कर कुँवारे कर्मचारी कम्पनी ने रखे थे। ऐसे हम कुल छ: लोग थे। जिस साइट पर मैं था, वहाँ हम कुल दो सुपरवाइजर थे, मैं और सुरेश। सुरेश कंपनी में मुझसे पहले से था। हालाँकि मेरी उम्र करीब इक्कीस साल ही थी लेकिन मैं वैचारिक रूप से बहुत अलग धारा का व्यक्ति था। सुनने मे अजीब जरूर है, लेकिन वो धारा है उदार समाजवादी विचार धारा! मुझे गाँधी और मार्क्स दोनों पसंद थे। टालस्टाय, गोर्की और प्रेमचंद तीनों को एक ही चाव से पढ़ता था मैं। लेकिन सुरेश धारा वारा के चक्कर से कोसों दूर था। आई.पी.सी. की कुछ धाराओं जैसे एक सौ चवालीस, तीन सौ दो, तीन सौ छिहत्तर वगैरा से वह परिचित अवश्य था। सुरेश का अक्सर मेरे ऊपर आरोप रहता था कि मैं मजदूरों से काम लेने में अक्षम था। मेरी मेहनत या योग्यता पर उसे कभी शक नहीं रहा। वह जानता था कि वह योग्यता में मुझसे काफी पीछे था। इसीलिये वह मुझे झेलता था। रोजाना साइट पर आकर वह पहले मजदूरों से दमबाजी करता। फिर आधा घंटे मुझसे उस दिन होने वाले काम की लर्निंग लेता, जो उसकी जुबान में डिसकशन हुआ करता था। उसके बाद जब भी कन्सट्रक्शन मैनेजर साइट पर आता, वह मजदूरों को गाली बकता हुआ, 'गुड नून सर!' या 'गुड आफटर नून सर!' कहता हुआ कूदकर आगे आता और मुझसे ली हुई लर्निंग को बड़े ही आत्मविश्वास से उसके सामने बयान कर देता। तमिल कन्सट्रक्शन मैनेजर उसके पीछे खड़े सत्येन्द्र शर्मा की ओर प्रश्नवाचक चिन्ह बनाता -
'कइसा सत्या.. खुच समज मईं आथी ऐ सूरेश ख्या बोली?'
मेरे बोलने से पहले ही सुरेश फिर कूदकर बीच में आता -
'नहीं सर बहुत काबिल बंदा है। नॉलेज तो बहुत है, बस थोड़ा डायनमिक और हो जाय..'
इस तरह वह मेरी सेवा पुस्तिका में अनुकूल प्रविष्टि भी कर देता और मैनेजर के जाते ही साइट के पिछवाड़े चारपाई मँगवा लेता, फिर धीरे से कहता -
'सतेन्दर, जरा देखना यार!'
हालॉकि मैंने सुरेश से कभी कहा नहीं, पर मेरे भी उस पर दो आरोप थे। एक ये कि वह विचार शून्य रोबोट था और दूसरा ये कि वह मैनीपुलेटर था। बहरहाल साइट पर दबदबा उसी का था। मजदूर उसके नाम क्या गोत्र तक से परिचित थे और मुझे तो शर्मा बाबूजी के नाम से ही पहचानते थे। वे मेरे सामने आराम से बीड़ी पी लेते जबकि उसे सौ मीटर दूर से देख सावधान हो जाते। कंपनी कन्सट्रक्शन का काम भी दो तरीकों से करा रही थी, एक कंपनी का खुद का स्टाफ और दिहाड़ी मजदूर; दूसरा ठेकेदारों के द्वारा। ये सारे ठेकेदार मालिकों के रिश्तेदार थे। हमें उनके काम में नुक्ताचीनी का अधिकार नहीं था। कई बार हमारे मजदूर ठेकेदारों के पास भेज दिये जाते। कई बार हमारे अच्छे मजदूरों के बदले ठेकेदारों के बेकार मजदूर हमें पकड़ा दिये जाते। चाहे जिस तरह हमारा काम उनके काम से कमतर साबित किया जाता.. बल्कि उनकी पैमाइश पर दस्तखत भी हमसे कराये जाते। कमअक्ल सुरेश के दिमाग में ये बात कभी नहीं आती। मैं समझाता तो कहता-
'कोई अपना नुकसान क्यों करेगा?'
'नुकसान कहाँ? ठेकेदार मालिकों के घर के हैं।'
'और ये कम्पनी?'
'ज्यादा से ज्यादा पचास फीसद मालिकों की.. हो सकता है उससे भी कम हो!'
'मतलब?'
'कम्पनी के शेयर निकले हैं, लगभग आधा पैसा तो पब्लिक का है, कम्पनी को फायदा होगा तो आधा पब्लिक को भी होगा, मगर ठेकेदारों को फायदा होगा तो पूरा मालिकों को होगा। फिर कम्पनी का मैनेजमेन्ट देख.. फालतू की कितनी पोस्ट मालिकों ने अपने रिश्तेदारों को थमा रखी हैं.. सिक्योरिटी अफसर मामाजी, कोऑर्डिनेटर चाचाजी, एचआरडी मैनेजर, एकाउन्ट अफसर, सेल्स मैनेजर, परचेज मैनेजर.. पता नहीं कितनी पोस्ट रिश्तेदारों को दे रखी हैं! सिर्फ काम करने वाले जरूरी लोग बाहर के हैं। नुकसान कहाँ है भाई? फिर तेरे साइन से ही तुझे निकालने का इंतजाम किया जा रहा है।'
'वो कैसे भला?'
'भइया!! जब हमारे यानी कंपनी और ठेकेदारों के रेट कम्पेयर किये जायेंगे तो निश्चित ही ठेकेदारों का काम हमसे सस्ता और सुंदर मिलेगा।'
'हमसे सस्ता कैसे हो जायेगा? कितनी मेहनत करते हैं हम लोग?' वह आश्चर्य करता।
'ऐसे हो जायेगा.. कंपनी के लिये जो माल खरीदा जा रहा है, उसमें दलाली बटटा है। हमारे मजदूर भी उनके साथ लगा दिये जाते हैं।'
'मगर मदरासी तो कह रहा था कि एडजेस्ट हो जाता है सब।'
'कुछ नहीं होता। तू देख के आया है क्या? एकाउन्ट आफीसर भी तो मालिकों का रिश्तेदार है। एडजेस्टमैन्ट नहीं, मैनीपुलेशन होता है। अब जब ठेकेदारों का काम हमसे सस्ता होगा, तब कंपनी का काम बंद करके एक ये मदरासी और दूसरा कोई एक सुपरवाइजर रख के बाकी को चलता करेंगे। फिर अच्छे दामों में रिश्तेदारों को ठेका दे देंगे।'
'तू तो यार दिमाग की जलेबी बना देता है!'
उस दिन भी ऐसा ही कुछ हुआ था, जब पहली बार मैंने गुड्डी को देखा था।
'ऐ! क्या नाम है तेरा? बैठी क्यों है?' सुरेश चिल्लाकर बोला
'तारा बाई, साहेब! दूधई तौ पिवाय रये मौंड़ा खों..' मजदूरिन ने गोद में पड़े बच्चे को धीमे से धौल मारते हुए कहा, बच्चा शायद बड़ा हो चुका था और उसके दाँत भी..
'दूध पिलाने की दिहाड़ी नहीं मिलती। हाजिरी उड़ा दूँगा तो समझ आयेगी!'
'उठ रये साहेब!'
मुझे हँसी आई। एक तरफ वो मजदूरिन थी, जिसकी छाती में दूध नहीं था फिर भी बच्चे को लिपटा कर आराम की गरज से बैठी थी और दूसरी ओर सुरेश जो अपने बारह चौदह घंटे, आठ घंटे के वेतन में देकर, दूसरों से भी वैसी उम्मीद कर रहा था। ताराबाई उठ गई, बच्चा आँचल से बाहर आ चुका था। मैंने उसके बच्चे को देखा, तीन साढ़े तीन का तो रहा होगा। उसके हाथ में रोटी का टुकड़ा शायद पहले से ही था। साबित था कि ताराबाई जबरन उसे अपने स्तन से चिपका कर बैठी थी। मुझे फिर हँसी आई, सुरेश गुर्राया-
'साला एक तो काम नहीं देखता, हँसता अलग है!'
'मतलब एक कुली को फीडिंग से रोकना काम है?'
'दिखता नहीं तुझे? वो दूध वाला बच्चा है? लंच में अपना टिफिन दे देना, एक बैठक में निपटा देगा।'
'मुझे पता है, लेकिन क्या ये हम नहीं करते? मदरासी के जाने के बाद तू भी तो चारपाई मँगवा लेता है।'
'हाँ, लेकिन हम लोग बारह चौदह घंटे काम भी तो करते हैं।'
'तो ठीक है, यही बात मदरासी के सामने कहना।'
'तुझसे तो बात करना ही बेकार है!'
'देख सुरेश! लगातार आठ घंटे काम कोई नहीं कर सकता। एक डेढ़ घंटे के काम के बाद पाँच-सात मिनट आराम में कोई बुराई नहीं। अब तू राजी राजी करने दे तो ठीक, वरना वो तो बहाना करेगी ही। फिर वफादारी उन लोगों के साथ की जाती है जो वफा के लायक हों। ये साले चोर, पब्लिक का पैसा खा रहे हैं। इसके अलावा अगले तीन महीने में हममें से कुछ को बाहर होना ही है। कंपनी का काम घाटे का बताकर, जब हमारी लाख मेहनत के बाद घाटा होना तय है, तब होने दे। मैं तो कहता हूँ, तेरे हाथ में कुछ हो तो दस बीस हजार का कबाड़ा कर और निकल ले।'
'दिमाग की जलेबी बना देता है तू तो!'
तभी मेरी निगाह एक लड़की पर पड़ी। उसकी उम्र चौदह या पंद्रह साल रही होगी। सर पर आठ-दस ईंट रखकर फर्स्ट फलोर पर जा रही थी।
'अबे ये नई लड़की कौन है?' मैंने सुरेश से पूछा।
'होगी कोई, यहाँ रोज नये मजदूर आते हैं। कोई पसंद आ गई क्या?' सुरेश बिना उसकी ओर देखे बोला।
'बेवकूफ! इसे रखा किसने?'
'यहाँ सभी को मैं ही रखता हूँ। ये गुड्डी है, दरसराम बेलदार की लड़की। रखकर अपराध कर दिया क्या?'
'हाँ, कर दिया। इसकी उम्र देखी है?'
'हाँ, चौदह-पंद्रह होगी।'
'चाइल्ड लेबर लॉ के बारे में जानकारी है कुछ?'
'अरे यार! वो करना चाहती, उसका बाप करवाना चाहता। फिर लॉ और एक्ट कहाँ आते हैं?'
'आते हैं क्योंकि यहाँ सत्येन्द्र शर्मा भी काम करता है।'
'तो ठीक है दादा मार्क्स के पोते! उसके कार्ड पर उम्र अठारह लिखकर, उसका और उसके बाप का अँगूठा ले लिया है।'
'अबे छोड़, मैं ही देखता हूँ।'
'पसन्द आ गई तो ऐसे ही बोल दे। वहाँ तक क्यों जाता है? तू जहाँ चाहेगा, वहाँ आ जायेगी। एक कुली की दिहाड़ी तो अपन ऐडजेस्ट कर सकते हैं, तेरी खातिर!'
'मूर्ख!' मैंने कहा और सीधा फर्स्ट फलोर पर चढ़ गया।
'ऐ, क्या नाम है तेरा? ये ईंटें नीचे रख और अपने बाप को भेज।'
'गुड्डी बाई, बाबू जी!' वह सहमते हुए बोली।
'का गलती भई, मालिक? ऐ मौड़ी ढंग ते काम नईं करत का?' दरसराम ने तुरंत प्रकट होते हुए मुझे और गुड्डी दोनों को संबोधित किया।
'गलती उसकी नहीं, तेरी है दरस राम! इतनी छोटी लड़की से मजदूरी कराने में शर्म नहीं आती।' मैं चिल्लाया।
'कैसी सरम मालिक! पेटहू त भरनैं..'
'क्या यार! तू और तेरी बीवी, दोनों कमाते हो। तू ओवर टाइम भी कर लेता है। फिर भी पेट नहीं भरता?'
'पेट त भर जात मालिक, पर तीन मौड़ी सरकार.. साल खाँड़ पाछैं ब्याह करनैं ई कौ..'
'ब्याह? इसकी पढ़ने की उम्र है, दरसराम!'
'का मालिक! पढ़ायें तौ मौड़ा हू पढो चानै। उ पइसा हू भौत चानै।' वह हारी हुई हँसी हँसा। उसकी असहाय हँसी मेरे अंदर तक उतर गई। मैं बिना कुछ बोले नीचे उतर आया।
'करा दी पी.एच.ड़ी.?' सुरेश ने व्यंग्य किया।
'हर ज़ख्म पर एक ही दवा नहीं लग सकती, सुरेश!' मैं बड़बड़ाया।
'वही! तू क्यों चक्कर में पड़ता है। अभी ये काम पर आई है, लोगों ने इसे देखा है। अब इसके पीछे लोग लगेंगे। इनमें तेरा नाम भी शामिल हो, मैं नहीं चाहता।'
'तू कहना क्या चाहता है? अभी जो मैंने किया, उसके पीछे मेरी कोई गलत मंशा है?'
'नहीं, लेकिन सिर्फ मैं ही जानता हूँ कि नहीं है। क्या है सतेन्दर! दारू के ठेके में बैठकर गंगाजल पियो तो कितनों को यकीन दिलाओगे।'
'मतलब ये कंपनी दारू का ठेका है??'
'तू नहीं जानता? इस कंपनी की हजार बुराई तो तू ही गिना चुका है मुझे!'
'ये बुराई नहीं पता मुझे!'
'तो सुन! जब अपन लोग यहाँ से चले जाते हैं, तब यहाँ के सिक्योरिटी वाले, ठेकेदारों के मुंशी, खुद ठेकेदार मजदूरों की झुग्गियों में दारू पीते हैं। फिर वहीं रैन बसेरा करते हैं।' उसने बाईं आँख दबाई।
'मर्जी से??'
'अधिकतर पूरे दिन हाड़ तोड़ने के बाद बीस कमाने वाली को पाँच मिनट में सौ-पचास मिलें तो मर्जी अपने आप हो जाती है।'
'उसका आदमी या बाप?'
'कुँवारी तो कम हैं, ज्यादातर आदमी वाली हैं। आदमी तो ठेकेदार जी और कोतवाल जी के वजन से ही दब जाता है। फिर उसे या तो दारू पिलाकर चित कर देते हैं या मुर्गा खरीदने बाजार भेज देते हैं। वो उसमें दस-बीस मारकर खुश हो जाता है।'
'और जबरन?'
'कई बार न मानो तो सिक्योरिटी वाले झुग्गी उखाड़ने की धमकी देते हैं; झुग्गी में से पाँच किलो सीमेन्ट बरामद कर लेते हैं, चार लोहे की सरिया खोजकर काम छुड़वा देते हैं।'
'ये सभी के साथ होता है?'
'अधिकतर। विरोध वाला आदमी खुद ही भाग जाता है।'
'यानी जो यहाँ मौजूद हैं सबके साथ?'
'नहीं, जिनकी किसी को पसंद आ जाय, उनके साथ। जोर-जबर तो बहुत बाद में होती है, पहले तो लालच ही चलता है।'
'ये तो शोषण है!!'
'हाँ! तेरी जुबान में।'
'तेरी में नहीं?'
'मुझसे किसी ने शिकायत नहीं की आज तक! करे भी तो कह दूँगा, थाने जाओ भइया!'
'तू बहुत फटटू है यार..'
'हाँ, तो? सब साले मालिकों के आदमी हैं। इसके अलावा सब के सब गुंडे भी हैं। वो मामाजी सिक्योरिटी अफसर पुराने हिस्ट्रीशीटर भी हैं। हमें तो नौकरी करनी है, यार!'
'तुझे इस गधा हम्माली की फिक्र है?'
'तेरे लिये गधा हम्माली होगी भइया! हमें तो यही मुश्किल से मिली है। जैसे तू कहता है कि तीन महीने बाद वो मदरासी और एक सुपरवाइजर रहेंगे, तो भइया! वो सुपरवाइजर मैं ही रहना चाहता हूँ।'
लेकिन मैंने तय कर लिया कि अगर मुझे किसी भी जोर-जबर का पता चला तो चुप नहीं बैठूँगा। खास गुड्डी के मामले में तो किसी शिकायत का इंतजार भी नहीं करूँगा। मुझे उससे हमदर्दी होने लगी। साइट पर पहुँचकर, मैं सबसे पहले गुडडी की हाजिरी निगाहों से चैक करता। अगर वह थोड़ा भी देर से आती तो मुझे बैचैनी सी हो जाती। विश्वास करना राज! मुझे उसकी बेचारगी से लगाव था। इसके अलावा कुछ नहीं था। मैं उसे तलाशता, हाल-चाल पूछता और आश्वस्त हो जाता। ये सही है कि हाल-चाल मैं सिर्फ उसी का लेता था। इसीलिये वह भी मेरे तलाशने से पहले ही मेरे सामने आकर बेनागा राम-राम करने लगी। मुझे याद है जब उसने पंद्रह दिन की तनख्वाह लेते समय अँगूठा टिकाया तो मैंने कहा -
'तुझे अँगूठा टेकना अच्छा लगता है, गुडडी?'
'जामें अच्छो बुरो का है बाबूजी! पइसा तौ बितेक ही मिलनैं। कलम चलाबे ते पइसा त बढ़ने नइयाँ..' वह मासूमियत से खिलखिलाई।
'पइसा बितेक मिलने की गारंटी क्या है मूरख? पढ़-लिख लेगी तो देख सकेगी कि इसमें क्या लिखा है? तुझे क्या मिल रहा है?'
'ऐसौ हू है जात बाबूजी?' उसने विस्मय से कहा।
'क्यों, नहीं हो सकता?'
'आप ऐसौ कर सकत, बाबू जी? आप तौ भौत अच्छे हैं।' उसने मेरी ईमानदारी पर प्रश्न-चिन्ह लगाया, फिर खुद ही हटा दिया।
'सब कर सकते हैं। दूसरे की अच्छाई के भरोसे क्यों रहती है, अपनी अक्ल के भरोसे रह।'
'पढ़े तौ काका हू नइयाँ, अब हम का पढैं बाबू जी!'
'पढ़ सकती है गुड्डी! कम से कम हिसाब और दस्तखत लायक तो पढ़ ही ले।'
'हमें कौन पढ़ावै बाबूजी!' कह कर वह बिना गिने पैसे लेकर चली गई।
'हमें कौन पढ़ावै बाबूजी!' ने उस रात मुझे बहुत परेशान किया। अगले दिन जब मैं कंपनी के गेट में घुसा तो मेरे हाथ में वर्णमाला, पहाड़े और मामूली जोड़-बाकी की दो किताबें थीं। मेरे हाथ में किताबें देखकर सुरेश की भौंहें चढ़ीं-
'क्या है ये?' उसने हिकारत से पूछा।
'दिखता नहीं?' मैंने कहा।
'दिख रहा है, पर तेरी मति मारी गई लगती है। गुड्डी के लिये लाया है?'
'हाँ।'
'पर ये 'क' है ये 'ख' है, कौन बतायेगा उसे?'
'सत्येन्द्र शर्मा।'
'कब शाम को उसकी झुग्गी में जाके?'
'नहीं, यहीं लंच में।'
'ओ भाई! क्यों अपना, गाँधी बाबा और मार्क्स दादा का मजाक बनवा रहा है!'
'मुझे फर्क नहीं पड़ता। गाँधी और मार्क्स को भी नहीं। मैं सिर्फ उसकी बेचारगी कम करना चाहता हूँ।'
'पीएचड़ी करायेगा?'
'नहीं, सिर्फ पढ़ सके, लिख सके, दो और दो चार कर सके, बस!'
'उससे उसका नसीब बदल जायेगा?'
'कुछ हद तक!'
'सोच ले सतेन्दर! ये दारू का ठेका है। लोटा भर गंगाजल मतलब एक बोतल दारू!'
'ज़िन्दगी नहीं काटनी यहाँ!'
मुझे याद है राज! जब मैंने वो किताबें गुड्डी को दीं तो उसके चेहरे पर कितने ही अस्थाई भाव आये और गये थे। सबसे अंतिम और स्थाई भाव उस संतुष्टि का था जो किसी पूर्ण वयस्क के चेहरे पर स्वप्न का सकारात्मक फल सुनकर आता है। मैं प्रतिदिन लंच में उसे पंद्रह मिनट के करीब अक्षर ज्ञान कराने लगा। पंद्रह दिन बाद जब दोबारा तनख्वाह बँटी तो उसने बड़े गर्व से चारों ओर देखकर पैन माँगा, पे-रोल को अपनी ओर सरकाया और बोली-
'तीन सौ साठ..'
'साठ किस बात के?' मैंने मुस्कराते हुए कहा।
'तीन दिन चार चार घंटा ओवरटैम, बाबूजी!'
'तो बारह घंटे हुए ना..'
'वाह बाबूजी! ओवरटैम को पइसा डबल मिलै त घंटा भये चौबीस, दिना भये तीन, रूपइया भये साठ!'
कैशियर को शायद उसका पढ़ जाना नागवार गुजरा, उसने 'ठीक है..' कहते हुए तीन सौ साठ गिने और गुड्डी ने बड़े ठसके से पे-रोल पर जितना सुन्दर लिख सकती थी 'गुड्डी बाई' लिख दिया।
मैं अपनी सफलता पर खुश था, सुरेश जिसे मेरा ये कदम कतई फालतू लगा था, उसकी आँखों में भी प्रशंसा के भाव थे।
'कमाल है यार! लड़की काबिल है। अभी पंद्रह दिन नहीं हुए कि सही हिसाब लगाने लगी। साफ-साफ लिखने लगी।' वह बोला।
'एक दिन पूरा नहीं हुआ सुरेश! स्कूल के एक दिन में तीन सौ साठ मिनट होते हैं। ये अभी तक ढाई सौ मिनट ही पढ़ी है मुझसे। सोच इसे भी अवसर हमारे बराबर मिलते तब...'
'बात ठीक है, लेकिन मैं फिर भी कहूँगा ये उसका नसीब है। तूने जिद पूरी कर ली, अब तेरा काम खत्म।'
'हाँ, काम तो खत्म ही है! मैं कौन उसे कलक्टर बना रहा हूँ।'
गुड्डी अब मुझसे बहुत अनौपचारिक हो चुकी थी। काम वही था, लेकिन उसका व्यवहार बदल रहा था। काम में कोताही कतई नहीं थी, लेकिन अब वह मुझसे बात करने में सहमती नहीं थी। आम मजदूर सुपरवाइजर से निगाहें मिलाने में कतराते, लेकिन वह मित्रवत समानता का व्यवहार करती। हाँ, इसका एक घाटा मुझे जरूर हुआ कि बाकी मजदूरिनें भी मुझसे अनौपचारिक होने का प्रयास करने लगी थीं। लेकिन मुझे इससे न तब फर्क था, न आज। एक दिन गुड्डी काम पर नहीं आई। जब करीब दो घंटे नहीं आई तो मुझे अजीब सा लगा। मैं दरसराम से पूछने वाला था कि सामने से एक और मजदूरिन आती दिखी। उसका नाम भी मुझे इसलिये याद है कि बड़ा अजीब नाम था - गोल बाई। मैंने गोल बाई से पूछा -
'गुड्डी नहीं आई आज काम पर?'
'नाय बाबू जी!'
'क्यों?'
'काय बाबूजी! जादा फिकर है रई उ की? कभू-जभू हमतेई राम-राम कर लेओ, हमउ राम-राम अच्छी करत हैं।' उसने ऑखों को गोल गोल घुमाते हुए कहा।
'मैंने उसका पूछा है, उसी का बता।' मैं गुस्साया।
'उ त महीना ते भई ऐ..'
'किस से क्या हुई है?'
'अरे का समझाऐं बाबूजी! सादी-मादी ना भई का?'
'सीधा सीधा बोल..'
'बा बीमार है। तीन दिन नईं आवैगी।' वह खी-खी करती हुई चली गई।
मुझे गोलबाई के सारे वाक्य तिलिस्म जैसे लगे। तब तक वाकई मैं स्त्रियोचित शारीरिक लक्षणों से अंजान था। मेरे मन मैं सुरेश के द्वारा बताई गई सारी संभावनाऐं आने लगीं और उस स्थिति में सारे तर्क अशुभ पक्ष में ही जा रहे थे। बीमार है तो उसके माँ-बाप काम पर क्यों हैं? गोलबाई खीखीं क्यों कर रही थी? तीन दिन क्यों नहीं आयेगी? कहीं कोई गड़बड़ तो नहीं? मैंने दरसराम से भी पूछा। उसने भी तबीयत ही खराब बताई। 'क्या खराब है?' के प्रश्न पर वह हड़बड़ा गया। मुझे यकीन हो चला था कि जरूर किसी ठेकेदार या सिक्योरिटी वाले ने कोई गड़बड़ की है। या तो दरसराम कुछ ले मरा या डरा हुआ है। मैं हालाँकि लंच में ही उससे मिलना चाहता था, पर उसके माँ-बाप की मौजूदगी में मिलना मुझे ज्यादा ठीक लगा। शाम को जब मैं दरसराम की झुग्गी में पहुँचा, दरसराम अचरज के साथ बोला -
'बाबू जी, आप?'
'गुड्डी कहाँ है?' मेरी नजरों में अभी भी शक था।
'गुड्डी?'
'वो बीमार है ना?'
'आप गुड्डी खों देखबे आये बाबू जी?'
'क्यों, नहीं आ सकता?'
'नाय बाबूजी कैसे नईं आ सकत, पर हम मजूरन के लानैं इत्तौ कौन सोचै मराज? आप तौ देबता हैं।'
'अंदर नहीं आने दोगे देवता को..' मैं हँसा।
'आऔ मराज, देख गुडडी कौन आयौ तोय देखबे लानैं।' कहता हुआ वह अंदर घुसा, उसके पीछे मैं भी।
इस वक्त गुड्डी चारपाई पर लेटी थी। मुझे वो बीमार तो नहीं लगी, हाँ थकी हुई जरूर लगी थी। लेकिन मुझे देखते ही वो थकावट भी काफूर हो गई थी।
'कैसी है गुड्डी?' मैंने पूछा।
'अच्छी चोखी भली त हूँ।'
'तो काम पर क्यों नहीं आई?'
'बउ नै नईं जान दओ।'
'क्या हुआ इसे दरसराम?' मैंने दरसराम से पूछा
'कछु नईं बाबूजी, हाथ पॉव में दरद है' वह हकबकाया सा इधर उधर देखने लगा
'काका झूठ बोलत, कछु नइयॉ बाबूजी' गुडडी ने विरोध किया
'ठीक ठीक क्यों नहीं बताते, किसी ने कुछ कहा सुना हो, कुछ किया हो तो बताओ। मैं सब देख लूँगा।' मैंने कहा।
वह थोड़ी देर किंकर्तव्य विमूढ़ सा खड़ा रहा, फिर मेरा कंधा पकड़ कर कोने में ले गया। धीमे-धीमे फुसफुसाकर उसने स्त्री शरीर विज्ञान की कुछ महत्वपूर्ण जानकारियॉ मुझे दीं। तब मैंने भी चैन की सॉस ली। गुड़ की चाय पीकर जब मैं वहॉ से निकला तो झुग्गी के बाहर ही गोल बाई ने गोल गोल ऑखें घुमाकर मुझसे राम राम की।
गुडडी तीन दिन बिस्तर में नहीं रही बल्कि अगले ही दिन काम पर आ गई, उस दिन वो मुझे रोजाना से खूबसूरत लगी, शायद उसने उस दिन अपने श्रंगार पर समय और सामान दोनों खर्च किये थे, वह समय से पहले काम पर आई थी, मेरे आने का इंतजार भी उसने किया था और उस दिन मुझे सबसे पहला अभिवादन भी।
'बाबू जी, राम राम!'
'राम राम गुडडी, कैसी है?'
'आपई बताओ बाबूजी कैसी लग रई हूँ?'
'अच्छी,सुंदर लग रही है।'
'सच्ची!'
'हाँ, बाकी दिन से सुंदर लग रही है आज।'
वह अचानक शरमाई और भाग गई, सुरेश मेरे पास आया।
'कल इसके यहॉ गया था?'
'हॉ तबीयत खराब सुनी थी, देखने गया था। तुझे किसने बताया?'
'मदरासी ने..'
'मदरासी? उसे क्या आकाशवाणी हुई?'
'दूरभाष वाणी, मैं तब उसके घर पर था। सिक्योरिटी अफसर का फोन पहुँचा था उसके पास..'
'क्या कह रहा था मदरासी?'
'कुछ खास नहीं! पर कह रहा था झुग्गियों से दूर रहो'
'तूने क्या कहा?'
'हम तो भला चाहते हैं, समझा दिया कि तू समाज सुधारक भी है। पर प्लीज दूर रह यार!'
तभी गुड्डी वहाँ आई।
'बाबूजी!' उसने दूर से बोला। शायद वह सुरेश से डरती थी।
'हाँ, गुड्डी! आजा आजा..' मैंने उसे पास बुलाया। वह आ गई।
'हाँ, बोल..' मैंने सुरेश की ओर देखते हुए कहा।
'बाबूजी! आपको नाम का है?' उसने नीचे देखते हुए कहा।
'क्या चिटठी लिखेगी इसे? काम से काम रख। इसका नाम बाबूजी है बस। भाग यहाँ से बेवकूफ!' सुरेश गुर्राया। वह चली गई।
'तुझे ऐसा नहीं करना था सुरेश!' मैंने कहा।
'तेरे नाम पर धरमशाला बनवायेगी क्या जो नाम चाहिये?'
'न बनवाये, पर उसे मेरा नाम जानने का अधिकार है।'
'क्यों?'
'क्योंकि मैं उसका नाम जानता हूँ।'
'गाबदू! वो इश्क लड़ा रही है।'
'पागल! उसकी उम्र ही क्या है अभी?'
'मैं जानता हूँ इन मजदूरों को! पूरा परिवार एक ही झुग्गी में पलता है। बच्चे बहुत जल्दी जवान होते हैं। तू बच्चा हो सकता है, वो कतई नहीं। मान जा भाई!'
खैर, वही हुआ जैसा सुरेश ने मुझे बताया था। हफता नहीं गुजरा कि दरसराम ने मुझसे शिकायत की कि सिक्योरिटी वालों ने उसकी झुग्गी में घुसने की कोशिश की। मैं सिक्योरिटी ऑफीसर के पास पहुँचा।
'बैठ भाई पंडित! पंडित ही है ना? क्या नाम है तेरा?'
'मेरा नाम सत्येन्द्र शर्मा है। मैं यहाँ सिविल सुपरवाइजर हूँ।'
'पता है भाई! चार-छ: बार तो देखा है तुझे। फिर तू तो हीरो है झुग्गी वालियों का...'
'देखिये सर! सवाल ये नहीं है कि मैं किसका क्या हूँ, सवाल ये है कि आपके गार्ड झुग्गियो में हुड़दंग कर रहे हैं।'
'और तू? तू वहाँ प्रवचन करने जाता है?'
'मेरे वहाँ जाने से किसी को कोई शिकायत नहीं, पर आपके गार्डस की शिकायत मेरे पास है?'
'क्यों भाई? हमारा काम तो चैक करना है, करते हैं।'
'झुग्गियाँ कम्पनी के गेट के बाहर हैं। कंपनी के बाहर आप किसी को भी चैक नहीं कर सकते।'
'तो भाई! जगह तो कंपनी की है।'
'जगह को कोई उठा के नहीं ले जा रहा। फिर वहाँ रहना उन्हें कंपनी ने परमिट किया है।'
'कंपनी से माल चुरा कर झुग्गी में जमा किया हो तो?'
'तो आपकी सिक्योरिटी फेल, सारे गार्ड कामचोर, औरतखोर! जिसे भी चेक करना हो मजदूरों के गेट से निकलते वक्त चैक करे। कंपनी के बाहर उनकी झुग्गी में कुछ भी है, उनका है।'
'तुझे तो वकील होना चाहिये, क्या चोरों की वकालत कर रहा है!!'
'हाँ, डकैतों के सामने।'
'पिट जाएगा छोरे! अभी अपने लौडों को बोल दिया तो हड्डी न मिलेगी!'
'बोल के देख लो.. वैसे आपसे बड़े लोग हैं कंपनी में और बाहर भी।'
'हो गया? जो बने सो कर ले, मेरे गार्ड जो चाहेंगे करेंगे। अभी तो जाके अपने मदरासी से मिल ले। थ्रू प्रापर चैनल वही है ना, जा।'
मैं चला आया। इससे पहले कि मैं मदरासी के पास जाता, उसने मुझे खुद ही बुला भेजा।
'सत्या! तेरे किलाप सिक्योरिटी वाला कंपलेन खिया। तेरी साइट का लेबर टेकेदार का साइट पे खाम खरती। टेकेदार कंपलेन खिया कि थू उसका लेबर खी जुग्गी में जाती। टेकेदार से खमीशन माँगती।'
'इसमें से आपको कुछ भी नहीं पता?'
'मेरे जानने से ख्या मीनिंग.. थू जानती, अपना अपना नौकरी यार! थू ख्यों पंगा लेती?'
'पंगा क्यों न लूँ? मेरे मजदूर, मेरे बच्चे की तरह हैं। आप अपने बच्चे को मुसीबत में छोड़ सकते हैं क्या?'
'लेबर लेबर, बच्चा बच्चा सत्या!, थेरा डेफीनेशन ओल्ड होती..'
'होने को हिन्दुओं का राम, मुसलमानों का मुहम्मद और आपका जीसस भी बहुत ओल्ड है; फिर इसे गले में लटकाने का क्या मतलब?'
'मईं आर्ग्यूमेन्ट नईं करथी, यू हैव थ्री ऑप्शन्स..'
'एक ऑप्शन रिजाइन है ना? मैं लिखता हूँ।'
मैंने इस्तीफा लिख दिया, हालाँकि प्राइवेट नौकरी में इस्तीफे का खास मतलब नहीं। हाँ, हिसाब के लिये जरूरी होता है। लेकिन उसके बाद मैंने बहुत हल्का महसूस किया। मुझे उस वक्त लगा कि अब मैं शोषण का हिस्सा नहीं था। मुझे गुड्डी की हाजिरी, उसकी सेहत, उसकी बेचारगी किसी की फिक्र नहीं करना थी। मैं गुड्डी और सुरेश से मिलने साइट पर पहुँचा।
'इस्तीफा दे दिया?' सुरेश बोला।
'हाँ, तुझे कैसे पता?'
'मालिक के मामा से लड़कर और क्या होना था। पर चल तुझे एक चीज दिखाता हूँ।'
'क्या?'
'चल तो सही..'
वह मुझे खींच कर पिछवाड़े ले गया और दीवार की ओर इशारा करके बोला -
'देख!'
मैंने देखा दीवार पर साढ़े पाँच फुट की ऊँचाई तक एक ही शब्द पचासियों बार लिखा था - 'बाबूजी'
'ये बाबू जी लिखा है।'
'हाँ, मगर सोच किसने लिखा है और क्यों लिखा है?'
मुझे याद आ गया गुड्डी का वह सवाल - 'आपका नाम क्या है बाबूजी?'
'मतलब...!!!'
'हाँ!'
मैं हालाँकि गुड्डी से भी मिलना चाहता था, पर इस शब्द को पढ़ने के बाद मैंने उससे मिलने का इरादा बदल दिया। इसलिये नहीं कि वो मेरे लायक नहीं थी या मैं उसकी हिमाकत पर गुस्सा था या मैं उसे पसंद नहीं करता था बल्कि इसलिये कि बड़ी मुश्किल से पैदा होने वाली उस भावना का जो किसी कुँवारी लड़की को दीवार पर एक ही शब्द पचासियों बार लिखने पर मजबूर कर दे, वध मेरी हिम्मत के बाहर था। इसके अलावा मैं किसी के सपने देखने के अधिकार को भी नहीं छीन सकता था। इस लिये उस शब्द 'बाबूजी' को जितनी बार लिखा गया था उतनी बार पढ़ता हुआ उल्टे पाँव चोरों की तरह पिछले गेट से बाहर निकल आया।
कहते हुए सत्येन्द्र की आवाज में नमी सी आ गई। थोड़ी देर बाद राजसिंह ने चुप्पी को तोड़ा -
'फिर आपने पता नहीं किया सत्य भाई! कि गुडडी के साथ क्या हुआ?'
'नहीं!'
'क्यों? वो तो आपसे प्रेम करती थी। आपको खबर तो लेनी चाहिये थी..'
'हाँ, लेकिन खबर न लेने से एक फायदा था कि उसकी सलामती का भ्रम आज तक जिन्दा बना रहा। पता करने पर कुछ अनिष्ट का पता चलता तब? और संभावना अनिष्ट की ही ज्यादा थी..'
'क्या ये पलायन नहीं?'
'है। तभी मैंने दफतर की नौकरी चुनी राज! फील्ड में हर कदम पर एक गुड्डी खड़ी है। शायद पलायन का अपराध बोध है कि मैं बीस साल बाद भी स्त्री स्वर में बाबूजी सुनता हूँ, तो चौंक जाता हूँ। निरीह गुड्डी मेरे सामने आकर खड़ी हो जाती है, मानो कह रही हो – ‘तुम तो मुझसे भी बेचारे निकले बाबूजी!'
कहते हुए सत्येन्द्र ने चश्मा उतारा और धीमे से बोला -
'जरा अपनी पानी की बोतल देना राज!'
'ब्रेक के बाद। अभी सरकार की बजा लें, राज!'
'अरे सत्य भाई! बड़ी मुश्किल से आपको टटोलने का मौका मिला था।'
'चिन्ता मत कर। लंच में...' सत्येन्द्र ने आश्वासन दिया। तभी नरबदी ने दोनों के सामने चाय रखी।
'सर जी! चाय।'
'मगर पैसे तो तुझे दिये थे, चाय के लिये नरबदी?' सत्येन्द्र ने कहा।
'वाह! पइसा बारो चाय न पीये, नरबदी पी लेय। जे कोई बात भई बाबूजी!'
'नरबदी!!!' सत्येन्द्र ने अपना सर पकड़ा।
'माफी सरकार' कहती हुई नरबदी लगभग भागी। राजसिंह ने ठहाका लगाया।
'गुड्डी बाई... मतलब निचले तबके से रही होगी?' राजसिंह लंच में खाना खाते हुए बोला। उसे सब्र नहीं हो रहा था।
'हाँ।' सत्येन्द्र ने कहा।
'वो आपको बाबूजी कहती थी?'
'मजदूर थी.. कुली। वो मेरा नाम नहीं जानती थी.. फिर क्लास में भी फर्क था।'
'प्यार मुहब्बत का लफड़ा था?'
'शायद..'
'खूबसूरत थी?'
'खूबसूरत??? कोई स्थापित परिभाषा तो नहीं इसकी!'
'हाँ! लेकिन दुनियादारी के हिसाब से चार आदमी जिसे खूबसूरत कहें..'
'तब वो खूबसूरत नहीं थी।'
'आपसे प्रेम करती थी?'
'हाँ.. शायद!'
'आप?'
'शायद नहीं!'
'मतलब? आप अपनी भावना के बारे में अनिश्चित कैसे हो सकते हैं?'
'सब बताता हूँ।' सत्येन्द्र ने टिफिन बंद किया और वॉश-बेसिन की ओर चला गया। लौटकर वापस सीट पर बैठा और बोला,
'हाथ धो के आ जा राज!'
'नहीं आप सुनाओ। इंटरैस्टिंग स्टोरी है। फुल ऑफ सस्पेंस एन्ड थ्रिल... नायिका नायक का नाम नहीं जानती.. अ ग्रेट प्लेटोनिक लव.. वाह!' राजसिंह हँसा।
'हाँ, कहानी को इंटरैस्टिंग होना चाहिये। वैसे कहानी क्या होती है राज?'
'कहानी कहानी होती है!'
'नहीं, मेरे हिसाब से आदमी के जीवन की दूसरी बड़ी कमजोरी का नाम होता है कहानी!'
'दूसरी.. तो पहली कमजोरी?'
'आत्मश्लाघा, आत्म प्रशंसा या आत्म प्रवंचना!'
'माना, लेकिन कहानी इंसान की कमजोरी क्यों हुई?'
'इंसान की पहली कमजोरी आत्म प्रशंसा है तो दूसरी कमजोरी है दूसरे की जिन्दगी में झाँकना। उददेश्य सही हो या गलत या उदासीन भाव हो, इंसान दूसरे की जिन्दगी के बारे में बहुत कुछ जानना चाहता है। तभी वह कहानी लिखता, सुनता और पढ़ता है।'
'सब मान लिया। लेकिन फिलास्फी नहीं चाहिये भाई साब! आप तो कहानी ही सुनाओ।'
'ठीक है, बात बीस साल पुरानी है। उन दिनों की जब मैं गधा हम्माली करता था।'
'गधा हम्माली?'
'हाँ!' सत्येन्द्र ने जैसे किसी किताब के पन्ने पलटना शुरू किया।
प्राइवेट नौकरी, पद सुपरवाइजर, वेतन पंद्रह सौ, काम का वक्त कभी से कभी तक। वो कम्पनी एक कन्टेनर मैन्युफैक्चरर थी। हम कुछ लोग ही सिविल साइड से थे। सभी के सभी टैम्परेरी! काम भी बहुत ज्यादा दिन चलने वाला नहीं था। कम्पनी का एक नया यूनिट और कालोनी का निर्माण.. बस यही हमारा काम था। मजे की बात ये कि कन्सट्रक्शन वाले हम जितने भी इंजीनियर या सुपरवाइजर थे, सभी कुँवारे थे। ये सिर्फ संयोग नहीं था। मैनेजमेन्ट की दूरदर्शिता थी। चूँकि कन्सट्रक्शन का काम टारगेटेड था और विवाहित लोग चौबीस में से चौदह घंटे आठ घंटे की तनख्वाह में नहीं दे सकते.. इसीलिये जानबूझ कर कुँवारे कर्मचारी कम्पनी ने रखे थे। ऐसे हम कुल छ: लोग थे। जिस साइट पर मैं था, वहाँ हम कुल दो सुपरवाइजर थे, मैं और सुरेश। सुरेश कंपनी में मुझसे पहले से था। हालाँकि मेरी उम्र करीब इक्कीस साल ही थी लेकिन मैं वैचारिक रूप से बहुत अलग धारा का व्यक्ति था। सुनने मे अजीब जरूर है, लेकिन वो धारा है उदार समाजवादी विचार धारा! मुझे गाँधी और मार्क्स दोनों पसंद थे। टालस्टाय, गोर्की और प्रेमचंद तीनों को एक ही चाव से पढ़ता था मैं। लेकिन सुरेश धारा वारा के चक्कर से कोसों दूर था। आई.पी.सी. की कुछ धाराओं जैसे एक सौ चवालीस, तीन सौ दो, तीन सौ छिहत्तर वगैरा से वह परिचित अवश्य था। सुरेश का अक्सर मेरे ऊपर आरोप रहता था कि मैं मजदूरों से काम लेने में अक्षम था। मेरी मेहनत या योग्यता पर उसे कभी शक नहीं रहा। वह जानता था कि वह योग्यता में मुझसे काफी पीछे था। इसीलिये वह मुझे झेलता था। रोजाना साइट पर आकर वह पहले मजदूरों से दमबाजी करता। फिर आधा घंटे मुझसे उस दिन होने वाले काम की लर्निंग लेता, जो उसकी जुबान में डिसकशन हुआ करता था। उसके बाद जब भी कन्सट्रक्शन मैनेजर साइट पर आता, वह मजदूरों को गाली बकता हुआ, 'गुड नून सर!' या 'गुड आफटर नून सर!' कहता हुआ कूदकर आगे आता और मुझसे ली हुई लर्निंग को बड़े ही आत्मविश्वास से उसके सामने बयान कर देता। तमिल कन्सट्रक्शन मैनेजर उसके पीछे खड़े सत्येन्द्र शर्मा की ओर प्रश्नवाचक चिन्ह बनाता -
'कइसा सत्या.. खुच समज मईं आथी ऐ सूरेश ख्या बोली?'
मेरे बोलने से पहले ही सुरेश फिर कूदकर बीच में आता -
'नहीं सर बहुत काबिल बंदा है। नॉलेज तो बहुत है, बस थोड़ा डायनमिक और हो जाय..'
इस तरह वह मेरी सेवा पुस्तिका में अनुकूल प्रविष्टि भी कर देता और मैनेजर के जाते ही साइट के पिछवाड़े चारपाई मँगवा लेता, फिर धीरे से कहता -
'सतेन्दर, जरा देखना यार!'
हालॉकि मैंने सुरेश से कभी कहा नहीं, पर मेरे भी उस पर दो आरोप थे। एक ये कि वह विचार शून्य रोबोट था और दूसरा ये कि वह मैनीपुलेटर था। बहरहाल साइट पर दबदबा उसी का था। मजदूर उसके नाम क्या गोत्र तक से परिचित थे और मुझे तो शर्मा बाबूजी के नाम से ही पहचानते थे। वे मेरे सामने आराम से बीड़ी पी लेते जबकि उसे सौ मीटर दूर से देख सावधान हो जाते। कंपनी कन्सट्रक्शन का काम भी दो तरीकों से करा रही थी, एक कंपनी का खुद का स्टाफ और दिहाड़ी मजदूर; दूसरा ठेकेदारों के द्वारा। ये सारे ठेकेदार मालिकों के रिश्तेदार थे। हमें उनके काम में नुक्ताचीनी का अधिकार नहीं था। कई बार हमारे मजदूर ठेकेदारों के पास भेज दिये जाते। कई बार हमारे अच्छे मजदूरों के बदले ठेकेदारों के बेकार मजदूर हमें पकड़ा दिये जाते। चाहे जिस तरह हमारा काम उनके काम से कमतर साबित किया जाता.. बल्कि उनकी पैमाइश पर दस्तखत भी हमसे कराये जाते। कमअक्ल सुरेश के दिमाग में ये बात कभी नहीं आती। मैं समझाता तो कहता-
'कोई अपना नुकसान क्यों करेगा?'
'नुकसान कहाँ? ठेकेदार मालिकों के घर के हैं।'
'और ये कम्पनी?'
'ज्यादा से ज्यादा पचास फीसद मालिकों की.. हो सकता है उससे भी कम हो!'
'मतलब?'
'कम्पनी के शेयर निकले हैं, लगभग आधा पैसा तो पब्लिक का है, कम्पनी को फायदा होगा तो आधा पब्लिक को भी होगा, मगर ठेकेदारों को फायदा होगा तो पूरा मालिकों को होगा। फिर कम्पनी का मैनेजमेन्ट देख.. फालतू की कितनी पोस्ट मालिकों ने अपने रिश्तेदारों को थमा रखी हैं.. सिक्योरिटी अफसर मामाजी, कोऑर्डिनेटर चाचाजी, एचआरडी मैनेजर, एकाउन्ट अफसर, सेल्स मैनेजर, परचेज मैनेजर.. पता नहीं कितनी पोस्ट रिश्तेदारों को दे रखी हैं! सिर्फ काम करने वाले जरूरी लोग बाहर के हैं। नुकसान कहाँ है भाई? फिर तेरे साइन से ही तुझे निकालने का इंतजाम किया जा रहा है।'
'वो कैसे भला?'
'भइया!! जब हमारे यानी कंपनी और ठेकेदारों के रेट कम्पेयर किये जायेंगे तो निश्चित ही ठेकेदारों का काम हमसे सस्ता और सुंदर मिलेगा।'
'हमसे सस्ता कैसे हो जायेगा? कितनी मेहनत करते हैं हम लोग?' वह आश्चर्य करता।
'ऐसे हो जायेगा.. कंपनी के लिये जो माल खरीदा जा रहा है, उसमें दलाली बटटा है। हमारे मजदूर भी उनके साथ लगा दिये जाते हैं।'
'मगर मदरासी तो कह रहा था कि एडजेस्ट हो जाता है सब।'
'कुछ नहीं होता। तू देख के आया है क्या? एकाउन्ट आफीसर भी तो मालिकों का रिश्तेदार है। एडजेस्टमैन्ट नहीं, मैनीपुलेशन होता है। अब जब ठेकेदारों का काम हमसे सस्ता होगा, तब कंपनी का काम बंद करके एक ये मदरासी और दूसरा कोई एक सुपरवाइजर रख के बाकी को चलता करेंगे। फिर अच्छे दामों में रिश्तेदारों को ठेका दे देंगे।'
'तू तो यार दिमाग की जलेबी बना देता है!'
उस दिन भी ऐसा ही कुछ हुआ था, जब पहली बार मैंने गुड्डी को देखा था।
'ऐ! क्या नाम है तेरा? बैठी क्यों है?' सुरेश चिल्लाकर बोला
'तारा बाई, साहेब! दूधई तौ पिवाय रये मौंड़ा खों..' मजदूरिन ने गोद में पड़े बच्चे को धीमे से धौल मारते हुए कहा, बच्चा शायद बड़ा हो चुका था और उसके दाँत भी..
'दूध पिलाने की दिहाड़ी नहीं मिलती। हाजिरी उड़ा दूँगा तो समझ आयेगी!'
'उठ रये साहेब!'
मुझे हँसी आई। एक तरफ वो मजदूरिन थी, जिसकी छाती में दूध नहीं था फिर भी बच्चे को लिपटा कर आराम की गरज से बैठी थी और दूसरी ओर सुरेश जो अपने बारह चौदह घंटे, आठ घंटे के वेतन में देकर, दूसरों से भी वैसी उम्मीद कर रहा था। ताराबाई उठ गई, बच्चा आँचल से बाहर आ चुका था। मैंने उसके बच्चे को देखा, तीन साढ़े तीन का तो रहा होगा। उसके हाथ में रोटी का टुकड़ा शायद पहले से ही था। साबित था कि ताराबाई जबरन उसे अपने स्तन से चिपका कर बैठी थी। मुझे फिर हँसी आई, सुरेश गुर्राया-
'साला एक तो काम नहीं देखता, हँसता अलग है!'
'मतलब एक कुली को फीडिंग से रोकना काम है?'
'दिखता नहीं तुझे? वो दूध वाला बच्चा है? लंच में अपना टिफिन दे देना, एक बैठक में निपटा देगा।'
'मुझे पता है, लेकिन क्या ये हम नहीं करते? मदरासी के जाने के बाद तू भी तो चारपाई मँगवा लेता है।'
'हाँ, लेकिन हम लोग बारह चौदह घंटे काम भी तो करते हैं।'
'तो ठीक है, यही बात मदरासी के सामने कहना।'
'तुझसे तो बात करना ही बेकार है!'
'देख सुरेश! लगातार आठ घंटे काम कोई नहीं कर सकता। एक डेढ़ घंटे के काम के बाद पाँच-सात मिनट आराम में कोई बुराई नहीं। अब तू राजी राजी करने दे तो ठीक, वरना वो तो बहाना करेगी ही। फिर वफादारी उन लोगों के साथ की जाती है जो वफा के लायक हों। ये साले चोर, पब्लिक का पैसा खा रहे हैं। इसके अलावा अगले तीन महीने में हममें से कुछ को बाहर होना ही है। कंपनी का काम घाटे का बताकर, जब हमारी लाख मेहनत के बाद घाटा होना तय है, तब होने दे। मैं तो कहता हूँ, तेरे हाथ में कुछ हो तो दस बीस हजार का कबाड़ा कर और निकल ले।'
'दिमाग की जलेबी बना देता है तू तो!'
तभी मेरी निगाह एक लड़की पर पड़ी। उसकी उम्र चौदह या पंद्रह साल रही होगी। सर पर आठ-दस ईंट रखकर फर्स्ट फलोर पर जा रही थी।
'अबे ये नई लड़की कौन है?' मैंने सुरेश से पूछा।
'होगी कोई, यहाँ रोज नये मजदूर आते हैं। कोई पसंद आ गई क्या?' सुरेश बिना उसकी ओर देखे बोला।
'बेवकूफ! इसे रखा किसने?'
'यहाँ सभी को मैं ही रखता हूँ। ये गुड्डी है, दरसराम बेलदार की लड़की। रखकर अपराध कर दिया क्या?'
'हाँ, कर दिया। इसकी उम्र देखी है?'
'हाँ, चौदह-पंद्रह होगी।'
'चाइल्ड लेबर लॉ के बारे में जानकारी है कुछ?'
'अरे यार! वो करना चाहती, उसका बाप करवाना चाहता। फिर लॉ और एक्ट कहाँ आते हैं?'
'आते हैं क्योंकि यहाँ सत्येन्द्र शर्मा भी काम करता है।'
'तो ठीक है दादा मार्क्स के पोते! उसके कार्ड पर उम्र अठारह लिखकर, उसका और उसके बाप का अँगूठा ले लिया है।'
'अबे छोड़, मैं ही देखता हूँ।'
'पसन्द आ गई तो ऐसे ही बोल दे। वहाँ तक क्यों जाता है? तू जहाँ चाहेगा, वहाँ आ जायेगी। एक कुली की दिहाड़ी तो अपन ऐडजेस्ट कर सकते हैं, तेरी खातिर!'
'मूर्ख!' मैंने कहा और सीधा फर्स्ट फलोर पर चढ़ गया।
'ऐ, क्या नाम है तेरा? ये ईंटें नीचे रख और अपने बाप को भेज।'
'गुड्डी बाई, बाबू जी!' वह सहमते हुए बोली।
'का गलती भई, मालिक? ऐ मौड़ी ढंग ते काम नईं करत का?' दरसराम ने तुरंत प्रकट होते हुए मुझे और गुड्डी दोनों को संबोधित किया।
'गलती उसकी नहीं, तेरी है दरस राम! इतनी छोटी लड़की से मजदूरी कराने में शर्म नहीं आती।' मैं चिल्लाया।
'कैसी सरम मालिक! पेटहू त भरनैं..'
'क्या यार! तू और तेरी बीवी, दोनों कमाते हो। तू ओवर टाइम भी कर लेता है। फिर भी पेट नहीं भरता?'
'पेट त भर जात मालिक, पर तीन मौड़ी सरकार.. साल खाँड़ पाछैं ब्याह करनैं ई कौ..'
'ब्याह? इसकी पढ़ने की उम्र है, दरसराम!'
'का मालिक! पढ़ायें तौ मौड़ा हू पढो चानै। उ पइसा हू भौत चानै।' वह हारी हुई हँसी हँसा। उसकी असहाय हँसी मेरे अंदर तक उतर गई। मैं बिना कुछ बोले नीचे उतर आया।
'करा दी पी.एच.ड़ी.?' सुरेश ने व्यंग्य किया।
'हर ज़ख्म पर एक ही दवा नहीं लग सकती, सुरेश!' मैं बड़बड़ाया।
'वही! तू क्यों चक्कर में पड़ता है। अभी ये काम पर आई है, लोगों ने इसे देखा है। अब इसके पीछे लोग लगेंगे। इनमें तेरा नाम भी शामिल हो, मैं नहीं चाहता।'
'तू कहना क्या चाहता है? अभी जो मैंने किया, उसके पीछे मेरी कोई गलत मंशा है?'
'नहीं, लेकिन सिर्फ मैं ही जानता हूँ कि नहीं है। क्या है सतेन्दर! दारू के ठेके में बैठकर गंगाजल पियो तो कितनों को यकीन दिलाओगे।'
'मतलब ये कंपनी दारू का ठेका है??'
'तू नहीं जानता? इस कंपनी की हजार बुराई तो तू ही गिना चुका है मुझे!'
'ये बुराई नहीं पता मुझे!'
'तो सुन! जब अपन लोग यहाँ से चले जाते हैं, तब यहाँ के सिक्योरिटी वाले, ठेकेदारों के मुंशी, खुद ठेकेदार मजदूरों की झुग्गियों में दारू पीते हैं। फिर वहीं रैन बसेरा करते हैं।' उसने बाईं आँख दबाई।
'मर्जी से??'
'अधिकतर पूरे दिन हाड़ तोड़ने के बाद बीस कमाने वाली को पाँच मिनट में सौ-पचास मिलें तो मर्जी अपने आप हो जाती है।'
'उसका आदमी या बाप?'
'कुँवारी तो कम हैं, ज्यादातर आदमी वाली हैं। आदमी तो ठेकेदार जी और कोतवाल जी के वजन से ही दब जाता है। फिर उसे या तो दारू पिलाकर चित कर देते हैं या मुर्गा खरीदने बाजार भेज देते हैं। वो उसमें दस-बीस मारकर खुश हो जाता है।'
'और जबरन?'
'कई बार न मानो तो सिक्योरिटी वाले झुग्गी उखाड़ने की धमकी देते हैं; झुग्गी में से पाँच किलो सीमेन्ट बरामद कर लेते हैं, चार लोहे की सरिया खोजकर काम छुड़वा देते हैं।'
'ये सभी के साथ होता है?'
'अधिकतर। विरोध वाला आदमी खुद ही भाग जाता है।'
'यानी जो यहाँ मौजूद हैं सबके साथ?'
'नहीं, जिनकी किसी को पसंद आ जाय, उनके साथ। जोर-जबर तो बहुत बाद में होती है, पहले तो लालच ही चलता है।'
'ये तो शोषण है!!'
'हाँ! तेरी जुबान में।'
'तेरी में नहीं?'
'मुझसे किसी ने शिकायत नहीं की आज तक! करे भी तो कह दूँगा, थाने जाओ भइया!'
'तू बहुत फटटू है यार..'
'हाँ, तो? सब साले मालिकों के आदमी हैं। इसके अलावा सब के सब गुंडे भी हैं। वो मामाजी सिक्योरिटी अफसर पुराने हिस्ट्रीशीटर भी हैं। हमें तो नौकरी करनी है, यार!'
'तुझे इस गधा हम्माली की फिक्र है?'
'तेरे लिये गधा हम्माली होगी भइया! हमें तो यही मुश्किल से मिली है। जैसे तू कहता है कि तीन महीने बाद वो मदरासी और एक सुपरवाइजर रहेंगे, तो भइया! वो सुपरवाइजर मैं ही रहना चाहता हूँ।'
लेकिन मैंने तय कर लिया कि अगर मुझे किसी भी जोर-जबर का पता चला तो चुप नहीं बैठूँगा। खास गुड्डी के मामले में तो किसी शिकायत का इंतजार भी नहीं करूँगा। मुझे उससे हमदर्दी होने लगी। साइट पर पहुँचकर, मैं सबसे पहले गुडडी की हाजिरी निगाहों से चैक करता। अगर वह थोड़ा भी देर से आती तो मुझे बैचैनी सी हो जाती। विश्वास करना राज! मुझे उसकी बेचारगी से लगाव था। इसके अलावा कुछ नहीं था। मैं उसे तलाशता, हाल-चाल पूछता और आश्वस्त हो जाता। ये सही है कि हाल-चाल मैं सिर्फ उसी का लेता था। इसीलिये वह भी मेरे तलाशने से पहले ही मेरे सामने आकर बेनागा राम-राम करने लगी। मुझे याद है जब उसने पंद्रह दिन की तनख्वाह लेते समय अँगूठा टिकाया तो मैंने कहा -
'तुझे अँगूठा टेकना अच्छा लगता है, गुडडी?'
'जामें अच्छो बुरो का है बाबूजी! पइसा तौ बितेक ही मिलनैं। कलम चलाबे ते पइसा त बढ़ने नइयाँ..' वह मासूमियत से खिलखिलाई।
'पइसा बितेक मिलने की गारंटी क्या है मूरख? पढ़-लिख लेगी तो देख सकेगी कि इसमें क्या लिखा है? तुझे क्या मिल रहा है?'
'ऐसौ हू है जात बाबूजी?' उसने विस्मय से कहा।
'क्यों, नहीं हो सकता?'
'आप ऐसौ कर सकत, बाबू जी? आप तौ भौत अच्छे हैं।' उसने मेरी ईमानदारी पर प्रश्न-चिन्ह लगाया, फिर खुद ही हटा दिया।
'सब कर सकते हैं। दूसरे की अच्छाई के भरोसे क्यों रहती है, अपनी अक्ल के भरोसे रह।'
'पढ़े तौ काका हू नइयाँ, अब हम का पढैं बाबू जी!'
'पढ़ सकती है गुड्डी! कम से कम हिसाब और दस्तखत लायक तो पढ़ ही ले।'
'हमें कौन पढ़ावै बाबूजी!' कह कर वह बिना गिने पैसे लेकर चली गई।
'हमें कौन पढ़ावै बाबूजी!' ने उस रात मुझे बहुत परेशान किया। अगले दिन जब मैं कंपनी के गेट में घुसा तो मेरे हाथ में वर्णमाला, पहाड़े और मामूली जोड़-बाकी की दो किताबें थीं। मेरे हाथ में किताबें देखकर सुरेश की भौंहें चढ़ीं-
'क्या है ये?' उसने हिकारत से पूछा।
'दिखता नहीं?' मैंने कहा।
'दिख रहा है, पर तेरी मति मारी गई लगती है। गुड्डी के लिये लाया है?'
'हाँ।'
'पर ये 'क' है ये 'ख' है, कौन बतायेगा उसे?'
'सत्येन्द्र शर्मा।'
'कब शाम को उसकी झुग्गी में जाके?'
'नहीं, यहीं लंच में।'
'ओ भाई! क्यों अपना, गाँधी बाबा और मार्क्स दादा का मजाक बनवा रहा है!'
'मुझे फर्क नहीं पड़ता। गाँधी और मार्क्स को भी नहीं। मैं सिर्फ उसकी बेचारगी कम करना चाहता हूँ।'
'पीएचड़ी करायेगा?'
'नहीं, सिर्फ पढ़ सके, लिख सके, दो और दो चार कर सके, बस!'
'उससे उसका नसीब बदल जायेगा?'
'कुछ हद तक!'
'सोच ले सतेन्दर! ये दारू का ठेका है। लोटा भर गंगाजल मतलब एक बोतल दारू!'
'ज़िन्दगी नहीं काटनी यहाँ!'
मुझे याद है राज! जब मैंने वो किताबें गुड्डी को दीं तो उसके चेहरे पर कितने ही अस्थाई भाव आये और गये थे। सबसे अंतिम और स्थाई भाव उस संतुष्टि का था जो किसी पूर्ण वयस्क के चेहरे पर स्वप्न का सकारात्मक फल सुनकर आता है। मैं प्रतिदिन लंच में उसे पंद्रह मिनट के करीब अक्षर ज्ञान कराने लगा। पंद्रह दिन बाद जब दोबारा तनख्वाह बँटी तो उसने बड़े गर्व से चारों ओर देखकर पैन माँगा, पे-रोल को अपनी ओर सरकाया और बोली-
'तीन सौ साठ..'
'साठ किस बात के?' मैंने मुस्कराते हुए कहा।
'तीन दिन चार चार घंटा ओवरटैम, बाबूजी!'
'तो बारह घंटे हुए ना..'
'वाह बाबूजी! ओवरटैम को पइसा डबल मिलै त घंटा भये चौबीस, दिना भये तीन, रूपइया भये साठ!'
कैशियर को शायद उसका पढ़ जाना नागवार गुजरा, उसने 'ठीक है..' कहते हुए तीन सौ साठ गिने और गुड्डी ने बड़े ठसके से पे-रोल पर जितना सुन्दर लिख सकती थी 'गुड्डी बाई' लिख दिया।
मैं अपनी सफलता पर खुश था, सुरेश जिसे मेरा ये कदम कतई फालतू लगा था, उसकी आँखों में भी प्रशंसा के भाव थे।
'कमाल है यार! लड़की काबिल है। अभी पंद्रह दिन नहीं हुए कि सही हिसाब लगाने लगी। साफ-साफ लिखने लगी।' वह बोला।
'एक दिन पूरा नहीं हुआ सुरेश! स्कूल के एक दिन में तीन सौ साठ मिनट होते हैं। ये अभी तक ढाई सौ मिनट ही पढ़ी है मुझसे। सोच इसे भी अवसर हमारे बराबर मिलते तब...'
'बात ठीक है, लेकिन मैं फिर भी कहूँगा ये उसका नसीब है। तूने जिद पूरी कर ली, अब तेरा काम खत्म।'
'हाँ, काम तो खत्म ही है! मैं कौन उसे कलक्टर बना रहा हूँ।'
गुड्डी अब मुझसे बहुत अनौपचारिक हो चुकी थी। काम वही था, लेकिन उसका व्यवहार बदल रहा था। काम में कोताही कतई नहीं थी, लेकिन अब वह मुझसे बात करने में सहमती नहीं थी। आम मजदूर सुपरवाइजर से निगाहें मिलाने में कतराते, लेकिन वह मित्रवत समानता का व्यवहार करती। हाँ, इसका एक घाटा मुझे जरूर हुआ कि बाकी मजदूरिनें भी मुझसे अनौपचारिक होने का प्रयास करने लगी थीं। लेकिन मुझे इससे न तब फर्क था, न आज। एक दिन गुड्डी काम पर नहीं आई। जब करीब दो घंटे नहीं आई तो मुझे अजीब सा लगा। मैं दरसराम से पूछने वाला था कि सामने से एक और मजदूरिन आती दिखी। उसका नाम भी मुझे इसलिये याद है कि बड़ा अजीब नाम था - गोल बाई। मैंने गोल बाई से पूछा -
'गुड्डी नहीं आई आज काम पर?'
'नाय बाबू जी!'
'क्यों?'
'काय बाबूजी! जादा फिकर है रई उ की? कभू-जभू हमतेई राम-राम कर लेओ, हमउ राम-राम अच्छी करत हैं।' उसने ऑखों को गोल गोल घुमाते हुए कहा।
'मैंने उसका पूछा है, उसी का बता।' मैं गुस्साया।
'उ त महीना ते भई ऐ..'
'किस से क्या हुई है?'
'अरे का समझाऐं बाबूजी! सादी-मादी ना भई का?'
'सीधा सीधा बोल..'
'बा बीमार है। तीन दिन नईं आवैगी।' वह खी-खी करती हुई चली गई।
मुझे गोलबाई के सारे वाक्य तिलिस्म जैसे लगे। तब तक वाकई मैं स्त्रियोचित शारीरिक लक्षणों से अंजान था। मेरे मन मैं सुरेश के द्वारा बताई गई सारी संभावनाऐं आने लगीं और उस स्थिति में सारे तर्क अशुभ पक्ष में ही जा रहे थे। बीमार है तो उसके माँ-बाप काम पर क्यों हैं? गोलबाई खीखीं क्यों कर रही थी? तीन दिन क्यों नहीं आयेगी? कहीं कोई गड़बड़ तो नहीं? मैंने दरसराम से भी पूछा। उसने भी तबीयत ही खराब बताई। 'क्या खराब है?' के प्रश्न पर वह हड़बड़ा गया। मुझे यकीन हो चला था कि जरूर किसी ठेकेदार या सिक्योरिटी वाले ने कोई गड़बड़ की है। या तो दरसराम कुछ ले मरा या डरा हुआ है। मैं हालाँकि लंच में ही उससे मिलना चाहता था, पर उसके माँ-बाप की मौजूदगी में मिलना मुझे ज्यादा ठीक लगा। शाम को जब मैं दरसराम की झुग्गी में पहुँचा, दरसराम अचरज के साथ बोला -
'बाबू जी, आप?'
'गुड्डी कहाँ है?' मेरी नजरों में अभी भी शक था।
'गुड्डी?'
'वो बीमार है ना?'
'आप गुड्डी खों देखबे आये बाबू जी?'
'क्यों, नहीं आ सकता?'
'नाय बाबूजी कैसे नईं आ सकत, पर हम मजूरन के लानैं इत्तौ कौन सोचै मराज? आप तौ देबता हैं।'
'अंदर नहीं आने दोगे देवता को..' मैं हँसा।
'आऔ मराज, देख गुडडी कौन आयौ तोय देखबे लानैं।' कहता हुआ वह अंदर घुसा, उसके पीछे मैं भी।
इस वक्त गुड्डी चारपाई पर लेटी थी। मुझे वो बीमार तो नहीं लगी, हाँ थकी हुई जरूर लगी थी। लेकिन मुझे देखते ही वो थकावट भी काफूर हो गई थी।
'कैसी है गुड्डी?' मैंने पूछा।
'अच्छी चोखी भली त हूँ।'
'तो काम पर क्यों नहीं आई?'
'बउ नै नईं जान दओ।'
'क्या हुआ इसे दरसराम?' मैंने दरसराम से पूछा
'कछु नईं बाबूजी, हाथ पॉव में दरद है' वह हकबकाया सा इधर उधर देखने लगा
'काका झूठ बोलत, कछु नइयॉ बाबूजी' गुडडी ने विरोध किया
'ठीक ठीक क्यों नहीं बताते, किसी ने कुछ कहा सुना हो, कुछ किया हो तो बताओ। मैं सब देख लूँगा।' मैंने कहा।
वह थोड़ी देर किंकर्तव्य विमूढ़ सा खड़ा रहा, फिर मेरा कंधा पकड़ कर कोने में ले गया। धीमे-धीमे फुसफुसाकर उसने स्त्री शरीर विज्ञान की कुछ महत्वपूर्ण जानकारियॉ मुझे दीं। तब मैंने भी चैन की सॉस ली। गुड़ की चाय पीकर जब मैं वहॉ से निकला तो झुग्गी के बाहर ही गोल बाई ने गोल गोल ऑखें घुमाकर मुझसे राम राम की।
गुडडी तीन दिन बिस्तर में नहीं रही बल्कि अगले ही दिन काम पर आ गई, उस दिन वो मुझे रोजाना से खूबसूरत लगी, शायद उसने उस दिन अपने श्रंगार पर समय और सामान दोनों खर्च किये थे, वह समय से पहले काम पर आई थी, मेरे आने का इंतजार भी उसने किया था और उस दिन मुझे सबसे पहला अभिवादन भी।
'बाबू जी, राम राम!'
'राम राम गुडडी, कैसी है?'
'आपई बताओ बाबूजी कैसी लग रई हूँ?'
'अच्छी,सुंदर लग रही है।'
'सच्ची!'
'हाँ, बाकी दिन से सुंदर लग रही है आज।'
वह अचानक शरमाई और भाग गई, सुरेश मेरे पास आया।
'कल इसके यहॉ गया था?'
'हॉ तबीयत खराब सुनी थी, देखने गया था। तुझे किसने बताया?'
'मदरासी ने..'
'मदरासी? उसे क्या आकाशवाणी हुई?'
'दूरभाष वाणी, मैं तब उसके घर पर था। सिक्योरिटी अफसर का फोन पहुँचा था उसके पास..'
'क्या कह रहा था मदरासी?'
'कुछ खास नहीं! पर कह रहा था झुग्गियों से दूर रहो'
'तूने क्या कहा?'
'हम तो भला चाहते हैं, समझा दिया कि तू समाज सुधारक भी है। पर प्लीज दूर रह यार!'
तभी गुड्डी वहाँ आई।
'बाबूजी!' उसने दूर से बोला। शायद वह सुरेश से डरती थी।
'हाँ, गुड्डी! आजा आजा..' मैंने उसे पास बुलाया। वह आ गई।
'हाँ, बोल..' मैंने सुरेश की ओर देखते हुए कहा।
'बाबूजी! आपको नाम का है?' उसने नीचे देखते हुए कहा।
'क्या चिटठी लिखेगी इसे? काम से काम रख। इसका नाम बाबूजी है बस। भाग यहाँ से बेवकूफ!' सुरेश गुर्राया। वह चली गई।
'तुझे ऐसा नहीं करना था सुरेश!' मैंने कहा।
'तेरे नाम पर धरमशाला बनवायेगी क्या जो नाम चाहिये?'
'न बनवाये, पर उसे मेरा नाम जानने का अधिकार है।'
'क्यों?'
'क्योंकि मैं उसका नाम जानता हूँ।'
'गाबदू! वो इश्क लड़ा रही है।'
'पागल! उसकी उम्र ही क्या है अभी?'
'मैं जानता हूँ इन मजदूरों को! पूरा परिवार एक ही झुग्गी में पलता है। बच्चे बहुत जल्दी जवान होते हैं। तू बच्चा हो सकता है, वो कतई नहीं। मान जा भाई!'
खैर, वही हुआ जैसा सुरेश ने मुझे बताया था। हफता नहीं गुजरा कि दरसराम ने मुझसे शिकायत की कि सिक्योरिटी वालों ने उसकी झुग्गी में घुसने की कोशिश की। मैं सिक्योरिटी ऑफीसर के पास पहुँचा।
'बैठ भाई पंडित! पंडित ही है ना? क्या नाम है तेरा?'
'मेरा नाम सत्येन्द्र शर्मा है। मैं यहाँ सिविल सुपरवाइजर हूँ।'
'पता है भाई! चार-छ: बार तो देखा है तुझे। फिर तू तो हीरो है झुग्गी वालियों का...'
'देखिये सर! सवाल ये नहीं है कि मैं किसका क्या हूँ, सवाल ये है कि आपके गार्ड झुग्गियो में हुड़दंग कर रहे हैं।'
'और तू? तू वहाँ प्रवचन करने जाता है?'
'मेरे वहाँ जाने से किसी को कोई शिकायत नहीं, पर आपके गार्डस की शिकायत मेरे पास है?'
'क्यों भाई? हमारा काम तो चैक करना है, करते हैं।'
'झुग्गियाँ कम्पनी के गेट के बाहर हैं। कंपनी के बाहर आप किसी को भी चैक नहीं कर सकते।'
'तो भाई! जगह तो कंपनी की है।'
'जगह को कोई उठा के नहीं ले जा रहा। फिर वहाँ रहना उन्हें कंपनी ने परमिट किया है।'
'कंपनी से माल चुरा कर झुग्गी में जमा किया हो तो?'
'तो आपकी सिक्योरिटी फेल, सारे गार्ड कामचोर, औरतखोर! जिसे भी चेक करना हो मजदूरों के गेट से निकलते वक्त चैक करे। कंपनी के बाहर उनकी झुग्गी में कुछ भी है, उनका है।'
'तुझे तो वकील होना चाहिये, क्या चोरों की वकालत कर रहा है!!'
'हाँ, डकैतों के सामने।'
'पिट जाएगा छोरे! अभी अपने लौडों को बोल दिया तो हड्डी न मिलेगी!'
'बोल के देख लो.. वैसे आपसे बड़े लोग हैं कंपनी में और बाहर भी।'
'हो गया? जो बने सो कर ले, मेरे गार्ड जो चाहेंगे करेंगे। अभी तो जाके अपने मदरासी से मिल ले। थ्रू प्रापर चैनल वही है ना, जा।'
मैं चला आया। इससे पहले कि मैं मदरासी के पास जाता, उसने मुझे खुद ही बुला भेजा।
'सत्या! तेरे किलाप सिक्योरिटी वाला कंपलेन खिया। तेरी साइट का लेबर टेकेदार का साइट पे खाम खरती। टेकेदार कंपलेन खिया कि थू उसका लेबर खी जुग्गी में जाती। टेकेदार से खमीशन माँगती।'
'इसमें से आपको कुछ भी नहीं पता?'
'मेरे जानने से ख्या मीनिंग.. थू जानती, अपना अपना नौकरी यार! थू ख्यों पंगा लेती?'
'पंगा क्यों न लूँ? मेरे मजदूर, मेरे बच्चे की तरह हैं। आप अपने बच्चे को मुसीबत में छोड़ सकते हैं क्या?'
'लेबर लेबर, बच्चा बच्चा सत्या!, थेरा डेफीनेशन ओल्ड होती..'
'होने को हिन्दुओं का राम, मुसलमानों का मुहम्मद और आपका जीसस भी बहुत ओल्ड है; फिर इसे गले में लटकाने का क्या मतलब?'
'मईं आर्ग्यूमेन्ट नईं करथी, यू हैव थ्री ऑप्शन्स..'
'एक ऑप्शन रिजाइन है ना? मैं लिखता हूँ।'
मैंने इस्तीफा लिख दिया, हालाँकि प्राइवेट नौकरी में इस्तीफे का खास मतलब नहीं। हाँ, हिसाब के लिये जरूरी होता है। लेकिन उसके बाद मैंने बहुत हल्का महसूस किया। मुझे उस वक्त लगा कि अब मैं शोषण का हिस्सा नहीं था। मुझे गुड्डी की हाजिरी, उसकी सेहत, उसकी बेचारगी किसी की फिक्र नहीं करना थी। मैं गुड्डी और सुरेश से मिलने साइट पर पहुँचा।
'इस्तीफा दे दिया?' सुरेश बोला।
'हाँ, तुझे कैसे पता?'
'मालिक के मामा से लड़कर और क्या होना था। पर चल तुझे एक चीज दिखाता हूँ।'
'क्या?'
'चल तो सही..'
वह मुझे खींच कर पिछवाड़े ले गया और दीवार की ओर इशारा करके बोला -
'देख!'
मैंने देखा दीवार पर साढ़े पाँच फुट की ऊँचाई तक एक ही शब्द पचासियों बार लिखा था - 'बाबूजी'
'ये बाबू जी लिखा है।'
'हाँ, मगर सोच किसने लिखा है और क्यों लिखा है?'
मुझे याद आ गया गुड्डी का वह सवाल - 'आपका नाम क्या है बाबूजी?'
'मतलब...!!!'
'हाँ!'
मैं हालाँकि गुड्डी से भी मिलना चाहता था, पर इस शब्द को पढ़ने के बाद मैंने उससे मिलने का इरादा बदल दिया। इसलिये नहीं कि वो मेरे लायक नहीं थी या मैं उसकी हिमाकत पर गुस्सा था या मैं उसे पसंद नहीं करता था बल्कि इसलिये कि बड़ी मुश्किल से पैदा होने वाली उस भावना का जो किसी कुँवारी लड़की को दीवार पर एक ही शब्द पचासियों बार लिखने पर मजबूर कर दे, वध मेरी हिम्मत के बाहर था। इसके अलावा मैं किसी के सपने देखने के अधिकार को भी नहीं छीन सकता था। इस लिये उस शब्द 'बाबूजी' को जितनी बार लिखा गया था उतनी बार पढ़ता हुआ उल्टे पाँव चोरों की तरह पिछले गेट से बाहर निकल आया।
कहते हुए सत्येन्द्र की आवाज में नमी सी आ गई। थोड़ी देर बाद राजसिंह ने चुप्पी को तोड़ा -
'फिर आपने पता नहीं किया सत्य भाई! कि गुडडी के साथ क्या हुआ?'
'नहीं!'
'क्यों? वो तो आपसे प्रेम करती थी। आपको खबर तो लेनी चाहिये थी..'
'हाँ, लेकिन खबर न लेने से एक फायदा था कि उसकी सलामती का भ्रम आज तक जिन्दा बना रहा। पता करने पर कुछ अनिष्ट का पता चलता तब? और संभावना अनिष्ट की ही ज्यादा थी..'
'क्या ये पलायन नहीं?'
'है। तभी मैंने दफतर की नौकरी चुनी राज! फील्ड में हर कदम पर एक गुड्डी खड़ी है। शायद पलायन का अपराध बोध है कि मैं बीस साल बाद भी स्त्री स्वर में बाबूजी सुनता हूँ, तो चौंक जाता हूँ। निरीह गुड्डी मेरे सामने आकर खड़ी हो जाती है, मानो कह रही हो – ‘तुम तो मुझसे भी बेचारे निकले बाबूजी!'
कहते हुए सत्येन्द्र ने चश्मा उतारा और धीमे से बोला -
'जरा अपनी पानी की बोतल देना राज!'
8 टिप्पणियाँ
बहुत अच्छी कहानी है।
जवाब देंहटाएंकथानक पुराना है लेकिन उसका ट्रीटमेंट नया है।
कहानी का अंत प्रसंशनीय है।
जवाब देंहटाएंकहानी में सत्येन्द्र एसा नायक बन कर उभरा है जिसकी सोच की वर्तमान को आवश्यकता है। कहानी थोडी लम्बी है।
जवाब देंहटाएंशक्ति प्रकाश जी! आपका कहानी कहने का अंदाज़ रोचक है जो पाठक को बाँधे रखता है। यद्यपि कहानी कुछ लंबी हो गई है (विशेषकर अंतर्जाल जैसे माध्यम के लिये) परंतु उसकी रोचकता अंत तक बरकरार है। कहानी वर्तमान समाज के कुछ ऐसे पहलू भी सामने लाती है जो सोचने को बाध्य करते हैं।
जवाब देंहटाएंसाहित्य शिल्पी पर आपकी पिछली रचनाएं भी पढ़ीं थी। सभी अच्छी लगीं।
आभार एक अच्छी कहानी के लिये!
BHAI WAH CHHATTIS PAGE KA LOVE LETTER AUR I LOVE YOU HAI HI NAHI
जवाब देंहटाएंbahut achchhi kahani hai .pathak ko ant tak bandhne me safl hai
जवाब देंहटाएंbadhai
rachana
A very sensible description of reality. I am not sure when we there would be enough Satyender among us to make the difference.
जवाब देंहटाएंThanks for sensitizing us.
-Sanjoy
Aap sabhi ko dhanyavad, web magzine ke lihaj se kuchh lambi kahani jaroor thi ya is madhyam par pathak main dhairua ki kami bhi hoti hai, khair aap sabhi ka dhairya kabile tarif raha. Benami tippani se pata nahi chala ki vo tarif thi ya aisi taisi, kahani ko love letter kahna kuchh achchha nahi laga, baharhal aap kahane ke liye azad hain, banda likhne ke liye.
जवाब देंहटाएंThanks again
Shakti
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